ग्रहलाघव - रविचन्द्रस्पष्टीकरण पञ्चाङ्गानयनाधिकार

ग्रहलाघव - रविचन्द्रस्पष्टीकरण पञ्चाङ्गानयनाधिकार

ग्रहलाघव – रविचन्द्रस्पष्टीकरणपञ्चाङ्गानयनाधिकार- ग्रहलाधव की एक विशेषता यह है कि इसमें ज्या चाप का सम्बन्ध बिलकुल नहीं रखा गया है और ऐसा होने पर भी प्राचीन किसी भी करणग्रन्थ से यह कम सूक्ष्म नहीं है, यह निःसंकोच कहा जा सकता है। हमारे सिद्धान्तों में प्रति पौने चार अंश की भुजज्याएँ है अर्थात्, उनमें सव २४ ज्यापिण्ड हैं, परन्तु करणग्रन्थों में बहुधा ६ (प्रत्येक १० अंश पर) अथवा इससे भी कम ज्यापिण्ड होते हैं। ग्ररहलाघव में भुजज्याओं का प्रयोग न होते हुए भी उससे लाया हुआ स्पष्ट सूर्य उन करणग्रन्थों की अपेक्षा सूक्ष्म होता है जिनमें ये है। इतना ही नहीं, कभी-कभी तो २४ ज्यापिण्डों वाले सिद्धान्तग्रन्थों से भी सूक्ष्म आता है। इस ग्रन्थ में गणेश ने सभी पदार्थों को सुलभ रीति से लाने का प्रयत्न किया है।

ग्रहलाघव के २ अधिकार नाम रविचन्द्रस्पष्टीकरणपञ्चाङ्गानयनाधिकार हैं।

ग्रहलाघव - रविचन्द्रस्पष्टीकरणपञ्चाङ्गानयनाधिकार

ग्रहलाघव - रविचन्द्रस्पष्टीकरणपञ्चाङ्गानयनाधिकार

यहां प्रथम भुज -कोटि -पद -सूर्यमन्दोच्च --केन्द्र और रवि मन्द फल साधनेकी रीति लिखते हैं -

दोस्त्रिभोनं त्रिभोर्ध्वं विशेष्यं रसैश्र्चक्रतोऽङ्काधिकं स्याद्भुजोनं त्रिभम् ॥

कोटिरेकैककं त्रित्रिभैः स्यात्पदं सूर्य्यमन्दोच्चमष्टाद्रयोंऽशा भवेत् ॥१७॥

मन्दोच्चं ग्रहवर्जितं निगदितं केन्द्रं तदाख्यं बुधैः

केन्द्रे स्यात्स्वमृणं फलं क्रियतुलाद्येऽथो विधेयं रवेः ॥

केन्द्रे स्यात्स्वमृणं फलं क्रियतुलाद्येऽथो विधेयं रवेः ॥

केन्द्रे तद्भुजभागखेचरलवोनघ्ना नखास्ते पृथक्

तद्रोंऽशोननगेषुभिः परित्दृतास्तेंऽशादिकं स्यात्फलम् ॥१८॥   

केन्द्र किंवा ग्रहादिक तीन राशि की अपेक्षा कम हो तो भुज होता है । और तीन राशिकी अपेक्षा अधिक होय तो छः राशिमें घटाकर जो शेष रहे वह भुज होता है । अधिक होय तो बारह राशि में घटाकर जो शेष रहे सो कोटि होती है । तीन तीन राशि का एक एक पद होता है । २ रा . १८ अं . क . ० विकला यह रवि का मन्दोच्च होता है । मन्दोच्चमें ग्रह घटा देय जो शेष रहे सो मन्दकेन्द्र होता है (और शीघ्रोच्चमें ग्रह घटा कर जो शेष रहे सो शीघ्रकेन्द्र होता है ) मेष आदि छः केन्द्र में धन मन्द फल होता है ( अथवा शीघ्रफल होता है ) । तुला आदि छः केन्द्रमें ऋण मन्द फल होता है । रविका मन्द केन्द्र उक्त रीतिसे लावे । रविका केन्द्र लाकर उसके भुज करे और उन भुजों के अंश करे , उनमें नौ ९ का भाग देय जो लब्धि मिले उसको बीच अंशमें घटावे जो शेष रहे उसको उपरोक्त नवमांश से गुणा कर देय जो गुणनफल होय उसको अलग एकांत स्थान में लिखे । फिर नौ ९ का भाग देय जो लब्धि होय उसको ५७ अंशमें घटावे जो शेष रहे उसको अलग एकांतमें लिखे हुए पूर्वोक्त अंशादिमें भाग देय जो लब्धि होय उसको अंशादि मन्द फल जाने । यह मन्दफल , केन्द्र मेष राशिसे तुलाराशि पर्यंतके भीतर होय तो धन और तुलाराशिसे लेकर मेषपर्यन्त ६ राशिके भीतर होय तो ऋृण जाने । तदनन्तर यदि मन्दफल मध्यम रविमें धन होय तो युक्त कर देय और ऋण होय तो घटा देय तब मन्द स्पष्ट रवि होता है ॥१७-१८॥

