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कर्मकाण्ड

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दुर्गा स्तवन अर्जुनकृत

दुर्गा स्तवन अर्जुनकृत 

महाभारत युद्ध में विजय प्राप्त करने के लिए श्रीकृष्ण के कहने पर अर्जुन द्वारा देवी दुर्गा की स्तुति किया गया। कौरवों की विशाल सेना देखकर अर्जुन चिंतित थे, तब श्रीकृष्ण ने भगवती दुर्गा देवी की आराधना करने को कहा। उस समय अर्जुन ने जिस स्तोत्र से भगवती दुर्गा का स्तवन किया था और जिस स्तवन से प्रसन्न होकर मां दुर्गा ने विजय का वरदान दिया था, वह अर्जुनकृत दुर्गास्तवन कहलाता है। जिसका उल्लेख महाभारत भीष्म पर्व में श्रीमद्भगवद्गीता पर्व के अंतर्गत 23वें अध्याय में निम्न प्रकार हुआ है ।

श्रीदुर्गा स्तवन अर्जुनकृत

अर्जुनकृतं श्रीदुर्गास्तवम् महाभारतान्तर्गतम्      

संजय कहते हैं- दुर्योधन की सेना को युद्ध के लिये उपस्थित देख श्रीकृष्ण ने अर्जुन के हित के लिये इस प्रकार कहा। श्रीभगवान बोले- महाबाहो! तुम युद्ध के सम्मुख खड़े हो। पवित्र होकर शत्रुओं को पराजित करने के लिये दुर्गा देवी की स्तुति करो। संजय कहते हैं- परम बुद्धिमान भगवान वासुदेव के द्वारा रणक्षेत्र में इस प्रकार आदेश प्राप्त होने पर कुन्तीकुमार अर्जुन रथ से नीचे उतरकर दुर्गा देवी की स्तुति करने लगे।

