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कर्मकाण्ड

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द्वादश पञ्जरिका स्तोत्र

द्वादश पञ्जरिका स्तोत्र

डी०पी०कर्मकाण्ड के स्तोत्र श्रृंखला में शङ्कराचार्य ने यह द्वादश पञ्जरिका स्तोत्र शिष्यों के उपदेश के लिये कहा गया है।

द्वादश पञ्जरिका स्तोत्र

द्वादशपञ्जरिकास्तोत्रम्

Dvadash panjarika stotram

भज गोविन्दं भज गोविन्दं गोविन्दं भज मूढमते ॥(ध्रुवपदम्)

मूढ जहीहि धनागमतृष्णां कुरु सद्बुद्धिं मनसि वितृष्णाम् ।

यल्लभसे निजकर्मोपात्तं वित्तं तेन विनोदय चित्तम् ॥१॥

हे मूढ ! धनसञ्चय की लालसा को छोड़, सुबुद्धि धारण कर, मन से तृष्णाहीन हो, अपने प्रारब्धानुसार तुझे जो कुछ वित्त मिल जाय, उसी से चित्त को प्रसन्न रख और हे मूढमते ! निरन्तर गोविन्द को भज ॥१॥

अर्थमनर्थं भावय नित्यं नास्ति ततः सुखलेशः सत्यम् ।

पुत्रादपि धनभाजां भीतिः सर्वत्रैषा विहिता नीतिः । भज० ॥२॥

अर्थ को नित्य अनर्थरूप जान, उसमें सचमुच ही सुख का लेश भी नहीं है, अरे ! सभी जगह ऐसी नीति देखी है कि धनवान् को तो अपने पुत्र से भी भय रहता है; इसलिये सदा गोविन्द को भज ॥ २ ॥

का ते कान्ता कस्ते पुत्रः संसारोऽयमतीव विचित्रः ।

कस्य त्वं कः कुत आयातस्तत्त्वं चिन्तय यदिदं भ्रातः । भज० ॥३॥

कौन तेरी स्त्री है ? कौन तेरा पुत्र ! अरे? यह संसार बड़ा विचित्र है, भाई ! इसी तत्त्व का निरन्तर विचार कर कि, 'तू कौन है ? किसका है? और कहाँ से आया है ?' और गोविन्द को भज ॥ ३॥

मा कुरु धनजनयौवनगर्वं हरति निमेषात्कालः सर्वम् ।

मायामयमिदमखिलं हित्वा ब्रह्मपदं त्वं प्रविश विदित्वा । भजः ॥४॥

धन, जन और यौवन का गर्व मत कर, काल पलक मारते ही इन सबको नष्ट कर देता है, इस सम्पूर्ण मायामय प्रपञ्च को छोड़कर, ब्रह्मपद को जानकर उसी में प्रवेश कर; और हे मूढ ! सदा ! गोविन्द को भज ॥ ४ ॥

कामं क्रोधं लोभं मोहं त्यक्त्वात्मानं भावय कोऽहम् ।

आत्मज्ञानविहीना मूढास्ते पच्यन्ते नरकनिगूढाः । भज० ॥ ५॥

काम, क्रोध, लोभ, मोह को त्यागकर अपने लिये विचार कर कि 'मैं कौन हूँ' जो मूढ़ आत्मज्ञान से रहित हैं, वे नरक में पड़े हुए सन्तप्त होते रहते हैं; अतः सदा गोविन्द को भज॥ ५॥

सुरमन्दिरतरुमूलनिवासः शय्या भूतलमजिनं वासः ।

सर्वपरिग्रहभोगत्यागः कस्य सुखं न करोति विरागः । भज० ॥६॥

देवमन्दिर अथवा वृक्षतल का निवास, पृथ्वी की ही शय्या, मृगचर्म का वस्त्र और सब प्रकार के परिग्रह और भोगों का त्याग है, ऐसा वैराग्य किसको सुख नहीं पहुँचाता? अतः सदा गोविन्द को भज ॥६॥

