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कर्मकाण्ड

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नारद संहिता अध्याय २

नारद संहिता अध्याय २

नारद संहिता अध्याय २ में संवत्सराधिप, सुर्यचार, चंद्रचार,मंगलचार, बुधचार, गुरुचार, शुक्रचार, शनिचार, राहूचार, केतुचार का वर्णन किया गया है। 

नारदसंहिता अध्याय २

नारदसंहिता अध्याय २

संवत्सराधिप  

चैत्राद्येष्वपि मासेषु मेषाद्याः संक्रमाः क्रमात् ॥

चैत्रादितिथिवारेशस्तस्याब्दस्य त्वधीश्वरः ॥ १॥

चैत्र आदि इन महीनों में मेष आदि संक्राति यथा क्रम से होती हैं और चैत्रशुक्ल प्रतिपदा को जो वार होता है वह वर्ष का राजा कहलाता है ॥ १ ॥

मेषसंक्रांतिवारेशो भवेत्सोऽपि च भूपतिः ।

कर्कटस्य तु वारेशो सस्येशस्तत्फलं ततः ॥ २ ॥

और मेष की संक्रांति को जो वार होवे वह सेनापति होता है कर्क की संक्रांति को जो वार हो वह सस्यपति होता है ।। २ ॥

तुलासंक्रांतिवारेशो रसानामधिपः स्मृतः ।

मकराधिपतिः साक्षान्नीरसस्य पतिः क्रमात् ॥ ३ ॥

तुला की संक्रांति का वार रसेश होता है और मकर की संक्रांति का जो वार होवे बह नीरसेश अर्थात् सुवर्ण आदि धातुओं का तथा वस्त्रादिकों का पति होता है ॥ ३ ॥

अब्देश्वरश्चमूपो वा सस्येशो वा दिवाकरः॥

तस्मिन्नब्दे नृपक्रोधः स्वल्पसस्यार्घवृष्टिकृत् ॥ ४ ॥

वर्षपति (राजा ) वा सेनापति ( मंत्री ) अथवा सस्येश सूर्य हो तो उस वर्ष में राजओं को क्रोध रहे थोडी खेती हो अन्न का भाव महंगा रहे वर्षा थोडी होवे ॥ ४ ॥

अब्देश्वरश्चमूपो वा सस्येशो वा निशाकरः ॥

तस्मिन्नब्दे करोतिक्ष्मां पूर्णा शालिफलेक्षुभिः ॥५॥

वर्षपति वा सेनापति तथा सस्यपति चंद्रमा होय तो उसवर्ष में गेहूं चाँवल आदि धान्य तथा ईख आदि से भरपूर पृथ्वी होवे ॥ ५ ॥

अब्देश्वरश्वमूपो वा सस्येशो वा महीसुतः॥

तस्मिन्नब्दे चौरवह्निवृष्टिक्षुद्भयकृत्सदा ॥ ६॥

जो राजा व मंत्री तथा सस्यपति मंगल होय तो उस वर्ष में चोर तथा अग्नि का भय हो वर्षा नहीं हो दुर्भिक्ष हो ॥ ६ ॥

अब्देश्वरश्श्वमूपो वा सस्येशो वा शशांकजः ॥

अतिवायं स्वरुपवृष्टिं करोति नृपविग्रहम् ॥ ७ ॥

राजा व मंत्री तथा सस्यपति बुध हो तो अत्यन्त पवन चले थोड़ी वर्षा हो राजाओं का युद्ध होवे ॥ ७ ॥

अब्देश्वरश्चमूपो वा सस्येशो वा सुरार्चितः॥

करोत्यनुत्तमां धात्रीं यज्ञधान्यार्थवृष्टिभिः ॥ ८॥

जो राजा व मंत्री तथा सस्यपति बृहस्पति होय तो यज्ञ धान्य द्रव्य वर्षा, से पृथ्वी परिपूर्ण होवे ॥ ८॥

अब्देश्वरश्चमूपो वा सस्येशे वा भृगोः सुतः ।

करोति सर्वां संपूर्णां धात्रीं शालिफलेक्षुभिः ॥ ९॥

जो राजा व मंत्री तथा सस्यपति शुक्र होय तो चावल धान्य ईख आदि से भरपूर पृथ्वी हो ॥ ९ ॥

अब्देश्वरश्वमूपो वा सस्येशो वार्कनंदनः॥

अंतकश्चौरवह्यबुधान्यभूपभयप्रदः ॥ १० ॥

जो राजा व मंत्री तथा नरपति वा सस्यपति शनि होय तो दुर्भिक्ष हो चोर अग्नि जल धान्य राजा इनका भय होय ॥ १० ॥

सूर्यचार का फल  

ज्ञात्वा बलाबलं सम्यग्वदेत्फलनिरूपणम् ॥

दंडाकारेऽर्कवेधे वा ध्वांक्षाकारेऽथ कीलके ॥ ११ ॥

दृष्टेऽर्कमंडले व्याधिर्भीतिश्चौरार्थनाशनम् ॥

छत्रध्वजपताकाद्यैराकरैस्तिमिरैर्धनैः ॥ १२॥

रविमंडलगैर्धूमैः स्फुलिगैर्जननाशनम् ॥

सितरक्तैः पीतकृष्णैस्तैर्मिणैर्विप्रपूर्वकान् ॥ १३ ॥

ऐसे संपूर्ण बलाबळ देखकर संवत्सर का फल कहना चाहिये अब सूर्यचार फल कहते हैं कि दंड के आकार काग तथा कीला के आकार सूर्य में बेध दीख पड़े तो पीड़ा भय चोर द्रव्यनाश ये उपद्रव होवें और छत्र ध्वजा पताका आदि अंधकार दीख पड़े सूर्य मंडल में धँवा सरीखा दीखे अग्नि के किणके दीखें तो मनुष्यों का नाश हो सफेद लाल पीली काली मिली हुई ऐसी सूर्य की किरण दीखें तो यथाक्रम से ब्रह्मण आदि का नाश हो ॥११-१३ ॥

हंति द्वित्रिचतुर्भिर्वा राज्ञोऽन्यजन संक्षयः ॥

ऊर्धैर्वेभानुकरैस्ताम्रैर्नाशं याति स भूपतिः ॥ १४ ॥

और दो तीन चार वर्ण की मिली हुई किरण दीखे तो राजाओं का नाश हो अन्य प्रकार कुछ दुष्ट चिह्न होवे तो प्रजा का नाश हो तांबा सरीखा वर्णवाली सूर्य की किरण ऊपर को फैली हुई हो तो राजा का नाश हो ॥ १४ ॥

पीतैर्नृपसुतः श्वेतैः पुरोधाश्चित्रितैर्जनाः॥

धूमैर्नृपः पिशंगैश्चजलदोऽधोमुखैस्तथा ॥ १९॥

पीलावर्णं हो तो राजा के पुत्र का नाश, सफेद हो तो राजा का पुरोहित नष्ट होय अनेक वर्णों की मिली हुई हो तो प्रजानाश हो और धूम्रवर्ण वा भूरा वर्ण की किरण बादलों से नीचे को मुख करके दीखें तो राजा का नाश हो१५॥

उदयास्तमये काले स्वास्थ्यं तैः पांडुसन्निभैः ।

भास्करस्ताम्रसंकाशः शिशिरे कापिलोऽपिवा ॥ १६ ॥

उदय तथा अस्त समय कछु 'कपिलाई सहित सफेद स्वच्छ किरण हो और तांबा सरीखा लालवर्ण अथवा कपिलाईवर्ण सूर्य हो तो शिशिर ऋतु में अच्छा कहा है ॥ १६ ॥

कुंकुमाभो वसंतर्तौ कापिलो वापि शस्यते ॥

अपांडुरः स्वर्णवर्णो ग्रीष्मे चित्रो जलागमे ॥ १७ ॥

वसंतऋतु में केशर सरीखा लालवर्ण वा कपिलवर्ण अच्छा है और ग्रीष्म ( गरमी ) ऋतु में लालवर्ण सोनासरीख और वर्षाऋतु में विचित्रवर्ण अच्छा कहा है ॥ १७ ॥

पद्मोदराभः शरदि हेमंते लोहितच्छविः ।

हेमंते प्रावृषि ग्रीष्मे रोगाणां वृष्टिभीतिकृत् ॥ १८ ॥

शरदऋतु में कमल के मध्य भाग सरीखा हेमंत में लालवर्ण अच्छा है और वर्षा तथा ग्रीष्म वा हेमंत ऋतु में लालवर्ण हो तो रोग होवे वर्षा नहीं हो ॥ १८ ॥

