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- षोडशी कवच
- मातङ्गी शतनाम स्तोत्र
- शीतला कवच
- मातङ्गी सहस्रनाम स्तोत्र
- मातङ्गीसुमुखीकवच
- मातङ्गी कवच
- मन्त्रमहोदधि तरङ्ग ७
- मातङ्गी हृदय स्तोत्र
- वाराही कवच
- शीतलाष्टक
- श्री शीतला चालीसा
- छिन्नमस्ताष्टोत्तरशतनामस्तोत्र
- धूमावती अष्टोत्तर शतनाम स्तोत्र
- छिन्नमस्ता स्तोत्र
- धूमावती सहस्रनाम स्तोत्र
- छिन्नमस्ता सहस्रनाम स्तोत्र
- धूमावती अष्टक स्तोत्र
- छिन्नमस्ता हृदय स्तोत्र
- धूमावती कवच
- धूमावती हृदय स्तोत्र
- छिन्नमस्ता स्तोत्र
- मन्त्रमहोदधि तरङ्ग ६
- नारदसंहिता अध्याय ११
- छिन्नमस्ता कवच
- श्रीनायिका कवचम्
- मन्त्रमहोदधि पञ्चम तरङ्ग
- नारदसंहिता अध्याय १०
- नारदसंहिता अध्याय ९
- नारदसंहिता अध्याय ८
- नारदसंहिता अध्याय ७
- नारदसंहिता अध्याय ६
- नारदसंहिता अध्याय ५
- मन्त्रमहोदधि चतुर्थ तरङ्ग
- मन्त्रमहोदधि तृतीय तरङ्ग
- मन्त्रमहोदधि द्वितीय तरङ्ग
- मन्त्रमहोदधि - प्रथम तरड्ग
- द्वादशलिङगतोभद्रमण्डलदेवता
- ग्रहलाघव त्रिप्रश्नाधिकार
- ग्रहलाघव पञ्चतारास्पष्टीकरणाधिकार
- ग्रहलाघव - रविचन्द्रस्पष्टीकरण पञ्चाङ्गानयनाधिकार
- नारदसंहिता अध्याय ४
- नारदसंहिता अध्याय ३
- ग्रहलाघव
- नारद संहिता अध्याय २
- नारद संहिता अध्याय १
- सवितृ सूक्त
- शिवाष्टकम्
- सामनस्य सूक्त
- ब्रह्मा स्तुति श्रीरामकृत
- श्रीरामेश्वरम स्तुति
- ब्रह्माजी के १०८ तीर्थनाम
- ब्रह्मा स्तुति
- शिव स्तुति श्रीरामकृत
- चामुण्डा स्तोत्र
- त्रिप्रकार स्तुति
- महादेव स्तुति तण्डिकृत
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- तण्डिकृत शिवसहस्रनाम
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- शिवमहापुराण – रुद्रसंहिता सृष्टिखण्ड – अध्याय 19
- शिवमहापुराण – रुद्रसंहिता सृष्टिखण्ड – अध्याय 18
- सरस्वती स्तोत्र
- नील सरस्वती स्तोत्र
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अगहन बृहस्पति व्रत व कथा
मार्तण्ड भैरव स्तोत्रम्
सामनस्य सूक्त
अथर्ववेद काण्ड ३ सूक्त ३० के मन्त्र
१-७ को सामनस्य सूक्त कहते हैं जिसमे परस्पर मेल का उपदेश है ।
सामनस्य सूक्तम्
देवता: चन्द्रमाः,
सांमनस्यम् ऋषि: अथर्वा छन्द: अनुष्टुप् स्वर: सांमनस्य सूक्त
सहृ॑दयं सांमन॒स्यमवि॑द्वेषं कृणोमि
वः। अ॒न्यो अ॒न्यम॒भि ह॑र्यत व॒त्सं जा॒तमि॑वा॒घ्न्या ॥
पद पाठ
सऽहृदयम् । साम्ऽमनस्यम् ।
