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- रुद्रयामल तंत्र पटल २८
- अष्ट पदि ३ माधव उत्सव कमलाकर
- कमला स्तोत्र
- मायातन्त्र पटल ४
- योनितन्त्र पटल ८
- लक्ष्मीस्तोत्र
- रुद्रयामल तंत्र पटल २७
- मायातन्त्र पटल ३
- दुर्गा वज्र पंजर कवच
- दुर्गा स्तोत्र
- योनितन्त्र पटल ७
- गायत्री होम
- लक्ष्मी स्तोत्र
- गायत्री पुरश्चरण
- योनितन्त्र पटल ६
- चतुःश्लोकी भागवत
- भूतडामरतन्त्रम्
- भूतडामर तन्त्र पटल १६
- गौरीशाष्टक स्तोत्र
- योनितन्त्र पटल ५
- भूतडामर तन्त्र पटल १५
- द्वादश पञ्जरिका स्तोत्र
- गायत्री शापविमोचन
- योनितन्त्र पटल ४
- रुद्रयामल तंत्र पटल २६
- मायातन्त्र पटल २
- भूतडामर तन्त्र पटल १४
- गायत्री वर्ण के ऋषि छन्द देवता
- भूतडामर तन्त्र पटल १३
- परापूजा
- कौपीन पंचक
- ब्रह्मगायत्री पुरश्चरण विधान
- भूतडामर तन्त्र पटल १२
- धन्याष्टक
- रुद्रयामल तंत्र पटल २५
- भूतडामर तन्त्र पटल ११
- योनितन्त्र पटल ३
- साधनपंचक
- भूतडामर तन्त्र पटल १०
- कैवल्याष्टक
- माया तन्त्र पटल १
- भूतडामर तन्त्र पटल ९
- यमुना अष्टक
- रुद्रयामल तंत्र पटल २४
- भूतडामर तन्त्र पटल ८
- योनितन्त्र पटल २
- भूतडामर तन्त्र पटल ७
- आपूपिकेश्वर स्तोत्र
- भूतडामर तन्त्र पटल ६
- रुद्रयामल तंत्र पटल २३
- भूतडामर तन्त्र पटल ५
- अवधूत अभिवादन स्तोत्र
- भूतडामर तन्त्र पटल ४
- श्रीपरशुराम स्तोत्र
- भूतडामर तन्त्र पटल ३
- महागुरु श्रीकृष्ण स्तोत्र
- रुद्रयामल तंत्र पटल २२
- गायत्री सहस्रनाम
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मायातन्त्र पटल २
डी०पी०कर्मकाण्ड के तन्त्र श्रृंखला
में आगमतन्त्र से मायातन्त्र के पटल २ में माया की आराधना की उस विधि बतलाई गई है।
मायातन्त्रम् द्वितीयः पटलः
माया तन्त्र पटल २
Maya tantra patal 2
मायातन्त्र दूसरा पटल
अथ द्वितीयः पटलः
श्रीदेवी उवाच
कथयेशान ! सर्वज्ञ ! यतोऽहं तव
वल्लभा ।
ब्रूयुः स्निग्धाय शिष्याय गुरवो
गुह्यमप्युत ! ॥1 ॥
आराधनं तु मायायाः कथयस्वानुकम्पया
।
येन लोकास्तरिष्यन्ति महामोहात्
सुरेश्वर ! ॥2 ॥
श्री देवी ने कहा कि हे संसार की
रचना करने, सब कुछ जानने वाले शंकरजी;
क्योंकि मैं आपकी प्रिय पत्नी हूं। मुझे तो बताइये; क्योंकि प्रिय शिष्य को गुरु को अत्यन्त गोपनीय रहस्य को भी बताना
चाहिए। अतः हे देवाधिदेव। आप कृपा करके माया की आराधना की उस विधि को
बताइये, जिसके द्वारा ये संसार के प्राणी महामोह से तर
जायेंगे ॥1- 2 ॥
श्रीईश्वर उवाच
शृणु देवि प्रवक्ष्यामि
तस्याश्चाराधनं महत् ।
या चिच्छक्तिः सैव पाया सा दुर्गा
परिचक्ष्यते ॥3॥
भगवान् शंकर ने कहा
कि हे देवि । सुनो मैं तुम्हें उन देवी महामाया की आराधना की विधि बताऊंगा। अतः हे