पीताभः कृष्णवर्णोपि लोहितस्तु यथाक्रमात् ।

इन्द्रचापार्धमूर्तिश्चैद्भानुर्भूपविरोधकृत् ॥ १९॥

और पीला वर्ण काला वर्ण फिर लाल ऐसे क्रम से तीन रंगोंवाला इंद्र धनुष होवे तथा सूर्य में ये रंग देख पड़े तो राजाओं का युद्ध होवे ॥ १९ ॥

मयूरपत्रसंकाशो द्वादशाब्दं न वर्षति ॥

शशरक्तनिभे भानौ संग्रामो ह्यचिराद्भवेत् ॥ २० ॥

मोर की पंख सरीखा सूर्य का वर्ण दीख पड़े तो बारहवर्ष तक वर्षा नहीं हो शशाके रक्त समान लालवर्ण होवे तो शीघ ही युद्ध हो २०॥

चंद्रस्य सदृशो यत्र चान्यं राजानमादिशेत् ।

अर्के श्यामे कीटभयं भस्माभे शस्त्रतो भयम् ॥ २१ ॥

चंद्रमा के समान वर्ण होवे तो अन्य राजा का राज्य हो कला वर्ण होय तो प्रजा में कीट सर्पादिक का भय हो भस्मसरीखा वर्ण होय तो शस्त्रभय ( युद्ध ) होवे ॥ २१ ॥

छिद्रेऽर्कमंडले दृष्टे तदा राजविनाशनम् ॥

घटाकृतिः क्षुद्भयकृत्पुरहा तोरणाकृतिः ॥ २२॥

सूर्यमंडल में छिद्र दीख पड़े तो राजाओं का नाश हो घडा सरीखा आकार दीख जाय तो दुर्भिक्ष भय हो, तोरण की आकृति दीखे तो शहर (नगर ) जंग हो ॥ २२ ॥

छत्राकृतिर्देशहंता खंडभानुर्नृपांतकृत् ॥

उदयास्तमये भानोर्विद्युदुल्काशनिर्यदि ॥ २३ ॥

छत्र सरीखा आकार होय तो देश नष्ट हो खंडित सूर्य हो तो राजा नष्ट होवे सूर्य अस्त होते समय अथवा उदय होते समय कोई तारा टूटे अथवा बिजली गिरे तो ॥ २३ ॥

तदा नृपवधो ज्ञेयस्त्वथवाँ राजविग्रहः ॥

पक्षी पक्षार्द्धमर्केन्दु परिविष्टावहर्निशम् ॥ २४॥

राजा नष्ट हो अथवा राज्य विग्रह हो पंद्रह दिन तक अथवा सात दिन तक सूर्य चंद्रमा के दिनरात निरंतर मंडल रहे तो ॥२४॥

राजानमन्यं कुरुतो लोहितावुदयास्तगौ ।

उदयास्तमये भानुराच्छिन्नः शस्त्रसन्निभैः ॥ २८ ॥

घनैर्युद्धं खरोष्ट्राधैः पापरूपैर्भयप्रदः ।

ऋतुकालानुरूपोऽर्कः सौम्यमूर्तिः शुभावहः ॥ २६॥ 

रविचारामिदं सम्यग् ज्ञातव्यं तत्ववेदिभिः ॥ २७ ॥   

इति श्रीनारदीयसंहितायां सूर्यचारः ॥

दूसरा राजा का राज्य हो और उदय अथवा अस्त होते समय सूर्य वा चंद्रमा रुधिरसमान लालवर्ण होवें तो भी राज्य नष्ट हो उदय समय वा अस्त समय सूर्य तथा चंद्रमा को शस्त्र सरीखे आकार वाले बादल आच्छदित कर लेवें तो युद्ध हो और गधा ऊंट आदि के आकारवाले बादलों से आच्छादित होय तो प्रजा में भय हो तथा ऋतु और काल के अनुरूप सुंदर स्वच्छ आकार सूर्य होय तो शुभ फल होवे इस प्रकार यह सूर्यचार पंडित जनों से अच्छे प्रकार से समझना चाहिये ॥ २५ - २७ ॥

इति श्रीनारदसंहिताभाषाटीकायां सूर्यचारः ।

चंद्रचार का फल

याम्यश्रृंगोन्नतश्चंद्रोऽशुभदो मीनमेषयोः।

सौम्यश्रृंगोन्नतश्रेष्ठो नृयुग्मकरयोस्तथा ।। १ ॥

उदयकाल में मीन और मेष के चंद्रमा का श्रृंग दक्षिण की तरफ ऊंचा हो तो अशुभदायक है और मिथुन मकर के चंद्रमा का उत्तरी तर्फ का कोना ऊंचा हो तो शुभ है ॥ १ ॥

समोऽक्षघट्योः कर्कसिंहयोः शरसन्निभः ॥

चापकीटभयोः स्थूलः शूलवत्तौलिकन्ययोः ॥ २॥

वृषभ कुंभ के चंद्र के दोनों कोने समान कर्क वा सिंह के चंद्रमा के कोने बाणाकार,वृश्चिक और धन के चंद्रमा का स्थूल आकार, तुला तथा कन्या के चंद्रमा का शूल के आकार होय तो शुभदायक है ॥ २ ॥

विपरीतोंदितश्चंद्रो दुर्भिक्षकलहप्रदः ।

यथोक्तोऽयुदितश्चेंदुः प्रतिमासं सुभिक्षकृत् ॥ ३ ॥

इनसे विपरीत चंद्रमा उदय होवे तो दुर्भिक्ष तथा कलह करे और महीना २ प्रति जैसा कहा है वैसा ही उदय होय तो सुभिक्ष कारक जानना ॥ ३ ॥

आषाढद्वयमूलेंद्रधिष्ण्यानां याम्यगः शशी ॥

अग्निप्रदस्तोयचरवनसर्पविनाशकृत् ॥

पूर्वाषाढ,उत्तराषाढ, ज्येष्ठा, मूल, इन नक्षत्रों में दक्षिणचारी चंद्रमा होय तो अग्निभय हो जलचर जीव वनसर्प इनका नाश हो ४ ॥

विशाखामैत्रयोर्याम्यपार्श्वगः पापकृत्सदा ॥

मध्यगः पितृदैवत्ये द्विदैवत्ये शुभोत्तरे ।। ५॥

विशाखा तथा अनुराधा नक्षत्र पर आया हुआ चंद्रमा दक्षिण की तर्फ होके गमन करे तो सदा अशुभ है मघा पर मध्यमचारी विशाखा पर आवे तब उत्तरचारी चंद्रमा शुभदायक है । ५ ।।

सम्प्राप्य पौष्णभाद्रौद्रात्षट् चर्क्षाणिशशी शुभः ।

मध्यगो द्वादशरह्क्षाणि अतीत्य नव वासवात् ॥ ६॥

रेवतीआदि छः नक्षत्रों पर आवे तब चंद्रमा शुभ है ग्रंथांतरों में लिखा है कि ये छः अनागत नक्षत्र हैं अर्थात् उत्तराभाद्रपद पर स्थित चंद्रमा रेवती के तारा पर दीख पडता है इसलिये शुभ कहा और आर्द्रा आदि बारह नक्षत्रों पर मध्यम चारी शुभ है ॥ ६ ॥

यमेंद्राहिभतोयेशा मरुतश्चार्द्धतारकाः ॥

ध्रुवादिति दि्विदैवाः स्युरध्यरह्द्धाश्च पराःस्समाः ॥ ७ ॥

भरणी, ज्येष्ठा, आश्लेषा, शतभिषा, स्वाती ये अर्धसंज्ञक तारे हैं और ध्रुवसंज्ञक नक्षत्र, पुनर्वसु विशाखा ये अध्यर्द्ध संज्ञक हैं बाकी रहे नक्षत्र सम कहे हैं । ७ ।

याभ्यश्रृंगोन्नतः श्रेष्ठः सौम्यश्रृंगोन्नतः शुभः ॥

शुक्ले पिपीलिकाकरे हानिवृद्धी यथाक्रमात् ॥ ८ ॥

दक्षिण का श्रृंग ऊंचा श्रेष्ठ है और उत्तर का श्रृंग की ऊंचा श्रेष्ठ है शुक्लपक्ष में कीडी के आकार याने मध्य में पतला ऐसा चंद्रमा हानि और कृष्णपक्ष में शुभ दायक है और दक्षिण को स्थूल हो तो हानि उत्तर को ज्यादे स्थूल हो तो वृद्धिदायक है ॥ ८ ॥