श्रीदुर्गा स्तवन अर्जुनकृतं 

विनियोग -

ॐ अस्य श्रीभगवती दुर्गा स्तोत्र मन्त्रस्य श्रीकृष्णार्जुनस्वरूपी

नरनारायणो ऋषिः, अनुष्टुप् छन्द, श्रीदुर्गा देवता,

ह्रीं बीजं, ऐं शक्ति, श्रीं कीलकं, ममाभीष्टसिद्धयर्थे जपे विनियोगः ॥

ऋष्यादिन्यास -

श्रीकृष्णार्जुनस्वरूपी नरनारायणो ऋषिभ्यो नमः शिरसि,

अनुष्टुप् छन्दसे नमः मुखे, श्रीदुर्गादेवतायै नमः हृदि,

ह्रीं बीजाय नमः गुह्ये, ऐं शक्त्यै नमः पादयो,

श्रीं कीलकाय नमः नाभौ,

ममाभीष्टसिद्धयर्थे जपे विनियोगाय नमः सर्वाङ्गे ॥

करन्यास -

ॐ ह्रां अङ्गुष्ठाभ्यां नमः,

ॐ ह्रीं तर्जनीभ्यां स्वाहा, ॐ ह्रूं मध्यमाभ्यां वषट्,

ॐ ह्रैं अनामिकाभ्यां हुं, ॐ ह्रौं कनिष्ठाभ्यां वौष्ट्,

ॐ ह्रः करतल करपृष्ठाभ्यां फट् ॥

अङ्गन्यास -

ॐ ह्रां हृदयाय नमः, ॐ ह्रीं शिरसें स्वाहा,

ॐ ह्रूं शिखायै वषट्, ॐ ह्रैं कवचायं हुं,

ॐ ह्रौं नैत्रत्रयाय वौष्ट्, ॐ ह्रः अस्त्राय फट् ॥

ध्यानम् -

सिंहस्था शशिशेखरा मरकतप्रख्या चतुर्भिर्भुजैः

शङ्खचक्रधनुःशरांश्च दधती नेत्रैस्त्रिभिः शोभिता ।

आमुक्ताङ्गदहारकङ्कणरणत्काञ्चीक्वणन् नूपुरा

दुर्गा दुर्गतिहारिणी भवतु नो रत्नोल्लसत्कुण्डला ॥

मानस पूजन -

ॐ ह्रीं दुं दुर्गायै नमः लं पृथिव्यात्मकं गन्धं समर्पयामि ।

ॐ ह्रीं दुं दुर्गायै नमः हं आकाशात्मकं पुष्पं समर्पयामि ।

ॐ ह्रीं दुं दुर्गायै नमः यं वाय्वात्मकं धूपं घ्रापयामि ।

ॐ ह्रीं दुं दुर्गायै नमः रं वहृयात्मकं दीपं दर्शयामि ।

ॐ ह्रीं दुं दुर्गायै नमः वं अमृतात्मकं नैवेद्यं निवेदयामि ।

ॐ ह्रीं दुं दुर्गायै नमः सं सर्वात्मकं ताम्बूलं समर्पयामि ।

अथ श्रीदुर्गा स्तवन अर्जुनकृतं मूलपाठ

श्रीअर्जुन उवाच –

नमस्ते सिद्धसेनानि आर्ये मन्दरवासिनि ।

कुमारि कालि कापालि कपिले कृष्णपिङ्गले ॥ १॥

भद्रकालि नमस्तुभ्यम् महाकालि नमोऽस्तुते ।

चण्डिचण्डे नमस्तुभ्यम् तारिणि वरवर्णिनि ॥ २॥

कात्यायनि महाभागे करालि विजये जये ।

शिखिपिच्छध्वजधरे नानाभरणभूषिते ॥ ३॥

अट्टशूलप्रहरणे खड्गखेटधारिणि ।

गोपेन्द्रस्यानुजे ज्येष्टे नन्दगोपकुलोद्भवे ॥ ४॥

महिषासृक्प्रिये नित्यं कौशिकि पीतवासिनि ।

अट्टहासे कोकमुखे नमस्तेऽस्तु रणप्रिये ॥ ५॥

उमे शाकम्बरी श्वेते कृष्णे कैटभनाशिनि ।

हिरण्याक्षि विरूपाक्षि सुधूम्राक्षि नमोऽस्तु ते ॥ ६॥

वेदश्रुति महापुण्ये ब्रह्मण्ये जातवेदसि ।

जम्बूकटकचैत्येषु नित्यम् सन्निहितालये ॥ ७॥

त्वं ब्रह्मविद्याविद्यानां महानिद्रा च देहिनाम् ।

स्कन्दमातर्भगवति दुर्गे कान्तारवासिनि ॥ ८॥

स्वाहाकारः स्वधा चैव कला काष्ठा सरस्वती ।

सावित्री वेदमाता च तथा वेदान्त उच्यते ॥ ९॥

स्तुतासि त्वं महादेवि विशुद्धेनान्तरात्मना ।

जयो भवतु मे नित्यं त्वत्प्रसादाद्रणाजिरे ॥ १०॥

कान्तारभयदुर्गेषु भक्तानां चालयेषु च ।

नित्यं वससि पाताले युद्धे जयसि दानवान् ॥ ११॥

त्वं जम्भनी मोहिनी च माया ह्रीः श्रीस्तथैव च ।

सन्ध्या प्रभावती चैव सावित्री जननी तथा ॥ १२॥

तुष्टिः पुष्टिर्धृतिर्दीप्तिश्चन्द्रादित्यविवर्धिनी ।

भूतिर्भूतिमतां सङ्ख्ये वीक्ष्यसे सिद्धचारणैः ॥ १३॥

इति श्रीमन्महाभारते शतसाहस्त्र्यां संहितायां वैयासिक्यां भीष्मपर्वणि भगवद्गीतापर्वणि दुर्गास्तोत्रे त्रयोविंशोऽध्यायः ॥ 

