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कर्मकाण्ड

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महादेव स्तुति

महादेव स्तुति

जो लोग जगत्स्त्रष्टा भगवान् शंकर को नमस्कार करके समस्त विद्याओं को धारण करने वाले उन महादेवजी की  इन निम्नांकित नामों द्वारा स्तुति करते हैं, वे तो गणपति पद को प्राप्त कर लेते हैं, और वह भरपूर धन-राशि, सुवर्ण-राशि प्राप्त कर लेता है। भक्त के जीवन में आर्थिक तंगी व धन की कभी कमी नहीं होती धन प्राप्ति के लिए इस स्तुति से बढकर दूसरा कोई स्तोत्र नहीं है।

धन सम्पत्ति प्रदाता महादेव स्तुति

श्रीमहादेवस्तुतिः 

रुद्राय शितिकण्ठाय सुरूपाय सुवर्चसे ।

कपर्दिने करालाय हर्यक्ष्णे वरदाय च ॥ १॥

तृष्णे पूष्णे दशभिदे देवानामधिपाय च ।

क्षेम्या(य) हरिनेत्राय स्थाणवे पुरुषाय च ॥ २॥

हरिकेशाय मुण्डाय क्रोधायोत्तारणाय च ।

भास्वराय सुतीर्थाय देवदेवाय रंहसे ॥ ३॥

उष्णीषिणे सुवक्त्राय पशुहस्ताय पार्षिणे ।

हिरण्यबाहवे राजन्योग्राय पतये दिशाम् ॥ ४॥

पशूनां पतये चैव भूतानां पतये नमः ।

वृषाय मातृभक्ताय सेनान्ये मध्यमाय च ॥ ५॥

महात्मने चानङ्गाय सर्वाङ्गाय प्रमाथिने ।

तथा रुद्राणीपतये पृथवे कृत्तिवाससे ॥ ६॥

कपालभूषिणे नित्यं सुवर्णमकुटाय च ।

महादेवाय कृष्णाय त्र्यम्बकाय हराय च ॥ ७॥

क्रोधनायानृशंसाय मृत्यवे बाहुशालिने ।

दण्डिने दृप्ततपसे तथैवाक्रूरकर्मिणे ॥ ८॥    

सहस्रशिरसे चैव सहस्रचरणाय च ।

विरूपाय सुरूपाय महारूपाय दंष्ट्रिणे ॥ ९॥

पिनाकिनं महादेवं महाभोगिनमव्ययम् ।

त्रिशूलपाणिं वरदं त्र्यम्बकं भुवनेश्वरम् ॥ १०॥

त्रिपुरघ्नं त्रिनयनं त्रिलोकेशं महौजसम् ।

प्रभवं सर्वभूतानां धातारं धरणीधरम् ॥ ११॥

ईशानं शङ्करं शर्वं शिवं विश्वेश्वरं भवम् ।

उमापतिं पशुपतिं विश्वरूपं महेश्वरम् ॥ १२॥

विरूपाक्षं दशभुजं विष्यद्गङ्गं वृषध्वजम् ।

उग्रं स्थाणुं शिवं घोरं शर्वं गौरीशमीश्वरम् ॥ १३॥

शितिकण्ठमजं शुभ्रं पृथुं विधुहरं हरम् । 

विश्वरूपं विरूपाक्षं बहुरूपमुमापतिम् ॥ १४॥

प्रणम्य शिरसा देवं नागाङ्गदधरं हरम् ।

शरण्यं शरणं यामि महादेवं चतुर्मुखम् ॥ १५॥     

विरोचमानं वपुषा दिव्याभरणभूषितम् ।

अनाद्यन्तमजं शम्भुं सर्वव्यापिनमीश्वरम् ॥ १६॥   

