Slide show
Ad Code
JSON Variables
Total Pageviews
Blog Archive
-
▼
2022
(523)
-
▼
January
(70)
- मन्त्रमहोदधि तरङ्ग ८
- षोडशी कवच
- मातङ्गी शतनाम स्तोत्र
- शीतला कवच
- मातङ्गी सहस्रनाम स्तोत्र
- मातङ्गीसुमुखीकवच
- मातङ्गी कवच
- मन्त्रमहोदधि तरङ्ग ७
- मातङ्गी हृदय स्तोत्र
- वाराही कवच
- शीतलाष्टक
- श्री शीतला चालीसा
- छिन्नमस्ताष्टोत्तरशतनामस्तोत्र
- धूमावती अष्टोत्तर शतनाम स्तोत्र
- छिन्नमस्ता स्तोत्र
- धूमावती सहस्रनाम स्तोत्र
- छिन्नमस्ता सहस्रनाम स्तोत्र
- धूमावती अष्टक स्तोत्र
- छिन्नमस्ता हृदय स्तोत्र
- धूमावती कवच
- धूमावती हृदय स्तोत्र
- छिन्नमस्ता स्तोत्र
- मन्त्रमहोदधि तरङ्ग ६
- नारदसंहिता अध्याय ११
- छिन्नमस्ता कवच
- श्रीनायिका कवचम्
- मन्त्रमहोदधि पञ्चम तरङ्ग
- नारदसंहिता अध्याय १०
- नारदसंहिता अध्याय ९
- नारदसंहिता अध्याय ८
- नारदसंहिता अध्याय ७
- नारदसंहिता अध्याय ६
- नारदसंहिता अध्याय ५
- मन्त्रमहोदधि चतुर्थ तरङ्ग
- मन्त्रमहोदधि तृतीय तरङ्ग
- मन्त्रमहोदधि द्वितीय तरङ्ग
- मन्त्रमहोदधि - प्रथम तरड्ग
- द्वादशलिङगतोभद्रमण्डलदेवता
- ग्रहलाघव त्रिप्रश्नाधिकार
- ग्रहलाघव पञ्चतारास्पष्टीकरणाधिकार
- ग्रहलाघव - रविचन्द्रस्पष्टीकरण पञ्चाङ्गानयनाधिकार
- नारदसंहिता अध्याय ४
- नारदसंहिता अध्याय ३
- ग्रहलाघव
- नारद संहिता अध्याय २
- नारद संहिता अध्याय १
- सवितृ सूक्त
- शिवाष्टकम्
- सामनस्य सूक्त
- ब्रह्मा स्तुति श्रीरामकृत
- श्रीरामेश्वरम स्तुति
- ब्रह्माजी के १०८ तीर्थनाम
- ब्रह्मा स्तुति
- शिव स्तुति श्रीरामकृत
- चामुण्डा स्तोत्र
- त्रिप्रकार स्तुति
- महादेव स्तुति तण्डिकृत
- महादेव स्तुति
- महादेव स्तुति उपमन्युकृत
- तण्डिकृत शिवसहस्रनाम
- शिव स्तुति अर्जुनकृत
- दुर्गा स्तवन अर्जुनकृत
- शिवमहापुराण – द्वितीय रुद्रसंहिता [प्रथम-सृष्टिखण्...
