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कर्मकाण्ड

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नारदसंहिता अध्याय ३

नारदसंहिता अध्याय ३  

नारदसंहिता अध्याय ३ में संवत्सरप्रकरण, संवत्सर का फल, अयन तथा ऋतु का विचार का वर्णन किया गया है।  

नारदसंहिता अध्याय ३

नारदसंहिता अध्याय-३  

ब्राह्मदैवं मानुषं च पित्र्यं सौरं च सावनम् ॥

चांद्रमार्क्षं गुरोर्मानमिति मनानि वै नव १ ॥

ब्राह्म, दैव, मानुष, पित्र्य, सौर, सावन, चांद्र, नाक्षत्र, गुरुमान ऐसे नव प्रकार के वर्ष मासादि प्रमाण हैं ॥ १ ॥

एषां तु नवमानान् व्यवहारोत्र पंचभिः ।

तेषां पृथक्पृथक्कार्यं वक्ष्यते व्यवहारतः ॥ २ ॥  

इन नव भेदों में यहां पांच प्रकारों से व्यवहार होता है जिनके अलग-अलग कार्य व्यवहार कहते हैं ॥ २ ॥

ग्रहणं निखिलं कार्यं गृह्यते सौरमानतः ॥

विधेर्विधानं स्त्रीगर्भ सावनेनैव गृह्यते ॥ ३ ॥

ग्रहण के सब कार्य सौरमान से किये जाते हैं किसी कार्य का विधान स्त्री का गर्भ सावन मास से गिना जाता है ॥३॥

प्रवर्षणं मेघगर्भो नाक्षत्रेण प्रगृह्यते ।

यात्रोद्वाहव्रतक्षौरतिथिवर्षादिनिर्णयः ॥ ४ ॥

वर्षाकाल मेघ का गर्भ ये नाक्षत्र मास के क्रम से ग्रहण किये जाते हैं । यात्रा, विवाह, व्रत, और तिथि वर्षादि का निर्णय ॥४॥

पर्ववास्तूपवासादि कृत्स्नं चांद्रेण गृह्यते ॥

गृह्यते गुरुमानेन प्रभवाद्यब्दलक्षणम् ॥ ५॥

पर्वणी वास्तुकर्म व्रत नियम यह चांद्रमास से ग्रहण किये जाते हैं अर्थात् चैत्र शुक्ल पक्ष से जो संवत् लगता है वही क्रम लिया जाता है और प्रभवादिक संवत्सरों का लक्षण गुरुमान से ग्रहण किया जाता है ॥ ५॥

भचक्रगतिरार्क्षं स्यात्सावनं त्रिंशता दिनैः ।

सौरं संक्रमणं प्रोक्तं चांद्रं प्रतिपदादिकम् ॥ ६ ॥

नक्षत्रों की गति के अनुसार गिना जाय वह आर्क्ष ( नक्षत्र मास ) कहा है और पूरे तीस दिन का होय वह सावन मास कहा है। सूर्य की संक्रांति के क्रम से हो वह सौर मास है प्रतिप्रदा आदि क्रम से चांद्र संज्ञक मास होता है॥६॥

तत्तन्मासैर्द्वादशभिस्तत्तदब्दो भवेत्ततः ॥

गुरुचारेण संभूताः षष्ट्यब्दाः प्रभवादयः ॥ ७ ॥

जिन बारह महीनों करके तिसी २ नामवाला वर्ष होता है तहां बृहस्पति की राशिक्रम से प्रभव आदि साठ संवत्सर होते हैं ॥ ७ ॥

प्रभवो विभवः शुक्लः प्रमोदोथ प्रजापतिः ।

अंगिराः श्रीमुखो भावो युवा धाता तथेश्वरः ॥ ८॥

प्रसव १ विभव २ शुक्ल ३ प्रमोद ४ प्रजापति ५ अंगिरा ६ श्रीमुख ७ भाव ८ युवा ९ धाता १० ईश्वर ११ ॥८॥

बहुधान्यः प्रमाथी च विक्रमो वृषसंज्ञकः ।

चित्रभानुः सुभानुश्च तारणः पार्थिवो व्ययः ॥ ९॥

बहुधान्य १२ प्रमाथी १ ३ विक्रम १४ वृष १५ चित्रभानु १६ सुभानु १७ तारण १८ पार्थिव १९ व्यय २० ॥९॥

सर्वजित् सर्वधारी च विरोधी विकृतः खरः ॥

नंदनो विजयश्चैव जयो मन्मथदुर्मुखौ ॥ १० ॥

सर्वजित् २१ सर्वधारी २२ विरोधी २३ विकृत २४ खर२५ नंदन २६ विजय २७ जय २८ मन्मथ २९ दुर्मुख ३० ॥१०॥