अविऽद्वेषम् । कृणोमि । व: । अन्य: । अन्यम् । अभि । हर्यत । वत्सम् । जातम्ऽइव ।
अघ्न्या ॥३०.१॥
पदार्थान्वयभाषाः -(सहृदयम्)
एकहृदयता,
(सांमनस्यम्) एकमनता और (अविद्वेषम्) निर्वैरता (वः) तुम्हारे लिये
(कृणोमि) मैं करता हूँ। (अन्यो अन्यम्) एक दूसरे को (अभि) सब ओर से (हर्यत) तुम
प्रीति से चाहो (अघ्न्या इव) जैसे न मारने योग्य, गौ (जातम्)
उत्पन्न हुए (वत्सम्) बछड़े को [प्यार करती है] ॥१॥
भावार्थभाषाः -ईश्वर उपदेश करता है,
सब मनुष्य वेदानुगामी होकर सत्य ग्रहण करके एकमतता करें और आपा
छोड़कर सच्चे प्रेम से एक दूसरे को सुधारें, जैसे गौ आपा
छोड़कर तद्रूप होकर पूर्ण प्रीति से उत्पन्न हुए बच्चे को जीभ से चाटकर शुद्ध करती
और खड़ा करके दूध पिलाती और पुष्ट करती है ॥१॥
देवता: चन्द्रमा,
सांमनस्यम् ऋषि: अथर्वा छन्द: अनुष्टुप् स्वर: सांमनस्य सूक्त
अनु॑व्रतः पि॒तुः पु॒त्रो मा॒त्रा
भ॑वतु॒ संम॑नाः। जा॒या पत्ये॒ मधु॑मतीं॒ वाचं॑ वदतु शन्ति॒वाम् ॥
पद पाठ
अनुऽव्रत: । पितु: । पुत्र । मात्रा
। भवतु । सम्ऽमना: । जाया । पत्ये । मधुऽमतीम् । वाचम् । वदतु । शन्तिऽवाम् ॥३०.२॥
अथर्ववेद »
काण्ड:3» सूक्त:30» पर्यायः:0»
मन्त्र:2 उपलब्ध भाष्य
पदार्थान्वयभाषाः -(पुत्रः) कुलशोधक
पवित्र,
बहुरक्षक वा नरक से बचानेवाला पुत्र [सन्तान] (पितुः) पिता के
(अनुव्रतः) अनुकूल व्रती होकर (मात्रा) माता के साथ (संमनाः) एक मनवाला (भवतु)
होवे। (जाया) पत्नी (पत्ये) पति से (मधुमतीम्) जैसे मधु में सनी और (शन्तिवाम्)
शान्ति से भरी (वाचम्) वाणी (वदतु) बोले ॥२॥
भावार्थभाषाः -सन्तान माता पिता के
आज्ञाकारी, और माता पिता सन्तानों के
हितकारी, पत्नी और पति आपस में मधुरभाषी तथा सुखदायी हों।
यही वैदिक कर्म आनन्दमूल है। मन्त्र १ देखो ॥२॥
देवता: चन्द्रमाः,
सांमनस्यम् ऋषि: अथर्वा छन्द: अनुष्टुप् स्वर: सांमनस्य सूक्त
मा भ्राता॒ भ्रात॑रं द्विक्ष॒न्मा
स्वसा॑रमु॒त स्वसा॑। स॒म्यञ्चः॒ सव्र॑ता भू॒त्वा वाचं॑ वदत भ॒द्रया॑ ॥
पद पाठ
मा । भ्राता । भ्रातरम् । द्विक्षत्
। मा । स्वसारम् । उत । स्वसा । सम्यञ्च: । सऽव्रता: । भूत्वा । वाचम् । वदत ।
भद्रया ॥३०.३॥
पदार्थान्वयभाषाः -(भ्राता) भ्राता
(भ्रातरम्) भ्राता से (मा द्विक्षत्) द्वेष न करे (उत) और (स्वसा) बहिन (स्वसारम्)
बहिन से भी (मा) नहीं। (सम्यञ्चः) एक मत वाले और (सव्रताः) एकव्रती (भूत्वा) होकर