- शिवमहापुराण – रुद्रसंहिता सृष्टिखण्ड – अध्याय 19
- शिवमहापुराण – रुद्रसंहिता सृष्टिखण्ड – अध्याय 18
- सरस्वती स्तोत्र
- नील सरस्वती स्तोत्र
- मूर्त्यष्टकस्तोत्र
- श्रीराधा स्तुति
- श्रीपुरुषोत्तम माहात्म्य
-
▼
January
(70)
Search This Blog
Fashion
Menu Footer Widget
Text Widget
Bonjour & Welcome
About Me
Labels
- Astrology
- D P karmakand डी पी कर्मकाण्ड
- Hymn collection
- Worship Method
- अष्टक
- उपनिषद
- कथायें
- कवच
- कीलक
- गणेश
- गायत्री
- गीतगोविन्द
- गीता
- चालीसा
- ज्योतिष
- ज्योतिषशास्त्र
- तंत्र
- दशकम
- दसमहाविद्या
- देवी
- नामस्तोत्र
- नीतिशास्त्र
- पञ्चकम
- पञ्जर
- पूजन विधि
- पूजन सामाग्री
- मनुस्मृति
- मन्त्रमहोदधि
- मुहूर्त
- रघुवंश
- रहस्यम्
- रामायण
- रुद्रयामल तंत्र
- लक्ष्मी
- वनस्पतिशास्त्र
- वास्तुशास्त्र
- विष्णु
- वेद-पुराण
- व्याकरण
- व्रत
- शाबर मंत्र
- शिव
- श्राद्ध-प्रकरण
- श्रीकृष्ण
- श्रीराधा
- श्रीराम
- सप्तशती
- साधना
- सूक्त
- सूत्रम्
- स्तवन
- स्तोत्र संग्रह
- स्तोत्र संग्रह
- हृदयस्तोत्र
Tags
Contact Form
Contact Form
Followers
Ticker
Slider
Labels Cloud
Translate
Pages
Popular Posts
-
मूल शांति पूजन विधि कहा गया है कि यदि भोजन बिगड़ गया तो शरीर बिगड़ गया और यदि संस्कार बिगड़ गया तो जीवन बिगड़ गया । प्राचीन काल से परंपरा रही कि...
-
रघुवंशम् द्वितीय सर्ग Raghuvansham dvitiya sarg महाकवि कालिदास जी की महाकाव्य रघुवंशम् प्रथम सर्ग में आपने पढ़ा कि-महाराज दिलीप व उनकी प...
-
रूद्र सूक्त Rudra suktam ' रुद्र ' शब्द की निरुक्ति के अनुसार भगवान् रुद्र दुःखनाशक , पापनाशक एवं ज्ञानदाता हैं। रुद्र सूक्त में भ...
Popular Posts
अगहन बृहस्पति व्रत व कथा
मार्तण्ड भैरव स्तोत्रम्
नारद संहिता अध्याय १
नारद संहिता अध्याय १ में नारद संहिता
की भूमिका, मंगलाचरण, ज्योति:शास्त्र के
आचार्य, ज्योतिः शास्त्र का उद्देश,शास्त्रोपनयनका वर्णन है।
नारद संहिता
सिद्धान्त,
संहिता और होरा इन तीन स्कन्धों से युक्त ज्योतिष शास्त्र वेद का
नेत्र कहा जाता है । संसार का शुभाशुभ विषय आँखों से ही देखा जा सकता है, इसी प्रकार वेदविहित शुभाशुभ कर्मों का उपादान और त्याग अर्थात् कौन सा कर्म
किस समय करना और कब न करना; किस प्रकार करना इत्यादि नेत्र का
कार्य ज्योतिष शास्त्र के द्वारा ही होता है । नेत्रवान् मनुष्य जैसे मार्ग में