हेमलंबो विलंबश्च विकारीशार्वरी प्लवः ॥

शुभकृच्छोभनः क्रोधी विश्वावसुपराभवौ ॥ ११ ॥

हेमलंब ३१ विलंब ३२ विकारी ३ ३ शार्वरी ३४ प्लव ३१ शुभकृत् ३६ शोभन ३७ क्रोधी ३८ विश्वावसु ३९ पराभव ४ ० ॥ ११ ॥

प्लवंगः कीलकः सौम्यः साधरणो विरोधकृत् ।

पारधावी प्रमादी च आनंदो राक्षसोनलः ॥ १२ ॥

प्लवंग ४१ कीलक ४२ सौम्य ४३ साधारण ४४ विरोधकृत ४५ पारिधावी ४६ प्रमादी ४७ आनंद ४८ राक्षस ४९ अनल ५० ॥ १२ ॥

पिंगलः कालयुक्तश्च सिद्धार्थी रौद्रदुर्मती ॥

दुन्दुभी रुधिरोद्गारी रक्ताक्षी क्रोधनः क्षयः १३ ॥

पिंगल ५१ कालयुक्त ५२ सिद्धार्थी ५३ रौद्र ५४ दुर्मति ५५ दुंदुभी ५६ रुधिरोद्गारी ५७ रक्ताक्षी ५८ क्रोधन ५९ क्षय ६० ऐसे ये ६० वर्ष हैं ।। १३ ।।

युगं स्यात्पंचभिर्वर्षैर्युगानि द्वादशैव ते ।

तेषामीशाः क्रमाज्ज्ञेया विष्णुर्देवपुरोहितः ॥ १४ ॥

पांच वर्षो का युग होता है फिर वे बारह युग होते हैं उनके स्वामी क्रम से विष्णु १ बृहस्पति २ ॥ १४ ॥

पुरंदरो लोहितश्च त्वष्टहिर्बुध्न्यसंज्ञकः ।

पितरश्च ततो विश्वे शशीन्द्राग्नी भगोऽश्विनौ ॥ १४ ॥

युगस्य पंचवर्षेशा वीह्नीनेंद्वब्जजेश्वराः ॥

तेषां फलानि प्रोच्यन्ते वत्सराणां पृथक्पृथक् ॥ १६ ॥

इंद्र ३ भौम ४ त्वष्टा ५ अहिर्बुध्न्य ६ पितर ७ विश्वेदेवा ८ चंद्रमा ९ इंद्राग्नि १० भग ११ अश्विनीकुमार १२ ये बारह देवता कहे हैं। तहां एक युग के पांच वर्षेश कहे हैं । अग्नि १ सूर्य २ चंद्रमा ३ अह्म ४ शिव ५ ये पांच जानने ।। १५ - १६ ॥

क्वचिहृद्धिः क्वचिद्धानिः क्वचिद्भितिः क्वचिद्गदः ।

तथापि मोदते लोकः प्रभवाब्दे विमत्सरः ॥ १७ ।।

तिन साठ ६० संवत्सरों के फल कहते हैं । प्रभवनामक वर्ष में कहीं हानि हो कहीं वृद्धि हो कहीं भय हो कहीं रोग हो तो भी संपूर्ण प्रजा वैर रहित होकर सुखी रहै ॥ १७ ।।

आन्वीक्षिकीसु निरताः सप्रजाः स्युः क्षितीश्वराः।

कर्षकाभिमता वृष्टिर्विभवाब्दे विवैरिणः। १८ ।।

वितवनाम वर्ष में राजा प्रजा नीति में प्रवृत्त रहैं किसान लोगों के मन के अनुसार वर्षा हो लोगों में आपस में प्रीति बढे ।। १८ ।।

सकलत्रात्मजाञ्छश्वल्लालयंत्यबला जनः ।

अमरस्पर्द्धिनः शुक्ले वत्सरे विगतारयः ॥ १९ ॥

शुक्ल नामक वर्ष में पुरुष निरंतर स्त्री पुत्रों का सुख भोगें और स्त्रियां पुत्र का सुख भोगें देवताओं के समान आनन्द वृद्धि हो प्रजा में शत्रुता न रहें ।। १९ ।।

अतिव्याध्यर्दिता लोकाः क्षितीशः कलहोत्सुकाः ।

प्रमोदाब्दे प्रमोदंते तथापि निखिला जनाः ॥ २० ॥

प्रमोद नाम वर्ष में लोगों में अत्यंत बीमारी रहै राजाओं में कलह रहै तो भी संपूर्ण प्रजा सुख भोगै ॥ २० ॥