सुभिक्षकृद्विशालेंदुरविशालेर्घनाशनः ॥

अधोमुखे शस्त्रभयं कलहो दंडसन्निभे ॥ ९॥

स्थूल सुंदर चंद्रमा सुभिक्षकारक है कृश, चंद्रमा उदय होय तो दुर्भिक्षकारक है नीचे को मुख होय तो शस्त्र भय हो दंडाकार होय तो प्रजा में कलह हो ॥ ९ ॥

कुजाद्यैर्निहते श्रृगे मंडले वा यथाक्रमात् ।

क्षेमार्धवृष्टिनृपतिजनानां नाशकृच्छशी ॥ १० ॥

इति श्रीनारदीयसहितायां चन्द्रचारः ॥

मंगलादि ग्रहों करके चंद्रमंडल का श्रृंग वेधित होवे तो क्रम से क्षेम नाश, भावमहिगा, वर्षानाश, राजानाश, प्रजानाश, यह फल होता है ॥ १० ॥

इति श्रीनारदसंहिताभाषाटीकायां चंद्रचारः।

मंगलचार का फल

सप्ताष्टनवमर्क्षेषु स्वोदयाद्वक्रिते कुजे ॥

तद्वक्रमुष्णं तस्मिन्स्याप्रजापीडाग्निसंभवः ॥ १ ॥

अपने उदय नक्षत्र में सातवां आठवां नवमा नक्षत्र पर मंगल वक्री होय तो उस नक्षत्र पर रहे तब तक प्रजा में पीडा हो अग्नि कोप हो ॥ १ ॥

दशमैकादशे शते द्वादशे वा प्रतीपगे ॥

वक्रमल्पसुखं तस्मिंस्तस्य वृष्टिविनाशनम् ॥ २ ॥

और दशवाँ और ग्यारहवाँ बारहवाँ नक्षत्र पर वक्री होय तो प्रजा में थोडा सुख वर्षा का नाश ।। २ ।।

कुजे त्रयोदशे ऋक्षे वक्रिते वा चतुर्दशे ॥

व्यालाख्यवक्रं तत्तस्मिन्सस्यवृद्धिहेर्भयम् ॥ ३ ॥

रंग उदय नक्षत्र से तेरहवें चौदहवें नक्षत्र पर वक्री होय तो यह व्यालनामकवक्री कहा है इसमें खेती की वृद्धि हो और सर्पों का भय हो ॥ ३ ॥

पंचदशे षोडशर्क्षे तद्वक्रं रुधिराननम् ॥

सुभिक्षकृद्भयं रोगान्करोति यदि भूमिजः ॥ ४ ॥

पंद्रहवें सोलहवें नक्षत्र पर वक्री होय तो वह रुधिरानन वक्री कहा है तहां सुभिक्ष हो भय और रोग होवे ॥ ४ ॥

अष्टादशे सप्तदशे तदासिमुसलं स्मृतम् ॥

दस्युभिर्धनह्न्यादि तस्मिन्भौमे प्रतीपगे ॥ ५॥

अठारहवां नक्षत्र वा सतरहवां नक्षत्र पर वक्री हो वह असिमुसल नामक है तहां चौरादिकों से धननाश हो ॥ ५॥

फालुन्योरुदितो भौमो वैश्वदेवे प्रतीपगः ॥

अस्तगश्चतुरास्यर्क्षे लोकत्रयविनाशकृत् ॥ ६ ॥

पूर्वफाल्गुनी, उत्तराफाल्गुनी नक्षत्र पर मंगल का उदय हो और उत्तषाराढा नक्षत्र पर वक्री हो और रोहिणी नक्षत्र पर अस्त होय तो त्रिलोकी को नष्ट करे ॥ ६ ॥

उदितः श्रवणे पुष्ये वक्रतो नृपहानिदः ॥

यद्दिग्भ्योऽभ्युदितो भौमस्तद्दिग्भूपभयप्रदः ॥ ७॥

श्रवण पुष्य इन पर उदय होकर वक्री होय तो राजा की हानि करे जिस दिशा में मंगल उदय हो उस दिशा के राजा भयकारक जानना ॥ ७ ॥

मघामध्यगतो भौमस्तत्रैव च प्रतीपगः ॥

अवृष्टिशस्त्रभयदः पांडुदेशाधिपांतकृत् ॥ ८॥   

मघा नक्षत्र पर मंगल उदय होवे फिर वक्री हो जाय तो वर्षा नहीं हो प्रजा में युद्ध भय पांडुदेश के राजा का नाश हो ॥ ८ ॥

पितृद्विदैवधातृणां भिद्यंते योगतारकाः ।

दुर्भिक्षं मरणं रोगं करोति यदि भूमिजः॥ ९॥

मघा, विशाखा, रोहिणी इन नक्षत्रों पर मंगल हो तब इनके ताराओं को भेदन करे तो प्रजा में दुर्भिक्ष महामारी रोग होवे ॥ ९ ॥

त्रिषूतरासु रोहिण्यां नैर्ऋत्ये श्रवणेंदुभे ।

अवृष्टिदश्चरन्भौमे रोहिणीदक्षिणे स्थितः ॥ १० ॥

तीनों उत्तरा, रोहिणी, मूल, श्रवण, मृगशिरा इन नक्षत्रों पर मंगल होय अथवा रोहिणी नक्षत्र के तारा से दक्षिण को स्थित होय तो वर्षा नहीं हो ॥ १०  ॥

भूमिजः सर्वधिष्ण्यानामुद्गगामी शुभप्रदः ॥

याम्यगोनिष्टफलदो भेदे भेदकरो नृणाम् ॥ ११ ॥  

यह मंगल सब नक्षत्रों से उत्तर की तरफ होकर चले तो शुभ- दायक जानना और दक्षिण की तरफ होकर चले तो अशुभ दायी है तारा को भेद करे तो प्रजा में युद्ध हो ॥ ११ ॥

इति श्रीनारदीयसंहितायां भौमचारः ॥

इति श्रीनारदसंहिताभाषाटीकायां भौमचारः समाप्तः ।

बुधचार का फल

विनोत्पातेन शशिजः कदाचिन्नोदयं व्रजेत् ॥

अनावृष्टयग्निभयकृदनर्थं नृपविग्रहम् ॥ १ ॥

कभी उत्पात के बिना ही समय पर बुध उदय नहीं हो तो वर्षा नहीं हो अग्निभय अनर्थ और राजाओं का युद्ध होवे ।। १ ।।

वसुश्रवणविश्वेंदुधातृभेषु चरन्बुधः ।

भिनत्ति यदि तत्तारामवृष्टिव्याधिभीतिकृत् ॥ २ ॥

धनिष्ठा श्रवण उत्तराषाढा मृगशिरा रोहिणी इन नक्षत्रों पर विचरता हुआ बुध जो इन ताराओं को भेदन करे तो वर्षा नहीं हो प्रजा में रोगभय हो ॥ २ ॥

आर्द्रादिपितृभांतेषु दृश्यते यदि चंद्रजः ॥

तदा दुर्भिक्षकलहरोगाणां वृद्धिभीतिकृत् ॥ ३ ॥

आर्द्रा आदि मघा नक्षत्र पर्यंत बुध स्थित रहे और इन ताराओं को भेदन करे तव दुर्भिक्ष कलह रोग इन्ही की वृद्धि प्रजा में भय हो।३।।

हस्तादिरसतारासु विचरन्निंदुनंदनः ॥

क्षेमं सुभिक्षमारोग्यं कुरुते पशुनाशनम् ॥ ४ ॥

हस्त आदि ज्येष्ठा पर्यंत नक्षत्रों पर बुध स्थित होय तो प्रजा में कुशल सुभिक्ष आरोग्य हो पशुओ का नाश हो॥४ ॥

अहिर्बुध्न्यार्येमाग्नेय्यमभेषु चरन्यदि ॥

धातुक्षयं च जंतूनां करोति शशिनंदनः॥५॥

उत्तरा भाद्रपदा उत्तरा फाल्गुनी कृत्तिका,भरणी इन नक्षत्रों पर गति करता हुआ बुध होय तो जीवों के शरीर की सात धातुओं का नाश हो अर्थात् दुर्भिक्ष हो। ५ ॥

दस्रवारुणनेत्यरेवतीषु चरन्बुधः ॥

भिषक्तुरगवाणिज्यवृत्तीनां नाशकस्तदा ॥६॥

अश्विनी, शतभिषा, मूल, रेवती इन नक्षत्रों पर विचरता हुआ वेध करता हुआ बुध, वैद्य अश्व तथा वणिज की वृत्तिकरने वालों का नाश करे ।। ६ ।।