पड़े कण्टकादिकों को देख, उनसे अपनी रक्षा कर सकता है इसी
प्रकार ज्योतिष का जाननेवाला, सम्पूर्ण शुभाशुभ कर्मों को
जानकर शुभ कर्मो के आचरण से सुखी रह सकता है। जब मनुष्य इस मर्त्यलोक में जन्म
लेकर श्रेष्ठ कर्म करने से देवदुर्लभ कर्मों को भी सिद्ध कर सकता है तो कौन
बुद्धिमान ऐसे उत्तम लोक में आकर अपनी उन्नति का साधन करने में चूकेगा ? यही विचारकर स्वभाव से ही सर्वजीवोपकारी महर्षि नारदजी ने मनुष्यों के
लाभ के लिये स्कन्ध त्रयात्मक ज्योतिषशास्त्र बनाया उनमें से यह तृतीय होरास्कन्ध
नारदसंहिता नाम से प्रसिद्ध है। इसमें शास्त्रोपनयन, ग्रहचार,
अब्द- रक्षण, संवत्सरफल,तिथि,
वार,नक्षत्र, योग,
मुहूर्त, उपग्रह, सूर्य
सङ्क्रान्ति, ग्रहगोचर, चन्द्रताराबलाध्याय,
लग्नविचार,प्रथमरजोदर्शनविचार गर्भाधान से
लेकर विवाहपर्यन्त १६ संस्कार, प्रतिज्ञा, यात्रा, गृह्प्रवेश, सद्योवृष्टि,
कूर्मलक्षण, उत्पात, शान्ति
इत्यादि अनेक उपयोगी कर्म का वर्णन सरल बडे श्लोकों द्वारा ५५ अध्यायों में किया गया है देवर्षि नारद की महिमा
कौन नहीं जानता जैसे योगी विज्ञानवेत्ता यह हैं अपनी तत्त्वज्ञान की महिमा से बडे
२ गूढ विषय इन्होंने स्वनिर्मित इस ‘नारदसंहिता” में रक्खे हैं । और भी अनेक ज्योतिष ग्रन्थ उत्तम २ विद्यमान हैं । परन्तु
यह नारद संहिता आर्ष ग्रन्थ है । इसका वेदाङ्ग होना यथार्थ ही है। सुबोध होनेपर भी
कहीं २ विषय के गहन होने से शास्त्र कठिन होता ही है । भाषाटीका- बेरी-ग्राम निवासी
पण्डित वसतिराम ज्योतिर्विद् द्वारा है । लेखकः ॥ श्रीः ॥ नारदसंहिता।
(ज्योतिषगन्थः) बेरीनिवासि-पण्डित-वसतिरामशर्मनिर्मित- भाषटीकापेता । मुम्बय्यां ।
खेमराज श्रीकृष्णदास श्रेष्ठिना स्वकीये ‘श्रीवेङ्कटेश्वर’
(स्टीम्) मुद्रणालये । मुंद्रयित्वा प्रकाशिता ।
नारदसंहिता अध्याय १
॥ अथ नारदसंहिता भाषाटीकासहिता ।
अणोरणुतरः साक्षादीश्वरो महतो महान्
।
आत्मा गुहायां निहितो
जंतोर्जयत्यतीन्द्रियः ॥ १ ॥
सूक्ष्म से भी अत्यन्त सूक्ष्म और
महान से भी अत्यन्त महान् ऐसे परमात्मा जो कि अतीन्द्रिय याने किसी चक्षु आदि
इंद्रिय से भी ग्रहण नहीं किये जाते हैं वे साक्षात् परमेश्वर जीव के अंतःकरण में
उत्कर्षता से वर्तते हैं ॥ १ ॥
ब्रह्मचार्योवसिष्ठोऽत्रिर्मनुः
पौलस्त्यलोमशौ ।
मरीचिरंगिरा व्यासो नारदः शौनको
भृगुः ॥ २ ॥
ब्रह्माजी,
आचार्यवसिष्ठ, अत्रि, मनु,