क्लेशः क्वचिन्न प्रेक्ष्यंते स्वजनानामनामयः ॥

एवं वै मोदते लोका प्रजापतिशरद्युतः ॥ २१ ॥

प्रजापति नामक बर्ष में प्रजा में दुःख कभी नहीं हो स्वजनों के साथ मित्रता बढे रोग नहीं हो ऐसे प्रजा में आनंद रहै ॥ २१ ।।

अतिथिस्वजनैस्सार्घमन्नं बोभुज्यते मधु ॥

पेपीयंते कामिनीभिरंगिरोऽब्दे निरंतरम् ॥ २२ ॥

अंगिरा नामक वर्ष में अतिथिजन तथा स्वजन मनुष्यों के साथ अन्न मिष्ट पदार्थ भोजन किया जाय स्त्रियाँ अच्छे प्रकार से रमण करैं ।। २२ ।।

श्रीमुखेब्दे दुग्धपूर्णा गोकर्णवलयेव भूः ।

सस्यपीता वरावारि गावस्तुंगपयोधराः ॥ २३ ॥

श्रीमुखनामक वर्ष में पृथ्वी पर दूधदेने वाली गौओं की वृद्धि हो खेतियों में वर्षा बहुत अच्छी हो गौओं के दूध की वृद्धि हो ।२३।।

स्युर्भूभुजो प्रभाभाजः प्रभंजनभुजः परे ॥

भावाब्दे भूसुरग्राम भ्रमणं लोभतः सदा ॥ २७ ॥

भाव नामक वर्ष में राजाओं के तेज की वृद्धि, शत्रुओं को दुःख हो ब्राह्मण लोगों के समूह लोभ के कारण प्रजा में भ्रमते रहैं ॥ २४ ॥

मुदऽजस्रं रमयति युवाब्दे युवतीजनः ॥

युवानो निखिला लोकाः क्षितिश्चापि फलोत्कटा।२४।।

युवा नामक वर्ष में स्रियां निरंतर रमण करें और पृथ्वी पर फल बहुत उत्पन्न होवे ॥ २५ ।।

धात्री धात्रीव लोकानामभया च फलप्रदा ।

धात्रब्दे धरणीनाथाः परस्परजयोत्सुकाः ॥ २६ ॥

धाता नामक वर्ष में पृथ्वी लोगों को माता के समान सुखदेनेवाली हो, भय नहीं हो, पृथ्वी पर फल बहुत हों राजा लोग आपस में युद्ध करने की इच्छा करें ॥ २६ ॥

ईश्वराब्दे स्थिरः क्ष्मेशा जगदानंदिनी मही ।

अध्वरे निरता विप्राः स्वस्वमार्गे रताः परे ॥ २७ ॥

ईश्वर नामक वर्ष में राजा लोग सुखी रहैं पृथ्वी पर सब मनुष्य बहुत खुशी रहैं ब्राह्मण लोग यज्ञ करने में तत्पर रहें अन्य लोग अपने अपने काम में तत्पर रहैं ।। २७ ।।

बहुधान्ये च बहुभिर्धान्यैः पूर्णाखिला धरा ॥

प्रभूतपयसो गावो राजानः स्युर्विवैरिणः ॥ २८ ॥

बहुधान्य नामक वर्ष में पृथ्वी बहुत धान्य से परिपूर्ण हो गौवें बहुत दूध देवें राजाओं में वैर नहीं रहै ।। २८ ।।

बलाहका न मुञ्चति कुत्रचित्प्रचुरं पयः ।

प्रमाथ्यब्दे वीतरागास्तथापि निखिला जनाः॥ २९॥

प्रमाथी नामक वर्ष में मेघ कहीं विशेष वर्षा नहीं करें मनुष्यों में आपस में वैर होये ।। २९ ।।

प्रवहंति जलं स्वच्छं स्रवंति प्रचुरं पयः।

विक्रमाब्देखिलाः क्ष्मेशा विक्रमाक्रांतभूमयः ॥३० ॥

विक्रम नामक वर्ष में वर्षा बहुत हो सम्पूर्ण राजा लोग सेनाओं से भरपूर होके पृथ्वी दबाने का उद्योग करें ॥३०॥

विविधैरन्नपानाद्यैर्ह्रष्टपुष्टांगचेतसः ।

मदोन्मत्ताखिला लोका वृषाब्दे वृषसन्निभाः ॥ ३१ ॥

वृष नामक वर्ष में अन्नादिकों के प्रभाव से सब मनुष्य हृष्ट-पुष्ट शरीरवाले मदोन्मत्त होकर वृष ( बैल ) समान पुष्ट रहैं ॥ ३१ ॥