देवि ! जो चित् शक्ति है अर्थात् प्राणियों (नर पादप पक्षी पुश कीट) आदि में जो
चेतनता है, वही माया है और वही दुर्गा
कही जाती है ॥ 3 ॥
विशेष :-
प्राणियों के शरीरों में जो चेतनशक्ति है, जिसके
कारण प्राणियों में गतिशीलता है, वही दुर्गा अथवा
माया है। दुर्गा सप्तशती में भी कहा गया है कि चित् रूपेण या व्याप्य
स्थिता जगत् । अर्थात् जो जेतन रूप से समस्त संसार को व्याप्त करके स्थित है,
वह दुर्गा है। यहाँ पर एक महत्त्वपूर्ण दार्शनिक तथ्य पर
प्रकाश डाला गया है, वह यह कि कुछ दर्शनों के अनुसार जड़ और
चेतन तत्त्व अलग-अलग हैं। यहाँ यह स्पष्ट किया गया है कि चेतन तत्त्व ही समस्त
जगत् (जड़तत्त्व) में व्याप्त होकर स्थित है। अतः जड़ में ही चेतन की उपस्थिति का
सिद्धान्त यहाँ स्पष्ट प्रतिपादित है। जैसा कि चारवाक् दर्शन के अनुसार जड़ में ही
चेतन का होना कहा गया है, उनके अनुसार यदि चेतन तत्त्व
अर्थात् 'जीव' अलग होता तो मरने के बाद
प्राणी के शरीर में कीड़े पैदा नहीं होते अतः यह निर्विवाद मानना होगा कि जड़ से
चेतन की उत्पत्ति है। यही नहीं जड़ में सर्वदा जीव चेतन विद्यमान रहता है। यह अलग
बात है कि किसी जड़ तत्त्व में चेतन अविकसित दशा में है तो कहीं विकसित है। कहीं
उचित प्राकृतिक वातावरण की उपस्थिति में सद्य विकसित होता है। कहीं धीरे-धीरे होता
है, कहीं नहीं भी होता; परन्तु सर्वत्र
सभी जड़ पदार्थों में चेतन का अस्तित्व है।
या दुर्गा सा महाकाली तारिणी
बगलामुखी ।
अन्नपूर्णा च सा माया गृहिणां
कल्पशाखिनी ॥4॥
आगे शिव कहते हैं कि यह जो
चेतन शक्ति है, वही माया है, उसे ही दुर्गा कहा जाता है। वही जीव को तारने वाली है। वही बगलामुखी
है तथा वह माया ही अन्नपूर्णा है और गृहस्थ पुरुषों की कल्पशाखाओं वाली है
अर्थात् गृहस्थ जीवन की अनेकों शाखाओं वाली अर्थात् पुत्र-पुत्री- पोते-पोती नाती-
नतिनी आदि हजारों शाखाओं को पैदा करने वाली है ॥4॥
भोगदा मोक्षदा देवी तस्मात्
पूर्णेति चक्ष्यते ।
माया गुणवता देवी निर्गुणानां
चिदात्मिका ॥ 5 ॥
यह माया देवी (प्रकृति) ही सब
प्रकार के भोग विलासों को देने वाली है और मोक्ष को भी देने वाली है। उसी कारण से
यह पूर्णा कही जाती है। यह सगुणों की माया है और निर्गुणों की चित् शक्ति है,
जिसे आत्मा कहा जाता है। अर्थात् यही शरीरों के रूप में दिखाई देने
वाली देवी है तथा उन शरीरों में आत्मा रूप वाली है। अर्थात् साकार (सगुण) रूप से
दृश्यमान शरीर भी वही है और उन शरीरों में विद्यमान निराकार निर्गुण (आत्मा) भी
वही है। अतः सगुणों की वह माया है और निर्गुणों की चिदात्मिका (चैतन्य रूप आत्मा
है) और दृश्यमान शरीर और उसमें स्थित आत्मा जो निर्गुण है, वह