उदाहरण -- रविके मन्दोच्च २ रा ., १८अं ., .क . , .वि . है , इसमें मध्यम रवि १ रा . ४ अ . १३क . ४२वि . घटाया तो शेष रहा १ रा . १३अ . ४६क . १८वि . यह रविका केन्द्र हुआ , यह केन्द्र तीन राशि से कम है , इस कारण भुज है । इससे जो राशि है उसके अंश करके अंशों में जोड़े तब ४३अं . ४६क . १८वि . हुए इनमें नौ ९ का भाग दिया तब लब्धि हुए ४अं . ५१क . ४८वि . इनको २० अंशमें घटाया तब शेष रहे १५अं . ८ क . १२ वि . इनको भुज के नवमांश ४ अं . ५१ क . ४८ वि . से गुणा करा तब ७३ अं . ३६क . ५२ वि . हुए इनको दो स्थान में लिखा एक स्थान में ९ नौ का भाग दिया तब ८ अं . १० क . ४५ वि . लब्धि हुए इनको ५७ अंशमें घटाया तब शेष रहे ४८ अं . ४९ क . १५ विकला इनका दूसरे स्थानमें लिखे हुए ७३ अं . ३६क . ५२ वि .मे भाग देनेके लिये भाज्य ७३अं . ३६क . ६२वि . ० भाज्य ४८अं . ४९क . १५वि . इन दोनोंकी कला करी तब भाज्य २६५०१२ भाजक १७५७५५ हुए । फिर भाज्य २६५०१२ में १७५७५५ का भाग दिया तब अंशादि लब्धि हुई १ अं ., ३०क ., ४८वि . यह रविका मन्द फल हुआ यह धन है क्योंकि केन्द्र मेषादि छः राशि से कम है । इस कारण इस १ अं ., ३० क ., २८ वि . मन्दफलको मध्यम रवि १ रा ., ४ अं ., १३क ., ४२वि . मे युक्त किया तब १ रा . ५अं ., ४४ क ., १० वि . यह मन्दस्पष्ट रवि हुआ ।

अब पलभा और चरखण्ड लानेकी रीति लिखते हैं ——

मेषादिगे सायनभागसूर्य्ये दिनार्द्धजा भा पलभा भवेत्सा ॥

त्रिस्था हता स्युर्दशभिर्भुजङ्गैर्दिग्भिश्र्चरार्द्धानि गुणोद्धृताऽन्त्या ॥१९॥

जिस दिन अयनांशसहित सूर्य --राशि अंश कला विकलासे शून्य होय उस दिन मध्याह्णके समय समान भूमिपर बारह अंगुलका शकु रक्खे जो छाया पडे उसको पलभा कहते हैं । तिस पलभाको तीन स्थानमें लिखकर क्रमसे १०।८।१० से गुणा करे , अन्तके तीसरे गुणनफलमें ३ तीनका भाग देय तब क्रमसे तीन चरखण्ड होते हैं ॥१९॥

( कुछ् प्रसिद्ध स्थानोंकी पलभा ग्रंथके अंतमें लिखेंगे ॥ )

उदाहरण – काशी की पलभा ५ अंगुल ४५ प्रतिअंगुल है इसको पहले १० से गुणा करा तब ५७ अंगुल ३० प्रतिअंगुल यह प्रथम चरखण्ड हुआ । फिर पलभा ५ अंगुल ४५ प्रति अंगुल को ८ से गुणा करा तब ४६ अंगुल . प्रति अंगुल यह द्वितीय चरखण्ड हुआ । पलभा ५ अंगुल ४५ प्रति अंगुलको १० दशसे गुणा करा तब ५७ अंगुल ३० प्रति अंगुल हुआ । इसमें ३ का भाग दिया तब १९ अंगुल १० प्रति अंगुल तीसरा चरखण्ड हुआ । इस प्रकार प्रथम चरखण्ड ५७ अ ., ३० प्र . हुआ , दूसरा चरणखण्ड ४६ अं . हुआ , तीसरा चरखण्ड १९ अं ., १० प्र . हुआ ।