पौलस्त्य, लोमश, मरीचि,
अंगिरा, वेदव्यास, नारद,
शौनक, भृगु ॥ २ ॥
च्यवनो यवनो गर्गः कश्यपश्च पराशरः
॥
अष्टादशैते गंभीरा
ज्योतिःशास्त्रप्रवर्तकाः ॥ ३ ॥
च्यवन,
यवनाचार्य, गर्ग, कश्यप,
पराशर, ये अठार हूं गंभीर ज्योतिःशास्र को
प्रवर्त करनेवाले भये हैं ॥ ३ ॥
सिद्धांतसंहिता होरा रूपं
स्कंधत्रयात्मकम् ।
वेदस्य निर्मलं
चक्षुर्ज्योतिःशास्रमननत्तमम् ॥ ३ ॥
सिद्धांत,
संहिता, होरारूप, तीन
स्कंधों वाला वेद निर्मल नेत्ररूप परमोत्तम ज्योतिःशास्त्र ऐसे यह ग्रंथ कहा है ॥
४ ॥
अस्य शास्त्रस्य संबंधो वेदांगमिति
कथ्यते ॥
अभिधेयं च
जगतः शुभाशुभनिरूपणम् ॥ ५॥
यह ज्योतिःशास्र वेदांग कहलाता है
जगत्का शुभ अशुभ हाल को वर्णन करता है ॥ ५ ॥
यज्ञाध्ययनसंक्रांतिग्रहषोडशकर्मणाम्
॥
प्रयोजनं च विज्ञेयं
तत्तत्कालविनिर्णयात् ॥ ६ ॥
यज्ञ, अध्ययन, संक्रांति का पुण्यकाल,ग्रह षोडशकर्म, इन्होंके यथार्थ समय का निर्णय
(मुहूर्त ) ज्योतिःशास्र से ही होता है ॥६॥
विनैतदखिलं श्रौतस्मार्तकर्म न
सिध्यति ॥
तस्माज्जगद्धितायेदं ब्रह्मणा रचितं
पुरा ॥ ७॥
इसके बिना संपूर्ण श्रुति स्मृति में
कहा हुआ कर्म सिद्ध नहीं होवे इस लिये बह्माजी ने जगत की सिद्धि के वास्ते पहिले
ज्योतिःशास्त्र रचा है ॥ ७ ॥
तं विलोक्याथ तत्सूनुर्नारदो
मुनिसत्तमः॥
उक्त्वा स्कंधद्वयं पूर्वं
संहितास्कंधमुत्तमम् ॥ ८॥
तिसको देखकर ब्रह्माजी के पुत्र
नारद मुनि पहिले दो स्कंध बनाकर ॥ ८ ॥
वक्ष्ये शुभाशुभफलज्ञप्तये देहधारिणाम्
॥
होरास्कंधस्य शास्त्रस्य
व्यवहारप्रसिद्धये ॥ ९ ॥
फिर देहधारियों के शुभ अशुभ फल का
ज्ञान होने के वास्ते इस होरा स्कंध शास्त्र को व्यवहार की सिद्धि के वास्ते कहते
हैं ॥ ९ ॥
संज्ञा हुक्ताः समस्ताश्च सम्यग्
ज्ञात्वा पृथक्पृथक् ।
शास्त्रोपनयनाध्यायो
ग्रहचारोऽब्दलक्षणम् ॥ १०॥
तिथिर्वारश्च नक्षत्रं योगं
तिथ्वृक्षसंज्ञकम् ॥
मुहूर्तोपग्रहोऽर्कस्य
संक्रांतिर्गोचरस्तथा ॥ ११ ॥
इसमें अच्छे प्रकार से अलग २ संज्ञा
कही हैं शास्त्रोपनयनाध्याय अर्थात् इस शास्त्र का अभिप्राय वर्णन,
ग्रहचार वर्णन, संवत्सरों का फल,तिथी, वार,नक्षत्र, और तिथी तथा नक्षत्र से शीघ्र हुआ योग,इन्होंका
विचारमुहूर्त प्रकरण, उपग्रह प्रकरण, सूर्य
संक्रांति फल, ग्रहगोचर, ॥ १०- ११ ॥
चंद्रताराबलाध्यायः
सर्वलग्नार्तवाह्वयः ।
आधानपुंससीमंता जातनामान्नभुक्तयः ॥
१२॥
चंद्र तारा बल देखने का अध्याय,
