सर्वरोगमुक्ति कवच

सर्वरोगमुक्ति कवच

सर्वरोगमुक्ति कवच क्रियोड्डीश महातन्त्रराज के पटल २ में वर्णित है। इस कवच के पाठ करने से सभी प्रकार के रोग ज्वरादि का नाश होता है।

सर्वरोगमुक्ति कवच

सर्वरोगमुक्तिकवचम्

Sarva Rog mukti kavach

क्रियोड्डीश महातन्त्रराज पटल २ सर्वरोगमुक्ति कवच

सर्व रोग मुक्ति कवच

क्रियोड्डीशमहातन्त्रराजः

अथ सर्वरोगमुक्तिकवचम्

श्रीदेव्युवाच

देवदेव! महादेव! सुरासुरनमस्कृत ।

इदानीं श्रोतुमिच्छामि रोगमुक्तः कथं प्रभो ! ।। १ ।।

श्रीदेवी ने कहा- हे देवदेव ! हे महादेव ! हे सुर-असुर से नमस्कृत ! हे प्रभो ! रोगमुक्ति किस प्रकार से होती हैइसे मैं इस समय सुनना चाहता हूँ; अतः इसे आप कहिये ॥ १॥

नास्ति त्राता च जगतां त्वां विना परमेश्वर ।

ज्वरादिवारणं शीघ्र कृपया परया वद ।।२।।

हे परमेश्वर! आपके अतिरिक्त संसार का रक्षक अन्य कोई नहीं है। अतएव हे प्रभो! कृपा करके ज्वरादि रोगों के निवारण का उपाय कहिये ॥२॥

ईश्वर उवाच

कथयामि तव स्नेहात्कवचं वारणं महत् ।। ३ ।।

ईश्वर ने कहा- हे देवि! तुम्हारे प्रति स्नेहवश मैं ज्वरादि रोगनाशक कवच का वर्णन करता हूँ ॥३॥

सर्वरोगमुक्तिकवच स्तोत्रम्

ॐ नमो भगवति वज्रशृंखले हनतु भक्षतु खादतु अहो रक्तं पिब- पिब नरवक्षास्थिरक्तपटे भस्माङ्गिभस्मलिप्तशरीरे वज्रायुधे वज्रप्राकारानिचिते पूर्वां दिशं मुञ्चतु, दक्षिणां दिशं मुञ्चतु, पश्चिमां दिशं मुञ्चतु, उत्तरां दिशं मुञ्चतु, नागार्थं धनग्रहपतिं बन्धतु, नागपीठं बन्धतु, यक्षराक्षसपिशाचान् बन्धतु, प्रेतभूतगन्धर्वादयो ये केचिदुपद्रवास्तेभ्यो रक्षतु, ऊर्ध्वं रक्षतु, अधो रक्षतु, श्येनिकां मुञ्चतु ज्वल महाबले एह्येहि तु मोटि मोटि सटावलि वज्राग्नि वज्रप्राकारे ऐं फट् ह्रीं ह्रीं श्रीं फट् ह्र: हं फुं फें फः सर्वग्रहेभ्यः सर्वव्याधिभ्यः सर्वदुष्टोपद्रवेभ्यः ह्रीं अशेषेभ्यो मा रक्षतु ।।

सर्वरोगमुक्तिकवचम् फलश्रुति:

इतीदं कवचं देवि सुरासुरसुदुर्लभम् ।

ग्रहज्वरादिभूतेषु सर्वकर्मसु योजयेत् ।।४।।

हे देवि! सुर एवं असुर के लिये भी दुर्लभ इस कवच के पाठमात्र से यह ज्वरादि सब दूर हो जाते हैं, अतः सभी कर्मों में इसका प्रयोग करना चाहिए ॥४॥

न देयं यस्य कस्यापि कवचं मन्मुखाच्च्युतम् ।

तद्दत्ते सिद्धिहानिः स्याद्योगिनीनां भवेत्पशुः ।। ५ ।।

मेरे मुख से कहे हुये इस कवच को जिस किसी को नहीं बताना चाहिये; क्योंकि किसी को भी कह देने से सिद्धि की हानि होती है तथा देने वाला योगिनियों का पशु बनता है ॥ ५ ॥

दद्याच्छान्ताय वीराय सत्कुलीनाय योगिने ।

सदाचाररतो यश्च निर्जिताशेष एव हि ।। ६ ।।

यह कवच शान्त प्रकृति, वीर, सत्कुलीन, योगी, सदाचारपरायण एवं जितेन्द्रिय को ही देना चाहिये ॥६॥

ऐकाहिको द्वयाहिकश्च त्र्याहिकश्चातुराहिकः ।

सर्वे ज्वरा विनश्यन्ति कवचं धारयेद्यदि ।।७।।

इस कवच को धारण करने से प्रतिदिन आने वाला ज्वर, प्रत्येक दूसरे दिन आने वाला ज्वर, प्रत्येक तीसरे दिन आने वाला ज्वर, प्रत्येक चौथे दिन आने वाला ज्वर एवं सभी प्रकार के ज्वर सहसा नष्ट हो जाते हैं ।। ७॥

स्त्रिया वामकरे धार्यं पुंसा च दक्षिणे करे ।

अवश्यमेव सिद्धिः स्यात्सत्यं सत्यं वरानने ॥८॥

इस कवच को स्त्रियाँ बाँयी भुजा में तथा पुरुष दाहिनी भुजा में धारण करे । हे वरानने! इस कवच को धारण करने से अवश्य ही सिद्धि प्राप्त होती है ॥ ८ ॥

इति क्रियोड्डीशमहातन्त्रराजे सर्वरोगमुक्तिकवचम् द्वितीयः पटलः । । २ ।।

क्रियोड्डीश महातन्त्रराज में सर्वरोगमुक्ति कवच का द्वितीय पटल पूर्ण हुआ ।। २।।

आगे जारी...... क्रियोड्डीश महातन्त्रराज पटल 3

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