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- छिन्नमस्ता सहस्रनाम स्तोत्र
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- छिन्नमस्ता स्तोत्र
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- नारदसंहिता अध्याय ८
- नारदसंहिता अध्याय ७
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- ग्रहलाघव पञ्चतारास्पष्टीकरणाधिकार
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महादेव स्तुति तण्डिकृत
महादेव स्तुति तण्डिकृत- महाभारत
अनुशासन पर्व के दानधर्म पर्व के अंतर्गत अध्याय 16 में महात्मा तण्डि द्वारा
महादेव की स्तुति और प्रार्थना का वर्णन हुआ है।
तण्डिकृत महादेव की स्तुति और प्रार्थना
सत्ययुग में तण्डि नाम से विख्यात
एक ऋषि थे जिन्होंने भक्तिभाव से ध्यान के द्वारा दस हजार वर्षों तक महादेव जी की
आराधना की थी। उन्होंने महादेव जी का दर्शन किया और स्तोत्रों द्वारा उन प्रभु की
स्तुति की। इस तरह तण्डि ने तपस्या में संलग्न होकर अविनाशि परमात्मा महामना शिव का
चिन्तन करके अत्यन्त विस्मित हो इस प्रकार कहा था-
उपमन्युरुवाच ।
यं पठन्ति सदा साङ्ख्याश्चिन्तयन्ति
च योगिनः ।
परं प्रधानं
पुरुषमधिष्ठातारमीश्वरम् ।
‘साख्यशास्त्र के विद्वान पर,
प्रधान, पुरुष, अधिष्ठाता
और ईश्वर कहकर सदा जिनका गुणगान करते हैं, योगीजन जिनके
चिन्तन में लगे रहते हैं।
उत्पत्तौ च विनाशे च कारणं यं
विदुर्बुधाः ।
देवासुरमुनीनां च परं यस्मान्न
विद्यते ।।
विद्वान पुरुष जिन्हें जगत की
उत्पति और विनाश का कारण समझते हैं, देवताओं,
असुरों और मुनियों में भी जिनसे श्रेष्ठ दूसरा कोई नहीं है।
अजं तमहमीशानमनादिनिधनं प्रभुम् ।
अत्यन्तसुखिनं देवमनघं शरणं व्रजे ।।
उन अजन्मा,
अनादि, अनन्त, अनघ और
अत्यन्त सुखी, प्रभावशाली ईश्वर महादेव जी की मैं शरण लेता
हूँ’।
इतना कहते ही तण्डि ने उन तपोनिधि,
अविकारी, अनुपम, अचिन्त्य,
शाश्वत, ध्रुव, निष्कल,
सकल, निर्गुण एवं सगुण ब्रह्मा का दर्शन
प्राप्त किया, जो योगियों के परमानन्द, अविनाशी एवं मोक्षस्वरूप हैं। वे ही मनु, इन्द्र,
अग्नि, मरूद्गण, सम्पूर्ण
विश्व तथा ब्रह्मा जी की भी गति हैं। मन और इन्द्रियों के द्वारा उनका ग्रहण नहीं
हो सकता। वे अग्राहय, अचल, शुद्ध,
बुद्धि के द्वारा अनुभव करने योग्य तथा मनोमय हैं। उनका ज्ञान होन
अत्यन्त कठिन है। वे अप्रमेय हैं। जिन्होंने अपने अन्तःकरण को पवित्र एवं वशीभूत
नहीं किया है, उनके लिये वे सर्वथा दुर्लभ हैं। वे ही
सम्पूर्ण जगत के कारण हैं। अज्ञानमय अन्धकार से अत्यन्त परे हैं। जो देवता अपने को
प्राणवान-जीवस्वरूप बनाकर उसमें मनोमय ज्योति बनकर स्थित हुए थे, उन्हीं के दर्शन की अभिलाषा से तण्डि मुनि बहुत वर्षों तक उग्र तपस्या में
लगे रहे। जब उनका दर्शन प्राप्त कर लिया तब उन मुनिश्वर ने जगदीश्वर शिव की इस
प्रकार स्तुति की-
तण्डिकृतं महादेव स्तुति
तण्डिरुवाच ।
पवित्राणां पवित्रस्त्वं
गतिर्गतिमतांवर ।
अत्युग्रं तेजसां तेजस्तपसां परमं
तपः ।।
तण्डि ने कहा- सर्वश्रेष्ठ
परमेश्वर! आप पवित्रों मे भी परम पवित्र तथा गतिशील प्राणियो की उत्तम गति हैं।
तेजों में अत्यन्त उग्र तेज और तपस्याओं में उत्कृष्ट तप हैं।
विश्वावसुहिरण्याक्षपुरुहूतनमस्तृत ।
भूरिकल्याणद विभो परं सत्यं नमोस्तु
ते ।।
गन्धर्वराज विश्वावसु,
दैत्यराज हिरण्याक्ष और देवराज इन्द्र भी आपकी वन्दना करते हैं। सबको
