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कर्मकाण्ड

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भूतडामर तन्त्र पटल १५

भूतडामर तन्त्र पटल १५             

डी०पी०कर्मकाण्ड के तन्त्र श्रृंखला में आगमतन्त्र से भूतडामर महातन्त्र अथवा  भूतडामरतन्त्र के पटल १४ में परिषन्मण्डल- वर्णन, क्रोधभैरव पूजन, मुद्राविधियाँ को दिया गया, अब पटल १५ में यक्षसिद्धि-विधान, अपराजित मन्त्र का वर्णन हुआ है।

भूतडामर तन्त्र पटल १५

भूतडामरतन्त्रम् पञ्चदश: पटल:

Bhoot Damar tantra patal 15

भूतडामर तन्त्र पटल १५              

भूतडामरतन्त्र पन्द्रहवां पटल 

भूतडामर महातन्त्र

अथ पञ्चदशं पटलम्

श्रीमत्युन्मत्तभैरव्युवाच

अशेषदुष्टदलन ! सिद्धगन्धर्ववन्दित ! ।

प्रसन्नोऽसि यदा नाथ ! यक्षसिद्धि तदा वद ॥ १ ॥

उन्मत्तभैरवी उन्मत्तभैरव से पूछती हैं- हे नाथ ! आप समस्त दुष्टों का दलन करने वाले तथा सिद्ध-गन्धर्व द्वारा वन्दित हैं। यदि आप मुझ पर प्रसन्न हैं तब यक्षसिद्धि का उपदेश करें ॥ १ ॥

श्रीमदुन्मत्तभैरव उवाच

अथातः सम्प्रवक्ष्यामि भूतानां सिद्धिसाधनम् ।

येन विज्ञानमात्रेण लभ्यन्ते सर्वसिद्धयः ।

मनुमेषां प्रवक्ष्यामि यथावदवधारय ॥ २ ॥

उन्मत्तभैरव कहते हैंअब मैं भूतसिद्धि का उपाय कहता हूँ । इसे जान लेने पर सभी सिद्धियाँ प्राप्त होती हैं। तुम एकाग्र होकर सुनो ॥ २ ॥