(भद्रया) कल्याणी रीति से (वाचम्) वाणी (वदत) बोलो ॥३॥
भावार्थभाषाः -भाई-भाई,
बहिन-बहिन और सब कुटुम्बी नियमपूर्वक मेल से वैदिक रीति पर चलकर सुख
भोगें ॥३॥
देवता: चन्द्रमाः, सांमनस्यम् ऋषि: अथर्वा छन्द: अनुष्टुप् स्वर: सांमनस्य सूक्त
येन॑ दे॒वा न वि॒यन्ति॒ नो च॑
विद्वि॒षते॑ मि॒थः। तत्कृ॑ण्मो॒ ब्रह्म॑ वो गृ॒हे सं॒ज्ञानं॒ पुरु॑षेभ्यः ॥
पद पाठ
येन । देवा: । न । विऽयन्ति । नो
इति । च । विऽद्विषते । मिथ: । तत् । कृण्म: । ब्रह्म । व: । गृहे । सम्ऽज्ञानम् ।
पुरुषेभ्य: ॥३०.४॥
पदार्थान्वयभाषाः -(येन) जिस [वेद
पथ] से (देवाः) विजय चाहनेवाले पुरुष (न) नहीं (वियन्ति) विरुद्ध चलते हैं (च) और
(नो) न कभी (मिथः) आपस में (विद्विषते) विद्वेष करते हैं। (तत्) उस (ब्रह्म) वेद
पथ को (वः) तुम्हारे (गृहे) घर में (पुरुषेभ्यः) सब पुरुषों के लिये (संज्ञानम्)
ठीक-ठीक ज्ञान का कारण (कृण्मः) हम करते हैं ॥४॥
भावार्थभाषाः -सार्वभौम हितकारी
वेदमार्ग पर चलकर घर के सब लोग आनन्द भोगें ॥४॥
देवता: चन्द्रमाः, सांमनस्यम् ऋषि: अथर्वा छन्द: विराड्जगती स्वर: सांमनस्य सूक्त
ज्याय॑स्वन्तश्चि॒त्तिनो॒ मा वि
यौ॑ष्ट संरा॒धय॑न्तः॒ सधु॑रा॒श्चर॑न्तः। अ॒न्यो अ॒न्यस्मै॑ व॒ल्गु वद॑न्त॒ एत॑
सध्री॒चीना॑न्वः॒ संम॑नसस्कृणोमि ॥
पद पाठ
ज्यायस्वन्त: । चित्तिन: । मा । वि
। यौष्ट । सम्ऽराधयन्त: । सऽधुरा: । चरन्त: । अन्य: । अन्यस्मै । वल्गु । वदन्त: ।
आ । इत । सध्रीचीनान् । व: । सम्ऽमनस: । कृणोमि ॥३०.५॥
पदार्थान्वयभाषाः -(ज्यायस्वन्तः)
बड़ों का मान रखनेवाले (चित्तिनः) उत्तम चित्तवाले, (संराधयन्तः) समृद्धि [धन धान्य की वृद्धि] करते हुए और (सधुराः) एक धुरा
होकर (चरन्तः) चलते हुए तुम लोग (मा वि यौष्ट) अलग-अलग न होओ, और (अन्यो अन्यस्मै) एक दूसरे से (वल्गु) मनोहर (वदन्तः) बोलते हुए (एत)
आओ। (वः) तुमको (सध्रीचीनान्) साथ-साथ गति [उद्योग वा विज्ञान] वाले और (संमनसः)
एक मनवाले (कृणोमि) मैं करता हूँ ॥५॥
भावार्थभाषाः -वेदानुयायी मनुष्य
विद्यावृद्ध, धनवृद्ध, आयुवृद्धों
का आदर करके उत्तम गुणों की प्राप्ति, और मिलकर उद्योग से,
धन धान्य राज आदि बढ़ाते और आनन्द भोगते हैं ॥५॥
देवता: चन्द्रमाः, सांमनस्यम् ऋषि: अथर्वा छन्द: प्रस्तारपङ्क्तिः स्वर: सांमनस्य सूक्त
स॑मा॒नी प्र॒पा स॒ह वो॑ऽन्नभा॒गः
स॑मा॒ने योक्त्रे॑ स॒ह वो॑ युनज्मि। स॒म्यञ्चो॒ऽग्निं स॑पर्यता॒रा नाभि॑मिवा॒भितः॑
॥
पद पाठ
समानी । प्रऽपा । सह । व: ।
