नारदसंहिता अध्याय ४

नारदसंहिता अध्याय ४

नारदसंहिता अध्याय ४ में तिथि लक्षण का वर्णन किया गया है।   

नारदसंहिता अध्याय ४

नारदसंहिता अध्याय- ४

वह्निविरिंचिगिरिजागणेशः फणी विशाखो दिनकृन्महेशः ।

दुर्गान्तको विष्णुहरी स्मरश्चसर्वः शशी चेतिपुराणहृष्टः॥१॥

अथ प्रतिपदा आदि तिथियों के स्वामी अग्नि १ ब्रह्मा २ गौरी ३ गणेश ४ सर्प ५ स्कंद ६ सूर्य ७ शिव ८ दुर्गा ९ यम १० विश्वेदेवा १ हरि १२ कामदेव १३ शिव १४ चंद्रमा १५ ये प्रतिपदा आदि पूर्णिमा तक तिथियों के स्वामी हैं ।। १ । ।

अमाया पितरः प्रोक्तास्तिथीनामधिपाः क्रमात् ॥ २॥

अमावस्या के स्वामी पितर हैं ऐसे तिथियों के स्वामी यथाक्रम जानने चाहियें ।। २ ।।

 

                                                      तिथियों के स्वामी

तिथि

 १

१०

११

१२

१३

१४

१५

३०

स्वामी

अग्नि

ब्रह्मा

गौरी

गणेश

सर्प

स्कंद

सूर्य

शिव

दुर्गा

यम

विश्वेदेवा

हरि

कामदेव

शिव

चंद्रमा

पितर

 तिथीनामपराः संज्ञाः कथ्यन्ते ता यथाक्रमात् ॥ ३ ॥

तिथियों की अन्य भी संज्ञा है सो यथाक्रम मे नंदा (१,६,११), भद्रा (२,७,१२), जया (३,८,१३), रिक्ता (४,९,१४), पूर्णा (५,१०,१५,३०) ऐसे जाननी चाहिए ।। ३ ॥

पर्यायत्वेन विज्ञेया नेष्टमध्येष्टदा सिते ॥

कृष्णपक्षेपीठमध्यनेष्टदाः क्रमशः सदा ॥ ४ ॥

ये तिथि अर्थात् प्रतिपदा से ५ तक फिर १० तक फिर १५ तक ऐसे शुक्लपक्ष में अशुभ, मध्यम, श्रेष्ठ, ऐसे फलदायी जाननी और कृष्णपक्ष में श्रेष्ठ मध्यम, अशुभ ऐसे क्रम से जाननी चाहिए ।। ४ ।।

                                              शुक्लपक्ष में तिथिचक्र

नंदा

भद्रा

जया

रिक्ता

पूर्णा

फल

११

१२ 

१३

१४

१० 

१५

अशुभ

मध्यम

श्रेष्ठ      

शुक्र

बुध

मंगल

शनि

गुरु

सिद्धियोग

                                                       कृष्णपक्ष में तिथिचक्र

नंदा

भद्रा

जया

रिक्ता

पूर्णा

फल

११

१२ 

१३

१४

१० 

१५

श्रेष्ठ

मध्यम

अशुभ   

शुक्र

बुध

मंगल

शनि

गुरु

सिद्धियोग

तिथियों में कर्म

चित्रलेख्यासवक्षेत्रतैलशय्यासनादि यत् ।

वृक्षच्छेदो गृहमार्थं कर्तृप्रतिपदीरितम् ॥ ५॥

चित्र लिखना, मदिरा निकटनी, खेत का काम, तेल मालिश, शैय्या, आसन, वृक्ष काटना, घर पत्थर का काम ये कर्म प्रतिपदा तिथि में करने से शुभ हैं ।। ५ ।।

विवाहमौंजीयात्राश्च सुरस्थापनभूषणम् ॥

गृहं पुष्यखिलं कर्म द्वितीयायां विधीयते ॥ ६ ॥

विवाह, मौंजीबंधन, यात्रा, देवस्थापन, आभूषण, घर प्रारंभ , संपूर्ण पुष्टि के कर्म, ये सब द्वितीया तिथि में करने चाहियें ॥ ६ ॥

मौंजी प्रतिष्ठाश्च शिल्पविद्या निखिलमंगलम् ।

पश्विभोष्ट्रांबुयानोक्तं तृतीयायां विभूषणम् ॥ ७ ॥

मौंजीबंधन, प्रतिष्ठा, शिल्पविद्या, संपूर्ण मंगलकार्य, पशु, हाथी, ऊंट इनका खरीदना जल में गमन करना ये कर्म तृतीया तिथि में करने शुभ हैं । ७॥

