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- नारदसंहिता अध्याय ८
- नारदसंहिता अध्याय ७
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- शिवमहापुराण – रुद्रसंहिता सृष्टिखण्ड – अध्याय 19
- शिवमहापुराण – रुद्रसंहिता सृष्टिखण्ड – अध्याय 18
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सवितृ सूक्त
सवितृ सूक्त ऋग्वेद मण्डल 5
सूक्त 81,82,83 में आया है ।
ॐ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो
देवस्यः धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात् ।।
ऋग्वेद का यह सबसे प्रभावशाली
मन्त्र माना जाता है। इस मंत्र में 'ॐ
भूर्भुवः स्वः' यजुर्वेद से और ऋग्वेद के छंद से मिलकर बना
है। यह मंत्र मूल रूप से सवितृ देव की उपासना का शक्तिशाली मंत्र है। सवितृ देव का
वर्णन ऋग्वेद से प्राप्त होता है। गायत्री मंत्र का सम्बन्ध सवितृ से ही माना जाता
है। सविता शब्द की निष्पत्ति 'सु' धातु
से हुई है जिसका अर्थ है - सृजन करना, गति देना तथा प्रेरणा
देना।
सवितृ सूक्तम्
यु॒ञ्जते॒ मन॑ उ॒त यु॑ञ्जते॒ धियो॒ विप्रा॒ विप्र॑स्य बृह॒तो वि॑प॒श्चितः॑। वि होत्रा॑ दधे वयुना॒विदेक॒ इन्म॒ही दे॒वस्य॑ सवि॒तुः परि॑ष्टुतिः ॥१॥
पद पाठ
यु॒ञ्जते॑। मनः॑। उ॒त। यु॒ञ्ज॒ते॒।
धियः॑। विप्राः॑। विप्र॑स्य। बृ॒ह॒तः। वि॒पः॒ऽचितः॑। वि। होत्राः॑। द॒धे॒।
व॒यु॒न॒ऽवित्। एकः॑। इत्। म॒ही। दे॒वस्य॑। स॒वि॒तुः। परि॑ऽस्तुतिः ॥१॥
पदार्थान्वयभाषाः -हे मनुष्यो ! जैसे (होत्राः) लेने वा देनेवाले (विप्राः) बुद्धिमान् योगीजन (विप्रस्य) विशेष कर के व्याप्त होनेवाले (बृहतः) बड़े (विपश्चितः) अनन्त विद्यावान् (सवितुः) सम्पूर्ण जगत् के उत्पन्न करनेवाले (देवस्य) सम्पूर्ण जगत् के प्रकाशक परमात्मा के मध्य में (मनः) मननस्वरूप मन को (युञ्जते) युक्त करते (उत) और (धियः) बुद्धियों को (युञ्जते) युक्त करते हैं और जो (वयुनावित्) प्रज्ञानों को जाननेवाला (एकः) सहायरहित अकेला (इत्) ही संपूर्ण जगत् को (वि, दधे) रचता और जिसकी (मही) बड़ी आदर करने योग्य (परिष्टुतिः) सब और व्याप्त स्तुति है, वैसे उस में आप लोग भी चित्त को धारण करो ॥१॥
भावार्थभाषाः -अनेक विद्याबृंहित,
बुद्धि आदि पदार्थों के अधिष्ठान, जगदीश्वर के
बीच जो मन और बुद्धि को निरन्तर स्थापन करते हैं, वे समस्त
ऐहिक और पारलौकिक सुख को प्राप्त होते हैं ॥१॥
विश्वा॑ रू॒पाणि॒ प्रति॑ मुञ्चते क॒विः प्रासा॑वीद्भ॒द्रं द्वि॒पदे॒ चतु॑ष्पदे। वि नाक॑मख्यत्सवि॒ता वरे॒ण्योऽनु॑ प्र॒याण॑मु॒षसो॒ वि रा॑जति ॥२॥
पद पाठ
विश्वा॑। रू॒पाणि॑। प्रति॑।
मु॒ञ्च॒ते॒। क॒विः। प्र। अ॒सा॒वी॒त्। भ॒द्रम्। द्वि॒ऽपदे॑। चतुः॑ऽपदे। वि। नाक॑म्।