पूर्वात्रये चरन् सौम्यो योगतारां भिनत्ति चेत् ।

क्षुच्छस्त्रामयचौरेभ्यो भयदः प्राणिनस्तदा ॥ ७॥

तीनों पूर्वाओं पर विचरता हुआ बुध अपने योग तारा को भेदन करे तो दुर्भिक्ष, राजयुद्ध, रोग,चौर इनसे  प्राणियों को भय हो ।। ७ ।।

याम्याग्निधातृवायव्यधिष्ण्येषु प्राकृतागतिः ॥

ईशेंदुसार्पपित्र्येषु ज्ञेया मिश्राह्यया गतिः ॥ ८ ॥

भरणी, कृतिका, रोहिणी, स्वाती इन पर बुध होय तो बुध की प्राकृत गति कही है आर्द्रा, मृगशिर, आश्लेषा, मघा इन पर होय तो मिश्र गति कही है ।। ८ ।।

संक्षिप्तादितिभाग्यार्यमेज्याधिष्ण्येषु या गतिः ॥

गतिस्तीक्ष्णाजचरणेहिर्बुध्न्येंद्राश्विपूषसु ॥ ९ ॥

योगांतिकांबुविश्वाख्यमूलगस्येंदुजस्य च ।

घोरा गतिर्हरित्वाष्ट्रवसुवारुणभेषु च ॥ १० ॥

पुनर्वसु, पूर्वाफाल्गुनी, उत्तराफाल्गुनी, पुष्य इन नक्षत्र पर संक्षिप्ता तथा पूर्वाभाद्रप्रदा; उत्तराभाद्रपदा, ज्येष्ठा, रेवती, अश्विनी इन पर होय तो तीक्ष्णां गति कही है पूर्वाषाढा,उत्तराषाढा, मूल इन नक्षत्रों पर बुध होय तो योगांतिक गति कहलाती है। श्रवण, चित्रा, धनिष्ठा, शतभिषा इन पर होय तब घोरा गति कही है।। ९- १० ।।

इन्द्रग्निमित्रमार्तंडभेषु पापाह्वया गतिः ॥

प्राकृताद्यासु गतिषु ह्युदितोस्तमितोपि वा ॥ ११ ॥

एतावंति दिनान्येव दृश्यस्तावन्न दृश्यगः ॥

चत्वारिंशत्क्रमात्रिंशद्वविंशद्विंशतिर्नव ॥ १२ ॥

और विशाखा, अनुराधा, हस्त इन नक्षत्र पर होय तय पापागति कही है । इन प्राकृत आदि गतियों पर प्राप्त हुआ बुध उदय होवे अथवा अस्त हो जाय तब जितने दिनों तक रहता है उनके प्रमाण यथाक्रम से ऐसे जानना कि प्राकृता गति में ४० दिन, फिर मिश्रा में ३० दिन, संक्षिप्ता में २२,तीक्ष्णा में २०,योगांतिका में ९दिन॥११-१२॥

पंचदशैकादशभिर्दिवसैः शशिनंदनः ॥

प्राकृतायां गतैौ सस्यक्षेमारोग्यसुवृष्टिकृत् ॥ १३ ॥

घोरा में १५ और पापा में ११ दिन तक उदय वा अस्त रहता है इन गतियों पर दृश्य हुवा भी बुध अदृश्य ही रहता है प्राकृता गति में खेती की वृद्धि कुशल, आरोग्य शुभ वर्षा होवे ॥ १३ ॥

मिश्रसंप्तिक्षयोर्मध्ये फलदोऽन्यास्वनिषृदः॥

वैशाखे श्रावणे पौषे आषाढेप्युदितो बुधः॥ १४ ॥  

जनानां पापफलदस्त्वितरेषु शुभप्रदः ॥

इषोर्जमासयोः शस्त्रदुर्भिक्षाग्निभयप्रदः ।

उदितश्चद्रजः श्रेष्ठो रजतस्फटिकोपमः ॥ १५ ॥

इति श्रीनारदीयसंहितायां बुधचारः ।

और मिश्रा तथा संक्षिप्ता गति में भी शुभफल होता है अन्य गतियों में अशुभफल होता है वैशाख, श्रावण, पौष, आषाढ इन महीनों में बुध उदय होय तो मनुष्यों को अशुभ फल देता है और अन्य महीनों में उदय हो तो शुभफल देता है । आश्विन और कार्त्तिक में उदय होय तो युद्ध, दुर्भिक्ष, अग्निभय फल करता है और चांदी तथा स्फटिक मणि के समान स्वच्छ उदय हो तो बुध शुभ कहा है ॥ १४- १५ ॥

इति श्रीनारदसंहिताभाषाटीकायां बुधचारः ।

अथ गुरुचार का फल  

द्विभा ऊर्जादिमासास्स्युः पंचांत्यैकादशस्त्रिभाः ॥

यद्धिष्ण्याभ्युदितो जीवस्तन्नक्षत्राह्वत्सरः॥ १॥

कार्तिक आदि मास दो २ नक्षत्रों से होते हैं और पांचवाँ बारहवाँ ग्यारहवाँ ये महीने तीन २ नक्षत्रों से होते हैं जिस नक्षत्र पर बृहस्पति उदय हो उसी नाम का वर्ष होता है इसका भावार्थ यह है कि कृत्तिका आदि दो दो नक्षत्र करके कार्तिक आदि वर्ष होते हैं । पाचवें ग्यारहवाँ बारहवाँ ये वर्ष तीन २ नक्षत्रों करके होते हैं जैसे कि, कृत्तिका व रोहिणी पर स्थित बृहस्पति उदय हो उस वर्ष को कार्तिक कहते हैं, मृगशिर आर्द्रा में मार्गशिर वर्ष, पुनर्वसु पुष्य में पौष, आश्लेषा मधा में माघ,पूर्वाफाल्गुनी उत्तराफाल्गुनी हस्त में फाल्गुन, चित्रा स्वाति में चैत्र, विशाखा अनुराधामें वैशाख, ज्येष्ठ मूल में ज्येष्ठ,पूर्वाषाढा उत्तराषाढा में आषाढ, श्रवण, धनिष्ठा में श्रावण, शतभिषा, पूर्वाभाद्रपद, उत्तराभाद्रपद में भाद्रपद, रेवती अश्विनी भरणी में स्थित बृहस्पति उदय हो वह वर्ष में आश्विन कहाता है। १॥

पीडा स्यात्कार्तिके वर्षे रथगोग्न्युपजीविनाम् ॥

क्षुच्छस्त्राभिभूयं वृद्धिः पुष्पकौसुंभजीविनाम् ॥ २ ॥

इस प्रकार कार्तिक वर्ष में बृहस्पति उदय हो तो रथ तथा गौ आदि पशुओं से आजीविका करनेवाले, अग्नि से आजीविका करने वाले, हलवाई आदि पुष्प वा कसुंभा आदि से आजीविका करनेवाले इनको पीडा हो और दुर्भिक्ष, युद्ध, अग्निभय हो । । २ ।।

अनावृष्टिः सौम्यवर्षे मृगाशुशलभांडजैः ।

सर्वसस्यवधो व्याधिर्वैरं राज्ञां परस्परम् ॥ ३ ॥

मार्गशिर वर्ष में वर्षा नहीं हो तो, मृग, मूंसा, टीडी, तोते आदि पक्षी इनसे खेती का नाश हो संपूर्ण प्रजा में बीमारी राजाओं का परस्पर वैर होवे ।। ३ ।।

निवृत्तवैरा क्षितिपा जगदानंदकारकाः ॥

पुष्टिकर्मरताः सर्वे पौषेब्देध्वरतत्पराः ॥ ४ ॥

पौषसंज्ञक वर्ष में राजाओं में परस्पर मित्रता प्रजा में आनंद संपूर्ण मनुष्य सुखी तथा यज्ञ करने में तत्पर रहैं ।। ४॥

माघेऽब्दे सततं सर्वे पितृपूजनतत्पराः ॥

सुभिक्षं क्षेममारोग्यं वृष्टिः कर्षकसंमता ॥८॥

माघ वर्ष में निरंतर सब मनुष्य पितरों का पूजन करने में तत्पर रहें सुभिक्ष हो क्षेम आरोग्य हो किसान लोगों के मनके माफिक वर्षा होय ॥ । ५।।

चौराश्च प्रबलास्त्रीणां दौर्भाग्यं स्वजनाः खलाः॥

क्वचिद्वृष्टिः कचित्सस्यं क्वचिद्वृद्धिश्च फाल्गुने ॥ ६ ॥

फाल्गुन नामक वर्ष में चोर प्रबल हो। स्त्रियों को दुःख स्वजनोंमें दुष्टता वर्षा कहीं २ हो खेती थोड़ी उपजे ॥ ६ ॥