विचित्र वसुधा चित्रपुष्पवृष्टिफलादिभिः ।।

चित्रभानुशरद्येषा भाति चित्रांगना यथा ॥ ३२ ॥

चित्रभानु वर्ष में विचित्र पुष्प फलादिकों के प्रभाव से यह पृथ्वी ऐसी विचित्र शोभित हो कि जैसे चित्रांगना ( सुंदरनारी) शोभित हो ॥ ३२ ॥

नन्दन्तीह जनाः सर्वे भूमिर्भूरिफलान्विता ।

सुभlनुवत्सरे भूमिर्भीमभूपालविग्रहा ॥ ३३ ॥

सुभानु नामक वर्ष में पृथ्वी बहुत फलों से भरपूर हो सब मनुष्य आनंद करें राजा लोगों का युद्ध हो ॥ ३३ ॥

प्रतरन्त्युडुपोपायैः सरितोर्थाय संततम् ॥

तरणाब्दे त्वतुलिता अर्थवंतो हि जंतवः ॥ ३४ ॥

तारण नामक वर्ष में प्रयोजन के वास्ते निरंतर नौका के उपायों करके सब मनुष्य नदियों से पार गमन करें और बहुत धन का संचय करें ॥ ३४ ॥

पतन्ति करकोपेताः पयोधारा निरंतरम् ॥

पापादपेतमनसः पार्थिवाब्दे तु पार्थिवाः ॥ ३५ ॥

पार्थिव नामक वर्ष में ओला सहित निरंतर वर्षा हो राजालोग अपने मन में पाप का चिंतचन न करें ।। ३५ ॥

दीप्यते वसुधा वीरभटवारणवाजिभिः॥

व्यपेतव्याधयः सर्वे व्ययाब्दे तु व्ययान्विताः ॥ ३६ ॥

व्ययनाम वर्ष में शूरवीर हस्ती घोडे इन्होंने पृथ्वी परिपूर्ण, प्रजा में बीमारी नहीं हो सब मनुष्य द्रव्य खर्च बहुत करें ।। ३६ ।।

गीर्वाणपूर्वगीर्वाणान् गर्वनिर्भरचेतसः ॥

सर्वाजिद्वसरे सर्व उर्वीशानं हंति भूमिपान् ॥ ३७ ॥

सर्वजित् नामक वर्ष में गर्व से भरपूर हुए संपूर्ण पृथ्वी के राजालोग देवता तथा दैत्यों को नष्ट करै अर्थात् पृथ्वी पर बहुत सुख बढै ।। ३७ ।।

सर्वधारीवत्सस्मिन् जगदानंदिनी धरा ॥

प्रशांतवैरा राजानः प्रजापालनतत्पराः ॥ ३८॥

सर्वधारी नामक वर्ष में पृथ्वी पर सब जगह आनंद होवे राजालोग आपस में वैरभाव नहीं करें अपनी २ प्रजापालन में तत्पर रहैं ।।३८।।

विरोधं सततं कुर्वत्यन्योन्यं क्षितिपाः प्रजाः ॥

विरोधिवत्सरे भूमिर्भूरिवारिधरैर्वृता ॥ ३९ ॥

विरोधी नामक वर्ष में राजालोग आपस में युद्ध करें पृथ्वी पर वर्षा बहुत हो ।। ३९ ।।

विकृतिः प्रकृतिं याति प्रकृतिविंकृतिं तथा ।

तथापि मोदते लोकस्तस्मिन् विकृतवत्सरे ॥ ४० ॥

विकृत नामक वर्ष में खराब नीच जन उत्तम पदवी प्राप्त होवें और अच्छे जन निरादर को प्राप्त हों परंतु सब लोग सुखी रहैं ।।४०।

खराब्दे सततं सम्यग्बध्यन्ते पशवः प्रजाः । ।

राजानो विलयं यांति परस्परविरोधतः ॥ ४१ ॥

खर नामक बर्ष में संपूर्ण प्रजा तथा पशु बंधन में प्राप्त होवें राजा- लोग आपस में युद्ध करके नष्ट हो जायें ॥ ४१ ॥

आनंददा धराजस्रं प्रजाभ्यः फलसंचयैः ।

नंदनाब्दे स्वहानिः स्यात्कोशधान्यविनाशकृत् ॥४२॥

नंदन नामक वर्ष में प्रजा में धान्य फल आदिकों से सव प्रजा को निरंतर आनंद रहै और सोना चांदी आदि धन का व खजाना का नाश हो ॥ ४२ ॥

नश्यते वारिधाराभिः पूर्वकृष्यखिलं फलम् ।

राजभिश्चापरं सर्वं विजयाब्दे जयेप्सुभिः ॥ ४३ ॥

विजय नामक वर्ष में बहुत वर्षा होने से पहिली खेती ( सामणू ) का नाश हो और पिछली खेती के समय राजाओं के युद्धदिक का उपद्रव होवे ।। ४३ ।।

शैलोद्यानवनारामफलैरतुलिता महीं ॥

जेगीयते वेणुनादैर्जयाब्दे च महाजलम् ॥ ४४ ॥

जय नामक वर्ष में पर्वत फुलवाड़ी वन बगीचा इनमें सर्वत्र बहुत फलवाली पृथ्वी होवे और बहुत वर्षा होने की अत्यंत प्रशंसा होये ।। ४४ ।।

मन्मथाब्देखिल लोकास्तत्केलिपरलोलुपाः ॥

शालीक्षुयवगोधूमैर्नयनाभिनवा धरा ॥ ४५॥

मन्मथ नामक वर्ष में सब लोग काम क्रीडा करने में तत्पर रहैं चांवल आदि धान्य, ईख,जव, गेंहूँ इन्हों करके पृथ्वी बहुत मनोहर शोभित हो ॥ ४५ ॥

दुर्मुखाब्देग्निरोगाः स्युः प्रचुरान्नं तथा पयः ॥

राजानः सप्रजास्तुष्टा निःस्वाश्च द्विजसत्तमः॥ ४६ ॥

दुर्मुख नामक वर्ष में अग्निभय तथा रोग हो अन्न बहुत हो दूध की वृद्धि हो राजा प्रजा में आनंद रहे ब्राह्मण लोग दरिद्री होय  ।। ४६ ।।

हेमलंबे नृपाः सर्वे परस्परविरोधिनः ।

प्रजापीडात्वनर्घत्वं तथापि सुखिनो जनाः ॥ ४७ ॥

हेमलंब नामक वर्ष में सब राजा लोग आपस में वैरभाव करैं प्रजा में पीडा अन्नादिक का भाव महँगा रहे तो भी लोगों में सुख रहे॥४७॥

विलंबवत्सरे राजविग्रहो भूरिवृष्टयः ॥

आतंकपीडिता लोकाः प्रभूतं चापरं फलम् ।। ४८॥

विलंब नामक वर्ष में राजाओं का युद्ध हो वर्षा बहुत हो लोगों में रोग वृद्धि हो अन्य सब फल अच्छा हो ।४८ ॥

विकारिणो विकार्यब्दे पित्तरोगादिभिर्नराः ।

मेघो वर्षति संपूर्णं समुद्रवसनक्षितौ ॥ ४९॥

विकारी नामक वर्ष में मनुष्य पित्त आदि रोगों से पीडित होवें वर्षा बहुत हो पृथ्वी पर सर्वत्र जल फैल जावे ।। ४९ ॥

शार्वरीवत्सरे सर्वसस्यवृद्धिरनुत्तमा।

चलिताचलसंकाशैः पयोदैरावृतं नभः ॥ ५० ॥

शर्वरी नामक वर्ष में पृथ्वी पर सब खेतियों की बहुत अच्छी वृद्धि हो और चलित अचल ( पर्वत ) समान कांतिवाले मेघों करके आकाश आच्छादित रहे ।। ५० ।।

दीप्यंते सततं भूपाः प्लवाब्दे प्लवगा जनाः॥

राजते पृथिवी सर्वा सततं विविधोत्सवैः ॥ ५१ ॥

प्लव नामक वर्ष में राजा लोग निरंतर विराजमान होवें मनुष्य नौका में स्थित हो गमन करें संपूर्ण पृथ्वी अनेक उत्सव करके शोभित हो।। ५१ ।।

शुभकृद्धत्सरे सर्वसस्यनामतिवृद्धयः ॥

नृपाणां स्नेहमन्योन्यं प्रजानां च परस्परम् ॥ ५२ ॥

शुभकृत् नामक वर्षमें संपूर्ण खेतियोंकी अत्यंत वृद्धि हो राजा ओंकी आपसमें मित्रता बढैं प्रजामें कीर्ति बढैं॥ ५२॥

शोभनाख्ये हायने तु शोभनं भूरि वर्तते ।

नृपाश्चैवात्र निर्वैराः सर्वसम्पद्युता धरा ॥ ५३ ॥

शोभन नामक वर्ष में पृथ्वी पर बहुत शोभन हो, और राजा निर्वैर हों, पृथ्वी संपूर्ण संपत् से युक्त हो ।। ५३ ।।

क्रोध्यब्दे सततं रोगाः सर्वसस्यसमृद्धयः ।

दंपत्योर्वैरमन्योन्यं प्रजानां च परस्परम् ॥ ५४ ॥

क्रोधी नामक वर्ष में प्रजा में निरंतर रोग होवे और संपूर्ण खेतियों की वृद्धि स्त्री पुरुषों का आपस में वैर हो ।।५४।।

शश्वद्विश्वासावब्दे मध्यसस्यार्घवृष्टयः ॥

प्रचुराश्चौररोगाश्च नृपा लोभाभिभूतयः ॥५५॥

विश्वावसु नामक वर्ष में निरंतर मध्यम खेती उपन्न हों, मध्यम वर्षा तथा अन्न का भाव महंगा रहै रोग तथा चोरों की वृद्धि हो राजा लोग लोभी होवें । ५५ ।।

पराभवाब्दे राजानः प्रभुवंति पराभवम् ॥

आमयः क्षुद्रधान्यानिप्रभूतानि सुवृष्टयः ॥ ५६ ॥

पराभव नाम वर्ष में राजा लोग तिरस्कार को प्राप्त होवें रोग होवे। और मटरमोट आदि तुच्छ धान्य ज्यादे निपजे वर्षा ज्यादा हो।५६।

प्लवंगाब्दे सस्यहानिश्चौररोगार्दिता जनाः॥

मध्यवृष्टिः क्षितीशानां विरोधं च परस्परम् ॥ ५७ ॥

प्लवंग नामक वर्ष में खेती की हानि चौरो की वृद्धि प्रजा में रोग मध्यम वर्षा राजाओं का आपस में युद्ध होवे ।। ५७ ।।

प्रचुराः पित्तरोगाः स्युर्मध्या वृष्टिरहेर्भयम् ।

कीलकाब्दे त्वीतिभयंप्रजाक्षोभः परस्परम्॥ ५८॥

कीलक वर्ष में पित्त के रोग बहुत होवें मध्यम वर्षा हो सर्पो का भय हो टीडी आदिकों का भय हो प्रजा में आपस में वैर हो ।। ५८ ।।

प्रचुराः शैत्यरोगाः स्युर्मध्या वृष्टिरहेर्भयम् ।

सौम्याब्दे चैव सततं शांतवैराःक्षितीश्वराः ॥ ५९ ॥

सौम्य वर्ष में राजा लोग आपस में निरंतर प्रसन्न रहैं शरदी के रोग बहुत होवें वर्षा मध्यम हो सर्पो का भय हो ।। ५९ ॥

साधारणेब्दे राजानः सुखिनो गतमत्सराः ।

प्रजाश्च पशवः सर्वे वृष्टिः कर्षकसंमता ।। ६० ॥

साधारण नामक वर्ष में राजा सुखी रहें आपस में वैरभाव नहीं करें प्रजा में आनंद पशु वृद्धि और किसान लोगों के मन के माफिक वर्षा हो ॥ ६० ॥

विरोधकृद्वत्सरे तु परस्परविरोधिनः ।

राजानो मध्यमा वृष्टिः प्रजा स्वस्था निरंतरम् ॥ ६१ ॥

विरोधकृत नामक वर्ष में राजा लोग आपस में वैरभाव करें वर्षा मध्यम हो प्रजा में निरंतर आनंद रहे ॥ ६१ ॥

अनध्यामयरोगेभ्यो भीतिरीतिहर्निरंतरम् ।।

परिधावीवत्सरे तु नृणां वृष्टिस्तु मध्यमा ॥ ६२ ॥

परिधावी नामक वर्ष में अन्नादिक का भाव महँगा रोग टीडी आदि उपद्रव का निरंतर भय हो मध्यम वर्षा हो । ६२ ॥

नृपसंक्षोभमत्युग्रं प्रजापीडा त्वनर्घता ।

तथापि दुःखमाप्नोति प्रमादीवत्सरे जनः ॥ ६३ ॥

प्रमादी वर्ष में राजाओ का अत्यंत वैरभाव प्रजा में पीडा भाव महँगा हो सब जन दुःख को प्राप्त होवें ।। ६३ ।।

आनंदवत्सरे सर्वेजंतवः पशवः सदा ॥

आनंदयंति चान्योन्यमन्यथातु क्वचित् क्वचित् ॥६४॥

आनंद नामक वर्ष में संपूर्ण जीव पशु आपस में आनंद करें कहीं दुःख भी रहै । ६४ ।।

प्रजायां मध्यमसुखं तदधीशाहवोऽवहम् ॥

निष्क्रिया राक्षसाब्दे तु राक्षसा इव जंतवः ॥ ६५ ॥

राक्षस नामक वर्ष में प्रजा में मध्यम सुख रहे राजाओं का हमेशा युद्ध होवे सब जन राक्षसों की तरह क्रिया रहित होवें ।। ६५ ॥

अनलाब्देऽनलभयं मध्यवृष्टिरनर्धता ॥

नृपाः संक्षोभसंभूता भूरिभीकरभूमिपाः ॥ ६६ ॥   

अनल वर्ष में अग्निभय मध्यम वर्षा भाव महँगा राजाओं में परस्पर बहुत भयंकर वैरभाव उत्पन्न हो ।। ६६ ॥