अ॒ख्य॒त्। स॒वि॒ता। वरे॑ण्यः। अनु॑। प्र॒ऽयान॑म्। उ॒षसः॑। वि। रा॒ज॒ति॒ ॥२॥
पदार्थान्वयभाषाः -हे मनुष्य ! जो (कविः) सर्व पदार्थों का जाननेवाला सर्वज्ञ (वरेण्यः) स्वीकार करने योग्य और (सविता) सम्पूर्ण ऐश्वर्य्यों का देनेवाला ईश्वर (द्विपदे) मनुष्य आदि और (चतुष्पदे) गौ आदि के लिये (भद्रम्) कल्याण को (प्र, असावीत्) उत्पन्न करता और (विश्वा) सम्पूर्ण (रूपाणि) सूर्य्य आदिकों का (प्रति, मुञ्चते) त्याग करता है तथा (नाकम्) नहीं विद्यमान दुःख जिसमें उसका (वि, अख्यत्) प्रकाश करता है, वह जैसे (उषसः) प्रातःकाल के (अनु, प्रयाणम्) पीछे गमन को सूर्य्य (वि, राजति) विशेष करके शोभित करता है, वैसे सूर्य्य आदि को प्रकाशित करता है, उसकी तुम सब उपासना करो ॥२॥
भावार्थभाषाः -हे मनुष्यो ! जिस
जगदीश्वर ने विचित्र और अनेक प्रकार के जगत् को सम्पूर्ण प्राणियों के सुख के लिये
रचा,
उसी जगदीश्वर की आप लोग उपासना करो ॥२॥
यस्य॑ प्र॒याण॒मन्व॒न्य इद्य॒युर्दे॒वा दे॒वस्य॑ महि॒मान॒मोज॑सा। यः पार्थि॑वानि विम॒मे स एत॑शो॒ रजां॑सि दे॒वः स॑वि॒ता म॑हित्व॒ना ॥३॥
पद पाठ
यस्य॑। प्र॒ऽयान॑म्। अनु॑। अ॒न्ये।
इत्। य॒युः। दे॒वाः। दे॒वस्य॑। म॒हि॒मान॑म्। ओज॑सा। यः। पार्थि॑वानि। वि॒ऽम॒मे।
सः। एत॑शः। रजां॑सि। दे॒वः। स॒वि॒ता। म॒हि॒ऽत्व॒ना ॥३॥
पदार्थान्वयभाषाः -हे विद्वानो ! (यस्य) जिस जगदीश्वर (देवस्य) सब के प्रकाशक के (प्रयाणम्) अच्छी तरह चलते हैं, जिससे उस मार्ग और (महिमानम्) महिमा को (अनु) पश्चात् (अन्ये, इत्) और ही वसु आदि (देवाः) प्रकाश करनेवाले सूर्य्य आदि (ययुः) चलते अर्थात् प्राप्त होते हैं और (यः) जो (एतशः) सर्वत्र व्याप्त (सविता) सम्पूर्ण ऐश्वर्य्यों का करने और (देवः) सम्पूर्ण सुखों का देनेवाला (महित्वना) महिमा से (ओजसा) पराक्रम से और बल से (पार्थिवानि) अन्तरिक्ष में विदित कार्यों और (रजांसि) लोकों को (विममे) विशेष करके रचता है (सः) वही सब से ध्यान करने योग्य है ॥३॥
भावार्थभाषाः -हे मनुष्यो ! जो
सूर्य्य आदिकों के धारण करनेवालों का धारण करनेवाला और देनेवालों का देनेवाला,
बड़ों और प्रकृतिरूप कारण से सम्पूर्ण जगत् को रचता है और जिसके पीछे
अर्थात् आश्रय से सब जीवते और स्थित हैं, वही सम्पूर्ण जगत्
का रचनेवाला ईश्वर ध्यान करने योग्य है ॥३॥
उ॒त या॑सि सवित॒स्त्रीणि॑ रोच॒नोत सूर्य॑स्य र॒श्मिभिः॒ समु॑च्यसि। उ॒त रात्री॑मुभ॒यतः॒ परी॑यस उ॒त मि॒त्रो भ॑वसि देव॒ धर्म॑भिः ॥४॥
पद पाठ
उ॒त। या॒सि॒। स॒वि॒त॒रिति॑।
त्रीणि॑। रो॒च॒ना। उ॒त। सूर्य॑स्य। र॒श्मिऽभिः॑। सम्। उ॒च्य॒सि॒। उ॒त। रात्री॑म्।
उ॒भ॒यतः॑। परि॑। ई॒य॒से॒। उ॒त। मि॒त्रः। भ॒व॒सि॒। दे॒व॒। धर्म॑ऽभिः ॥४॥