निस्त्रैगुण्यं निरुद्योगं निर्मलं निधिमोजसाम् ।

प्रणम्य प्राञ्जलिः शर्वं प्रयामि शरणं हरम् ॥ १७॥

निष्कलं निर्मलं नित्यमकारणमलेपनम् ।

अध्यात्मवेदमासाद्य प्रयामि शरणं मुहुः ॥ १८॥

यस्य नित्यं विदुः स्थानं मोक्षमध्यात्मचिन्तकाः ।

योगीशं तत्त्वमार्गस्थाः कैवल्यपदमक्षरम् ॥ १९॥

यं विदुः सङ्गनिर्मुक्ताः सामान्यं समदर्शिनः ।

तं प्रपद्ये जगद्योनिमयोनिं निर्गुणात्मकम् ॥ २०॥

असृजद्यस्तु भूतादीन् सप्तलोकान् सनातनान् ।

स्थितः सत्योपरि स्थाणुं तं प्रपद्ये सनातनम् ॥ २१॥

      भक्तानां सुलभं तं तु दुर्लभं दूरपातिनाम् ।

अदूरस्थममुं देवं प्रकृतेः परतः स्थितम् ।

      नमामि सर्वलोकस्थं व्रजामि शरणं शिवम् ॥ २२॥

॥ इति श्रीमहाभारते आश्वमेधिके पर्वणि संवर्तमरुत्तसंवादे

मञ्जवद्गिरिवासमहादेवस्तुतिर्नाम सप्तमाध्यायः सम्पूर्णः ॥

धन सम्पत्ति प्रदाता महादेव स्तुति भावार्थ सहित  

रुद्राय शितिकण्ठाय सुरूपाय सुवर्चसे ।

कपर्दिने करालाय हर्यक्ष्णे वरदाय च ॥ १॥

तृष्णे पूष्णे दशभिदे देवानामधिपाय च ।

क्षेम्या(य) हरिनेत्राय स्थाणवे पुरुषाय च ॥ २॥

हरिकेशाय मुण्डाय क्रोधायोत्तारणाय च ।

भास्वराय सुतीर्थाय देवदेवाय रंहसे ॥ ३॥

उष्णीषिणे सुवक्त्राय पशुहस्ताय पार्षिणे ।                           

हिरण्यबाहवे राजन्योग्राय पतये दिशाम् ॥ ४॥

पशूनां पतये चैव भूतानां पतये नमः ।

वृषाय मातृभक्ताय सेनान्ये मध्यमाय च ॥ ५॥

महात्मने चानङ्गाय सर्वाङ्गाय प्रमाथिने ।

तथा रुद्राणीपतये पृथवे कृत्तिवाससे ॥ ६॥

कपालभूषिणे नित्यं सुवर्णमकुटाय च ।

महादेवाय कृष्णाय त्र्यम्बकाय हराय च ॥ ७॥

क्रोधनायानृशंसाय मृत्यवे बाहुशालिने ।

दण्डिने दृप्ततपसे तथैवाक्रूरकर्मिणे ॥ ८॥

सहस्रशिरसे चैव सहस्रचरणाय च ।

विरूपाय सुरूपाय महारूपाय दंष्ट्रिणे ॥ ९॥

भगवन! आप रुद्र (दु:ख के कारण को दूर करने वाले), शितिकण्ठ (गले में नील चिह्न धारण करने वाले), पुरुष (अन्तर्यामी), सुवर्चा (अतयन्त तेजस्वी), कपर्दी (जटा-जूटधारी), कराल (भयंकर रूपवाले), हर्यक्ष (हरे नेत्रों वाले), वरद (भक्तों को अभीष्ट वर प्रदान करने वाले), त्र्यक्ष (त्रिनेत्रधारी), पूषा के दाँत उखाड़ने वाले, वामन, शिव याम्य (यमराज के गणस्वरूप), अव्यक्तरूप, सद्वृत्त (सदाचारी), शंकर, क्षेम्य (कलयाणकारी), हरिकेश (भूरे केशों वाले), स्थाणु (स्थिर), पुरुष, हरिनेत्र, मुण्ड, क्रुद्ध, उत्तरण (संसार-सागर से पार उतरने वाले), भास्कर (सूर्यरूप), सुतीर्थ (पवित्र तीर्थरूप), देवदेव, रंहस (वेगवान्), उष्णीषी (सिर पर पगड़ी धारण करने वाले), सुवक्त्र (सुन्दर मुख वाले), सहस्त्राक्ष (हजारों नेत्रोंवाले), मीढ्वान (कामपूरक), गिरिश (पर्वत पर शयन करने वाले), प्रशान्त, यति (संयती), चीरवासा (चीरवस्त्र धारण करने वाले), विल्वदण्ड (बेल का डंडा धारण करने वाले), सिद्ध, सर्वदण्डधर (सबको दण्ड देने वाले), मृगव्याध (आर्द्रा-नक्षत्र स्वरूप), महान्, धन्वी (पिनाक नामक धनुष धारण करने वाले), भव (संसार की उत्पत्ति करने वाले), वर (श्रेष्ठ), सोमवक्त्र (चन्द्रमा के समान मुखवाले), सिद्धमन्त्र (जिन्होंने सभी मन्त्र सिद्ध कर लिया है ऐसे), चक्षुष (नेत्ररूप), हिरण्यबाहु (सुवर्ण के समान सुन्दर भुजाओं वाले), उग्र (भयंकर), दिशाओं के पति, लेलिहान (अग्रि रूप से अपनी जिह्वाओं के द्वारा हविष्य का आस्वादन करने वाले), गोष्ठ (वाणी के निवासस्थान), सिद्धमन्त्र, वृष्णि (कामनाओं की वृष्टि करने वाले), पशुपति, भूतपित, बृष (धर्मस्वरूप), मातृभक्त, सेनानी (कार्तिकेय रूप), मध्यम, स्त्रुवहस्त (हाथ में स्त्रुवा ग्रहण करने वाले ऋत्विज्रूप), पति (सबका पालन करने वाले), धन्वी, भार्गव, अज (जन्मरहित), कृष्णनेत्र, विरूपाक्ष, तीक्ष्णदंष्ट्र, तीक्षण, वैश्वानरमुख (अग्रिरूप मुखवाले), महाद्युति, अनंग (निराकार), सर्व, विशाम्पति (सबके स्वामी), विलोहित (रक्तवर्ण), दीप्त (तेजस्वी), दीप्ताक्ष (देदीप्यमान नेत्रों वाले), महौजा (महाबली), वसुरेता (हिरण्यवीर्य अग्रिरूप), सुवपुष् (सुन्दर शरीरवाले), पृथु (स्थूल), कृत्तिवासा (मृगचर्म धारण करने वाले), कपालमाली (मुण्डमाला धारण करने वाले), सुवर्ण मुकुट, महादेव, कृष्ण (सच्चिदानन्द स्वरूप), त्र्यम्बक (त्रिनेधारी), अनघ (निष्पाप), क्रोधन (दुष्टों पर क्रोध करने वाले), अनृशंस (कोमल स्वभाव वाले), मृदु, बाहुशाली, दण्डी, तेज तप करने वाले, कोमल कर्म करने वाले, सहस्त्रशिरा (हजारों मस्त वाले), सहस्त्र चरण, स्वधास्वरूप, बहुरूप और दंष्ट्री नाम धारण करने वाले हैं। आपको मेरा प्रणाम है।