अर्जुनकृत श्रीदुर्गा स्तवन भावार्थ सहित

श्रीअर्जुन उवाच -

नमस्ते सिद्धसेनानि आर्ये मन्दरवासिनि ।

कुमारि कालि कापालि कपिले कृष्णपिङ्गले ॥ १॥

भद्रकालि नमस्तुभ्यम् महाकालि नमोऽस्तुते ।

चण्डिचण्डे नमस्तुभ्यम् तारिणि वरवर्णिनि ॥ २॥

अर्जुन बोले- मन्दराचल पर निवास करने वाली सिद्धों की सेनानेत्री आयें। तुम्हें बारम्बार नमस्कार है। तुम्हीं कुमारी, काली, कापाली, कपिला, कृष्णपिंग्ला, भद्रकाली और महाकाली आदि नामों से प्रसिद्ध हो, तुम्हें बारम्बार प्रणाम है। दुष्टों पर प्रचण्ड कोप करने के कारण तुम चण्डी कहलाती हो, भक्तों को संकट से तारने के कारण तारिणी हो, तुम्हारे शरीर का दिव्य वर्ण बहुत ही सुन्दर है। मैं तुम्हें प्रणाम करता हूँ।

कात्यायनि महाभागे करालि विजये जये ।

शिखिपिच्छध्वजधरे नानाभरणभूषिते ॥ ३॥

महाभागे। तुम्हीं (सौम्य और सुन्दर रूप वाली) पूजनीया कात्यायनी हो और तुम्हीं विकराल रूपधारिणी काली हो। तुम्हीं विजया और जया के नाम से विख्यात हो। मोरपंख की तुम्हारी ध्वजा है। नाना प्रकार के आभूषण तुम्हारे अंगों की शोभा बढ़ाते हैं।

अट्टशूलप्रहरणे खड्गखेटधारिणि ।

गोपेन्द्रस्यानुजे ज्येष्टे नन्दगोपकुलोद्भवे ॥ ४॥

तुम भयंकर त्रिशूल, खड्ग और खेटक आदि आयुधों को धारण करती हो। नन्दगोप के वंश में तुमने अवतार लिया था, इसलिये गोपेश्वर श्रीकृष्ण की तुम छोटी बहिन हो, परंतु गुण और प्रभाव में सर्वश्रेष्ठ हो।

महिषासृक्प्रिये नित्यं कौशिकि पीतवासिनि ।

अट्टहासे कोकमुखे नमस्तेऽस्तु रणप्रिये ॥ ५॥

महिषासुर का रक्त बहाकर तुम्हें बड़ी प्रसन्नता हुई थीं। तुम कुशिकगोत्र में अवतार लेने के कारण कौशिकी नाम से भी प्रसिद्ध हो। तुम पीताम्बर धारण करती हो। जब तुम शत्रुओं को देखकर अट्टहास करती हो, उस समय तुम्हारा मुख चक्रवाक के समान उद्दीप्त हो उठता है। युद्ध तुम्हें बहुत ही प्रिय है। मैं तुम्हें बारंबार प्रणाम करता हूँ।

उमे शाकम्बरी श्वेते कृष्णे कैटभनाशिनि ।

हिरण्याक्षि विरूपाक्षि सुधूम्राक्षि नमोऽस्तु ते ॥ ६॥

उमा, शाकम्भरी, श्वेता, कृष्णा, कैटभनाशिनी, हिरण्याक्षी, विरूपाक्ष और सुधूभ्राक्षी आदि नाम धारण करने वाली देवी। तुम्हें अनेकों बार नमस्कार है।

वेदश्रुति महापुण्ये ब्रह्मण्ये जातवेदसि ।

जम्बूकटकचैत्येषु नित्यम् सन्निहितालये ॥ ७॥

तुम वेदों की श्रुति हो, तुम्हारा स्वरूप अत्यन्त पवित्र है, वेद और ब्राह्मण तुम्हें प्रिय हैं। तुम्हीं जातवेदा अग्नि की शक्ति हो, जम्बू, कटक और चैत्यवृक्षों में तुम्हारा नित्य निवास है।

त्वं ब्रह्मविद्याविद्यानां महानिद्रा च देहिनाम् ।

स्कन्दमातर्भगवति दुर्गे कान्तारवासिनि ॥ ८॥

तुम समस्त विद्याओं में ब्रह्माविद्या और देहधारियों की महानिद्रा हो। भगवति। तुम कार्तिकेय की माता हो, दुर्गम स्थानों में वास करने वाली दुर्गा हो।