पदार्थान्वयभाषाः -हे (सवितः) सम्पूर्ण जगत् को उत्पन्न करनेवाले (देव) विद्वन् ! जो आप (उत) निश्चय से (त्रीणि) सूर्य्य, चन्द्रमा और बिजुली नामक (रोचना) प्रकाशकों को (यासि) प्राप्त होते (उत) और (सूर्य्यस्य) सूर्य की (रश्मिभिः) किरणों से (सम्, उच्यसि) उत्तम प्रकार कहते हो (उत) और (उभयतः) दोनों ओर से (रात्रीम्) अन्धकार को (परि, ईयसे) दूर करते हो (उत) और (धर्म्मभिः) धर्म्माचरणों से (मित्रः) मित्र (भवसि) होते हो, वह आप हम लोगों से सत्कार करने योग्य हो ॥४॥
भावार्थभाषाः -हे मनुष्यो ! जो सब
का स्वामी, ईश्वर तीन-बिजुली, सूर्य्य और चन्द्रमा रूप बड़े दीपों को रच के सर्वत्र व्याप्त और सब का
मित्र हुआ और सूर्य्य आदि को अभिव्याप्त हो और धारण कर के प्रकाशित करता है,
वही सब प्रकार पूज्य है अर्थात् उपासना करने योग्य है ॥४॥
उ॒तेशि॑षे प्रस॒वस्य॒ त्वमेक॒ इदु॒त पू॒षा भ॑वसि देव॒ याम॑भिः। उ॒तेदं विश्वं॒ भुव॑नं॒ वि रा॑जसि श्या॒वाश्व॑स्ते सवितः॒ स्तोम॑मानशे ॥५॥
पद पाठ
उ॒त। ई॒शि॒षे॒। प्र॒ऽस॒वस्य॑।
त्वम्। एकः॑। इत्। उ॒त। पू॒षा। भ॒व॒सि॒। दे॒व॒। याम॑ऽभिः। उ॒त। इ॒दम्। विश्व॑म्।
भुव॑नम्। वि। रा॒ज॒सि॒। श्या॒वऽअ॑श्वः। ते॒। स॒वि॒त॒रिति॑। स्तोम॑म्। आ॒न॒शे॒ ॥५॥
पदार्थान्वयभाषाः -हे (सवितः) सत्य व्यवहार में प्रेरणा करने और (देव) सम्पूर्ण सुखों के देनेवाले (ते) आपका जो (श्यावाश्वः) सूर्यलोक (यामभिः) प्रहरों से (स्तोमम्) प्रशंसा को (आनशे) व्याप्त होता है, उसके दृष्टान्त से (उत) भी (इदम्) इस (विश्वम्) समस्त (भुवनम्) भुवन को (त्वम्) आप (वि, राजसि) प्रकाशित करते हो (उत) और (पूषा) पुष्टि करनेवाले (भवसि) होते हो (उत) और (एकः) द्वितीयरहित (इत्) ही (प्रसवस्य) उत्पन्न हुए जगत् के (ईशिषे) ऐश्वर्य का विधान करते हो ॥५॥
भावार्थभाषाः -हे मनुष्यो ! जिसके
महत्त्व के जनाने के लिये सूर्य्य आदि लोक दृष्टान्त हैं,
उसी सम्पूर्ण परमैश्वर्य के देनेवाले का तुम ध्यान करो ॥५॥ इस सूक्त
में सत्य व्यवहार में प्रेरणा करनेवाले ईश्वर के गुणों का वर्णन करने से इस सूक्त
के अर्थ की इस से पूर्व सूक्त के अर्थ के साथ सङ्गति जाननी चाहिये ॥ यह इक्यासीवाँ
सूक्त और चौबीसवाँ वर्ग समाप्त हुआ ॥
तत्स॑वि॒तुर्वृ॑णीमहे व॒यं दे॒वस्य॒ भोज॑नम्। श्रेष्ठं॑ सर्व॒धात॑मं॒ तुरं॒ भग॑स्य धीमहि ॥१॥
पद पाठ
तत्। स॒वि॒तुः। वृ॒णी॒म॒हे॒। व॒यम्।
दे॒वस्य॑। भोज॑नम्। श्रेष्ठ॑म्। स॒र्व॒ऽधात॑मम्। तुर॑म्। भग॑स्य। धी॒म॒हि॒ ॥१॥
अब नव ऋचावाले बयासीवें सूक्त का प्रारम्भ है, उसके प्रथम मन्त्र में मनुष्यों को किसकी उपासना करनी चाहिये, इस विषय को कहते हैं ॥
पदार्थान्वयभाषाः -हे मनुष्यो !