सब लग्नों का विचार प्रथम रजस्वला का विचार आधान, पुंसवन, सीमंत, जातकर्म,
नामकरण अन्नप्राशन ॥ १२ ॥
चौलांकुरार्पणं मौंजीछुरिकाबंधनं
क्रमात् ॥
समावर्तनवैवाहप्रतिष्टासद्मलक्षणम्
॥ १३ ॥
चौलकर्म,
मंगलाकुरांर्पण, मौंजी बंधन, छुरिका बंधन ये सब क्रम से कहे हैं और समावर्त्तनकर्म विवाहकर्म
प्रतिष्ठाकर्म,घरोंका लक्षण, ॥ १३ ॥
यात्रा प्रवेशनं
सद्योवृष्टिकूर्मविलक्षणम् ॥
उत्पातलक्षणं शांतिमिश्रकं
श्राद्धलक्षणम् ॥ १४ ॥
यात्रा प्रकरण,
प्रवेशमुहूर्त, सद्य वृष्टि, कूर्मलक्षण, उत्पात लक्षण, शांतिकर्म,
मिश्रकाध्याय, श्राद्धलक्षण ॥ १४ ॥
सप्तत्रिंशद्भिरध्यायैर्नारदीयाख्यसंहिता॥
य इमां पठते भक्त्या स दैवज्ञो हि
दैववित् ॥ १५ ॥
ऐसे इन प्रकरणों करके सैंतीस
अध्यायों से यह नारद संहिता बनाई गई है जो भक्तिसे इसको पढता है वह दैवको जानने
वाला ज्योतिषी होता है ॥ १५ ॥
त्रिस्कंधज्ञो दर्शनीयः श्रौतस्मार्तक्रियापरः
।
निरेदांभिकः सत्यवादी दैवज्ञ
दैवचित्स्थिरः ॥ १६ ॥
इति श्रीनारदीयसंहितायां
शास्त्रोपनयनाध्यायः प्रथमः॥१ ॥
तीनों स्कंधों को जानने वाला,
दर्शन करने योग्य, श्रुतिस्मृति विहित कर्म
करनेवाला पाखंडरहित सत्यवादी दैवको जानने वाला स्थिर दैवज्ञ होता है ॥ १६ ॥
इति श्रीनारदसंहिताभाषायां शास्त्रोपनयनाध्यायः प्रथमः ॥ १ ॥
Related posts
vehicles
business
health
Featured Posts
Labels
- Astrology (7)
- D P karmakand डी पी कर्मकाण्ड (10)
- Hymn collection (38)
- Worship Method (32)
- अष्टक (54)
- उपनिषद (30)
- कथायें (127)
- कवच (61)
- कीलक (1)
- गणेश (25)
- गायत्री (1)
- गीतगोविन्द (27)
- गीता (34)
- चालीसा (7)
- ज्योतिष (32)
- ज्योतिषशास्त्र (86)
- तंत्र (182)
- दशकम (3)
- दसमहाविद्या (51)
- देवी (190)
- नामस्तोत्र (55)
- नीतिशास्त्र (21)
- पञ्चकम (10)
- पञ्जर (7)
- पूजन विधि (80)
- पूजन सामाग्री (12)
- मनुस्मृति (17)
- मन्त्रमहोदधि (26)
- मुहूर्त (6)
- रघुवंश (11)
- रहस्यम् (120)
- रामायण (48)
- रुद्रयामल तंत्र (117)
- लक्ष्मी (10)
- वनस्पतिशास्त्र (19)
- वास्तुशास्त्र (24)
- विष्णु (41)
- वेद-पुराण (691)
- व्याकरण (6)
- व्रत (23)
- शाबर मंत्र (1)
- शिव (54)
- श्राद्ध-प्रकरण (14)
- श्रीकृष्ण (22)
- श्रीराधा (2)
- श्रीराम (71)
- सप्तशती (22)
- साधना (10)
- सूक्त (30)
- सूत्रम् (4)
- स्तवन (109)
- स्तोत्र संग्रह (711)
- स्तोत्र संग्रह (6)
- हृदयस्तोत्र (10)
No comments: