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शिव स्तुति अर्जुनकृत

शिव स्तुति अर्जुनकृत

अर्जुनकृत शिव स्तुति - जब अर्जुन किरातवेशधारी शिव से युद्ध में घायल हो गए, तब वे शरणागत वत्सल पिनाकधारी भगवान शिव की शरण में गये और मिट्टी की वेदी बनाकर उसी पर पार्थिव शिव की स्थापना करके पुष्पमाला के द्वारा उनका पूजन किया। कुन्तीकुमार ने जो माला पार्थिव शिव पर चढ़ायी थी, वह उन्हें किरात के मस्तक पर पड़ी दिखायी दी। यह देखकर पांडव श्रेष्ठ अर्जुन हर्ष से उल्लसित हो गये और किरातरूपी भगवान शंकर के चरणों में गिर पड़े। तदनन्तर अर्जुन ने शूलपाणि महातेजस्वी देवी पार्वती सहित दर्शन किया। शत्रुओं की राजधानी पर विजय पाने वाले अर्जुन ने उनके आगे पृथ्वी पर घुटने टेक दिये और सिर से प्रणाम करके शिव जी को प्रसन्न किया और ईश्वर की स्तुति करने लगे-

शिव स्तुति अर्जुनकृत

अर्जुनकृतं शिव स्तुति

अर्जुन उवाच   

कपर्दिन्सर्वभूतेश भगनेत्रनिपातन ।

देवदेव महादेव नीलग्रीव जटाधर ।।

कारणानां च परमं जाने त्वां त्र्यम्बकं विभुम् ।

देवानां च गतिं देवं त्वत्प्रसूतमिदं जगत् ।।

अजेयस्त्वं त्रिभिर्लोकैः सदेवासुरमानुषैः।

शिवाय विष्णुरूपाय विष्णवे शिवरूपिणे ।।  

दक्षियज्ञविनाशाय हरिरूपाय ते नमः।

ललाटाक्षाय शर्वाय मीढुषे शूलपाणये ।।       

पिनाकगोप्त्रे सूर्याय मङ्गल्याय च वेधसे।

प्रसादये त्वां भगवन्सर्वभूतमहेश्वर ।।  

गणेशं जगतः शम्भुं लोककारणकारणम् ।

प्रधानपुरुषातीतं परं सूक्ष्मतरं हरम् ।। 

व्यतिक्रमं मे भगवन्क्षन्तुमर्हसि शंकर ।

भगवन्दर्शनाकाङ्क्षी प्राप्तोस्मीमं महागिरिम् ।।        

दयितं तव देवेश तापसालयमुत्तमम् ।

प्रसादये त्वां भगवन्सर्वलोकनमस्कृतम् ।।      

कृतो मयाऽयमज्ञानाद्विमर्दो यस्त्वया सह ।

शरणं प्रतिपन्नाय तत्क्षमस्वाद्य शंकर ।।

।। इति श्रीमन्महाभारते अरण्यपर्वणि कैरातपर्वणि अर्जुनकृतं शिव स्तुति एकोनचत्वारिंशोऽध्यायः ।। 39 ।।

अर्जुनकृत शिव स्तुति भावार्थ सहित

अर्जुन उवाच   

कपर्दिन्सर्वभूतेश भगनेत्रनिपातन ।

देवदेव महादेव नीलग्रीव जटाधर ।।

अर्जुन कहते हैं- जटाजूधारी सर्वदेवेश्वर देवदेव महादेव! आप भगदेवता के नेत्रों का विनाश करने वाले हैं। आपकी ग्रीवा में नील चिह्न्र शोभा पा रहा है। आप अपने मस्तक पर सुन्दर जटा धारण करते हैं।  