(वयम्) हम लोग (भगस्य) सम्पूर्ण ऐश्वर्य्य से युक्त (सवितुः) अन्तर्य्यामी
(देवस्य) सम्पूर्ण के प्रकाशक जगदीश्वर का जो (श्रेष्ठम्) अतिशय उत्तम और (भोजनम्)
पालन वा भोजन करने योग्य (सर्वधातमम्) सब को अत्यन्त धारण करनेवाले (तुरम्)
अविद्या आदि दोषों के नाश करनेवाले सामर्थ्य को (वृणीमहे) स्वीकार करते और (धीमहि)
धारण करते हैं (तत्) उसको तुम लोग स्वीकार करो ॥१॥
भावार्थभाषाः -जो मनुष्य सबसे उत्तम
जगदीश्वर की उपासना करके अन्य की उपासना का त्याग करते हैं,
वे सम्पूर्ण ऐश्वर्य्य से युक्त होते हैं ॥१॥
अस्य॒ हि स्वय॑शस्तरं सवि॒तुः कच्च॒न प्रि॒यम्। न मि॒नन्ति॑ स्व॒राज्य॑म् ॥२॥
पद पाठ
अस्य॑। हि। स्वय॑शःऽतरम्। स॒वि॒तुः।
कत्। च॒न। प्रि॒यम्। न। मि॒नन्ति॑। स्व॒ऽराज्य॑म् ॥२॥
पदार्थान्वयभाषाः -जो (हि) निश्चय से (अस्य) इस परमात्मा (सवितुः) जगदीश्वर का (स्वयशस्तरम्) अपना यश जिसका वह अतिशयित (प्रियम्) अत्यन्त प्रिय (स्वराज्यम्) अपने राज्य को (कत्, चन) कभी (न) नहीं (मिनन्ति) नष्ट करते हैं, वे धार्म्मिक होते हैं ॥२॥
भावार्थभाषाः -जो परमात्मा के बीच
अज्ञान का नाश करते हैं, वे यशस्वी होकर
राज्य को प्राप्त होते हैं ॥२॥
स हि रत्ना॑नि दा॒शुषे॑ सु॒वाति॑ सवि॒ता भगः॑। तं भा॒गं चि॒त्रमी॑महे ॥३॥
पद पाठ
सः। हि। रत्ना॑नि। दा॒शुषे॑।
सु॒वाति॑। स॒वि॒ता। भगः॑। तम्। भा॒गम्। चि॒त्रम्। ई॒म॒हे ॥३॥
पदार्थान्वयभाषाः -जो (सविता) उत्पन्न करनेवाला (भगः) ऐश्वर्य्यवान् परमात्मा (दाशुषे) दाताजन के लिये (रत्नानि) धनों को (सुवाति) उत्पन्न करता है (तम्) उस (भागम्) ऐश्वर्य्यसम्बन्धी (चित्रम्) अद्भुत को (ईमहे) प्राप्त होवें वा जानें और (सः, हि) वही उदार दाता है ॥३॥
भावार्थभाषाः -जो मनुष्य सम्पूर्ण
रत्नों के देनेवाले परमात्मा की सेवा करते हैं, वे
अद्भुत ऐश्वर्य्य को प्राप्त होते हैं ॥३॥
अ॒द्या नो॑ देव सवितः प्र॒जाव॑त्सावीः॒ सौभ॑गम्। परा॑ दुः॒ष्वप्न्यं॑ सुव ॥४॥
पद पाठ
अ॒द्य। नः॒। दे॒व॒। स॒वि॒त॒रिति॑।
प्र॒जाऽव॑त्। सा॒वीः॒। सौभग॑म्। परा॑। दुः॒ऽस्वप्न्य॑म्। सु॒व॒ ॥४॥