अब चर , चरसंस्कार भुजसंस्कार और अयनांश लिखते हैं ——

स्यात्सायनोष्णांशुभुजर्क्षसंख्यचरार्धयोगो लवभोग्यघातात् ॥

खाग्न्याप्तियुक्तस्तु चर धनर्णं तुलाजषड्भे तपनेऽन्यथाऽस्ते ॥२०॥

सायनरवि की पूर्वोक्त केन्द्र से भुज लाने की रीति के अनुसार भुज लावे , वह भुज यदि राशि शून्य होय तब अंशोको छोडकर केवल अंशादिमात्राको प्रथम चरणखण्डसे गुणा करे और यदि भुजमें एक राशि होय तो राशिको छोडकर अंशादिको द्वितीय चरणखण्डसे गुणा करे और यदि भुजमें दो राशि होंय तो राशिको छोडकर केवल अंशादि मात्राको तृतीय चरणखण्डसे गुणा करे जो गुणन फल हो उसमें ३० तीसका भाग देय जो लब्धि मिले उसमें जिस चरणखण्डसे गुणा करा हो उससे पहला चरणखण्ड जोडदेय तब चर होता है ॥ वह सायन मेषादि छःराशिके भीतर होय तो ऋण होता है और छः राशिसे अधिक तुलादिसे कम छः राशि होय तो धन होता है। यदि सायंकालीन ग्रह करना होय तो चरको विपरीत ग्रहण करे अर्थात् सायन रवि मेषादि छः राशियोंके भीतर होय तो धन और तुलादि छः राशिके भीतर होय तो ऋण जाने ॥२०॥

देयं तच्चरमरुणे विलिप्तिकासु मध्येन्दौ द्विगुणनवोद्धृतं कलासु ॥

भाप्तं तद्द्युमणिफलं लवेऽथ वेदाब्ध्यब्ध्यूनःखरसत्दृतःशकोऽयनांशाः ॥२१॥

वह चर यदि धन होय तो मन्दस्पष्ट रविकी विकलाओंमें युक्त करदे और ऋण होय तो घटा देय तब स्पष्ट रवि होता है । चरको २ से गुणा करकें नौका भाग देय जो लब्धि होय उसका चरके समान धन ऋण समभ्क्ते और मन्द स्पष्ट रविकी कलाओंमें युक्त करदेय (इसको चर संस्कार और द्वितीयफलसंस्कार कहते हैं । )

रविके मन्द फलमें उसका भाग देकर जो लब्धि होय उसको भी चरके समान धन ऋण माने और मन्दस्पष्ट रविके अंशोमें युक्त करदेय (इसको मन्दफलसंस्कार और तृतीयफलसंस्कार भी कहते हैं । इन दोनों रीतियोंका चन्द्र स्पष्ट करनेमें काम पडता है ) । शालिवाहनशकेमें चारसौ चौवालीस ४४४ घटा देय जो शेष रहे वह कला होती है उनमें साठका भाग देय जो लब्धि मिले सो अयनांश होता है । अयनांशको मन्दस्पष्टरविमें मिला देय तब सायन रवि होता है ॥२१॥

उदाहरण -- शाके ५३३४ में ४४४ घटाये तब शेष रहे १०९० यह कला हैं , इनमें ६० का भाग दिया तो लब्धि हुई १८ अं . १० कला यह अयनांश है , इसको मन्दस्पष्ट रवि १ रा . ५ अं . ४४ कला १० वि . में युक्त किया तब १ रा . २३ अं . ५४ क . १० वि . यह सायन रवि हुआ । यह सायन रवि तीन राशिके भीतर है इस कारण यह भुज है । अब इस १ रा . २३ अं . ५४ क . १० वि . भुजमें एकराशि है इस कारण अंशादिको (२३ अं . ५४क . १०वि .) को द्वितीय चरखण्ड ४६ से गुणा करा तब गुणनफल १०९९ अं . ३१ क . ४० वि . हुआ इसमें ३० का भाग दिया तब लब्धि हुई ३६ विकला ३९ प्रतिविकला , प्रथम चरखण्डसे गुणाकरा था इस कारण द्वितीय चरखण्ड ५७ को लब्धि ३६ वि . ३९ प्रतिविकलामें युक्त किया तब ९३ विकला ३९ प्रति विकला यह चर हुआ ऋण है क्योंकि सायन रवि मेषादि छः के भीतर है । इस कारण मन्द स्पष्टरवि १ राशि ५ अंश ४४ कला १० विकलामें चर ९३ वि . अर्थात् १ क . ३३ विकलाको घटाया तब शेष रहा १ रा . ५ अं ४२ क . ३७ वि . यह स्पष्ट रवि हुआ ॥

अब दिनमान रात्रिमान और अक्षांश लानेकी रीति लिखते हैं -

गोलौ स्तः सौम्ययाम्यौ क्रियधटरसभे खेचरेऽथायने ते

नक्रात्कर्काच्च षड्भेऽथ चरपलयुतोनास्तु पंचेन्दुनाड्यः ॥

घस्त्रार्द्धं गोलयोः स्यात्तदयुतखगुणाः स्यान्निशार्द्धन्त्वथाक्षच्छायेषुघ्न्यक्षभायाः