चैत्रेब्दे मध्यमा वृष्टिरुत्तमान्नं सुदुर्लभम् ।

सस्यार्घवृष्टयः स्वल्पा राजानः क्षेमकारिणः ॥ ७॥

चैत्र नामक वर्ष में मध्यम वर्षा हो उत्तम अन्न महंगा हो वर्षा थोडी हो राजाओं में क्षेमकुशल रहे ।। ७ ।।

वैशाखे धर्मनिरता राजानः सप्रजा भृशम् ॥

निष्पत्तिः सर्वसस्यानामध्वरोद्युक्तचेतसः ॥ ८॥

वैशाख वर्ष में राजालोग धर्म में तत्पर रहें प्रजा में धर्म की वृद्धि संपूर्ण खेतियाँ अच्छी उपजें सबके मन का भय निवृत्त हो । ८ ।

वृक्षगुल्मलतादीनां क्षेमं सस्यूविनाशनम् ॥

ज्येष्ठेब्दे धर्मतत्त्वज्ञाः सन्नृपाः पीडिताः परैः॥ ९॥  

ज्येष्ठ वंर्ष में वृक्ष गुच्छ बेल आदि का तथा खेतियों का नाश हो धर्मतत्व को जाननेवाले राजा लोग शत्रुओं से पीडित होवें ।। ९ ।।

क्वचिद्दष्टिः क्वचित्सस्यं न तु सस्यं क्वचित्क्वचित् ॥

आषाढेब्दे क्षितीशाः स्युरन्योन्यजयकांक्षिणः ॥ १०॥

आषाढ वर्ष में राजालोग आपस में युद्ध की इच्छा करें कहीं वर्षा हो कहीं खेती हो कहीं बिलकुल खेती नहीं हो ।। १० ॥

अनेकसस्यसंपूर्णा सुरार्चनसमाकुला ।

पापपाखंडहंत्री भूः,श्रावणेब्दे विराजते ॥ ११॥

श्रावण नामक वर्ष में अनेक प्रकार की खेतियों से शोभित तथा देवताओं के पूजन से समाकुल पाप पाखंडरहित पृथ्वी होवे ।। ११ ।।

पूर्वं तु सस्यसंपूर्तिर्नाशं यास्यपरं तु यत् ।

मध्यवृष्टिर्महत्सस्यं नृपाणां समरं महत् ॥ १२॥

अब्दे भाद्रपदे लोके क्षेमाक्षमं क्वचित्क्वचित् ॥

धनधान्यसमृद्धिश्च सुभिक्षमतिवृष्टयः ॥ १३ ॥

भाद्रपद वर्ष में पहिली खेती (सामणू) अच्छी हो और पिछली खेती ( साढू ) नष्ट हो मध्यम वर्षा खेती अच्छी राजाओं का महान युद्ध हो और कहीं कुशल कहीं दुःख धन धान्य की वृद्धि अत्यंत वर्षा यह फल होता है ।। १२ ।। १३ ।।

सुवृष्टिः सर्वसस्यानिफलितानि भवंति च॥

भवंत्याश्वयुजे वर्षे संतुष्टाः सर्वजंतवः ॥ १४ ॥

आश्विन नामक वर्ष में सुन्दर वर्षा संपूर्ण खेतियों की उत्पत्ति फल अच्छा सब प्राणी सुखी यह फल होता है।।१४।।

सौम्यभागे चरन् भानां क्षेमारोग्यसुभिक्षकृत् ॥

विपरीतं गुरोर्याम्ये मध्ये च प्रतिमध्यमम् ॥ १५ ॥

बृहस्पति अपने योगतारा के उत्तर की तरफ होकर जाय तो प्रजा में क्षेम आरोग्य सुभिक्ष हो दक्षिण की तरफ गमन करे तो इससे विपरीत फल हो मध्य में रहे तो मध्यम फल हो ।। १५ ।।

पीताग्निश्यामहरितरक्तवर्णोगिराः क्रमात् ।

व्याध्यग्निरणचौरास्त्रभयकृत्प्राणिनां तदा ॥ १६॥  

बृहस्पति का तारा पीला, अग्नि समान, श्याम, हरित, लालवर्ण होय तो यथाक्रम से प्रजा में रोग, अग्निभय, युद्ध, चोर, शस्त्रभय होता है ।। १६ ।।

अनावृष्टिर्धूम्रनिभः करोति सुरपूजितः ।

दिवा दृष्टो नृपवधस्त्वथवा राज्यनाशनम् ॥ १७॥

धूमांसरीखा वर्ण होय तो वर्षा नहीं हो, दिन में दर्शन होय तो राजा का नाश हो अथवा राज्य नष्टहो ।। १७॥

संवत्सरशरीरः स्यात् कृत्तिकारोहिणी उभे ॥

नाभिस्त्वाषाढद्वितयमार्द्रा हृत्कुसुमं मघा ॥ १८ ॥

कृत्तिका रोहिणी ये दो नक्षत्र संवत्सर का शरीर हैं, पूर्वाषाढा उत्तराषाढा नाभि है, आर्द्रा हृदय, मघा पुष्प है ॥ १८ ।।

दुर्भिक्षाग्निमहद्भितिः शरीरं क्रूरपीडिते ॥

नाभ्यां तु क्षुद्भयं पुष्पे सम्यक् मूलफलक्षयम् ॥ १९ ॥

शरीर के नक्षत्र अर्थात् कृत्तिका रोहिणी ये नक्षत्र क्रूर ग्रहों करके पीडित होवें तो दुर्भिक्ष हो अग्निभय और महान क्षय हो नाभि के नक्षत्र कूरग्रहों से पीड़ित हो तो दुर्भिक्ष हो पुष्प पीडित हो तो मूल फलों का नाश हो ॥ । १९ ।।

हृदये सस्यनिधनं शुभं स्यात् पीडितः शुभैः ।

मेषराशिगते जीवे त्वीतिर्मेषविनाशनम् ॥ २०॥

हृदय के नक्षत्र पीडित होवें तो खेती नाश हो और इसी प्रकार ये सब अंग शुभ ग्रहों से पीडित होवें तो शुभ फल हो मेष राशि पर बृहस्पति होय तो टीडी आदि ईतिभय तथा मेंढाओं का नाश हो ।। २० ॥

सस्यवृद्धिः प्रजारोग्यं वृष्टिः कर्षकसंमता ॥

वृषराशिगते जीवे शिशुस्त्रीपशुनाशनम् ॥

मध्या वृष्टिः सस्यहानिर्नृपाणां समरं महत् ॥ २१ ॥

खेती की वृद्धि प्रजा में कुशल रहै किसान लोगों के मन की माफिक वर्षा हो वृषराशि पर वृहस्पति होय तो बालक स्त्री पशु इनका नाश हो मध्यम वर्षा हो खेती की हानि राजाओं का महान युद्ध हो ॥ २१ ॥

जनानां भीतिरीतिश्च नृपाणां दारुणं रणम् ॥

विप्रपीडा मध्यवृष्टिः सस्यवृद्धिस्तृतीयभे ॥ २२ ॥

मिथुनराशि पर बृहस्पति होय तो मनुष्यों को भय हो खेती में टीडीआदिकों का भय हो राजाओं का दारुण युद्ध हो ब्राहणों को पीडा मध्यम वर्षा खेती की वृद्धि हो ।। २२ ॥

प्रभूतपयसो गावः सुजनाः सुखिनः स्त्रियः ॥

मदोद्धताः कर्किणीज्ये सस्यवृद्धियुता धरा ॥ २३ ॥

कर्कराशि का बृहस्पति होय तो गौ बहुत दूध देवें श्रेष्ठजनों को सुख स्त्री मदोन्मत्त सुखी होवे पृथ्वी पर खेती की वृद्धि हो ।२३।

सिंहराशिगते जीवे निःस्वा भूः सुरसत्तमाः॥

अतिवृष्टिर्व्यालभयं नृपा युद्धे लयं ययुः॥ २४ ॥

सिंहराशि पर बृहस्पति होव तो पृथ्वी पर ब्राहण धनहीन होवें पृथ्वी पर सर्पो का भय हो वर्षा बहुत हो राजालोग युद्ध में मृत्यु को प्रात होवें ॥ २४ ।।

जीवे कन्यागते वृष्टिः हृष्टा स्वस्थाः क्षितीश्वराः ।

महोत्सुकाः क्षितिसुराः स्वस्थास्स्युर्निखिला जनाः।।२५।।  

बृहस्पति कन्याराशि पर आवे तब वर्ष हो राजा प्रसन्न होवें ब्राहणलोग बहुत प्रसन्न रहें सब मनुष्य स्वस्थ (प्रसन्न) रहैं ।२५।। 

