ब्रह्मगायत्री पुरश्चरण विधान
डी०पी०कर्मकाण्ड के तन्त्र श्रृंखला
में मन्त्रमहार्णव के गायत्रीतन्त्र में ब्रह्मगायत्री पुरश्चरणविधान दिया जा रहा
है।
ब्रह्मगायत्री पुरश्चरणविधान
गायत्री तन्त्र
॥ ॐश्री गणेशाय नमः ।।
अथ वेदादिगीतायाः प्रसादजननं विधिम्
।
गायत्र्याः सम्प्रवक्ष्यामि
धर्मार्थकाममोक्षदम् ।।१।।
ब्रह्मगायत्री पुरश्चरणविधान
गायत्री - तन्त्र प्रारम्भ : वेद,
गीता आदि ग्रन्थों की प्रसन्नता प्रदान करनेवाले तथा धर्म, अर्थ, काम और मोक्षदायक गायत्री के पुरश्चरण की विधि
मैं कहता हूँ।
नित्यनैमित्तिके काम्ये तृतीये
तपवर्द्धने ।
गायत्र्यास्तु परं नास्ति इह लोके
परत्र च ॥२॥
नित्य,
नैमित्तिक, काम्य और तपोवृद्धि के लिये इस लोक
या परलोक में गायत्री से श्रेष्ठ कुछ नहीं है।
(देवीभागवते) अथातः
श्रूयतां ब्रह्मन् गायत्र्याः पापनाशनम् ।
पुरश्चरणकं पुण्यं यथेष्टफलदायकम्
।।३।।
देवीभागवत में कहा गया है : हे
ब्रह्मन्,
पापों का नाश करनेवाले यथेष्ट फल देनेवाले पुण्य गायत्री मन्त्र का
पुरश्चरण मैं कहता हूँ, उसे सुनो।
पर्वताने नदीतीरे बिल्वमूले जलाशये
।
गोष्ठे देवालयेऽश्वत्थे उद्याने
तुलसीवने ॥४॥
पुण्यक्षेत्रे गुरोः पार्श्वे
चित्तैकण्यस्थलेपि च ।
पुरश्चरणकृन्मन्त्री सिध्यत्येव न
संशयः ॥ ५॥
पर्वत के शिखर पर,
नदी के तट पर, वेल की छाया में, जलाशय में, गोशाला में, देवालय
में, पीपल की छाया में, बगीचे में,
तुलसीवन में, पुण्य क्षेत्र में, गुरु के निकट तथा जहाँ चित्त एकाग्र हो उस स्थल पर गायत्री का पुरश्चरण
करनेवाला निश्चय ही सिद्धि को प्राप्त करता है, इसमें
लेशमात्र संशय नहीं है।
गायत्री छन्दो मन्त्रस्य यथा
संख्याक्षराणि च ।
तावल्लक्षाणि कर्तव्यं पुरश्चरणकं
तथा ।।६।।
द्वात्रिंशल्लक्षमानं तु
विश्वामित्रमतं तथा ।
गायत्री मन्त्र में जितने अक्षर हैं,
उतने लाख गायत्री का पुरश्चरण, परन्तु
विश्वामित्र के अनुसार ३२ लाख का पुरश्चरण करना चाहिये।
जीव हीनो यथा देहः सर्वकर्मसु न
क्षमः ।
पुरश्चरणहीनस्तु तथा मन्त्रः
प्रकीर्तितः ।।७।।
जैसे आत्मा से रहित यह शरीर सभी
कर्मों में असमर्थ होता है, उसी प्रकार
पुरश्चरण के बिना मन्त्र भी असमर्थ होता है।
ज्येष्ठाषाढौ भाद्रपदं पौषं तु
मलमासकम् ।
अङ्गारं शनिवारं च व्यतीपातं च
वैधृतिम् ।।८।।
अष्टमी नवमीं षष्ठी चतुर्थी च
त्रयोदशीम् ।
चतुर्दशीममावस्यां प्रदोषं च तथा
निशाम ।।९।।
यमाग्निरुद्रसर्पेन्द्रवसुश्रवणजन्मभम्
।
मेषकर्कतुलाकुम्भान्मकरं चैव वर्जयेत्
।।१०।।
सर्वाण्येतानि वर्ज्यानि
पुरश्चरणकर्माणि ।
ज्येष्ठ,
अषाढ़, भादों, पूष तथा
मलमास, मंगलवार,शनिवार, व्यतीपातं और वैधृति
योग, अष्टमी, नवमी, षष्ठी, चतुर्थी, त्रयोदशी,
चतुर्दशी, अमावास्या, प्रदोष,
रात्रि, यम, अग्नि, रुद्र,
सर्प, इन्द्र, वसु, श्रवण तथा जन्म नक्षत्र, मेष,
कर्क, तुला, कुम्भ और
मकर ये सभी गायत्री के पुरश्चरणकर्म में वर्जित हैं।
चन्द्रतारानुकूले च शुक्लपक्षे
विशेषतः ।।११।।
पुरश्चरणकं कुर्यान्मन्त्रसिद्धिः
प्रजायते ।
स्वस्तिवाचनकं
कुर्यान्नान्दीश्राद्धं यथाविधि ।। १२ ।।
चन्द्र तारा के अनुकूल होने पर
विशेष रूप से शुक्ल पक्ष में पुरश्चरण करना चाहिये । इससे मन्त्र की सिद्धि
प्राप्त होती है । स्वस्तिवाचन तथा नन्दिश्राद्ध भी विधिपूर्वक करना
चाहिये ।
विप्रान्सन्तर्प्य यलेन
भोजनाच्छादनादिभिः ।
प्रत्यंमुखः शिवस्थाने
द्विजश्चान्यतमे जपेत् ।।१३।।
ब्राह्मणों को यत्न से भोजन
वस्त्रादि के दान से प्रसन्न करके पश्चिमाभिमुख होकर द्विज किसी शिवालय में
गायत्री मत्र का जप करे ।
आरन्म दिनमारभ्य समाप्तिदिवसावधि ।
न न्यून नातिरिक्तं च जपं
कुर्याद्दिनेदिने ।।१४।।
जप आरम्भ करने के दिन से लेकर
समाप्ति के दिन तक मंत्र का जप समान होना चाहिये । जप की संख्या किसी दिन न तो कम
हो न अधिक।
नैरन्तर्येण कुर्वन्ति पुरश्चर्या
मुनीश्वराः ।
प्रातरारभ्य विधिवज्जपेन्मध्यंदिनावधि
।। १५॥
मुनीश्वर लोग पुरश्चरण हेतु प्रातः
प्रारम्भ करके मध्याह्न तक निरन्तर जप करते हैं।
गायत्री चैव संसेव्या
धर्मकामार्थमोक्षदा ।
गायत्र्यास्तु परं नास्ति इह लोके
परत्र च ॥१६ ॥
धर्म, अर्थ, काम तथा मोक्ष को सिद्ध करनेवाली गायत्री का
जप करना चाहिये । गायत्री मन्त्र से बढ़कर कोई मन्त्र इस लोक और परलोक में नहीं
है।
इति: गायत्रीतंत्रे
ब्रह्मगायत्री पुरश्चरणविधान ॥
आगे पढ़ें............. गायत्री तन्त्र में गायत्री के वर्णों के ऋषि, छन्द, देवता
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