पिनाकिनं महादेवं महाभोगिनमव्ययम् ।

त्रिशूलपाणिं वरदं त्र्यम्बकं भुवनेश्वरम् ॥ १०॥

त्रिपुरघ्नं त्रिनयनं त्रिलोकेशं महौजसम् ।

प्रभवं सर्वभूतानां धातारं धरणीधरम् ॥ ११॥

ईशानं शङ्करं शर्वं शिवं विश्वेश्वरं भवम् ।

उमापतिं पशुपतिं विश्वरूपं महेश्वरम् ॥ १२॥

विरूपाक्षं दशभुजं विष्यद्गङ्गं वृषध्वजम् ।

उग्रं स्थाणुं शिवं घोरं शर्वं गौरीशमीश्वरम् ॥ १३॥

शितिकण्ठमजं शुभ्रं पृथुं विधुहरं हरम् ।

विश्वरूपं विरूपाक्षं बहुरूपमुमापतिम् ॥ १४॥

प्रणम्य शिरसा देवं नागाङ्गदधरं हरम् ।

शरण्यं शरणं यामि महादेवं चतुर्मुखम् ॥ १५॥

इस प्रकार उन पिनाकधारी, महादेव, महायोगी, अविनाशी, हाथ में त्रिशूल धारण करने वाले, वरदायक, त्र्यम्बक, भुवनेश्वर, त्रिपुरासुर को मारने वाले, त्रिनेत्रधारी, त्रिभुवन के स्वामी, महान् बलवान, सब जीवों की उत्पत्ति के कारण, सबको धारण करने वाले, पृथ्वी का भार सँभाल ने वाले, जगत् के शासक, कल्याणकारी, सर्वरूप, शिव, विश्वेश्वर, जगत् को उत्पन्न करने वाले, पार्वती के पति, पशुओं के पालक, विश्व रूप, महेश्वर, विरूपाक्ष, दस भुजाधारी, अपनी ध्वजा में दिव्य वृषभ का चिन्ह धारण करने वाले, उग्र, स्थाणु, शिव, रुद्र, शर्व, गौरीश, ईश्वर, शितिकण्ठ , अजन्मा, शुक्र, पृथु, पृथुहर, वर, विश्वरूप, विरूपाक्ष, बहुरूप, उमापति, कामदेव को भस्म करने वाले, हर, चतुर्मुख एवं शरणागतवत्सल महादेवजी को सिर से प्रणाम करके उनके शरणापन्न हो जाना।

(और इस प्रकार स्तुति करना)-

विरोचमानं वपुषा दिव्याभरणभूषितम् ।

अनाद्यन्तमजं शम्भुं सर्वव्यापिनमीश्वरम् ॥ १६॥

निस्त्रैगुण्यं निरुद्योगं निर्मलं निधिमोजसाम् ।

प्रणम्य प्राञ्जलिः शर्वं प्रयामि शरणं हरम् ॥ १७॥

जो अपने तेजस्वी श्रीविग्रह से प्रकाशित हो रहे हैं, दिव्य आभूष्णों से विभूषित हैं, आदि अन्त से रहित, अजन्मा, शम्भु, सर्वव्यापी, ईश्वर, त्रिगुणरहित, उद्वेगशून्य, निर्मल, ओज एवं तेज की निधि एवं सबके पाप और दु:ख को हर लेने वाले हैं, उन भगवान शंकर को हाथ जोड़ प्रणाम करके मैं उनकी शरण में जाता हूँ।

निष्कलं निर्मलं नित्यमकारणमलेपनम् ।

अध्यात्मवेदमासाद्य प्रयामि शरणं मुहुः ॥ १८॥

जो सम्माननीय, निश्चल, नित्य, कारणरहित, निर्लेप और अध्यात्मतत्त्व के ज्ञाता हैं, उन भगवान शिव के निकट पहुँचकर मैं बारंबार उन्हीं की शरण में जाता हूँ।

यस्य नित्यं विदुः स्थानं मोक्षमध्यात्मचिन्तकाः ।

योगीशं तत्त्वमार्गस्थाः कैवल्यपदमक्षरम् ॥ १९॥

यं विदुः सङ्गनिर्मुक्ताः सामान्यं समदर्शिनः ।

तं प्रपद्ये जगद्योनिमयोनिं निर्गुणात्मकम् ॥ २०॥

अध्यात्मतत्त्व का विचार करने वाले ज्ञानी पुरुष मोक्षतत्त्व में जिनकी स्थिति मानते हैं तथा तत्त्वमार्ग में परिनिष्ठित योगीजन अविनाशी कैवल्य पद को जिनका स्वरूप समझते हैं और आसक्तिशून्य समदर्शी महात्मा जिन्हें सर्वत्र समान रूप से स्थित समझते हैं, उन योनिरहित जगत्कारणभूत निर्गुण परमात्मा शिव की मैं शरण लेता हूँ।

असृजद्यस्तु भूतादीन् सप्तलोकान् सनातनान् ।

स्थितः सत्योपरि स्थाणुं तं प्रपद्ये सनातनम् ॥ २१॥

जिन्होंने सत्यलोक के ऊपर स्थित होकर भू आदि सात सनातन लोकों की सृष्टि की है, उन स्थागुणरूप सनातन शिव की मैं शरण लेता हूँ।

भक्तानां सुलभं तं तु दुर्लभं दूरपातिनाम् ।

अदूरस्थममुं देवं प्रकृतेः परतः स्थितम् ।

नमामि सर्वलोकस्थं व्रजामि शरणं शिवम् ॥ २२॥

जो भक्तों के लिये सुलभ और दूर (विमुख) रहने वाले लोगों के लिये दुर्लभ हैं, जो सबके निकट और प्रकृति से परे विराजमान हैं, उन सर्वलोकव्यापी महादेव शिव को मैं नमस्कार करता और उनकी शरण लेता हूँ।

इस प्रकार महाभारत के आश्वमेधिक पर्व से महादेवस्तुति सम्पूर्ण हुआ  ॥

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