वही है ॥5॥
यदि सा बहुभिः पुण्यैः प्रसीदति
जनान् प्रति ।
तदैव कृतकृत्यास्ते संसारात् ते
बहिष्कृताः ॥6॥
यदि वह देवी माया (प्रकृति) अनेकों
पुण्यों द्वारा मनुष्यों के प्रति प्रसन्न हो जाती है। अर्थात् यदि वह देवी
मनुष्यों के अच्छे कर्मों से प्रसन्न हो जाती है। तभी वे अपने पुण्यों का फल पाकर
कृतकृत्य (धन्य) हो जाते हैं अर्थात् अपने शुभ कर्मों का फल पा जाते हैं और फिर
सांसारिक जंजालों से बहिष्कृत हो जाते हैं। अर्थात् संसार सागर से तर जाते हैं ॥6॥
दुरन्ता चावशा माया मुनीनामपि
मोहिनी ।
श्रीकृष्णं मोहयामास राधा च गोकुले
स्थिता ॥ 7 ॥
आगे शंकरजी कहते हैं कि हे
देवी! यह माया, दुरन्त है अर्थात् इसका अन्त
आसान नहीं है, बहुत कठिन है और यह अवश्य है अर्थात् इसे कोई
वश में नहीं कर सकता, जो सबको वश में करने वाली है, आखिर उसे कौन वश में कर सकेगा। ये माया मुनियों को भी मोहित करने वाली है।
अरे, गोकुल में स्थित राधा ने जब श्रीकृष्ण को
मोहित कर लिया तो अन्य की तो बात ही क्या है। अतः यह माया किसी को भी मोहित कर
सकती है ॥ 7 ॥
विशेष :-नर-मादा
का परस्पर आकर्षण सन्तान धन-दौलत, खाना- पीना,
भोग-विलास ये सब माया के ही रूप हैं। भला इनके वश में कौंन नहीं है।
मुनियों को भी इसने मोह लिया था और आज भी मोहित कर रही है।
स चैव देवकीपुत्रस्तामाराध्य
निरन्तरम् ।
प्रकृताचारनिरतो जनानादेशयत् प्रभुः
॥8 ॥
उन देवकी नन्दन भगवान् श्रीकृष्ण
ने उन माया देवी (प्रकृति) की निरन्तर आराधना करके प्रकृति आचार में निरत होकर
लोगों को आदेश दिया था। अर्थात् उन महामाया की पूजा करके उन्होंने मनुष्यों पर राज
किया था। अतः वे देवी सब कुछ प्रदान कर सकती है ॥ 8 ॥
अस्या मन्त्रं प्रवक्ष्यामि शृणुष्व
कमलानने ।
शिवो वह्निसमारूढ
वामनेत्रेन्दुभूषणः ॥9 ॥
भगवान् शंकर ने कहा
कि हे पार्वति ! उन माया देवी के मन्त्र का मैं तुम्हें प्रवचन करूंगा। हे कमल के
समान मुख वाली पार्वती सुनो। ऐसा उन शिव ने कहा,
जिनके वामनेत्र में चन्द्रमा सुभोभित है तथा जो अग्नि पर
समारूढ़ हैं ॥9॥
एषा तु परमा विद्या देवैरपि
सुदुर्लभा ।
ऋषिर्ब्रह्मास्य मन्त्रस्य
त्रिष्टुप् छन्द उदाहृतम् ॥10
॥
यही नहीं भगवान् शिव ने पार्वती से
कहा कि यह जो मैं तुम्हे बताने जा रहा हूँ, वह
परमा विद्या है, जो देवों के लिए भी दुर्लभ है। इस मन्त्र रचयिता
ब्रह्मा हैं तथा त्रिष्टुप छन्द में यह मन्त्र उदाहृत है ॥10॥
देवता मुनिभिः प्रोक्ताः माया
श्रीभुवनेश्वरी ।
चतुर्वर्गेषु मेधावी विनयोगः
प्रकीर्तिताः ॥11॥
माया श्री भुवनेश्वरी तीनों
लोकों की मालिक हैं। इस माया देवी के विषय में देवताओं और मुनियों ने कहा है।
चारों वर्णों में मेधावी विनियोग कहा गया है॥11॥