अन्नऽभाग: । समाने । योक्त्रे । सह । व: । युनज्मि । सम्यञ्च: । अग्निम् । सपर्यत
। अरा: । नाभिम्ऽइव । अभित: ॥३०.६॥
पदार्थान्वयभाषाः -(वः) तुम्हारी (प्रपा)
जलशाला (समानी) एक हो, और (अन्नभागः) अन्न
का भाग (सह) साथ-साथ हो, (समाने) एक ही [योक्त्रे] जोते में
(वः) तुमको (सह) साथ-साथ (युनज्मि) मैं जोड़ता हूँ। (सम्यञ्चः) मिलकर गति [उद्योग
वा ज्ञान] रखनेवाले तुम (अग्निम्) अग्नि [ईश्वर वा भौतिक अग्नि] को (सपर्यत) पूजो
(इव) जैसे (अराः) अरा [पहिये के दंडे] (नाभिम्) नाभि [पहिये के बीचवाले काठ] में
(अभितः) चारों ओर से [सटे होते हैं] ॥६॥
भावार्थभाषाः -जैसे अरे एक नाभि में
सटकर पहिये को रथ का बोझ सुगमता से ले चलने योग्य करते हैं,
ऐसे ही मनुष्य एक वेदानुकूल धार्मिक रीति पर चलकर अपना खान-पान
मिलकर करें, मिलकर रहें और मिलकर ही (अग्नि) को पूजें
अर्थात् १-परमेश्वर की उपासना करें, २-शारीरिक अग्नि को,
जो जीवन और वीरपन का चिह्न है, स्थिर रक्खें,
३-हवन करके जलवायु शुद्ध रक्खें और ४-शिल्पव्यवहार में प्रयोग करके
उपकार करें और सुख से रहें ॥६॥
देवता: चन्द्रमाः,
सांमनस्यम् ऋषि: अथर्वा छन्द: त्रिष्टुप् स्वर: सांमनस्य सूक्त
स॑ध्री॒चीना॑न्वः॒
संम॑नसस्कृणो॒म्येक॑श्नुष्टीन्त्सं॒वन॑नेन॒ सर्वा॑न्। दे॒वा इ॑वा॒मृतं॒ रक्ष॑माणाः
सा॒यंप्रा॑तः सौमन॒सो वो॑ अस्तु ॥
पद पाठ
सध्रीचीनान् । व: । सम्ऽमनस: ।
कृणोमि । एकऽश्नुष्टीन् । सम्ऽवननेन । सर्वान् । देवा:ऽइव । अमृतम् । रक्षमाणा: ।
सायम्ऽप्रात: । सौमनस: । व: । अस्तु ॥३०.७॥
पदार्थान्वयभाषाः -(संवननेन) यथावत्
सेवन वा व्यापार से (वः सर्वान्) तुम सबको (सध्रीचीनान्) साथ-साथ गति [उद्योग वा
ज्ञान] वाले, (संमनसः) एक मन वाले और
(एकश्नुष्टीन्) एक भोजनवाले (कृणोमि) मैं करता हूँ। (देवाः इव) विजय चाहनेवाले
पुरुषों के समान (अमृतम्) अमरपन [जीवन की सफलता] को (रक्षमाणाः) रखते हुए तुम [बने
रहो] (सायं प्रातः) सायंकाल और प्रातःकाल में (सौमनसः) चित्त की प्रसन्नता (वः) तुम्हारे
लिये (अस्तु) होवे ॥७॥
भावार्थभाषाः -देव पुरुषार्थी विजयी
पुरुष मिलकर मृत्यु के कारण आलस्य आदि छोड़ने से अमर अर्थात् यशस्वी होते हैं। इसी
प्रकार सब मनुष्य आपस में मिलकर उद्योग करके सुखी रहें और सायं प्रातः दो काल
परमेश्वर की आराधना करके चित्त प्रसन्न करें ॥७॥
इति: सामनस्य सूक्त॥
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