जीवे तुलागते सर्वधातुमूलातुलं जगत् ।

तथापि धात्री संपूर्णा धनधान्यसुवृष्टिभिः ॥ २६ ॥

तुलाराशि पर बृहस्पति होय तो जगत में धातु मूल आदि सब द्रव्य बहुत हों पृथ्वी पर धन धान्य सुंदर वर्षा होवे ।। २६ ।।

मदोद्धतानां भूपानां युद्धे जनपदक्षयः।

अतुष्टा वृष्टिरत्युग्रं डामरं कीटगे गुरौ ॥ २७ ॥

वृश्चिकराशि का बृहस्पति होय तो मदोन्मत्त राजाओं के युद्ध में देश का क्षय हो वर्षा खराब हो दारुण युद्ध हो ।। २७ ।।

जीवे चापगते भीतिरीतीर्भूपपभयं महत् ॥

अतुष्टा वृष्टिरत्युग्रा पीडा निःस्वाः क्षितीश्वराः॥ २८ ॥

धनराशि पर बृहस्पति हय तब प्रजा में भय टीडी आदि उपद्रवों का भय राजाओं का महान् भय हो वर्षा अच्छी नहीं हो अत्यंत पीडा हो राजालोगं निर्धन होवें ।। २८ ।।

अशत्रवो जना धात्री पूर्णा सस्यार्घवृष्टिभिः ।

वीतरागभयाः सर्वे मकरस्थे सुरार्चिते ॥ २९ ॥

मकर का बृहस्पति होय तब पृथ्वी पर सब मनुष्यों की मित्रता रहे वर्षा बहुत हो खेती बहुत निपजे सबलोग कुशलपूर्वक रहैं ॥२९॥

सुरस्पर्द्धिजना धात्री फलपुष्पार्घवृष्टिभिः ॥

संपूर्णा कुंभगे जीवे वीतरोगयुता धरा ॥ ३० ॥

कुंभका बृहस्पति होय तब पृथ्वी पर मनुष्य देवताओं की बराबर रहै फल पुष्प वर्षा बहुत हो पृथ्वी पर क्षेम आरोग्य रहैं ॥ ३० ॥

धान्यार्घवृष्टिसंपूर्णै क्वचिद्रोगः क्वचिद्भयम् ।

न्यायमार्गरता भूपाः सर्वे मीनस्थिते गुरौ ॥ ३१ ॥

इति श्रीनारदीयसंहितायां बृहस्पतिचारः ॥

मीन का वृहस्पति होय तब अन्न सस्ता हो, वर्षा बहुत हो, कहीं रोग हो, कहीं भय हो, संपूर्ण राजा न्यायमार्ग में स्थित रहें ॥ ३१ ॥

इति श्रीनारदसंहिताभाषाटीकायां गुरुचारः ।

शुक्रचार का फल 

सौम्यमध्यमयाम्येषु मार्गेषु त्रित्रिवीथयः ॥

शुक्रस्य दस्रभाद्यैश्च पर्यायश्च त्रिभिस्त्रिभिः ॥ १॥

उत्तर, मध्यम,दक्षिण इन मार्गो में तीन२ वीथी कही हैं तहां अश्विनी आदि तीन २ नक्षत्रों पर शुक्र के पर्याय करके यथाक्रम से जानना १॥

नागेभैरावताश्चैव वृषभो गोजरद्गवाः ।

मृगाजदहनाख्यास्स्युर्याम्यांता वीथयो नव ॥ २ ॥

जैसे कि नाग १ गज २ ऐरावत ३ वृषभ ४ गौ ५ जरद्रव ६ मृग ७ अज ८ दहन', ये नव वीथी दक्षिण पर्यत हैं ॥ २ ॥

सौम्यमानेषु तिसृषु चरन् वीथिषु भार्गवः ॥

धान्यार्घवृष्टिसस्यानां परिपूर्ति करोति सः ॥ ३ ॥

तहां उत्तरमार्ग की तीन वीथियों में विचरता हुआ शुक अन्न सस्ता, वर्षा खेती की वृद्धि यह फल करता है ॥ ३ ॥

मध्यमार्गेषु तिसृषु करोत्येषां तु मध्यमः ।

याम्यमार्गेषु तिसृषु तेषामेवाधमं फलम् ॥ ४ ॥

और मध्यमार्ग की तीन वीथियों में विचरे तब सब वस्तु मध्यम फल होता है दक्षिण की तीन वीथियो में विचरे तब अन्नादिक सब वस्तु महँगी होवैं ॥ ४  ॥

पूर्वस्यां दिशि जलदः शुभकृत् पितृपंचके ॥

स्वातित्रये पश्चिमायां सम्यक् शुक्रस्तथाविधः ॥ ५  ॥

मघा आदि पांच नक्षत्र पर प्राप्त हुआँ शुक्र पूर्वदिशा में उदय हो वा अस्त होय वर्षा अच्छी हो स्वाति आदि तीन नक्षत्रों पर प्राप्त हुआ पश्चिम दिशा में उदय वा अस्त हो तब भी ऐसा ही शुभफल जानना ॥ ५ ॥

विपरीते त्वनावृष्टिर्वृष्टिकृद्वधसंयुतः ।

कृष्णाष्टम्यां चतुर्दश्याममावास्यां यदा सितः ॥ ६ ॥

उदयास्तमयं याति तदा जलमयी क्षितिः॥

मिथः सप्तमराशिस्थौ पश्चात्प्राग्वीथिसंस्थितौ ॥ ७ ॥

गुरुशुक्रावनावृष्टिर्दुर्भिक्षमरणप्रदौ ॥

कुजज्ञजीवरद्विजाः शुक्रस्याग्रेसरा यदा ॥ ८ ॥

युद्धातिवायुदुर्भिक्षं जलनाशकरास्तदा ।

कृष्णरक्तस्तनुः शुक्रो पवनानां विनाशकृत् ॥ ९ ॥

इति नारदीयसंहितायां शुक्रचारः ।

'इससे विपरीत हो तो विपरीत फल जानना और बुध सहित -शुक्र होय तब वर्षा होती है कृष्णपक्ष की अष्टमी चतुर्दशी तथा अमावास्या को शुक्र उदय हो अथवा अस्त होय तो पृथ्वी पर वर्षा बहुत हो और बृहस्पति तथा शुक्र आपस में सातवीं राशि पर स्थित होकर प्राग्वीथि और पश्चिमवीथि पर स्थित हों तो वर्षा नहीं हो दुर्भिक्षा तथा मरण हो और मंगल बुध बृहस्पति शनि ये शुक्र के आगे स्थित होवें तो युद्ध हो पवन बहुत चले दुभिक्ष हो वर्षा नहीं हो शुक्र का तारा काला वर्ण तथा लाल वर्ण होय तो यवनों ( म्लेच्छों) का नाश हो ॥ ६-९ ॥

इति श्रीनारदसंहिताभाषाटीकायां शुक्रचारः ।

शनिचार का फल 

श्रवणानिलहस्तार्द्राभरणीभाग्यभेषु च ।।

चरन्शनैश्चरो नृणां सुभिक्षारोग्यसस्यकृत् ॥ १ ॥

श्रवण, स्वाति, हस्त, आर्द्रा, भरणी, पूर्वाफाल्गुनी इन नक्षत्रों पर विचरता हुआ शनि मनुष्य को शुभ है सुभिक्ष कुशल करता है ।। १।।

जलेशसार्पमाहेंद्रनक्षत्रेषु सुभिक्षकृत् ॥

क्षुच्छस्त्रावृष्टिदो मूलेहिर्बुध्न्यान्त्यभयोर्भयम् ॥ २॥

शतभिषा, आश्लेषा; ज्येष्ठा, इन पर होय तब भी सुभिक्ष हो मूल पर होय तो दुर्भिक्ष, युद्ध, अनावृष्टि यह फल हो उत्तराभाद्रपदा तथा रेवती पर होय तब प्रजा में भय हो । २ ।

मूर्ध्नि चैकं मुखे त्रीणि गुह्ये द्वे नयने द्वयम् ।

हृदये पंच ऋक्षाणि वामहस्ते चतुष्टयम् ॥ ३ ॥

जन्म के नक्षत्र से शनि के नक्षत्र तक गिनै फिर एक नक्षत्र मस्तक पर धरै मुख पर तीन गुदा पर दो नेत्रों पर दो हृदय पर पांच और बायें हाथ पर चार नक्षत्र रक्खे ।। ३ ।।

