ब्रह्माजी के १०८ तीर्थनाम
ब्रह्माजी के १०८ तीर्थनाम- भगवान् रुद्र
ने ब्रह्माजी से पूछा- 'नाथ ! आप किन-किन
तीर्थस्थानों में विराजमान है तथा इस पृथ्वी पर आपके स्थान किस-किस नाम से प्रसिद्ध
हैं?'
ब्रह्माजी के १०८ तीर्थनाम
ब्रह्मोवाच
पुष्करेहं सुरश्रेष्ठो गयायां च
चतुर्मुखः ।
कान्यकुब्जे देवगर्भो भृगुकक्षे
पितामहः ।।१ ।।
कावेर्य्यां सृष्टिकर्ता च
नंदिपुर्य्यां बृहस्पतिः ।
प्रभासे पद्मजन्मा च वानर्यां च
सुरप्रियः ।।२ ।।
द्वारवत्यां तु ऋग्वेदी वैदिशे
भुवनाधिपः ।
पौंड्रके पुंडरीकाक्षः पिंगाक्षो
हस्तिनापुरे ।।३ ।।
जयंत्यां विजयश्चास्मि जयंतः
पुष्करावते ।
उग्रेषु पद्महस्तोहं तमोनद्यां
तमोनुदः ।।४ ।।
अहिच्छन्ने जया नंदी कांचीपुर्यां
जनप्रियः ।
ब्रह्माहं पाटलीपुत्रे ऋषिकुंडे
मुनिस्तथा ।।५ ।।
महितारे मुकुंदश्च श्रीकंठः
श्रीनिवासिते ।
कामरूपे शुभाकारो वाराणस्यां
शिवप्रियः ।।६ ।।
मल्लिकाक्षे तथा विष्णुर्महेंद्रे
भार्गवस्तथा ।
गोनर्दे स्थविराकार उज्जयिन्यां
पितामहः ।।७ ।।
कौशांब्यां तु महाबोधिरयोध्यायां च
राघवः ।
मुंनींद्रश्चित्रकूटे तु वाराहो
विंध्यपर्वते ।।८ ।।
गंगाद्वारे परमेष्ठी हिमवत्यपि
शंकरः ।
देविकायां स्रुचाहस्तः स्रुवहस्तश्चतुर्वटे
।।९ ।।
वृंदावने पद्मपाणिः कुशहस्तश्च
नैमिषे ।
गोप्लक्षे चैव गोपीन्द्रः सचंद्रो
यमुनातटे ।।१० ।।
भागीरथ्यां पद्मतनुर्जलानंदो जलंधरे
।
कौंकणे चैव मद्राक्षः कांपिल्ये
कनकप्रियः ।।११ ।।
वेंकटे चान्नदाता च शंभुश्चैव
क्रतुस्थले ।
लंकायां च पुलस्त्योहं काश्मीरे
हंसवाहनः ।।१२ ।।
वसिष्ठश्चार्बुदे चैव
नारदश्चोत्पलावते ।
मेलके श्रुतिदाताहं प्रपाते
यादसांपतिः ।।१३ ।।
सामवेदस्तथा यज्ञे मधुरे मधुरप्रियः
।
अंकोटे यज्ञभोक्ता च ब्रह्मवादे
सुरप्रियः।।१४ ।।
नारायणश्च गोमंते मायापुर्यां
द्विजप्रियः।
ऋषिवेदे दुराधर्षो देवायां
सुरमर्दनः।।१५ ।।
विजयायां महारूपः स्वरूपो
राष्ट्रवर्द्धने ।
पृथूदरस्तु मालव्यां शाकंभर्यां
रसप्रियः।।१६ ।।
पिंडारके तु गोपालः
शंखोद्धारेंगवर्द्धनः।
कादंबके प्रजाध्यक्षो देवाध्यक्षः
समस्थले।।१७ ।।
गंगाधरो भद्रपीठे जलशाप्यहमर्बुदे ।
त्र्यंबके त्रिपुराधीशः श्रीपर्वते
त्रिलोचनः।।१८ ।।
महादेवः पद्मपुरे कापाले वैधसस्तथा ।
शृंगिबेरपुरे शौरिर्नैमिषे
चक्रपाणिकः।।१९ ।।
दंडपुर्यां विरूपाक्षो गौतमो
धूतपापके ।
हंसनाथो माल्यवति द्विजेंद्रो वलिके
तथा ।।२० ।।
इंद्रपुर्यां देवनाथो द्यूतपायां
पुरंदरः।
हंसवाहस्तु लंबायां चंडायां