अथर्वविद्याशस्त्राग्निबंधनोच्चाटनादिकम् ।

मारणाद्यखिलं कर्म रिक्तास्वेव विधीयते ॥ ८ ॥

अथर्व विद्या अर्थात् गायन तथा मंत्रादि विद्या, शस्त्र विद्या, अग्नि बंधन, उच्चाटन, मारण आदि कर्म रिक्तता ४-९।१४ तिथियों में करने चाहियें ॥ ८ ॥

यानोपनयनोद्वाहग्रहशांतिकपौष्टिकम् ॥

चरस्थिराखिलं कर्म पंचम्यां मंगलोत्सवम् ॥ ९ ॥

सवारी करना, उपनयनकर्म, विवाह, ग्रहशांति, पौष्टिक कर्म, चर स्थिर मंगलोत्सव, ये काम पंचमी तिथि में करने चाहियें ॥ ९ ।।

पशुवास्तुमहीसेवापण्यांबुक्रयाविक्रये॥

भूषणं व्यवहारादि कर्म षष्टयां विधीयते ॥ १० ॥

पशुकर्म, वास्तुकर्म, पृथ्वी के काम, सेवाकर्म,दूकान, जल, खरीदना-वेचना, आभूषण व्यवहार ये कर्म षष्ठी तिथि में करने चाहियें ॥ १० ॥

यानस्थापनवाहादि राजसेवादि कर्म यत् ॥

विवाहवास्तुभूषाद्यं सप्तम्यां चोपनायनम् ॥ ११ ॥

गमन, स्थापन, वाहन, राजसेवा आदि कर्म, विवाह, वास्तु, आभूषण, उपनयन कर्म ये सप्तमी में करने चाहिये ।। ११ ।।

कृषिवाणिज्यधान्याश्मलोहसंग्रामभूषणम् ॥

शिवस्थापनखाताम्बुकर्माष्टम्यां विधीयते ॥ १२ ॥

खेती वणिज धान्य पत्थर लोहा संग्राम आभूषण शिवस्थापन खोदने का काम जलकर्म ये अष्टमी तिथि में करने चाहियें ।। १२ ।।

प्रासादस्थापनं यानमुद्वाहो व्रतबंधनम् ॥

शांतिपुष्टयादिकं कर्म दशम्यांतु प्रशस्यते ॥ १३॥    

देवमंदिर की पूजा गमन विवाह व्रतबंधन शांति पुष्टि आदि कर्म ये दशमी में करने श्रेष्ठ हैं ।। १३ ।।

व्रतोपवासवैवादकृषिवाणिज्यभूषणम् ॥

शिल्पनृत्यं गृहं कर्म एकादश्यां विचित्रकम् ॥ १४ ॥

व्रत उपवास विवाह खेती वणिज आभूषण शिल्पकर्म नृत्य गृह कर्म विचित्रकर्म ये एकादशी तिथि में करने चाहिये ।। १४ ।।

चरस्थिराखिलं कर्म दानशांतिकपौष्टिकम् ॥

यात्रान्नग्रहणं त्यक्त्वा द्वादश्यां निखिलं हितम् ॥ १९ ॥

चर स्थिर सम्पूर्ण कर्म, दान शांति पैौष्टिक कर्म यात्रा अन्न संग्रह इन कर्मो के बिना अन्य कर्म द्वादशी तिथि में करने शुभ हैं १५ ।।

अग्न्याधानं प्रतिष्ठा च विवाहव्रतबंधनम् ॥

निखिलं मंगलं यानं त्रयोदश्यां प्रशस्यते ॥ १६ ॥

अग्निस्थापन, प्रतिष्ठा, विवाह, यज्ञोपवीत संपूर्ण मंगलकर्म यात्रा ये त्रयोदशी को करने शुभ हैं ॥ १६ ॥

बंधनाग्निप्रदानोग्रघातत्रणरणक्रिया॥

शस्त्रास्त्रलोहकर्माणि चतुर्दश्यां विधीयते ॥ १७ ॥

बंधन अग्नि लाना उग्रघात रण शस्त्र अस्त्र लोहकर्म ये सब चतुर्दशी को करने शुभ हैं ।। १७ ।।

तैलीस्त्रीसंगमं चैव दंतकाष्ठोपनायनम् ॥

सक्षौरं पौर्णमास्यां च विनान्यदखिलं हितम् ॥ १८ ॥

तेल की मालिश, स्त्री संग, दांतून करना, यज्ञोपवीत क्षौर इनके विना अन्यकर्म पौर्णमासी को करने शुभ हैं॥१८॥