विशेषः- मेधावी
विनियोग बुद्धि बढ़ाने वाला योग है, जो
धर्म अर्थ काम मोक्ष से मुक्त है।
अङ्गानि माययान्यस्य ध्यायेद् देवीं
चतुर्भुजाम् ।
रक्तवर्णां पद्मसंस्थां
नानालङ्कारभूषिताम् ॥12॥
पट्टवस्त्रपरीधानां कलमञ्जीररञ्जिनीम्
।
हारकेयूरवलयप्रवालपरिशोभिताम् ॥13
॥
अर्केन्दुशेखरां बालां नयनत्रितयान्विताम्
।
एवं ध्यात्वा महामायामुपचारैः
समर्चयेत् ॥14 ॥
माया द्वारा इस देवी के अंगों का
ध्यान करना चाहिए और चार भुजाओं वाली देवी का ध्यान करना चाहिए। रक्त वर्णवाली और
कमल पर स्थित तथा अनेकों अलंकारों से भूषित देवी का ध्यान करना चाहिए। पटवस्त्र से
ढकी हुई,
कल-कल करते हुए मंजीर ध्वनि वाली, हार केयूर
वलय ( कंगन) और मूंगे से शोभित सूर्य-चन्द्रमा
जिनके शिखर में है तथा जो तीन नेत्रों वाली है। ऐसी उन देवी का ध्यान करके महामाया
के साधनों द्वारा उनकी अच्छी प्रकार पूजा करनी चाहिए॥12-14॥
गुरुं प्रणम्य विधिवद् गृह्णीयात्
परमं मनुम् ।
ततो देवीं प्रसाद्यैवं कृतकृत्यो
भवेत् सुधीः ॥15॥
इस प्रकार विधिवत् गुरु को
प्रणाम करके परम मनु को ग्रहण करना चहिए। उसके बाद देवी को प्रसन्न करके
बुद्धिमान् मनुष्य को कृतकृत्य (धन्य) हो जाना चाहिए ॥15॥
अथ दुर्गामनुं वक्ष्ये शृणुष्व
कमलानने ।
यस्याः प्रसादमासाद्य भवेद्
गङ्गाधरः स्वयम् ॥16॥
इसके बाद शंकर जी ने पार्वति जी से
कहा कि हे देवि ! अब मैं दुर्गा और मनु को बताऊंगा। हे कमल मुख वाली देवि!
सुनो। जिसका प्रसाद पाकर भगवान् शंकर अर्थात् मैं स्वयं ही गंगा को धारण
करने वाला हो गया था॥16॥
खान्तं बीजं समुद्धृत्य
वामकर्णविभूषितम् ।
इन्दुबिन्दुसमायुक्तं बीजं
परमदुर्लभम् ॥17॥
मन्त्र है-ख
के अन्त में जो बीज है, उसके समुद्धृत कर
वाम कर्ण विभूषित चन्द्र बिन्दु से समायुक्त परम दुर्लभ बीज मन्त्र है ॥17॥
चतुर्वर्गप्रदं साक्षान्महापातकनाशनम्
।
एकाक्षरी समा नास्ति विद्या
त्रिभुवने प्रिया ॥18॥
यह बीज मन्त्र धर्म,
अर्थ, काम और मोक्ष चारों वर्गों को प्रदान
करने वाला है और साक्षात् महापाप को नष्ट करने वाला है। इस एक अक्षर वाली विद्या
के समान तीनों लोकों में अन्य कोई विद्या नहीं है ॥18॥
विशेष:-
यह एक अक्षर वाली विद्या ॐ है, जो
'ख' आकाश में गूंज रही है और
चन्द्र बिन्दु से युक्त है, यही प्रणव है, यहीं सबसे बड़ी विद्या है। यह ॐ शब्द है, जो
खान्त अर्थात् आकाश के अन्त तक है। भाव यह है कि आकाश में व्याप्त है। हो सकता है
कि यह ॐ शब्द में आकाश गूँज रहा है। जैसा कि प्राच्य विद्या सम्मेलन में
आये हुए एक वैज्ञानिक महोदय ने कहा था कि आकाश में प्रकाश है तथा प्रकाश में गति
होती है तथा जहाँ गति होती है,वहाँ ध्वनि अवश्य ही होगी। अतः
प्रकाश में ध्वनि है, परन्तु वह ध्वनि सामान्य कानों से