विषं भूतेश्वरीबीजं वातमादरसंयुतम् ।

अपराजितमाख्यातं भूतानामधिदेवतम् ।

अनादिबीजं भूतेशं गृह्य तारकलान्वितम् ।

पवनोऽसौ समाख्यातो वाञ्छितार्थप्रदायकः ।

विषं निरञ्जनं वायुं सादरं पाशमुद्धरेत् ।

प्रणवञ्च ततो वातं कलया समलङ्कृतम् ।

श्मशानाधिपतेर्मन्त्रं क्रोधराजेन भाषितम् ।

प्रालेयाज्वालिनीं गृह्य यः कुलेश्वर ईरितः ।

विषादमन्त्रः सकलो वायुर्भूतेश्वरः स्मृतः ।

सृष्टेरनन्तः सकलस्तारात्म किन्नरोत्तमः ॥ ३ ॥

'ॐ हुं यं'यह अपराजित मन्त्र भूतों के देवता के समान है।

'ॐ हुं ॐ' - यह पवनाख्य मन्त्र वांछितफलप्रद है।

'ॐ हुं यं आं ॐ यं' -  श्मशानाधिपतिभूत के इस मन्त्र को क्रोधराज ने कहा है।

'ॐ हुं हुं यं'यह अनन्त सृष्टि के सभी वायुभूतेश्वरकिन्नरों का मन्त्र है ॥ ३ ॥

वज्रस्य पुरतः स्थित्वा जपेल्लक्षं पुरस्कृतः ।

अथातः पौर्णमास्यान्तु समभ्यर्च्य यथाबलिम् ।

सितोदनं घृतं क्षीरमैक्षवं पायसं पुनः ।

धूपयेद् गुग्गुलुं धूपं सकलां यामिनीं जपेत् ।

प्रभातेऽन्तिकमायाति वदेदाज्ञां प्रयच्छ मे ।

साधकेनापि वक्तव्यं भव त्वं किङ्करो मम ।

ततोऽसौ किङ्करो भूत्वा राज्यं यच्छति कामिकम् ।

करोति निग्रहं शत्रोर्नारमानीय यच्छति ।

साधकः सप्तकल्पानि जीवत्येव न संशयः ।

यथेष्टं लभते मन्त्री साधयित्वाऽपराजितम् ।

एवमन्याश्च साध्यन्ते पवनाद्यष्टसिद्धयः ॥ ४ ॥

पूर्वोक्त मन्त्रों की साधन-विधि कहते हैं। प्रथमतः पुरश्चरण करके एक लाख जप करे । तदनन्तर पूर्णिमा की रात्रि को यथाविधि पूजन करके बलिदान दे । तदनन्तर सिततण्डुल, घृत, दुग्ध, इक्षु एवं पायस निवेदन करके गुग्गुलु को धूप प्रदान करे। अब पुनः रात्रि पर्यन्त जप करना चाहिए। प्रभात के समय देवता उपस्थित होकर साधक से वर माँगने को कहते हैं । तब साधक को कहना चाहिए कि आप मेरे भृत्य हो जायें। तब अपराजित देवता साधक के भृत्य बनकर उसे राज्य प्रदान करते हैं । साधक के शत्रुओं का नाश करते हैं। वांछित स्त्री को लाकर अर्पित करते हैं। इस साधन से सिद्ध होकर मानव सात कल्पों तक जीवित रहता है। इस साधना से अभिलषित द्रव्य भी मिलता है ॥ ४ ॥

गुरुचरणसरोजाज्जाप्यमन्त्रस्य रूपम्

मुखहृदयदृशा वाप्याकृतिर्लक्ष्य सम्यक् ।

यदि निगदितदेशध्यानमुद्राविधिज्ञो,

जपति फलति सिद्धिर्नान्यथा क्रोधवाक्यम् ।। ५ ।।

साधक गुरु से मन्त्र लेकर १००००० जप करे । ध्यान, मुद्रा तथा पूजा- विधि को जानकर जप करने से सिद्धि अवश्य प्राप्त होती है। यह क्रोधराज का कथन है, जो अन्यथा नहीं होता ।। ५ ।।

तपसोग्रेण तुष्टेन भक्त्या क्रोधनृपेण यत् ।

गदितं शाम्भवं ज्ञानं भुक्तिमुक्तिप्रदायकम् ।

कष्टेन महता लब्धं तदहं भैरवाननात् ।

विख्यातं त्रिषु लोकेष्वप्रकाश्यं ते प्रकाशितम् ।

किङ्करास्त्रिदशा येन दास्य एषां वराङ्गनाः ।

मोक्षप्रभृतयो येन लभ्यन्ते त्रिषु दुर्लभाः ।

भवस्थितिलया येन त्रिदशानां नृणामपि ।

पूज्यन्ते त्रिषु लोकेषु नश्यते नारकं तमः ।

न मृते विषयो देयो मृते वासो गरीयसी ।

भक्तिहीने दुराचारे हिंसाव्रतपरायणे ।

अलसे दुर्जने दुष्टे गुरुभक्तिविवर्जिते ।

एतत्ते वादिविज्ञानं यत् सुरैरपि दुर्लभम् ।

अन्यथा क्रोधमन्त्रेण विनाशो जायते ध्रुवम् ।

उन्मत्तभैरवः प्राह भैरवीं सिद्धिपद्धतिम् ।

तन्त्र चूडामणौ दिव्ये तन्त्रेऽस्मिन् भूतडामरे ।। ६-७ ।।

क्रोधराज ने किसी साधक की उग्र तपस्या से प्रसन्न होकर इस भुक्ति-मुक्ति- प्रद शिवजी द्वारा प्राप्त ज्ञान को कहा है। मैंने इसे बड़े कष्ट से भैरव से प्राप्त किया, ऐसा प्रसिद्ध है। आज तक अप्रकाशित यह ज्ञान मैंने तुम्हारे लिए प्रकाशित किया है, ऐसा तीनों लोकों में प्रसिद्ध है। इस साधन के बल से देवता भी भृत्य हो जाते हैं और देवीगण दासी बन जाती हैं। इस साधना की कृपा से त्रैलोक्य दुर्लभा मुक्ति आदि मिलती है। इसी के द्वारा देवताओं तथा मनुष्यों की सृष्टि, स्थिति एवं लय भी सम्भव है। भक्तिहीन, दुराचाररत, हिंसक, आलसी, दुर्जन, दुष्टचित्त, गुरुभक्तिरहितों को यह साधना नहीं बताना चाहिए। जो भक्तिरहित व्यक्ति से यह साधना बतलाता है, क्रोधराज उसका विनाश कर देते हैं। उन्मत्तभैरव ने उन्मत्तभैरवी से जिस-जिस विषय के सम्बन्ध में वार्ता की है, वह सब तन्त्रचूड़ामणि ग्रन्थ में कहा गया है, उसी को इस भूतडामरतन्त्र में विशेष रूप से कहा जा रहा है ।। ६-७ ।।

इति भूतडामरे महातन्त्रराजे अपराजिताविमुखयक्षसिद्धि- साधनविधिर्नाम पश्चदशंपटलम् ।

भूतडामर महातन्त्र का पन्द्रहवां पटल समाप्त ।

आगे पढ़ें.................. भूतडामरतन्त्र पटल 16 

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