पिंगलाब्दे तु सततं दिक्पूरितघनस्वनम् ।

राजानः स्वभुजाक्रांता भुंजते क्ष्मामनुत्तमाम् ॥ ६७ ॥

पिंगल नामक वर्ष में निरंतर दिशाओं में मेघ बरसने का शब्द होता है राजा लोग अपनी भुजा के बल से पृथ्वी को भोगें ॥ ६७॥

अतिवृष्टिः कालयुक्ते वत्सरे सुखिनो जनाः॥

सततं सर्वंसस्यानि संपूर्णाश्च तथा द्रुमाः ॥ ६८॥

कालयुक्त नामक वर्ष में वर्षा बहुत हो सब जन सुखी रहैं निरंतर संपूर्ण खेती निपजें और सब वृक्षों के अच्छा फल लगे ।। ६८ ॥

सिद्धाथींवत्सरे भूपाश्चान्योन्यं स्नेहकांक्षिणः ।

संपूर्णसस्यां वसुधां दुदुहुर्गा यथा तथा ॥ ६९॥

सिद्धार्थी नामक वर्ष में राजा लोग आपस में मित्रता बढने की इच्छा करें और जैसे गौ को दहते हैं ऐसे संपूर्ण खेतियो से भरपूर हुई पृथ्वी का दोहन करें (भोग करें)। ६९ ।।

अन्योन्यं नृपसंक्षोभं चौरव्याघ्रादिभिर्भयम् ॥

मध्यवृष्टिरनर्घत्वं रौद्राब्दे नैव गुर्ज्जरे ॥ ७० ॥

रौद्र नामक वर्ष में राजा लोग आपस में वैर भाव करें और चौर व्याघ्र आदिकों का भय हो मध्यम वर्षा हो अन्नादिकों का भाव महँगा रहै परंतु गुर्जर (गुजरात ) देश में यह फल नहीं हो अर्थात शुभफल हो ।। ७० ।।

दुर्मत्यध्दे दुर्मेतयो भवंत्यखिलभूमिपाः ॥

तथापि सुखिनो लोकाः संग्रामे निर्जितारयः ॥ ७१ ॥

दुर्मति वर्ष में संपूर्ण राजा लोगों की बुद्धि खराब रहै तो भी सब प्रजा के लोग युद्ध में शत्रुओं को जीतें और सुखी रहैं ॥ ७१ ॥

सर्वसस्यैश्च संपूर्णा धात्री दुंदुभिवत्सरे ॥

राजभिः पाल्यते पूर्वदेशेश्वरविनाशनम् ॥ ७२ ॥

दुंदुभि नामक वर्ष में पृथ्वी खेतियों से भरपूर हो राजा लोग प्रजा की पालना करें पूर्व देश का नाश हो ॥ ७२ ॥

आहवे निहताः सर्वे भूपा रोगैस्तथा जनाः

तथापि तत्र जीवंति रुधिरोद्भारिवत्सरे ॥ ७३ ॥

रुधिरोद्गारी नामक वर्ष में राजा लोग युद्ध में मृत्यु को प्राप्त हों और प्रजा लोग बीमारी से मरें कितनेक लोग जीवते रहें ।। ७३ ॥

रक्ताक्षिवत्सरे सस्यवृद्धिर्वृष्टिरनुत्तमा॥

प्रेक्षते सर्वदान्योन्यंराजानो रक्तलोचनाः॥ ७४ ॥

रक्ताक्षी नामक वर्ष में खेती की वृद्धि को वर्षा बहुत अच्छी हो राजा लोग सदा आपस में क्रूर दृष्टि से वैर भाव करें ॥ ७४ ॥

क्रोधनाब्दे मध्यदृष्टिः पूर्वंसस्यं न तु क्वचित् ।

संपूर्णामितरत्सस्यं सर्वे क्रोधपरा जनाः ॥ ७५ ॥

क्रोधन नामक वर्ष में मध्यम वर्षा हो पहली खेती (सामणू) कहीं निपजे पिछली खेती अच्छी निपजे संपूर्ण जन क्रोध में तत्पर रहै॥७५॥

कार्पासगुडतैलेक्षुमधुसस्यविनाशनम् ।

क्षीयमाणाश्वपि नरः जीवंति क्षयवसरे ॥ ७६ ॥

इति श्रीनारदीयसंहितायां संवत्सरफलम् ॥

क्षय नामक वर्ष में कपास गुड तेल ईंख शहद खेती इनका नाश हो क्षीण होते हुए मनुष्य जीवें ॥ ७६ ॥