वामपादे तथा श्रीणि देया त्रीणि च दक्षिणे ।

दक्षहस्ते च चत्वारि जन्मभाद्रविजः स्थितः ॥ ४ ॥

बायें पैर पर तीन दहिने पैर में तीन दहिने हाथ पर चार ऐसे जन्म के नक्षत्र से शनि के नक्षत्र तक रखना । ४ ।।

रोगो लाभस्तथा हानिर्लाभः सौख्यं च बंधनम् ।

आयासं चेष्टयात्रा च ह्यर्थलाभःक्रमात्फलम् ॥ ५ ॥

इनका फल यथा क्रम से रोग, लाभ, हानि, लाभ, सौख्य, बंधन, दुःख, मनोवांछित यात्रा,द्रव्यप्राप्ति, यह फल जानना ॥ ५॥

वक्रकृद्रविजस्येहे तद्वक्रफलमीदृशम् ॥

करोत्येवं समः साम्यं शीध्रगो व्युत्क्रमात्फलम् ॥ ६ ॥

इति श्रीनारदीयसंहितायां शनिचारः ॥

शनि वक्री होय तब अशुभ फल जानना मध्यम गति पर रहे । तब मध्यम फल जानना शीघ्रगति होय तो शुभ फल जानना।।६।।

इति श्रीनारदसंहिताभाषाटीकायां शनिचारः ।

राहूचार का फल 

अमृतास्वादनादाहुः शिराच्छिन्नोपि सोऽमृतः ॥

विष्णुना तेन चक्रेण तथापि ग्रहतां गतः ॥ १ ॥

अमृत चखने के कारण से राहु का शिर विष्णु भगवान ने सुदर्शन चक्र से काट दिया था तो भी अमृत पीकर अमर हो ग्रह हो गया ।। १ ॥

वरेण धातुर्रर्केदू ग्रसते सर्वपर्वणि ॥

विक्षेपावननेर्वशाद्राहुर्दूरं गतस्तयोः ॥ २ ॥

फिर बह्माजी के वर से अमावस्या पूर्णिमा पर्वणी विषे सूर्य चंद्रमा को ग्रसता है तहां विक्षेप होने से और हीनवंश ( असुर ) होने से राहु तिन सूर्य चंद्रमा से दूर चला गया है। २ ।।

षण्मासवृद्धया ग्रहणं शोधयेद्रविचंद्रयोः।।

पर्वेशाशःस्युस्तथा सप्त देवाः कल्पादितः क्रमात् ॥ ३ ॥

छह २ महीनों के अंतर में सूर्य, चंद्रमा का ग्रहण होता है तहां कल्प की आदि से इस मर्यादा के ग्रहणों में यथाक्रम से सात देवता अधिपति होते हैं ।। ३ । ।

ब्रह्मेंर्द्विंद्रधनाधीशवरुणाग्नियमाह्वयाः ।

पशुसस्यद्विज्ञातीनां वृद्धिर्ब्राह्मे च पर्वणि ॥ ४ ॥

ब्रह्म, इंद्र, चंद्रमा, कुबेर, वरुण, अग्नि,यम ये सात हैं तहां ब्राह्म संज्ञक ग्रहण में अर्थात् जिसका अधिपति बह्मा हो ऐसे ग्रहण में पशु खेती, ब्राह्मण इनकी वृद्धि हो । ४ ।

तद्वदेव फलं सौम्ये बुधपीडा च पर्वणि ।

विरोधो भूभुजां दुःखमैद्रे सस्यविनाशनम् ॥ ५ ॥

चंद्रसंज्ञक ग्रहण में भी यही फळ हो परंतु पंडितजनों को पीडा हो इंद्रसंज्ञक ग्रहण में राजाओं का विरोध दुःख हो और खेती का नाश हो । ५ ॥

अर्थेशानामर्थहानिः कौबेरे धान्यवर्धनम् ॥

नृपाणामशिवं क्षेममितरेषां तु वारुणे ॥ ६॥

कुबेर संज्ञक ग्रहण में साहूकार लोगों के धन की हानि हो और प्रजा में धान्य की वृद्धि हो वरुणसंज्ञक ग्रहण में राजाओं को दुःख अन्य प्रजा में सुख हो । ६ ।। 

प्रवर्षणं सस्यवृद्धिः क्षेमं हौताशपर्वणि ॥

अनावृष्टिः सस्यहानिर्दुर्भिक्षं याम्यपर्वणि ॥७॥

अभिसंज्ञक ग्रहण में वर्षा अच्छी हो खेती की वृद्धि हो प्रजा में कुशल हो याम्य पर्व में वर्षा नहीं हो खेती की हानि दुर्भिक्ष हो ॥ ७ ॥

वेलाहीने सस्यहानिर्नृपाणां दारुणं रणम् ॥

अतिवेले पुष्पहानिर्भयं सस्यविनाशनम् ॥ ८ ॥

वेलाहीन अर्थात् स्पष्ट समय से पहले ही ग्रहण होने लग जाय तो खेती की हानि राजाओं का दारुण युद्ध हो अतिवेल उक्त समय से पीछे वा ज्यादै ग्रहण हो तो पुष्प की हानि, भय, खेती का नाश हो ॥ । ८ ॥

एकस्मिन्नेव मासे तुचंद्रर्कग्रहणं यदा ।

विरोधं धरणीशानामर्थवृष्टिविनाशनम् ॥ ९॥

जो एक ही महीने में चन्द्रमा सूर्य इन दोनों का ग्रहण होय तो राजाओं का वैर हो धन का और वर्षा का नाश हो ।।९।।

ग्रस्तोदितावस्तमितौ नृपधान्यविनाशदौ ॥

सर्वग्रस्ताविनेंदुभौ क्षुद्वाय्वग्निभयप्रदौ ॥ १० ॥

ग्रहण होता हुआ उदय हो अथवा अस्त होय तो राजा का तथा धान्य का नाश हो सूर्य चंद्रमा इन दोनों का सर्व ग्रहण होय तो दुर्भिक्ष, वायु, अग्नि इनका भय हो ।। १० ।।

द्विजादींश्च क्रमाद्धंति राहुर्दष्टो दिगादितः ।

दशैव ग्रासभेदाःस्युर्मोक्षभेदास्तथा दश ॥ ११ ॥

पूर्व आदि दिशाओं में क्रम से जिस दिशा में ग्रास दीखे तहां ब्राह्मण आदि चारों वर्णों को नष्ट करता है जैसे पूर्व में ब्राह्मण,दक्षिण में राजा, इत्यादि ग्रास के दश भेद हैं और मोक्ष के भी दश भेद हैं ११॥

न शक्या लक्षितुं देवैः किं पुनः प्राकृतैर्जनैः ।

आनीय खेटान् सिद्धांतात्तेषां चारं विचिंतयेत् ॥ १२ ॥

वे सब भेद अच्छे प्रकार से तो देवताओं से की नहीं देखे जाते हैं फिर साधारण मनुष्यों से क्या देखे जावेंगे सिद्धान्तशास्त्र से ग्रहों को स्पष्टकर तिनकर भेद विचारना चाहिये ।। १२ ॥

शुभाशुभाप्तेः कालस्य ग्रहचारो हि कारणम् ।

तस्मादन्वेषणीयं तत्कालज्ञानाय धीमता ॥ १३ ॥

इति श्रीनारदीयसंहितायां राहुचारः ॥

समय की शुभ अशुभ प्राप्ति करने में ग्रहों का चार ही कारण है। इसलिये बुद्धिमान् मनुष्य ने कालज्ञान के वास्ते वह कारण देख लेना चाहिये ।। १३ ॥

इति श्रीनारदसंहिताभाषाटीकायां राहुचारः ।

केतुचार का फल 

उत्पातरूपाः केतूनामुदयास्तमया नृणाम् ।।

दिव्यंतरिक्षा भौमास्ते शुभाशुभफलप्रदः ॥ १॥

केतु का उदय अस्त होना मनुष्यों को उत्पात रूप कहा है सो स्वर्ग अंतरिक्षी भूमि इनमें शुभ अशुभ फलदायी उत्पात होने कहे हैं ।।१।।

यज्ञध्वजास्त्रभवनरथवृक्षगजोपमाः ।

स्तंभशूलगदाकारा अंतरिक्षाः प्रकीर्तिताः ॥ २ ॥

जैसे यज्ञध्वजा, अस्त्र, मंदिर, रथ, वृक्ष, हस्ती, शूल, स्तंभ, गदा, इनके आकार चिह्न किसी को आकाश में दीख पडें वह अंतरिक्ष उत्पात कहा है ।। २ ।।