पदार्थान्वयभाषाः -हे (सवितः) सम्पूर्ण ऐश्वर्य्य के देनेवाले स्वामिन् (देव) शोभित ! आप कृपा से (नः) हम लोगों के लिये वा हम लोगों के (अद्या) आज (प्रजावत्) बहुत प्रजायें विद्यमान जिसके उस (सौभगम्) सुन्दर ऐश्वर्य के भाग को (सावीः) उत्पन्न कीजिये और (दुःष्वप्न्यम्) दुष्ट स्वप्नों में उत्पन्न दुःख को (परा, सुव) दूर कीजिये ॥४॥
भावार्थभाषाः -जो परमेश्वर की
प्रार्थना करके धर्म्मयुक्त पुरुषार्थ करते हैं, वे बहुत ऐश्वर्य्यवाले होकर दुःख और दारिद्र्य से रहित होते हैं ॥४॥
विश्वा॑नि देव सवितर्दुरि॒तानि॒ परा॑ सुव। यद्भ॒द्रं तन्न॒ आ सु॑व ॥५॥
पद पाठ
विश्वा॑नि। दे॒व॒। स॒वि॒तः॒।
दुः॒ऽइ॒तानि॑। परा॑। सु॒व॒। यत्। भ॒द्रम्। तत्। नः॒। आ। सु॒व॒ ॥५॥
पदार्थान्वयभाषाः -हे (सवितः) संपूर्ण संसार के उत्पन्न करनेवाले (देव) और संपूर्ण संसार को प्रकाशित करनेवाले जगदीश्वर ! (विश्वानि) संपूर्ण (दुरितानि) दुष्ट आचरणों को आप (परा, सुव) दूर कीजिये और (यत्) जो (भद्रम्) कल्याणकारक है (तत्) उसको (नः) हम लोगों के लिये (आ, सुव) सब प्रकार से प्राप्त कीजिये ॥५॥
भावार्थभाषाः -हे परमेश्वर ! आप
कृपा से जितने हम लोगों में दुष्ट आचरण हैं, उनको
अलग करके धर्म्मयुक्त गुण, कर्म्म और स्वभावों को स्थापित
कीजिये ॥५॥
अना॑गसो॒ अदि॑तये दे॒वस्य॑ सवि॒तुः स॒वे। विश्वा॑ वा॒मानि॑ धीमहि ॥६॥
पद पाठ
अना॑गसः। अदि॑तये। दे॒वस्य॑।
स॒वि॒तुः॒। स॒वे। विश्वा॑। वा॒मानि॑। धी॒म॒हि॒ ॥६॥
पदार्थान्वयभाषाः -हे मनुष्यो ! जैसे (अनागसः) अपराध से रहित हम लोग (अदितये) माता आदि के लिये (देवस्य) सर्व सुख देनेवाले (सवितुः) सम्पूर्ण ऐश्वर्य से युक्त परमात्मा के (सवे) जगद्रूप ऐश्वर्य्य में (विश्वा) सम्पूर्ण (वामानि) संभोग करने योग्य धनों को (धीमहि) धारण करें, वैसे आप लोग भी धारण करो ॥६॥
भावार्थभाषाः -इस मन्त्र में
वाचकलुप्तोपमालङ्कार है । जैसे विद्वान् जन इस ईश्वर से रचे हुए संसार में
सृष्टिक्रम से विद्या के द्वारा कार्य्यों को सिद्ध करते हैं,
वैसे ही अन्य जनों को भी चाहिये कि सिद्ध करें ॥६॥
आ वि॒श्वदे॑वं॒ सत्प॑तिं सू॒क्तैर॒द्या वृ॑णीमहे। स॒त्यस॑वं सवि॒तार॑म् ॥७॥
पद पाठ
आ। वि॒श्वऽदे॑वम्। सत्ऽप॑तिम्।
सु॒ऽउ॒क्तैः। अ॒द्य। वृ॒णी॒म॒हे॒। स॒त्यऽस॑वम्। स॒वि॒तार॑म् ॥७॥
