गौरीशाष्टक स्तोत्र

गौरीशाष्टक स्तोत्र

डी०पी०कर्मकाण्ड के स्तोत्र श्रृंखला में चिन्तामणि द्वारा रचित इस गौरीशाष्टक स्तोत्र का जो पुरुष शुद्ध भक्ति से नित्य पाठ करता है, वह ब्रह्म में लीन हो जाता है।

गौरीशाष्टक स्तोत्र

गौरीशाष्टकम्

गौरीशाष्टकस्तोत्रम्

भज गौरीशं भज गौरीशं गौरीशं भज मन्दमते । (ध्रुवपदम्)

जलभवदुस्तरजलधिसुतरणं ध्येयं चित्ते शिवहरचरणम् ।

अन्योपायं न हि न हि सत्यं गेयं शङ्कर शङ्कर नित्यम् । भजः ॥१॥

हे मन्दबुद्धिवाले! तू सदा गौरीश (शङ्कर भगवान्) का भजन कर। संसाररूप दुस्तर सागर से पार लगानेवाले, भगवान् शिव के ही चरण का ध्यान कर, संसार से उद्धार पाने का दूसरा कोई उपाय ही नहीं है; यह सत्य जान; सदा शङ्कर के नाम का ही गान किया कर। हे मन्दमते! सदा गौरीपति भगवान् शिव को भज ॥१॥

दारापत्यं क्षेत्रं वित्तं देहं गेहं सर्वमनित्यम् ।

इति परिभावय सर्वमसारं गर्भविकृत्या स्वप्नविचारम् । भज ॥२॥

स्त्री, सन्तान, क्षेत्र, धन, शरीर और गृह-ये सब अनित्य हैं, गर्भविकार के परिणामभूत इस संसार को सारहीन तथा स्वप्नवत् असत्य समझकर सबकी उपेक्षा कर दे; हे मन्दमते ! सदा गौरीपति भगवान् शिव को भज ॥ २ ॥

मलवैचित्ये पुनरावृत्तिः पुनरपि जननीजठरोत्पत्तिः ।

पुनरप्याशाकुलितं जठरं किं नहि मुञ्चसि कथयश्चित्तम् । भज ॥३॥

मलभूत संसार के रूप पर मोहित होने से पुनः संसार में लौटना पड़ता है, फिर माता के गर्भ से उत्पत्ति होती है, अतः पुनः आशा से व्याकुल हुए अपने चित्त से तू कह दे कि रे चित्त ! क्यों नहीं इस पेट की चिन्ता को छोड़ता है? और हे मन्दमते ! तू सदा गौरीपति भगवान् शिव को भज ।। ३ ।।

मायाकल्पितमैन्द्रं जालं न हि तत्सत्यं दृष्टिविकारम् ।

ज्ञाते तत्त्वे सर्वमसारं मा कुरु मा कुरु विषयविचारम् । भज० ॥४॥

अरे, यह सारा प्रपञ्च माया से कल्पित इन्द्रजाल है, इसका विकार प्रत्यक्ष देखा गया है, इसे कदापि सत्य न जान, तत्त्वज्ञान हो जाने पर सब कुछ असार ही ठहरता है, इसलिये विषयोपभोग का विचार कभी न कर; हे मन्दमते ! सदा गौरीपति भगवान् शिव को भज ॥ ४॥

रज्जौ सर्पभ्रमणारोपस्तद्वद्ब्रह्मणि जगदारोपः ।

मिथ्यामायामोहविकारं मनसि विचारय बारम्बारम् । भजः ॥५॥

जैसे रज्जु में भ्रम से सर्प का आरोप होता है, उसी प्रकार शुद्ध ब्रह्म में जगत् का आरोपमात्र है, यह माया-मोह का विकार असत्य है, इस बात को तू बारम्बार मन में विचार । हे मन्दमते ! सदा गौरीपति भगवान् शिव को भज ।। ५॥

अध्वरकोटीगङ्गागमनं कुरुते योगं चेन्द्रियदमनम् ।

ज्ञानविहीनः सर्वमतेन न भवति मुक्तो जन्मशतेन । भजः ॥ ६॥

लोग करोड़ों यज्ञ करते हैं, स्नानार्थ गङ्गाजी जाते हैं, इन्द्रियों को दमन करनेवाला योग करते हैं, परन्तु यह सबका सिद्धान्तमत है कि ज्ञानहीन जीव सैकड़ों जन्म में भी मुक्त नहीं हो सकता; इसलिये हे मन्दमते ! तू सदा गौरीपति भगवान् शिव का भजन कर ॥ ६ ॥

सोऽहं हंसो ब्रह्मैवाहं शुद्धानन्दस्तत्त्वपरोऽहम् ।

अद्वैतोऽहं सङ्गविहीने चेन्द्रिय आत्मनि निखिले लीने । भजः ॥७॥

जब सम्पूर्ण इन्द्रियाँ विषयों से निवृत्त होकर आत्मा में लीन हो जाती हैं उस समय ऐसा भान होने लगता है कि मैं ही वह परमात्मा हूँ, मैं शुद्ध ब्रह्म ही हूँ तथा इन पञ्चभूतों से पृथक् शुद्ध अद्वैत आनन्दस्वरूप हूँ; हे मन्दमते ! सदा गौरीपति भगवान् शिव का भजन कर ॥ ७॥

शङ्करकिङ्कर मा कुरु चिन्तां

चिन्तामणिना विरचितमेतत् ।

यः सद्भक्त्या पठति हि नित्यं

ब्रह्मणि लीनो भवति हि सत्यम् । भज ॥८॥

हे शिव के सेवक ! तू चिन्ता न कर, क्योंकि जो पुरुष चिन्तामणि द्वारा रचित इस गौरीशाष्टकस्तोत्र का शुद्ध भक्ति से नित्य पाठ करता है, वह ब्रह्म में लीन हो जाता है, यह सत्य बात है; इसलिये हे मन्दमते ! तू सदा गौरीपति भगवान् शिव को भज॥८॥

इति श्रीचिन्तामणिविरचितं गौरीशाष्टकं सम्पूर्णम्।

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