गरुडप्रियः।।२१ ।।
महोदये महायज्ञः सुयज्ञो यज्ञकेतने ।
सिद्धिस्मरे पद्मवर्णः विभायां
पद्मबोधनः।।२२ ।।
देवदारुवने लिंगं महापत्तौ विनायकः।
त्र्यंबको मातृकास्थाने अलकायां
कुलाधिपः।।२३ ।।
त्रिकूटे चैव गोनर्दः पाताले
वासुकिस्तथा ।
पद्माध्यक्षश्च केदारे कूष्मांडे
सुरतप्रियः।।२४ ।।
कुंडवाप्यां शुभांगस्तु सारण्यां
तक्षकस्तथा ।
अक्षोटे पापहा चैव अंबिकायां
सुदर्शनः।।२५ ।।
वरदायां महावीरः कांतारे दुर्गनाशनः।
अनंतश्चैव पर्णाटे प्रकाशायां
दिवाकरः।।२६ ।।
विराजायां पद्मनाभः स्वरुद्रश्च
वृकस्थले ।
मार्कंडो वटके चैव वाहिन्यां
मृगकेतनः।।२७ ।।
पद्मावत्यां पद्मगृहो गगने
पद्मकेतनः।
अष्टोत्तरं स्थानशतं मया ते
परिकीर्तितम् ।।२८ ।।
ब्रह्माजी के १०८ तीर्थनाम फलश्रुति
यत्र वै मम सांनिध्यं त्रिसंध्यं
त्रिपुरांतक ।
एतेषामपि यस्त्वेकं पश्यते
भक्तिमान्नरः।।२९ ।।
स्थानं सुविरजं लब्ध्वा मोदते
शाश्वतीः समाः।
मानसं वाचिकं चैव कायिकं यच्च
दुष्कृतम् ।।३० ।।
तत्सर्वं नाशमायाति नात्र कार्या
विचारणा ।
यस्त्वेतानि च सर्वाणि गत्वा मां
पश्यते नरः।।३१ ।।
भवते मोक्षभागी च यत्राहं तत्र वै
स्थितः ।।३२ ।।
ब्रह्माजी के १०८ तीर्थनाम भावार्थ सहित
ब्रह्माजीने कहा-पुष्कर में मैं
देवश्रेष्ठ ब्रह्माजी के नाम से प्रसिद्ध हूँ। गया में मेरा नाम चतुर्मुख है।
कान्यकुब्ज में देवगर्भ [या वेदगर्भ] और भृगुकक्ष (भृगुक्षेत्र) में पितामह कहलाता
हूँ। कावेरी के तट पर सृष्टिकर्ता, नन्दीपुरी
में बृहस्पति, प्रभास में पद्मजन्मा, वानरी
(किष्किन्धा) में सुरप्रिय, द्वारका में ऋग्वेद, विदिशापुरी में भुवनाधिप, पौण्डूक में पुण्डरीकाक्ष,
हस्तिनापुर में पिङ्गाक्ष, जयन्ती में विजय,
पुष्करावत में जयन्त, उपदेश में पद्महस्त,
श्यामलापुरी में भवोरुद, अहिच्छत्र में
जयानन्द, कान्तिपुरी में जनप्रिय, पाटलिपुत्र
(पटना) में ब्रह्मा, ऋषिकुण्ड में मुनि, महिलारोप्य में कुमुद, श्रीनिवास में श्रीकंठ,
कामरूप (आसाम) में शुभाकार, काशी में शिवप्रिय,
मल्लिका विष्णु, महेन्द्र पर्वत पर भार्गव,
गोनर्द देश में स्थविराकार, उज्जैन में पितामह,
कौशाम्बी में महाबोध, अयोध्या में राघव,
चित्रकूट में मुनीन्द्र, विन्ध्यपर्वत पर
वाराह, गङ्गाद्वार (हरिद्वार) में परमेष्ठी, हिमालय में शङ्कर, देविका में स्रुचाहस्त, चतुष्पथ में सुवहस्त, वृन्दावन में पद्मपाणि,
नैमिषारण्य में कुशहस्त, गोप्लक्ष गोपीन्द्र,
यमुनातट पर सुचन्द्र, भागीरथी के तट पर
पद्यतनु, जनस्थान में जनानन्द, कोकण
देश में मद्राक्ष, काम्पिल्य में कनकप्रिय, खेटक में अन्नदाता, कुशस्थल में शम्भु, लङ्का में पुलस्त्य, काश्मीर में हंसवाहन, अर्बुद (आबू) में वसिष्ठ, उत्पलावत में नारद,
मेधक में श्रुतिदाता, प्रयाग में यजुर्षापति,
यज्ञपर्वत पर सामवेद, मधुर में मधुरप्रिय,
अकोलक में यज्ञगर्भ, ब्रह्मवाह में सुतप्रिय,
गोमन्त में नारायण, विदर्भ (बरार) में
द्विजप्रिय, ऋषिवेद में दुराधर्ष, पम्पापुरी
में सुरमर्दन, विरजा में महारूप, राष्ट्रवर्द्धन
में सुरूप, मालवी में पृथूदर, शाकम्भरी
में रसप्रिय, पिण्डारक क्षेत्र में गोपाल, भोगवर्द्धन में शुष्कन्ध, कादम्बक में प्रजाध्यक्ष,
समस्थल में देवाध्यक्ष, भद्रपीठ में गङ्गाधर,
सुपीठ में जलमाली, त्र्यम्बक में त्रिपुराधीश,
श्रीपर्वत पर त्रिलोचन, पद्मपुर में महादेव,
कलाप में वैधस, श्रृङ्गवेरपुर में शौरि,
नैमिषारण्य में चक्रपाणि, दण्डपुरी में
विरूपाक्ष, धूतपातक में गोतम, माल्यवान्
पर्वत पर हंसनाथ, वालिक में द्विजेन्द्र, इन्द्रपुरी (अमरावती) में देवनाथ, धूताषाढी में
धुरन्धर, लम्बा में हंसवाह, चण्डा में
गरुडप्रिय, महोदय में महायज्ञ, यूपकेतन
में सुयज्ञ, पद्मवन में सिद्धेश्वर, विभा
में पद्मबोधन, देवदारुवन में लिङ्ग, उदक्पथ
में उमापति, मातृस्थान में विनायक, अलकापुरी
में धनाधिप, त्रिकूट में गोनर्द, पाताल
में वासुकि, केदारक्षेत्र में पद्याध्यक्ष, कूष्माण्ड में सुरतप्रिय, भूतवापी में शुभाङ्ग,
सावली में भषक, अक्षर में पापहा, अम्बिका में सुदर्शन, वरदा में महावीर, कान्तार में दुर्गनाशन, पर्णाद में अनन्त, प्रकाशा में दिवाकर, विरजा में पद्मनाभ, वृकस्थल में सुवृद्ध, वठक में मार्कण्ड, रोहिणी में नागकेतन, पद्यावती में पद्यागृह तथा गगन में
पद्मकेतन नाम से मैं प्रसिद्ध हूँ।
त्रिपुरान्तक ! ये एक सौ आठ स्थान
मैंने तुम्हें बताये हैं। इन स्थानों में तीनों सन्ध्याओं के समय मैं उपस्थित रहता
हूँ। जो भक्तिमान् पुरुष इन स्थानों में से एक का भी दर्शन कर लेता है,
वह परलोक में निर्मल स्थान पाकर अनन्त वर्षों तक आनन्द का अनुभव
करता है। उसके मन, वाणी और शरीर के सभी पाप नष्ट हो जाते
हैं-इसमें तनिक भी अन्यथा विचार करने की आवश्यकता नहीं है और जो इन सभी तीर्थो की
यात्रा करता है वह मोक्ष का अधिकारी होता है।
इति श्रीपाद्मपुराणे प्रथमे सृष्टिखंडे ब्रह्मा १०८ तीर्थनाम नाम चतुस्त्रिंशत्तमोऽध्यायः।। ३४ ।।
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