इति श्रीनारदीयसंहिताभाषाटीकायां संवत्सरफलं समाप्तम् ।

आद्यब्देशचमूनाथसस्यपानांबलाबलम् ॥

तत्कालग्रहचारं च सम्यग् ज्ञात्वा फलं वदेत् ॥ ७७ ॥

प्रथम वर्षेश, सेनापति सस्यपति इनका बलावल विचार के तत्काल ग्रहों का चार विचार के अच्छे प्रकार से संवत्सर का फल कहै ॥ ७७ ॥

सौम्यायनं मासषदं मृगाद्यं भानुभुक्तितः ॥

अहः सुराणां तद्रात्रिः कर्काद्यं दक्षिणायनम् ॥ ७८ ॥

मकर आदि छः राशियों पर सूर्य रहै तब तक उत्तरायण कहाता है वह देवताओं का दिन और कर्क आदि छह संक्रातियों में जो दक्षिणायन कहा है वह देवताओं की रात्रि है ॥ ७८ ॥

गृहप्रवेशवैवाहप्रतिष्ठा मौंजिबंधनम्॥

यज्ञादिमंगलं कर्म कर्तव्यं चोत्तरायणे ।

याम्यायनेऽशुभं कर्म मासप्राधान्यमेव च ॥ ७९ ॥

गृह प्रवेश, विवाह प्रतिष्ठा, मौंजीबंधन, यज्ञादि मंगल, ये कर्म उत्तरायण सूर्य हो तब करने चाहियें और दक्षिणायन में अशुभ कर्म तथा मासप्रधान्य महीना के योग में होने वाले कर्म करने चाहियें ॥ ७९ ।।

क्रमाच्छिशिरस्रसंतग्रीष्माः स्युश्चोत्तरायणे॥

वर्षा शरच्च हेमंत ऋतवो दक्षिणायने ॥ ८० ॥

उत्तरायण सूर्यं में क्रम से शिशिर वसंत ग्रीष्म ये तीन ऋतु होती हैं, दक्षिणायन में वर्षा शरद हेमंत ये ऋतु होती हैं ॥ ८० ॥

माघादिमासौ द्वौद्वौ च ऋतवः शिशिरादयः॥

वांद्रो दर्शावधिः सौरः संक्रांत्या सावनो दिनैः ॥ ८१ ॥

त्रिंशद्भिश्चंद्रभगणो मासो नाक्षत्रसंज्ञकः ।

मधुश्च माधवः शुक्रः शुचिश्चापि नभाह्वयः ॥ ८२ ॥

माघ आदि दो २ महीने ये शिशिर आदि ऋतु यथाक्रम से जाने । चांद्रमास अमावस्या को समाप्त होता है सौरमास संक्राति पर पूरा होता है सावन मास पूरे तीस दिन में समाप्त होता है और नाक्षत्रमास चंद्रमा के नक्षत्रों का क्रम से होता है मधु १ माधव २ शुक्र-३ शुचि ४ नभ ५॥ ८१-८२ ॥

नभस्य इष ऊर्जश्च सहाख्यश्च सहस्यकः ।

तपः स्तपस्यः क्रमशश्चैत्रादीनां तु संज्ञकाः ॥ ८३ ॥

नभस्य, ६ इष ७ ऊर्ज ८ सह ९ सहस्यक १० तपा ११ तपस्य १२ ये बारह चैत्र आदि महीनों के नाम जाने ॥ ८३॥

यस्मिन्मासे पौर्णमासी येन धिष्ण्येन संयुता ॥

तन्नक्षत्राह्वयो मासः पौर्णमासी तथाह्वया ॥ ८४ ॥

जिस महीने में जिस नक्षत्र से युक्त पौर्णमासी होय उसी नक्षत्र के नाम से महीना होता है और उसी नाम से पूर्णमासी होती है जैसे चित्रा नक्षत्र होने से चैत्रमास चैत्री पौर्णमासी विशाखा होने से वैशाखमास वैशाखी पौर्णमासी इत्यादि ।। ८४ ।।

तत्पक्षौ दैवपैत्राख्यौ शुक्लकृष्णं च तावुभौ ।

शुभाशुभे कर्मणि च प्रशस्तौ भवतः सदा ॥ ८५॥

इति श्रीनारदीयसंहितायां संवत्सराध्यायस्तृतीयः ।              

उसके शुक्ल और कृष्ण से दो पक्ष दैव पैत्रनाम से प्रसिद्ध हैं। शुभ अशुभ कर्म में प्रशस्त कहे हैं अर्थात् शुक्ल पक्ष में शुभकर्म शुभ हैं ॥ ८५ ।।

इति श्रीनारदसंहिताभाषाटीकायां संवत्सराध्यायस्तृतीयः ।।

आगे पढ़ें- नारदसंहिता अध्याय ४ तिथि लक्षण

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