पितृकर्मत्वमावास्यामेकं मुक्त्वा कदाचन ।

न विदध्यात्प्रयत्नेन यत्किचिन्मंगलादिकम् ॥ १९ ॥

अमावास्या तिथि में एक पितृ कर्म विना अन्य कुछ मंगलकर्म कभी नहीं करना चहिये ।। १९।।

अष्टमी द्वादशी षष्टी चतुर्थी च चतुर्दशी ।

तिथयः पक्षरंध्राख्या दुष्टास्ता अतिनिंदिताः ॥ २० ॥

अष्टमी द्वादशी षष्टी चतुर्थ चतुर्दशी ये तिथि पक्षरंध्रनामक अर्थात् पक्ष में छिद्ररूप कही हैं ये अशुभ अत्यंत निंदित हैं ।२०।

चतुर्थमनुरंध्रांकतत्वूसंज्ञास्तु नाडिकाः॥

त्याज्या दुष्टासु तिथिषु पंचस्वेतासु सर्वदा ॥ २१ ॥

और ४-१४-७-९-५- इतनी प्रमाण घडी यथाक्रम से इन आदि दुष्ट पांच तिथियों में सदा त्याग देनी चाहिये फिर अशुभ नहीं है । २१ ।।

अमावास्या च नवमी त्यक्त्वा विषमसंज्ञिकाः ।

तिथयस्ताः प्रसस्ताः स्युर्मध्यमा प्रतिपत्तथा ॥ २२ ॥

फिर अमावस्या नवमी को त्यागकर ये विषम संज्ञक तिथि भी शुभदायक कही हैं और प्रतिपदा तिथि मध्यम है ।। २२ ॥

दर्शेषष्ठयां प्रतिपदि द्वादश्यां प्रतिपर्वसु ।

नवम्यां च न कुर्वीत कदाचिदंतधावनम् ॥ २३ ॥

अमावस्या षष्टी प्रतिपदा द्वादशी पूर्णमासी इनमें कभी दांतून नहीं करनी चाहिये ।। २३ ॥

षष्ठयां तैलं तथाष्टम्यां मांसं क्षौरं तथा कलौ।

पूर्णिमादर्शयोर्नारीसेवनं परिवर्जयेत् ॥ २५ ॥

षष्ठी में तेल अष्टमी में मांस चतुर्दशी में क्षौर पूर्णमासी वा अमावस्या में स्त्रीरमण वर्ज देना चाहिये ॥ २४ ॥

व्यतीपाते च संक्रांतौ एकादश्यां च पर्वसु ।

अर्कभौमदिने षष्ठयां नाभ्यंगं च न वैधृतौ ॥ २९॥

व्यतीपात, संक्रान्ति, एकादशी, पूर्णमासी, अमावस्या, रविवार मंगल, षष्ठी, वैधृतियोग इनमें तैल उबटना आदि की मालिश नहीं करना ॥ २५ ॥

यः करोति दशम्यां च स्नानमामलकैः सह ।

पुत्रहानिर्भवेत्तस्य त्रयोदश्यां धनक्षयः ॥ २६॥

दशमी के दिन जो आवलों से स्नान करता है उसके पुत्र की हानि होती है और त्रयोदशी में करे तो धन का क्षय हो॥२६॥

अर्थपुत्रक्षयं तस्य द्वितीयायां न संशयः॥

अमायां च नवम्यां च सप्तम्यां च कुलक्षयः ॥ २७ ।।

द्वितीया में धन और पुत्र का नाश हो अमावस्या नवमी सप्तमी इनमें आंवलों से स्नान करे तो कुळ का क्षय हो ।२७ ।।

या पूर्णमास्यनुमतिर्निशि चंद्रवती यदा ।

दिवा चंद्रवती राका ह्यमावास्या तथा द्विधा ॥ २८ ॥

जिसमें रात्रि में चंद्रमा प्राप्त हो अर्थात् चतुर्दशी में पूर्णिमा आई हो यह अनुमति कही है और दिन में भी चंद्रमा की पूर्ण कलाओं से युक्त हो वह राकासंज्ञक पूर्णिमा तिथि कही है तैसे ही अमावस्या में दो प्रकार की कही है ॥ २८ ॥