पदार्थान्वयभाषाः -हे मनुष्यो ! जैसे हम लोग (अद्या) आज (सूक्तैः) उत्तम प्रकार कहे गये सत्य वचनों वा वेदोक्त वचनों से (विश्वदेवम्) संसार के प्रकाश करने और (सत्पतिम्) प्रकृति आदि पदार्थ और सत्पुरुषों के पालन करनेवाले (सत्यसवम्) नहीं नाश होनेवाला सामर्थ्ययोग्य जिसका उस (सवितारम्) सम्पूर्ण पदार्थों के बनानेवाले परमात्मा का (आ, वृणीमहे) स्वीकार करते हैं, वैसे आप लोग भी स्वीकार कीजिये ॥७॥
भावार्थभाषाः -इस मन्त्र में
वाचकलुप्तोपमालङ्कार है । मनुष्यों को चाहिये कि परमेश्वर को छोड़कर किसी अन्य का
आश्रय नहीं करें ॥७॥
य इ॒मे उ॒भे अह॑नी पु॒र एत्यप्र॑युच्छन्। स्वा॒धीर्दे॒वः स॑वि॒ता ॥८॥
पद पाठ
यः। इ॒मे । उ॒भे इति॑। अह॑नी॒ इति॑।
पु॒रः। एति॑। अप्र॑ऽयुच्छन्। सु॒ऽआ॒धीः। दे॒वः। स॒वि॒ता ॥८॥
पदार्थान्वयभाषाः -(यः) जो (अप्रयुच्छन्) प्रमाद को नहीं करता हुआ मनुष्य जैसे (स्वाधीः) उत्तम प्रकार स्थापन किया जाता है जिससे वह (देवः) प्रकाशमान (सविता) श्रेष्ठ कर्म्मों में प्रेरणा करनेवाला सत्य में वर्त्तमान है, वैसे (इमे) इन (उभे) दोनों (अहनी) रात्रि और दिनों को सत्य से (पुरः) आगे (एति) प्राप्त होता है, वही भाग्यशाली होता है ॥८॥
भावार्थभाषाः -इस मन्त्र में
वाचकलुप्तोपमालङ्कार है । जैसे परमेश्वर अपने नियमों की यथायोग्य रक्षा करता है,
वैसे ही मनुष्य भी श्रेष्ठ नियमों की यथावत् रक्षा करें ॥८॥
य इ॒मा विश्वा॑ जा॒तान्या॑श्रा॒वय॑ति॒ श्लोके॑न। प्र च॑ सु॒वाति॑ सवि॒ता ॥९॥
पद पाठ
यः। इ॒मा। विश्वा॑। जा॒तानि॑।
आ॒ऽश्र॒वय॑ति। श्लोके॑न। प्र। च॒। सु॒वाति॑। स॒वि॒ता ॥९॥
पदार्थान्वयभाषाः -हे मनुष्यो ! (यः) जो (श्लोकेन) वाणी से (इमा) इन (विश्वा) सम्पूर्ण प्रज्ञानों और (जातानि) उत्पन्न हुओं को (आश्रावयति) सब प्रकार से सुनाता है वह (च) और (सविता) प्रेरणा करनेवाला हम लोगों को (प्र, सुवाति) प्रेरणा करे ॥९॥
भावार्थभाषाः -हे मनुष्यो ! जो
जगदीश्वर वेद के द्वारा मनुष्यों के लिये सम्पूर्ण विद्याओं का उपदेश करता है,
वही परमगुरु मानने योग्य है ॥९॥ इस सूक्त में ईश्वर और विद्वानों के
गुणों का वर्णन होने से इस सूक्त के अर्थ की इस से पूर्व सूक्त के अर्थ के साथ
सङ्गति जाननी चाहिये ॥ यह बयासीवाँ सूक्त और छब्बीसवाँ वर्ग समाप्त हुआ ॥
अच्छा॑ वद त॒वसं॑ गी॒र्भिरा॒भिः स्तु॒हि प॒र्जन्यं॒ नम॒सा वि॑वास। कनि॑क्रदद्वृष॒भो जी॒रदा॑नू॒ रेतो॑ दधा॒त्योष॑धीषु॒ गर्भ॑म् ॥१॥
पद पाठ
अच्छ॑। व॒द॒। त॒वस॑म्। गीः॒ऽभिः।
आ॒भिः। स्तु॒हि। प॒र्जन्य॑म्। नम॑सा। आ। वि॒वा॒स॒। कनि॑क्रदत्। वृ॒ष॒भः।
जी॒रऽदा॑नुः। रेतः॑। द॒धा॒ति॒। ओष॑धीषु। गर्भ॑म् ॥१॥
पदार्थान्वयभाषाः -हे विद्वान् ! जो (वृषभः) थूहेवाले बैल के सदृश (जीरदानुः) जीवानेवाला (कनिक्रदत्) शब्द करता हुआ (नमसा) अन्न आदि के साथ (आ, विवास) सब ओर से बसता और (ओषधीषु) ओषधियों में (रेतः) जल रूप (गर्भम्) गर्भ को (दधाति) धारण करता है उस (पर्जन्यम्) मेघ को (आभिः) इन वर्त्तमान (गीर्भिः) वाणियों से (अच्छा) उत्तम प्रकार (वद) कहिये और (तवसम्) बल की (स्तुहि) प्रशंसा करिये ॥१॥
भावार्थभाषाः -मनुष्यों को चाहिये
कि विद्वानों से मेघविद्या का यथावत् विज्ञान करें ॥१॥
वि वृ॒क्षान् ह॑न्त्यु॒त ह॑न्ति र॒क्षसो॒ विश्वं॑ बिभाय॒ भुव॑नं म॒हाव॑धात्। उ॒ताना॑गा ईषते॒ वृष्ण्या॑वतो॒ यत्प॒र्जन्यः॑ स्त॒नय॒न् हन्ति॑ दु॒ष्कृतः॑ ॥२॥
पद पाठ
वि। वृ॒क्षान्। ह॒न्ति॒। उ॒त।
ह॒न्ति। र॒क्षसः॑। विश्व॑म्। बि॒भा॒य॒। भुव॑नम्। म॒हाऽव॑धात्। उ॒त। अना॑गाः।
ई॒ष॒ते॒। वृष्ण्य॑ऽवतः। यत्। प॒र्जन्यः॑। स्त॒नय॑न्। हन्ति॑। दुः॒ऽकृतः॑ ॥२॥
पदार्थान्वयभाषाः -हे मनुष्यो ! जैसे बढ़ई (वृक्षान्) काटने योग्य वृक्षों को (वि, हन्ति) विशेष कर के काटता है (उत) और न्यायकारी राजा जिनसे (विश्वम्) सम्पूर्ण संसार (बिभाय) भय करता है, उन (रक्षसः) दुष्ट आचरणवालों का (हन्ति) नाश करता है और (यत्) जो (पर्जन्यः) मेघ (स्तनयन्) शब्द करता हुआ (महावधात्) बड़े हनन से (भुवनम्) जल को वर्षाता है और जैसे (अनागाः) नहीं अपराध जिसमें वह (वृष्ण्यावतः) वर्षने योग्य मेघ जिनमें उन का (ईषते) नाश करता है (उत) और (दुष्कृतः) दुष्ट कर्मों के करनेवालों का (हन्ति) नाश करता है, वैसा ही मनुष्य वर्ताव करें ॥२॥
भावार्थभाषाः -इस मन्त्र में
वाचकलुप्तोपमालङ्कार है । जो मनुष्य पालन करने योग्यों का पालन करते हैं और नाश
करने योग्यों का नाश करते हैं, वे राजसत्ता
से युक्त होते हैं ॥२॥
सवितृ सूक्त ॥
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