कारणानां च परमं जाने त्वां त्र्यम्बकं विभुम् ।

देवानां च गतिं देवं त्वत्प्रसूतमिदं जगत् ।।

प्रभो! मैं आप को समस्त कारणों में सर्वश्रेष्ठ कारण मानता हूँ। आप त्रिनेत्रधारी तथा सर्ववयापी हैं। सम्पूर्ण देवताओं के आश्रय हैं। देव! यह सम्पूर्ण जगत् आप से ही उत्पन्न हुआ है।

अजेयस्त्वं त्रिभिर्लोकैः सदेवासुरमानुषैः।

शिवाय विष्णुरूपाय विष्णवे शिवरूपिणे ।।  

देवता, असुर और मनुष्यों सहित तीनों लोक भी आपको पराजित नहीं कर सकते। आप ही विष्णु रूप शिव तथा शिव स्वरूप विष्णु हैं, आपको नमस्कार है।

दक्षियज्ञविनाशाय हरिरूपाय ते नमः।

ललाटाक्षाय शर्वाय मीढुषे शूलपाणये ।।       

दक्ष यज्ञ का विनाश करने वाले हरिहर रूप आप भगवान् को नमस्कार है। आपके ललाट में तृतीय नेत्र शोभा देता है। आप जगत् का संहारक होने के कारण शर्व कहलाते हैं। भक्तों की अभीष्ट कामनाओं की वर्षा करने के कारण आपका नाम मीढ्वान् (वर्षणशील) है। अपने हाथ में त्रिशूल धारण करने वाले आपको नमस्कार है।

पिनाकगोप्त्रे सूर्याय मङ्गल्याय च वेधसे।

प्रसादये त्वां भगवन्सर्वभूतमहेश्वर ।।

पिनारक्षक, सूर्यस्वरूप, मंगलकारक और सृष्टिकर्ता आप परमेश्वर को नमस्कार है। भगवन्! सर्वभूत महेश्वर को नमस्कार है।       

गणेशं जगतः शम्भुं लोककारणकारणम् ।

प्रधानपुरुषातीतं परं सूक्ष्मतरं हरम् ।।

भगवन् सर्वभूत महेश्वर! मैं आपको प्रसन्न करना चाहता हूँ। आप भूतगणों के स्वामी, सम्पूर्ण जगत् का कल्याण करने वाले तथा जगत् के कारण के भी कारण हैं। प्रकृति और पुरुष दोनों से परे अत्यन्त सूक्ष्मस्वरूप तथा भक्तों के पापों को हरने वाले हैं।  

व्यतिक्रमं मे भगवन्क्षन्तुमर्हसि शंकर ।

भगवन्दर्शनाकाङ्क्षी प्राप्तोस्मीमं महागिरिम् ।।        

कल्याणकारी भगवन्! मेरा अपराध क्षमा कीजिये। भगवन्! मैं आप ही के दर्शन की इच्छा लेकर इस महान पर्वत पर आया हूँ।

दयितं तव देवेश तापसालयमुत्तमम् ।

प्रसादये त्वां भगवन्सर्वलोकनमस्कृतम् ।।      

देवेश्वर! यह शैल-शिखर तपस्वियों का उत्तम आश्रय तथा आपका प्रिय निवास स्थान है। प्रभो! सम्पूर्ण जगत आप के चरणों में वन्दना करता है।

कृतो मयाऽयमज्ञानाद्विमर्दो यस्त्वया सह ।

शरणं प्रतिपन्नाय तत्क्षमस्वाद्य शंकर ।।         

मैं आप से यह प्रार्थना करता हूँ कि आप मुझ पर प्रसन्न हों। महादेव! अत्यन्त साहस वश मैंने जो आपके साथ यह युद्ध किया है, इसमें मेरा अपराध नहीं है। यह अनजाने में मुझ से बन गया है। शंकर! मै। अब आपकी शरण में आया हूँ। आप मेरी उस धृष्टता को क्षमा करें।

इस प्रकार श्रीमहाभारत के अरण्यपर्व(कैरातपर्व) में अर्जुनकृत शिव स्तुति सम्पूर्ण हुआ ।। 

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