स्वाहाकारः स्वधा चैव कला काष्ठा सरस्वती ।

सावित्री वेदमाता च तथा वेदान्त उच्यते ॥ ९॥

सावित्रि। स्वाहा, स्वधा, कला, काष्ठा, सरस्वती, वेदमाता तथा वेदान्त- ये सब तुम्हारे ही नाम हैं।

स्तुतासि त्वं महादेवि विशुद्धेनान्तरात्मना ।

जयो भवतु मे नित्यं त्वत्प्रसादाद्रणाजिरे ॥ १०॥

महादेवी। मैंने विशुद्ध हृदय से तुम्हारा स्तवन किया है। तुम्हारी कृपा से इस रणांगण में मेरी सदा ही जय हो।

कान्तारभयदुर्गेषु भक्तानां चालयेषु च ।

नित्यं वससि पाताले युद्धे जयसि दानवान् ॥ ११॥

माँ। तुम घोर जंगल में, भयपूर्ण दुर्गम स्थानों में, भक्तों के घरों में तथा पाताल में भी नित्य निवास करती हो। युद्ध में दानवों को हराती हो।

त्वं जम्भनी मोहिनी च माया ह्रीः श्रीस्तथैव च ।

सन्ध्या प्रभावती चैव सावित्री जननी तथा ॥ १२॥

तुम्हीं जम्भनी, मोहिनी, माया, ह्री, श्री, संध्या, प्रभावती, सावित्री और जननी हो।

तुष्टिः पुष्टिर्धृतिर्दीप्तिश्चन्द्रादित्यविवर्धिनी ।

भूतिर्भूतिमतां सङ्ख्ये वीक्ष्यसे सिद्धचारणैः ॥ १३॥

तुष्टि, पुष्टि, धृति तथा सूर्य-चन्द्रमा को बढ़ाने वाली दीप्ति भी तुम्हीं हो। तुम्हीं ऐश्वर्यवानों की विभूति हो। युद्ध भूमि में सिद्ध और चारण तुम्हारा दर्शन करते हैं।

अर्जुनकृतं श्रीदुर्गा स्तवन फलश्रुति

यः इदं पठते स्तोत्रं कल्य उत्थाय मानवः ।

यक्षरक्षःपिशाचेभ्यो न भयं विद्यते सदा ॥ १॥

जो मनुष्य सबेरे उठकर इस स्तोत्र का पाठ करता है, उसे यक्ष, राक्षस और पिशाचों से कभी भय नहीं होता।

न चापि रिपवस्तेभ्यः सर्पाद्या ये च दंष्ट्रिणः ।

न भयं विद्यते तस्य सदा राजकुलादपि ॥ २॥

शत्रु तथा सर्प आदि विषैले दाँतों वाले जीव भी उनको कोई हानि नहीं पहुँचा सकते। राजकुल से भी उन्हें कोई भय नहीं होता है।

विवादे जयमाप्नोति बद्धो मुच्येत बन्धनात् ।

दुर्गं तरति चावश्यं तथा चोरैर्विमुच्यते ॥ ३॥

इसका पाठ करने से विवाद में विजय प्राप्त होती है और बंदी बन्धन से मुक्त हो जाता है। वह दुर्गम संकट से अवश्य पार हो जाता है। चोर भी उसे छोड़ देते हैं।

सङ्ग्रामे विजयेन्नित्यं लक्ष्मीं प्राप्नोति केवलाम् ।

आरोग्यबलसम्पन्नो जीवेद् वर्षशतं तथा ॥ ४॥

वह संग्राम में सदा विजयी होता और विशुद्ध लक्ष्मी प्राप्त करता है। इतना ही नहीं, इसका पाठ करने वाला पुरुष आरोग्य और बल से सम्पन्न हो सौ वर्षों की आयु तक जीवित रहता है।

इस प्रकार महाभारत भीष्म पर्व में श्रीमद्भगवद्गीता पर्व के अंतर्गत 23वें अध्याय में अर्जुनकृत श्रीदुर्गा स्तवन सम्पूर्ण हुआ है ।

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