शत्रौ मित्रे पुत्रे बन्धौ मा कुरु यत्नं विग्रहसन्धौ ।

भव समचित्तः सर्वत्र त्वं वाञ्छस्यचिराद्यदि विष्णुत्वम् । भजः ॥ ७ ॥

यदि तू शीघ्र विष्णुत्व की प्राप्ति का अभिलाषी है तो शत्रु, मित्र, पुत्र और बन्धुओं से मेल अथवा अनमेल का प्रयत्न मत कर और सर्वत्र समभाव रख तथा निरन्तर गोविन्द को भज ॥७॥

त्वयि मयि चान्यत्रैको विष्णुर्व्यर्थं कुप्यसि सर्वसहिष्णुः।

सर्वस्मिन्नपि पश्यात्मानं सर्वत्रोत्सृज भेदाज्ञानम् । भज०॥ ८ ॥

तुझमें, मुझमें और अन्यत्र भी सबमें एक ही वासुदेव हैं, इसलिये कोप करना व्यर्थ है, सबको सहन करनेवाला हो, आत्मा को ही सब में देख, भेदरूपी अज्ञान को सर्वत्र त्याग दे और सर्वदा गोविन्द का भजन कर ॥ ८॥

प्राणायाम प्रत्याहारं नित्यानित्यविवेकविचारम् ।

जाप्यसमेतसमाधिविधानं कुर्ववधानं महदवधानम् । भज० ॥ ९ ॥

प्राणायाम, प्रत्याहार और नित्यानित्य वस्तु का विवेकपूर्वक विचार कर, विधिपूर्वक भगवन्नाम स्मरण के सहित ध्यान करने का निश्चय कर; क्योंकि यही महान् निश्चय है और सदा गोविन्द का भजन कर ॥ ९॥

नलिनीदलगतसलिलं तरलं तद्वज्जीवितमतिशय चपलम् ।

विद्धि व्याध्यभिमानग्रस्तं लोकं शोकहतं च समस्तम् । भज ॥ १० ॥

कमलपत्र पर पड़ी हुई बूंद जैसे स्थिर नहीं होती है वैसा ही अति चञ्चल यह जीवन है; इसे खूब समझ ले, व्याधि और अभिमान से ग्रस्त हुआ यह सारा संसार अति शोकाकुल है, अतः तू सदा गोविन्द का भजन कर ॥ १० ॥

का तेऽष्टादशदेशे चिन्ता वातुल तव किं नास्ति नियन्ता ।

यस्त्वां हस्ते सुदृढनिबद्धं बोधयति प्रभवादिविरुद्धम् । भजः ॥ ११ ॥

रे पागल जीव ! तू अठारह जगह की चिन्ता क्यों कर रहा है, क्या तुम्हारा कोई नियन्ता नहीं है? जो तुम्हारे दोनों हाथ खूब कस के बाँधकर तुम्हें जन्म-मरणादि विकारों से रहित आत्मतत्त्व का बोध करा दे; अरे मूढ ! सर्वदा गोविन्द का भजन कर ॥ ११ ॥

गुरुचरणाम्बुजनिर्भरभक्तः संसारादचिराद्भव मुक्तः ।

सेन्द्रियमानसनियमादेवं द्रक्ष्यसि निजहृदयस्थं देवम् । भजः ॥ १२ ॥

गुरुदेव के चरणकमलों का अनन्य भक्त होकर संसार से शीघ्र ही मुक्त हो जा, इस प्रकार इन्द्रियों के सहित मन का संयम करने से तू शीघ्र ही अपने हृदयस्थ देव को देखेगा; अतः निरन्तर गोविन्द का भजन कर ॥ १२ ॥

द्वादशपञ्जरिकास्तोत्रम् फलश्रुति:

द्वादशपञ्जरिकामय एषः शिष्याणां कथितो झुपदेशः ।

येषां चित्ते नैव विवेकस्ते पच्यन्ते नरकमनेकम् । भजः ॥ १३ ॥

यह द्वादशपञ्जरिकास्तोत्र शिष्यों के उपदेश के लिये कहा गया है, जिनके हृदय में विवेक नहीं है, वे दीर्घकालतक नरकयातना भोगते हैं; अतः हे मूढमते ! तू निरन्तर गोविन्द का भजन कर ॥१३॥

इति श्रीमच्छङ्कराचार्यविरचितं द्वादशपञ्जरिकास्तोत्रं सम्पूर्णम्।

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