सिनीवाली सेंदुमती कुहूर्नेदुमती मता ॥

कार्तिके शुक्लनवमी त्वादिः कृतयुगस्य सा ॥ २९ ॥

एक तो सिनीवाली है उसको चंद्रमा दीख जाता है और कुहू संज्ञक कही है उसको चंद्रमा की सब कला क्षीण हो जाती हैं और कार्तिक शुक्ल नवमी तिथी सत्ययुगादि तिथि कही है ॥ । २९ ।।

 त्रेतादिर्माधवे शुक्ला तृतीया पुण्यसंज्ञिता ।

कृष्णा पंचदशी माघे द्वापरादिरुदीरि ता ॥ ३० ॥

वैशाख शुक्ला तृतीया त्रेता की आदि तिथि कही है पवित्र है माघ की अमावस्या द्वापर की आदि तिथि कही है ॥ ३० ॥

कल्पास्यात्कृष्णपक्षे नभस्ये च त्रयोदशी ।

द्वादश्यूर्जे शुक्लेपक्षे नवम्याश्वयुजे सिते ॥ ३१ ॥

भाद्रपद कृष्ण त्रयोदशी कलियुगादि तिथि कही है और कार्त्तिक शुक्ल द्वादशी आश्विन शुक्ल नवमी ।। ३१ ॥

चैत्रे भाद्रपदे चैव तृतीया शुक्लसंज्ञिता ॥

एकादशी सिता पौषेष्याषाढे दशमी सिता ॥ ३२ ॥

चैत्र शुक्ला तृतीया भाद्रपद शुक्ला तृतीया, पौष शुक्ल एकादशी आषाढ शुक्ला दशमी ।। ३२ ।।

माघे च सप्तमी शुद्धा नभस्येप्यसिताष्टमी ।

श्रावणे मास्यमावास्या फाल्गुने मासि पूर्णिमा ॥३३॥

माघ शुक्ला सप्तमी, भाद्रपद कृष्णा अष्टमी, श्रावण की अमावस्या, फाल्गुन की पूर्णिमा ।। ३३ ॥

आषाढे कार्तिके मासि चैत्रे ज्येष्ठे च पूर्णिमा ।

मन्वादयः स्नानदानश्राद्धेष्वानंत्यपुण्यदा ॥ ३४ ॥

आषाढ की पूर्णीमा और कार्तिक, चैत्र, ज्येष्ठ इनकी पूर्णमा ये मन्वादिक तिथि कही हैं स्नान दान श्राद्ध इन कर्मों में अनंत फल दायक हैं ।। ३४ ।।

भाद्रकृष्णे त्रयोदश्यां मघास्विंदुः करे रविः ।

गजच्छाया तदा ज्ञेया श्राद्धेत्यंतफलप्रदा ॥ ३८॥

भाद्रपद कृष्ण त्रयोदशी में मघा नक्षत्र पर चन्द्रमा हो और हस्त पर सूर्य होय तो गजच्छाया योग कहा है श्राद्ध में अत्यंत फल दायक हैं ।। ३५ ।।

एकस्मिन्वासरे तिस्रस्तिथयः स्युः क्षयातिथिः ॥

तिथिर्वारत्रयेष्वेका त्वधिकात्यंतनिंदिता ॥ ३६ ॥

एकवार निरंतर एक बार में तीन तिथि क्षय होवें अथवा निरंतर तीन उनही वारों में एक तिथि बढी हो वह अत्यंत निंदित कही है ।। ३६ ।।

सूर्यास्तमनपर्यंतं यस्मिन् रेपि या तिथिः ।

विद्यते सा त्वखंडास्याद्दूनाचेत्खंडसंज्ञिता ॥ ३७ ॥

सूर्य अस्त हो तब तक एक ही तिथि उस वार में रहे तो वह अखंडा तिथि कहती है जो ऊन ( अधूरी ) रह जावे तो वह खंडिता कहलाती है । ३७ ।। ।

तिथेः पंचदशो भागः क्रमात्प्रतिपदादयः॥

द्विघटीप्रमितं तत्र मुहूर्ते कथितं बुधैः ॥ ३८ ॥

इति श्रीनारदीयसंहितायां तिथिलक्षणाध्यायश्चतुर्थः। ९ ।।

तिथि का पंद्रहवाँ भाग अर्थात चंद्रमंडल का पंद्रहवाँ भाग प्रतिपदा आदि तिथि कही हैं और दो घडी का एक मुहूर्त्त होता है । । ३८ ॥

इति श्रीनारदीयसंहिताभाषाटीकायां तिथिलक्षणाध्यायश्चतुर्थः।।४।।

आगे पढ़ें- नारदसंहिता अध्याय ५ वार और योग

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