ग्राह्य नहीं है। उन्होंने बताया कि हमने अत्यन्त सुग्राह्य श्रावक यन्त्र से
ध्वनि को सुना है, जहाँ अं इं उं ऋ लृं की ध्वनि
सुनायी देती है। अतः ॐ की ध्वनि भी वहाँ अवश्य होगी। यह तो अनुसन्धान का
विषय है।
विना गन्धैर्विना पुष्पैर्विना
होमपुरः सरैः ।
विनाऽऽयासैर्महाविद्या जपमात्रेण
सिद्धिदा ॥19॥
वह विद्या बिना गन्धों और बिना
पुष्पों तथा बिना यज्ञ-हवनों द्वारा एवं बिना प्रयास के जप मात्र से ही सिद्धि को
प्रदान करने वाली है। भाव यह है कि ॐ का जाप बिना धूप-दीप नैवेद्य बिना
फूलमाला चढ़ाये बिना यज्ञ-हवन तथा बिना किसी प्रयत्न के सिद्धि देने वाला है ॥19॥
नारदोऽस्य ऋषिर्देवि गायत्रीच्छन्द
ईरितम् ।
देवता च जगद्धात्री दुर्गा
दुर्गतिनाशिनी ॥20 ॥
शंकर जी ने कहा कि हे देवि ! इस
उपर्युक्त मन्त्र के रचयिता (ऋषि) नारद मुनि हैं तथा यह मन्त्र गायत्री छन्द में
प्रयुक्त है तथा इस मन्त्र की देवता संसार को धारण करने वाली मनुष्य की दुर्गति को
नष्ट करने वाली दुर्गा है॥20॥
चतुर्वर्गप्रदा दुर्गा
सर्वतन्त्रेषु संस्थिता ।
विविधा सा महाविद्या तच्छृणुष्व
गणेश्वरि ॥21॥
ये महामाया देवी दुर्गा धर्म,
अर्थ, काम और मोक्ष इन चारों को प्रदान करने
वाली हैं तथा सभी प्रकार के तन्त्रों में सम्यक् प्रकार से स्थित हैं। अतः हे
गणेश्वरि ! वह महाविद्या अनेकों प्रकार की है। अतः उसे सुनो-॥21॥
कूर्जाद्यां वा जपेद् विद्यां चतुर्वर्गफलाप्तये।
वाग्भवाद्या जपेद् विद्यां तदन्ते
वह्निसुन्दरि ! ॥22॥
धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष इन चारों वर्गों को प्राप्त करने
के लिए कूर्चाद्या विद्या का जाप करना चाहिए। उसके अन्त में हे वह्नि सुन्दरि !
वाग्भव(वाणी) से उत्पन्न विद्या का जाप करना चाहिए ॥
22 ॥
लज्जाद्यां वा जपेद् विद्यां फडन्ता
वा जपेत् पुनः ।
वधूबीजयुतां वापि स्वाहान्तां
प्रजयेत् कृती ॥23॥
अथवा लज्जाद्या विद्या का जाप करना
चाहिए,
उसके बाद फिर फडन्त विद्या का जप करना चाहिए। अथवा वधू बीज युक्त
स्वाहान्त जप करना चाहिए ॥ 23 ॥
लक्ष्म्याद्यां वा जपेद् विद्यां
चतुर्वर्गफलाप्तये ।
वाग्भवाद्यां जपेद् वापि प्रणवाद्या
जपेत् तथा ॥24 ॥
धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष इन चार वर्गों की प्राप्ति के
लिए लक्ष्म्याद्या विद्या का जप करना चाहिए अथवा वाग्भवाद्या विद्या का तथा
प्रणवाद्या का जप करना चाहिए ॥ 24॥
एवं सा त्र्यक्षरी विद्या कथिता
ब्रह्मयोनिना ।
दीर्घषट्कसमायुक्तनिजवीजानि पार्वति
! ॥25॥
इस प्रकार वह तीन अक्षरों वाली
विद्या ब्रह्म योनि द्वारा बतायी गयी है। वह तीन अक्षरों वाली विद्या है 'ओउम्' इसमें ही तीन
अक्षर हैं-अ उ और म्। यह उस परमपिता परमेश्वर का मुख्यनाम है तथा हे
पार्वति ! छः दीर्घ अक्षरों से समायुक्त निजबीज हैं ॥25॥
विन्यसेदात्मनो देहे हृदयादिषु
शाम्भवि ।
ध्यानमस्याः प्रवक्ष्यामि शृणु
पर्वतनन्दिनि ! ॥26॥
इन सबको हे पार्वति ! अपनी शरीर में
विशेष रूप से धारण करना चाहिए और हृदय आदि में भी धारण करना चाहिए। वह कैसे शरीर
और हृदय आदि में धारण करना चाहिए, उसका ध्यान
में बताऊंगा । हे पर्वत पुत्री पार्वति ! ध्यान देकर सुनो ॥26॥
सिंहस्कन्धसमारूढां नानालङ्कारभूषिताम्
।
चतुर्भुजां महादेवीं
नागयज्ञोपवीतिनीम् ॥27॥
सिंह के स्कन्ध पर सवार अनेकों
प्रकार के अलंकारों से शोभित चार भुजाओं वाली महादेवी की कल्पना करनी चाहिए तथा
उनके गले में नाग के यज्ञोपवीत की भी कल्पना करनी चाहिए ॥
27 ॥
रक्तवस्त्रपरीधानां
बालार्कसदृशीतनुम् ।
नारदाद्यैर्मुनिगणैः सेवितां
भवगेहिनीम् ॥28॥
यही नहीं,
उन देवी के शरीर पर लाल रंग के वस्त्र को पहने हुए प्रभातकालीन सूर्य
की आभा के समान शरीर की कल्पना करनी चाहिए। साथ ही उन्हें नारद आदि मुनियों
द्वारा सेवा की जाती हुई की कल्पना करनी चाहिए ॥ 28 ॥
त्रिबलीवलयोपेतनाभिनालमृणालिनीम्
I
रत्नद्वीपमयद्वीपे सिंहासनसमन्विते
॥ 29 ॥
जिनकी कमर में पड़ने वाली तीन
रेखाओं में कर्धनी से युक्त नाभि के नाल में कमलिनी की कल्पना करनी चाहिए तथा यही
नहीं उन महादेवी को रत्नों से भरे द्वीप में स्थित सिंहासन पर बैठी हुई का ध्यान
करना चाहिए ॥29॥
प्रफुल्लकमलारूढां ध्यायेत् तां भवसुन्दरीम्
।
एवं ध्यात्वा यजेद् देवीमुपचारैः
पृथक् पृथक् ॥30॥
खिले हुए कमल पर आरूढ उन त्रिलोक
सुन्दरी का ध्यान करना चाहिए और इस प्रकार ध्यान करके अलग-अलग उपचारों द्वारा
अर्थात् अलग- अलग विधियों से उनकी पूजा करनी चाहिये ॥30॥
भूतशुद्धिं पुरा कृत्वा न्यसेद्
देहेषु पार्वति ।
स्वाङ्के उत्तानको हस्तौ प्रणिधाय
ततः परम ॥31॥
हृदये हंसमन्त्रेण जीवं दीपनिभं
सुधीः ।
स्थापयेत् परमे व्योम्नि
पृथिव्यादीनि च क्रमात् ॥32॥
उन उपचारों से पहले भूतशुद्धि करनी
चाहिए और भूतशुद्धि करके शरीरों में रखना चाहिए, उसके बाद अपनी गोद में उठे हुए हाथों को रखना चाहिए, उसके बाद हृदय में हंस मन्त्र के द्वारा दीपक के समान जीव को रखना
चाहिए। उसके बाद परम व्योम परप्रकाश में क्रम से पृथिवी आदि को स्थापित
करना चाहिए ॥31-32॥
शिवापेष्ट्यादिभेदेन भिद्यते मरुतो
गतिः ।
मरुत्सखेन तेनेह पच्यते भक्तमेव तु
॥33॥
शिवापेष्टी आदि के भेदन से वायु की
गति भिन्न हो जाती है, फिर वायु को उस अग्नि
के द्वारा भक्त ही पक जाता है ॥33॥
विशेष :-
ऊपर श्लोक में शिवा पेष्टयादि भेदेन के स्थान पर (क) पाण्डुलिपि में 'शिवो वेश्मादिभेदेन' है (ग) पाण्डुलिपि में 'शिवपद्मत्वादि' है (ङ) में 'शिव