नक्षत्रसंस्थिता दिव्या भौमा ये भूमिसंस्थिताः ।

एकोष्यमित्ररूपः स्याज्जंतूनामशुभाय वै ॥ ३ ॥

नक्षत्रों में स्थित कोई उत्पात दीखें वे दिव्य उत्पात कहे हैं भूमि में जो उत्पात दीखें वे भौम उत्पात कहे हैं इनमें से  एक भी उत्पात शत्रु रूप है प्राणियों को अशुभ फलदायी जानना ।। ३  

यावतो दिवसात्केतुर्दश्यते विविधात्मकः ।

तावन्मसौः फलं वाच्यं मासैश्चैव तु वत्सराः ४ ॥

जितने दिनों तक केतु ग्रह ( शिखावाला तारा) उदय रहे उतने ही महीनों तक फल जानना और जितने महीनों तक दीखे उतने ही वर्ष तक शुभ अशुभ फल जानना ।। ४ ।।

ये दिव्याः केतवस्तेपि शश्वत्तीव्रफलप्रदाः ।

अंतरिक्षा मध्यफला भौमा मंदफलप्रदाः ।। ४ ।।

जो आकाश में केतु दीखें वे निरंतर दारुण फल करते हैं और जो आकाश में उत्पात दीखते हैं वे मध्यम फलदायी हैं पृथ्वी के उत्पात मंद फलदायी हैं । ५ ।।

ह्रस्वः स्निग्धः सुप्रसन्नः श्वेतकेतुः सुभिक्षकृत् ।

क्षिप्रादस्तमयं याति दीर्घकेतुः सुवृष्टिकृत् ॥ ६॥

छोटा सा चिकना स्वच्छ सफेद पूंछ वाला ऐसा केतु शुभदायक है । जो शीघ ही छिप जाय ऐसा दीर्घ केतु भी शुभदायक है । ६ ।

अनिष्टदो धूमकेतुः शक्रचापस्य सन्निभः ।

द्वित्रिचतुःशूलरूपः स च राज्यांतकृत्तदा ॥ ७ ॥

धूमा सरीखा तथा इंद्रधनुष के वर्ण सरीखा केतु अशुभ है और दो, तीन, चार शूलो का रूप होय तो राज्य को नष्ट करे ।। ७ ।।

मणिहारस्सुवर्णाभा दीप्तिमंतोर्कसूनवः ॥

केतवोभ्युदिताः पूर्वापरयोर्नृपघातकाः॥ ८॥

मणि, हार, सुवर्ण, इन सरीखी कांतिवाले केतु उदय होयें तो पहिले और पिछले राजाओं को नष्ट करें वे सूर्य के पुत्र कहलाते हैं । ८ ॥

बंधूकबिंबक्षतजशुकतुंडाग्निसन्निभाः ॥

हुताशनप्रदास्तेपि केतवश्वग्निसूनवः ॥ ९॥

बंधूक याने दुपहरिया, नाम फूल सरीखे तथा लालवर्ण तथा तोता सरीखे हरेवर्ण, अग्नि समान वर्ण ये केतु अग्निभय करते हैं ये अग्नि के पुत्र कहे हैं ॥ ९ ॥

व्याधिप्रदा मृत्युसुता वक्रास्ते कृष्णकेतवः॥

भूसुता जलतैलाभा वर्तुलाः क्षुद्भयप्रदाः॥ १० ॥

टेढे आकारवाले कालेवर्ण केतु मृत्यु के पुत्र हैं वे रोगदायक हैं जल के समान तथा तेल समान कांतिवाले गोलवर्ण केतु भूमि के पुत्र कहे हैं वे दुर्भिक्ष का भय करते हैं ॥ १० ॥

क्षेमः सुभिक्षदाः श्वेताः केतवः सोमसूनवः ।

पितामहात्मजः केतुः त्रिवर्णास्त्रिशिखान्विताः ॥ ११ ॥

सफेद वर्णवाले केतु चन्द्रमा के पुत्र कहे हैं वे क्षेम कुशल और सुभिक्ष करनेवाले हैं ब्रह्मा का पुत्र केतु तीन वर्णोवाला तथा तीन शिखाओं वाला कहा है ॥ ११ ॥

ब्रह्मदंडाद्वयः केतुः प्रजानामंतकृत्सदा ॥

ऐशान्यां भार्गवसुताः श्वेतरूपास्त्वनिष्टदाः ॥ १२ ॥

वह बलदण्ड नामक केतु है सदा प्रजा को नष्ट करनेवाला है सफेद रूपवाले केतु ईशान दिशा में उदय होते हैं वे शुक्र के पुत्र अशुभफलदायी हैं । १२ ।।

अनिष्टदाः पंगुसुताः द्विशिखाः कनकाह्वयाः ।

विकचाख्या गुरुसुता नेष्टा याम्यस्थिता अपि ॥१३॥

दो शिखाओं वाले सुवर्ण सरीखे वर्णवाले केतु शनि के पुत्र हैं वे अशुभ कहे हैं । विकच नामक केतु दक्षिण दिशा में उदय होते हैं । वे बृहस्पति के पुत्र अशुभ हैं ।। १३ ।।

सूक्ष्माः शुक्लाः बुधसुता घोराश्चौरभयप्रदाः ॥

कुजात्मजाः कुंकुमाख्या रक्ताः शूलास्त्वनिष्टदां॥१४॥

सूक्ष्मरूप, श्वेतवर्ण, केतु बुध के पुत्र हैं वे घोर हैं चोरों का भय करते हैं । छाल वर्णवाले कुंकुम नामक केतु मंगल के पुत्र कहे हैं वे अशुभ फलदायक हैं ॥ १४ ॥

अग्निजा विश्वरूपाख्या अग्निवर्णाः शुभप्रदाः ॥

अरुणः श्यामलाकारः पापपुत्राश्च पापदाः॥ १५ ।।

विश्वरूप नामक केतु अग्नि के पुत्र हैं वे अग्नि समान वर्णवाले शुभदायक हैं। लाल तथा श्यामवर्ण केतु पाप के पुत्र हैं वे अशुभ फलदायक हैं ।।१५ ।।

शुक्रज्ञ ऋक्षसदृशः केतवः शुभदायकाः ॥

कंकाख्यब्राह्मजाः श्वेताः कष्टा वंशलतोपमाः। १६ ।।

नक्षत्र समान आकार वाले साधारण तारा समान केतु शुक्र के पुत्र शुभदायक हैं। कंक्रनामक श्वेतवर्ण केतु बांस तथा लता समान आकार उदय होते हैं वे कष्टदायक कहे हैं ।। १६ ।।

कबंधाख्याः कालसुता भस्मरूपास्त्वनिष्टदाः ।

विधिपुत्राह्ययाः शुक्लाः केतवो नेष्टदायकः१७ ॥

कबंध नामक काल के पुत्र हैं वे भस्मसमान वर्णवाले अशुभ कहे हैं और सफेद वर्ण केतु ब्रह्मा के पुत्र हैं वे शुभदायक नहीं हैं।१७।

कृत्तिकासु समुद्भूतो धूमकेतुः प्रजांतकृत् ॥

प्रासादशैलवृक्षेषु जातो राज्ञां विनाशकृत् ॥ १८॥

कृत्तिका नक्षत्रों के पास केतु उदय होय तो प्रजा नाश करें देव मंदिर पर्वत बड़ा वृक्ष इनके ऊपर केतु उदय हो तो राजाओं का नाश करे ।। १८ ॥

सुभिक्षकृत्कुमुदाख्यः केतुः कुमुदसन्निभः ।

आर्तकेतुः शुभदः श्वेतश्चावर्तसन्निभः ॥ १९ ॥

कुमुद नामक केतु कुमोदिनी पुष्प सरीखा होता है वह सुभिक्ष फलदायक है जौंहरीदार सफेद केतु आवर्त्तसंज्ञक कहा है वह शुभदायक है ॥ १९ ॥

संवर्त्तकेतुः संध्यायां त्रिशिरा नेष्टदारुणः ॥ २० ॥

इति श्रीनारदीयसंहितायां केतु चारांतर्गतग्रहचा राध्ययो द्वितीयः ॥ २ ॥

संध्या समय में तीन शिखाओं वाला उदय हो वह संवर्त्त केतु कहा है सो दारुण अशुभ फलकारक है ॥ २० ॥

इति श्रीनारदसंहिताभाषाटीकायां केतुचारां तर्गतग्रह्चाराध्यायो द्वितीयः ॥ २ ॥

इति श्रीनारदसंहिताभाषाटीकायां नारदसंहिता अध्याय २  ॥

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