कृतिदशमलवोना यामाशापलांशाः ॥२२॥

यदि सायन रवि मेषादि छः राशिके अन्तर्गत होय तो उसको उत्तर गोलीय कहते हैं और यदि सायनरवि तुलादि छः राशिके अन्तर्गत होय तो उसको दक्षिणगोलीय कहते हैं । तिसी प्रकार यदि सायन रवि मकरादि छः राशिके अन्तर्गत होय उसको उत्तरायण कहते हैं और यदि कर्कादि छः राशिके भीतर होय तो दक्षिणायन कहते हैं , पीछे लायेहुए पलात्मक चरका यदि सायन रवि उत्तरगोलीय होय तो १५ पन्द्रह घडीमें युक्त करे और सायनरवि दक्षिणगोलीय होय तो पलात्मकचर १५ पन्द्रह घडीमें घटा देय जो शेष रहे सो दिनार्द्ध होता है । उस दिनार्द्धको ३० घड़ीमें घटादेय तब जो शेष रहे सो रात्र्यर्द्ध होता है । तदनन्तर दिनार्द्धको द्विगुणित करनेसे दिनमान होता है और रात्र्यर्द्धको द्विगुणित करनेसे रात्रिमान होता है और दिनमान तथा रत्रिमानको जोड़नेसे अहोरात्रमान होता है ।

पलभाको पांचसे गुणा करके जो गुणफल मिले उसको अंशात्मक माने उसमें पलभाके वर्गका दशवां भाग अंशात्मक घटा देय जो शेष रहे वह अक्षांश होता है । अक्षांश सर्वदा दक्षिण होता है , क्योंकि हिन्दुस्थानके दक्षिण (विषुववृत्त रेखा ) है ॥२२॥

उदाहरण ---पलात्मकचर ९३ यह सायनरवि उत्तरगोलीय है क्योंकि मेषादि छः राशिके अन्तर्गत है इस कारण चर ९३ को १५ घड़ीमें युक्त किया तब १६ घड़ी ३३ पल यह दिनार्द्ध हुआ । इस दिनार्द्ध १६ घ . ३३प . को ३० घड़ीमें घटाया तब शेष रहा १३ घ . ४७ पल रात्र्यर्द्ध हुआ। दिनार्द्ध १६ व . ३३ पलको द्विगुणित किया तब ३३घ . ६ पल यह दिनमान हुआ रात्र्यर्द्ध १३ घ . २७ को द्विगुणित किया तब २६ घड़ी ५४ पल यह रात्रिमान हुआ। दिनमान और रात्रिमानको जोडा तब ६० घड़ी अहोरात्रिमान हुआ ॥

पलभा ५ अंगुल ४५ प्रतिअंगुलको ५ से गुणा करा तब २८ अं . ४५ कला हुआ । तब पलभा ५।४५ का वर्ग किया तो ३३।३ हुआ इसमें दशका भाग दिया तब ३ अं . १८ क . १८ वि . लब्धि हुए इनको पांचसे गुणा करी हुई पलभा २८ अं . ४५ क . में युक्त करा तब २५ अं . २६ क . ४२ वि . यह काशीका दक्षिण अक्षांश हुआ ॥

अब त्रिफल चन्द्र करनेका विषय लिखते हैं ——

पीछे कहे हुए ९ श्लोकका उत्तरार्द्ध --अपने अपने नगरसे दक्षिणोत्तर रेखा जितनी योजन दूर होय उस योजन संख्यामें छःका भाग देय तब जो कलादि लब्धि होय वह , अपना नगर दक्षिणोत्तर रेखासे पश्र्चिम होय तो धन और पूर्व होय तो ऋण होती है , इसको रेखान्तरसंस्कार और प्रथम फल संस्कार कहते हैं ।

श्लोक २१ द्वितीय चरण -चरको दोसे गुणा करके नौ का भाग देय जो लब्धि होय उसको कलादि जाने उसको चरका धन या ऋृण जाने , इसको चरसंस्कार और द्वितीय फल संस्कार कहते हैं ॥

श्लोक २१ तृतीय चरण -रवि के मन्द फलमें २७ का भाग देकर जो लब्धि होय उसको अंशादि जाने इसको रवि के मन्दफलका धन अथवा ऋण जाने ; इसको मन्दफल संस्कारे और तृतीय फल संस्कार कहते हैं ॥

इन तीनों फलोंको जोडकर जो धन अथवा ऋृण हो उसको मध्यम चन्द्रमें धन अथवा ऋण करे तब त्रिफलसंस्कृत चन्द्र होता है ॥

उदाहरण -- काशीपुरी दक्षिणोत्तर रेखाके पूर्व ६४ योजन है इस कारण ६४ योजन में ६ का भाग दिया तब १० कला ४० विकला यह प्रथम फलसंस्कार ऋण है ।

चर ९३ । ३९ को २ से गुणा करा तब १८७ । १८ यह हुआ इसमें ९ का भाग दिया तब २० कला ४८ विकला यह चरका ऋण है ॥

रविके मन्दफल १ अंश ३० कला २८ विकला इसमें २७ सत्ताईसका भाग दिया तब लब्धि हुई अं . ३क . २१ वि . यह तृतीय फल संस्कार और मन्दफल धन है ॥

गणित

अब ऋण

( १ ) १०क . ४०वि .

( २ ) २०क . ४८वि .

रा . अं . क . वि .

मध्यमचंद्र --६ २० १० २४

जोड -- ३१क . २८वि . इनको मध्यमचंद्रमें ऋणकरा -ऋण ३१ २८

शेष ६। १९ । ३८ । ५६

६ रा . १९ अं . ३८ क . ५६ वि . इस शेष में घन ३ क . २१ वि . को युक्त करा तब ६ रा . १९ अं . ४२ क . १७ वि . यह त्रिफल संस्कृत चन्द्र हुआ ॥

अब स्पष्ट चन्द्र लाने की रीति लिखते हैं ——

विधोः केन्द्रदोर्भागषष्ठोननिघ्नाः खरामाः पृथक् तन्नखांशोनितैश्र्च ॥

रसाक्षर्त्दृतास्ते लवाद्यं फलं स्याद्रवीन्दृ स्फुटौ संस्कृतौ स्तश्र्च ताभ्याम् ॥२३॥

चन्दोच्चमें त्रिफलसंस्कृत चन्द्र घटावे जो शेष बचे वह चन्द्रमाका केन्द्र होता है , तब केन्द्र के भुज करके उसके अंश करे और उसमें छः का भाग देय जो लब्धि होय उसको अंशादि माने और ३० तीस अंश में उसको घटा देय तब शेष रहे वह और आई हुई लब्धि को गुणा करे जो गुणन फल होय उसमें बीस का भाग देय जो शेष बचे उसको अंशादि माने और उसको ५६ में घटावे जो शेष रहे उसमें पूर्वोक्त गुणन फल का भाग देय तब जो लब्धि हो सो अंशादिरूप चन्द्रमाका मन्द फल होता है । वह केन्द्र मेषादि छः राशिके भीतर होय तो धन जाने और तुलादि छः राशिके भीतर होय तो ऋण जाने तदनन्तर यदि मन्दफल ऋृण होय तो त्रिफल चन्द्रमें घटादेय और धन होय तो युक्त कर देव तब स्पष्ट चन्द्र होता है ॥२३॥

उदाहरण -- चन्दोच्च १० रा . १४ अं . ५४क . ४३वि . में त्रिफलसंस्कृतचन्द्र ६ रा . १९ अं . ४२क . १७वि . को घटाया तब शेष रहे ३ रा . २५ अं . १२ क . २६ वि . यह केन्द्र हुआ इसको छः राशिमें घटाया तब शेष रहे २ रा . ४ अं . ४७ क . ३४ वि . यह भुज हुआ अर्थात् ६४ अ . ४७ क . ३४ विकला यह अंशादि भुज हुआ इसमें ६ का भाग दिया तब लब्धि हुई १० अं . ४६ क . ५५ वि . इसको ३० अंशमें घटाया तब शेष रहे १९ अं . १२ क . ५ वि . इसको ऊपर छः ६ का भाग देने से आई हुई लब्धि १० अं . ४७ क . ५५ वि . से गुणा करा तब गुणनफल २०७ अं . २० क . ५४ वि . हुआ इसमें २० का भाग दिया तब लब्धि हुई १० अं . २२ क . ३ वि . इसको ५६ में घटाया तब शेष रहा ४५ अं . ३७क . ५७वि . इसका उपरोक्त गुणनफल २०७ अं . २० क . ५४ वि . में भाग देना चाहा तब भाजक हुआ १६४२७७ विभाज्य हुआ ७४६४५४ । भाग दिया तब लब्धि हुई ४ अंश ३२ कला ३७ विकला यह मन्दफल है , और केन्द्र मेषादि ६ राशिके भीतर है इस कारण धन है , अतएव इसको संस्कृत चन्द्र ६ रा . १९ अं . ४२ क . १७ वि . में युक्त किया तब ६ रा . २४ अं . १४ क . ५४ विकला यह स्पष्ट चन्द्र हुआ ॥

अब रवि और चन्द्रका गतिस्पष्टीकरण लिखते हैं ——

केन्द्रस्य कोटिलवखाश्र्विलवोननिघ्ना रुद्रा रवेस्त्रिकुत्दृताः शशिनो द्विनिघ्नाः ॥

स्वांगांशकेन सहिताश्र्च गतौ धनर्णं केन्द्रे कुलीरमृगषट्कगते स्फुटा सा ॥२४॥

रविका केन्द्र लेकर उसके भुज करे , और भुजसे कोटि लावे , उस कोटिके अंश करे , फिर उन अंशोमें २० का भाग देय , जो लब्धि आवे उसको अंशआदि जाने । उस लब्धिको ११ अंशमें घटावे जो शेष रहे वह और लब्धिको परस्पर गुणा करे , तब जो गुणफल होय उसमें १३ का भाग देय जो लब्धि आवे उसको कलादि जाने , वह कलादि रविका गतिफल होता है , वह केन्द्र कर्कादि छः राशिके अन्तर्गत होय तो धन और मकर आदि छः राशिके अन्तर्गत होय तो ऋण जाने । तदनन्तर उस गतिफलको रविकी मध्यम गतिमें धन ऋण करे तब रविकी स्पष्टगति होती है ॥

चन्द्रमाका केन्द्र लाकर उसके भुज करे और तिस भुजासे कोटि लाकर उसके अंश करे , फिर उन अंशोमें तीसका भाग देय जो लब्धि मिले उसको कलादि माने और ग्यारह ११ कलामें घटा देय जो शेष रहे उसको लब्धिसे गुणा करे जो गुणन फल होय उसको दो २ से गुणा करे तब जो गुणन फल होय उसमें छः का भाग देय जो लब्धि होय उसको उसमें युक्त करदेय तब कलादि गतिफल होता है , वह केन्द्र कर्कादि छः राशिके भीतर होय तो इन और मकर आदि छः राशिके भीतर होय तो ऋण होता है ऐसा जाने फिर इस गतिफलको चन्द्रमाकी मध्य गतिमें धन या ऋण करे तब चन्द्रमाकी स्पष्टगति होती है ॥२४॥

उदाहरण -- रविकेन्द्र १ राशि १३ अं . ४६ कला १८ विकला वह तीन राशिके अन्तर्गत है , इस कारण यह भुज हुआ इसको तीन ३ राशिमें घटाया तब शेष रहा १ राशि १६ अंश १३ कला ४२ विकला यह कोटि हुई ; कोटिके अंश -४६ अंश १३ कला ४२ विकला हुए इसमें २० का भाग दिया तब लब्धि मिले २ अंश १८ कला ४१ विकला , इसको ग्यारह अंशमें घटाया तब शेष रहे १८ अंश ४१ कला १९ विकला इसको ऊपरकी लब्धि २ अंश १८ कला ४१ विकलासे गुणा करा तब २० अंश ४ कला ५७ विकला हुआ , इसमें तेरह १३ का भाग दिया तब लब्धि मिली १ कला ३२ विकला यह रविका गतिफल हुआ यह केन्द्र मकर आदि छ्ः राशिके अन्तर्गत है इस कारण ऋण है इसको रविकी मध्यमगति ५९ कला ८ विकलामें घटाया तब ५७ कला ३६ विकला यह रविकी स्पष्टगति हुई ॥

चन्द्रमाका केन्द्र ३ राशि २५ अंश १२ कला २६ विकला है इसको ६ छः राशिमें घटाया तब २ राशि ४ अंश ४७ कला ३४ विकला यह भुज हुआ , इसको तीन राशि में घटाया तब शेषरहा ० राशि २५अं . १२क . १६वि . यह कोटि और यही कोट्यंश हुए इसमें २० बीस का भाग दिया तब लब्धि १ कला १५ विकला हुई . इसको ग्यारह ११ कलामें घटाया तब ९ कला ४५ विकला रही इसको ऊपरकी लब्धि १ कला १५ विकलासे गुणा करा तब २४ कला २२ विकला इसमें छः ६ का भाग दिया तब ४ कला ३ विकला लब्धि हुए इसमें उपरोक्त गुणनफलको युक्त करा तब २८ कला २५ विकला यह गतिफल हुआ । यह केन्द्र कर्कादि छः राशिके अन्तर्गत होनेके कारण धन है इस कारण इसको चन्द्रमाकी मध्यमगति ७९० कला ३५ विकलामें युक्त करा तब ८१९ कला ० विकला हुआ यही चन्द्रमाकी स्पष्टगति हुई ॥

अब तिथि करण नक्षत्र और योग साधनेकी रीति दो श्लोकोमें कहते हैं --

भक्ता व्यर्कविधोर्लवा यमकुभिर्याता तिथिः स्यात्फलं शेषं यातमिदं हरात्प्रपतितं भोग्यं विलिप्तास्तयोः ॥

भुक्त्योरन्तरभाजिताश्र्च घटिकां यातैष्यिकाः स्युः क्रमात्पूर्वार्द्धे करणं बवाद्रततिथिर्द्विघ्नाऽद्रितष्टा भवेत् ॥२५॥

तत्सैकं त्वपरे दलेऽथ शकुनेः स्युः कृष्णभूतोत्तरादर्धोच्चाथ विधोश्र्च सार्कसितगोर्लिप्ताःखखाष्टोद्धृताः ॥

याते स्तो भयुती क्रमाद्रगनषण्निघ्ने गतैष्ये तयोरिन्दोर्भुक्तित्दृते जवैक्यावित्दृते यातैष्यनाड्यः क्रमात् ॥२६॥

स्पष्टचन्द्रमें स्पष्ट रविको घटा देय जो शेष रहे उसके अंश कर लेय , अंशोमें बारह १२ का भाग देय जो लब्धि मिले सो गततिथि होती है। और जो शेष अंशात्मक रहे वह भुक्ततिथि अर्थात् तिथि का व्यतीत भाग होता है। इस भुक्ततिथि को पूर्वोक्त भाजक अंक अर्थात् १२ अंशमें घटावे जो शेष रहे सो भोग्यतिथि अर्थात् तिथिका आगामी भाग होता है , तदनन्तर भुक्तितिथि और भोग्यतिथि दोनों की अलग २ विकला कर लेय उन विकलाओंमें दोनों स्थानमें अलग अलग साठ ६० से गुणा करे जो गुणनफल होय उसमें क्रम से रवि और चन्द्रमा की स्पष्टगतिके अन्तरकी विकलाओंका भाग देय जो लब्धि मिले उसको घटी आदि जाने अर्थात् वह क्रमसे भुक्ततिथि और भोग्यतिथिकी घटिका होती है।

गततिथिकी संख्याको दोसे गुणा करके सातका भाग देय जो लब्धि मिले असको छोड देय और भाग देनेसे जो शेष बच रहे उसको ग्रहण करे वह बव करणसे गणना करके तिथिके पूर्वार्द्धमें करण होता है , और उस शेषमें एक युक्त कर देय तो वह बव करण से गणना करके तिथि के उत्तरार्द्धमें करण होता है । (तदनन्तर तिथिकी भुक्त और भोग्य घटिका आदिका योग करे उसका आधा करे और उस आधेमें युक्त घटिका घटा देय जो शेष रहे सो करणकी घटिका + आदि होती है । यदि तिथिकी भुक्त घटिका ३० तीस घटिका से अधिक होय तो तिथिके भुक्त भोग्य की घटिकाओंमेंसे भुक्तघटिका घटाकर जो शेष रहे सो करणकी घटिका होती है ) प्रतिमास कृष्णपक्षकी चतुर्दशीके उत्तरार्द्धमें शकुनि करण और अमावस्याके पूर्वार्द्धमें चतुष्पद और उत्तरार्द्धमें नाग करण तथा शुक्लप्रतिपदाके पूर्वार्द्धमें किस्तुघ्न ही करण होता है ॥

स्पष्टचन्द्रकी कला करके उनमें आठसौका भाग देय जो लब्धि मिले वह गत नक्षत्र होता है और भाग देकर जो कलादि शेष रहे वह गतनक्षत्रमें आगेके नक्षत्रका गतभाग अर्थात् भुक्त होता है उसको आठसौ कलामें घटावे जो शेष रहे सो भोग्य नक्षत्र अर्थात् नक्षत्रका गत भाग होता है । तदनन्तर भुक्त नक्षत्र और भोग्य नक्षत्र इन दोनोंकी विकला करके प्रत्येकको साठसे गुणा करे जो गुणनफल मिले उसमें चन्द्र स्पष्टगतिकी विकलाओंका भाग देय जो घटिकादि लब्धि होय वह क्रमसे भुक्त नक्षत्र और भोग्य नक्षत्रकी घटिका होती है ॥

स्पष्ट रवि और चन्द्रमा दोनोंकी कला करके आठसौका भाग देय जो लब्धि मिले वह गत योग होता है और जो शेष कलादि बचे वह भुक्त योग अर्थात् आगेके योगका गतभाग होता है . उसको आठसौ कलामें घटावे जो शेष रहे वह भोग्य योग होता है . तदनन्तर भुक्त योग और भोग्य योग दोनोंकी विकला करके प्रत्येकको साठसे गुणा करे जो गुणनफल होय उसमें रवि और चन्द्रकी स्पष्ट गतिके योगकी विकलाओंका भाग देय तब जो लब्धि होय वह क्रमसे भुक्त योग और भोग्य योगकी घटिका होती है ॥२५॥२६॥

उदाहरण —— स्पष्टचन्द्र --६ राशि २४ अंश १४ कला ५४ विकला है इसमें स्पष्टरवि १ राशि ५ अंश ४२ कला ३७ विकलाको घटाया तब शेष रहा ५ राशि १८ अंश ३२ कला १७ विकला इसके अंश कर लिये तब शेष रहा ५ राशि १८ अंश ३२ कला १७ विकला , इसके अंश कर लिये तब हुये १६८ अंश ६५ कला १७ विकला , अंशोंमें १२ का भाग दिया तब लब्धि हुई १४ यही गततिथि हुई शेष बचा . ० अंश ३२ कला १७ विकला यह भुक्त पूर्णिमा हुई इसको १२ अंशमें घटाया तब शेष रहे ११ अंश २७ कला ४३ विकला यह भोग्य पूर्णिमा है । अब युक्त तिथि (पूर्णिमा ) ३२ कला १७ विकलाकी विकला करी तब १९३७ विकला हुई इनको ६० से गुणा करा तब ११६२२० हुए इनमें चन्द्रमाकी स्पष्टगति ८१९ कला ० विकला और रविकी स्पष्टगति ५७ कला ३६ विकला इन दोनों स्पष्टगतियोंका अन्तर करा तब ७६१ कला २४ विकला अर्थात् ४५६८४ विकला इसका भाग दिया तब लब्धि हुई २ घटिका ३२ पल यह पूर्णिमाकी भुक्त घटिका हुई । फिर भोग्य तिथि ११ अंश २७ कला ४३ विकला इसकी विकला करी तब ४१२६३ हुई इनको ६० से गुण करा तब २४७५७८० हुए इसमें चन्द्रसूर्यकी स्पष्ट गतिके अन्तरकी विकलाओं ४५६८४ का भाग दिया तब लब्धि हुई ५४ घटिका ११ पल यह पूर्णिमाकी भोग्य घटिका हुई ॥ 

गततिथि १४ को २ से गुणा करा तब २८ हुए इसमें ७ का भाग दिया तब ० शेष रहा इस कारण पूर्णिमाके पूर्वार्द्धमें भद्रा करण और उत्तरार्द्धमें बवकरण है फिर तिथिकी भुक्त घटिका २ घ . ३२ प . और भोग्य घटिका ५४ घ . ११ पलका योग करा तब ५६ घ . ४३ पल हुआ इसका आधा करा तब २८ घ . २१ प . इसमें भुक्त तिथि २ घ . ३२ प . घटाया तब शेष रहा २५ घ . ४९ प . यह भद्राकरणकी घटिका हुई ॥

स्पष्ट चन्द्र ६ राशि २४ अंश १४ कला ५४ विकला अर्थात् १२२५४ कला ५४ विकलामें ८०० का भाग दिया तब लब्धि मिले १५ यह गत नक्षत्र अर्थात् स्वाती हुआ और शेष बचे २५४ कला ५४ विकला यह आगेके नक्षत्र अर्थात् विशाखा नक्षत्रका गत भाग है इसको ८०० कलामें घटाया तब शेष बचे ५४५ कला ६ विकला यह विशाखानक्षत्रका भोग्यभाग है । अबभुक्त विशाखा नक्षत्र २५४ कला ५४ विकलाकी विकला १५२९४ को ६० से गुणा करा तब ९१७६४० इसमें चन्द्र स्पष्टगति ८१९ कला ० विकलाकी विकला ४९१४० का भाग दिया तब लब्धि हुई १८ घ . ४० प . यह विशाखा नक्षत्रकी भुक्त घटी हुई । फिर भोग्य विशाखा नक्षत्र ५४५ कला ६ विकलाकी विकला ३२७०६ को ६० से गुणा करा तब १९६२३६० हुई इसमें चन्द्र स्पष्ट गतिकी विकलाओं ४९१४० का भाग दिया तब लब्धि हुई ३९ घ . ५६ प . यह विशाखा नक्षत्रकी भोग्य घटिका हुई ॥

स्पष्ट रवि १ राशि ५ अं ४२ कला ३७ विकला और स्पष्ट चन्द्र ६ राशि २४ अंश १४ कला ५४ विकला इनका योग करा तब ७ राशि २९ अंश ५७ कला ३१ विकला हुआ इस योगकी कला करी तब १४३९७ कला ३१ विकला हुई इनमें ८०० का भाग दिया तब लब्धि हुई १७ यह गत योग अर्थात् व्यतीपात योग आया और शेष बचा ७९७ कला ३१ विकला यह आगेके योग अर्थात् वरीयान् योगका भुक्त भाग है उसको ८०० कलामें घटाया तब शेष बचा २ कला १९ विकला यह वरीयान् योगका भोग्य भाग है । फिर भुक्त योग ७९७ कला ३१ वि . की विकला करी ४७८५१ इनको ६० से गुणा करा तब २८७१०६० हुए इसमें रवि और चन्द्रकी स्पष्टगतिके योगकी विकलाओं ५२५९६ का भाग दिया तब लब्धि हुई ५४ घ . २५ प . यह वरीयान् योगके भुक्त काल की घटी हुई । फिर वरीयान् योगके भोग्य २ क . १९ वि . की १४९ विकलाओंको ६० से गुणा करा तब ८९४० हुए इसमें चन्द्र और रविकी स्पष्ट गतिके योगकी विकलाओं ५२५९६ का भाग दिया तब लब्धि मिली .घ . १० पल यह वरीयान् योगकी भोग्य घटिकादि हुई ॥

इति श्रीगणकवर्यपण्डितगणेशदेवज्ञकृतौ ग्रहलाघवकरणग्रन्थे पश्र्चिमोत्तरदेशीयमुरादाबाद वास्तव्यगौडवंशावतंसश्रीयुत भोलानाथनूजपण्डितरामस्वरूपशर्म्मणा विरचितया विस्तृततोदाहरणसनाथीकृतयाऽन्वयसमन्वितया सहितः रविचन्द्रभाषाव्याख्यया सहितः रवि चन्द्रस्पष्टीकरणाधिकारः समाप्तिमितः ॥२॥

आगे पढ़ें- ग्रहलाघव के ३ अधिकार पञ्चतारा स्पष्टीकरणाधिकार

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