पक्ष भेदेन' है तथा (च) पाण्डुलिपि में 'शिवादिक प्रभेदेन' पाठ है। अतः (क) पाण्डुलिपि के
अनुसार शिव के वेश्म आदि भेद से शिव भक्त को पक्का कर देते हैं। (ग) पाण्डुलिपि के
अनुसार अर्थ होगा कि शिव के कमल आदि भेद से वायु की गति भिन्न हो जाती है और फिर
उस अग्नि द्वारा इसी लोक में भक्त स्वयमेव पक्का हो जाता है। (ङ) पाण्डुलिपि के
अनुसार शिव पक्ष के प्रभेद से अग्नि के द्वारा भक्त पक्का हो जाता है, वहाँ शिवादिक प्रभेद से वायु की गति टूट जाती है और फिर अग्नि द्वारा भक्त
पक्का हो जाता है।
तस्मान्मन्त्री गुरोर्ज्ञात्वा
नयेत् सर्वं परोपरि ।
दीपयेदव्यवच्छिन्नं पावकं
सर्वतोमुखम् ॥34॥
पश्येदवान्तरं देहं कर्मरूपं ततः
परम् ।
वामकुक्षिस्थितं पापं पुरुषं
कज्जलप्रभम् ॥35॥
तं संशोष्य तथा दह्य जीवाधारं तु
प्लावयेत् ।
मूलाधारात् ततो जीवनं सोऽहंमन्त्रेण
देशिकः ॥36॥
इसलिए गुरु की मन्त्रणा जानकर
अर्थात् गुरु की आज्ञा लेकर मन्त्र जाप करने वाले को एक-दूसरे के ऊपर ले जाना
चाहिए और सब ओर अलग-अलग दीपक जलाने चाहिए। सभी ओर अपने हृदय में दीपक जलाकर अपने
समस्त शरीर में अपने परम कर्म के रूप को देखना चाहिए अर्थात् अपने किये हुए कर्म
की परीक्षा करनी चाहिये कि हम जो कर्म कर रहे हैं? वे कैसे हैं? उनसे किसी की हानि तो नहीं हो रही है।
उसके बाद बांयी कोख अर्थात् पेट के बांये भाग में स्थित छिपे हुए काजल के समान
काले पाप पुरुष को देखना चाहिए और फिर उस पाप पुरुष को अच्छी तरह शोषित करके तथा
जलाकर जीव के आधार पर ले जाना चाहिए। अर्थात् पाप को मारकर जलाकर अपना जीव (अपना
आत्मा) शुद्ध कर लेना चाहिए, यही भाव है। उसके बाद जीव को
मूलाधार से मिलाकर 'सोऽहम्' वह मैं हूँ,
ऐसी स्थिति पैदा करनी चाहिए अर्थात् सोऽहम् मन्त्र ।।34-36।।
विशेष-
(च) पाण्डुलिपि परोपरि के स्थान पर शिवोपरि शब्द है, जिसके अनुसार अर्थ होगा कि शिव के ऊपर ले जाना चाहिये ।
नयेत् परशिवां
हंसमन्त्रेणादारमानयेत् ।
एषा भूतशुद्धितन्त्रे प्रक्रिया
कथिता मया ॥37॥
तव स्नेहेन देवेशि चेदानीं
प्रकटीकृता ॥38॥
उसके बाद मन्त्र द्वारा परमशिवा को
ले जाना चाहिए और फिर हंसमन्त्र द्वारा मूलाधार की ओर लाना चाहिए। इस प्रकार
भगवान् शंकर ने पार्वती को भूत शुद्धि की प्रक्रिया बता दी और कहा कि हे पार्वति !
मैंने यह तुम्हें भूतशुद्धिनी प्रक्रिया बतायी है तथा हे पार्वति ! मैंने इस
भूतशुद्धि की प्रक्रिया तुम्हारे प्रति प्रेम के कारण प्रकट की है ॥37-38॥
।। इति श्रीमायातन्त्रे द्वितीयः
पटलः ।।
।।इस प्रकार मायातन्त्र में दूसरा
पटल समाप्त हुआ । ।
आगे पढ़ें ............ मायातन्त्र पटल 3
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