महान कल्याण प्रदान करने वाले प्रभो! आप परम सत्य हैं। आपको नमस्कार है।
जातीमरणभीरूणां यतीनां यततां विभो ।
निर्वाणद सहस्रांशो नमस्तेऽस्तु
सुखाश्रय ।।
विभो! जो जन्म-मरण से भयभीत हो
संसार बन्धन से मुक्त होने के लिये प्रयत्न करते हैं,
उन यतियों को निर्वाण (मोक्ष) प्रदान करने वाले आप ही हैं। आप ही
सहस्रों किरणों वाले सूर्य होकर तप रहे हैं। सुख के आश्रयरूप महेश्वर! आपको
नमस्कार है।
ब्रह्मा
शतक्रतुर्विष्णुर्विश्वेदेवा महर्षयः ।
न विदुस्त्वां तु तत्त्वेन कुतो
वेत्स्यामहे वयम् ।
त्वत्तः प्रवर्तते सर्वं त्वयि
सर्वं प्रतिष्ठितम् ।।
ब्रह्मा,
विष्णु, इन्द्र, विश्वदेव
तथा महर्षि भी आपको यथार्थरूप से नहीं जानते है। फिर हम कैसे जान सकते हैं। आपसे
ही सबकी उत्पत्ति होती है तथा आपमें ही यह सारा जगत प्रतिष्ठित है।
कालाख्यः पुरुषाख्यश्च
ब्रह्माख्यश्च त्वमेव हि ।
तनवस्ते स्मृतास्तिस्रः पुराणज्ञैः
सुरर्षिभिः ।।
काल, पुरुष और ब्रह्मा- इन तीन नामों द्वारा आप ही प्रतिपादित होते हैं।
पुराणवेत्ता देवर्षियों ने आपके ये तीन रूप बताये हैं।
अधिपौरुषमध्यात्ममधिभूताधिदैवतम् ।
अधिलोकाधिविज्ञानमधियज्ञस्त्वमेव हि
।।
अधिपौरूष,
अध्यात्म, अधिभूत, अधिदैवता,
अधिलोक, अधिविज्ञान और अधियज्ञ आप ही हैं।
त्वां विदित्वाऽऽत्मदेवस्थं
दुर्विदं दैवतैरपि ।
विद्वांसो यान्ति निर्मुक्ताः परं
भावमनामयम् ।।
आप देवताओं के लिये भी दुजेय हैं।
विद्वान पुरुष आपको अपने ही शरीर में स्थित अन्तर्यामी आत्मा के रूप मे जानकार
संसार-बन्धन से मुक्त हो रोग-शोक से रहित परमभाव को प्राप्त होते हैं।
अनिच्छतस्तव विभो जन्ममृत्युरनेकतः ।
द्वारं तु स्वर्गमोक्षाणामाक्षेप्ता
त्वं ददासि च ।।
प्रभो! यदि आप स्वयं ही कृपा करके
जीवका उद्धार करना न चाहें तो उसके बारंबार जन्म और मृत्यु होते रहते हैं। आप ही
स्वर्ग और मोक्ष के द्वार हैं। आप ही उनकी प्राप्ति में बाधा डालने वाले हैं तथा
आप ही ये दोनों वस्तुएं प्रदान करते हैं।
त्वं वै स्वर्गश्च मोक्षश्च कामः
क्रोधस्त्वमेव च ।
सत्वं रजस्ममश्चैव अधश्चोर्ध्वं
त्वमेव हि ।।
आप ही स्वर्ग और मोक्ष हैं। आप ही
काम और क्रोध हैं तथा आप ही सत्त्व, रज,
तम, अधोलोक और उर्ध्वलोक हैं।
ब्रह्मा भवश्च विष्णुश्च
स्कन्देन्द्रौ सविता यमः ।
वरुणेन्दू मनुर्धाता विधाता त्वं
धनेश्वरः ।।
ब्रह्मा,
विष्णु, विश्वेदेव, स्कन्द,
इन्द्र, सूर्य,यम,वरुण,चन्द्रमा, मनु, धाता, विधाता और धनाध्यक्ष कुबेर भी आप ही हैं।
भूर्वायुः सलिलाग्निश्च खं
वाग्बुद्धिः स्थितिर्मतिः ।
कर्म सत्यानृते चोभे त्वमेवास्ति च
नास्ति च ।।
पृथ्वी,
वायु, जल, अग्नि,
आकाश, वाणी, बुद्धि,
स्थिति, मति, कर्म,
सत्य, असत्य तथा अस्ति और नास्ति भी आप ही
हैं।
इन्द्रियाणीन्द्रियार्थाश्च
प्रकृतिभ्यः परं ध्रुवम् ।
विश्वाविश्वपरो
भावश्चिन्त्याचिन्त्यस्त्वमेव हि ।।
आप ही इन्द्रियां और इन्द्रियों के
विषय हैं। आप ही प्रकृति से परे एवं अविनाशी तत्त्व हैं। आप ही विष्व और
अविश्व-दोनों से परे विलक्षण भाव हैं तथा आप ही चिन्त्य और अचिन्त्य हैं।
यच्चैतत्परमं ब्रह्म यच्च तत्परमं
पदम् ।
या गतिः साङ्ख्ययोगानां स
भवान्नात्र संशयः ।।
जो यह परम ब्रह्मा है,
जो वह परमपद है तथा जो सांख्यवेत्ताओं और योगियों की गति है,
वह आप ही हैं- इसमें संशय नहीं है।
नूनमद्य कृतार्थाः स्म नूनं
प्राप्ताः सतां गतिम् ।
यां गतिं प्रार्तयन्तीह
ज्ञाननिर्मलबुद्धयः ।।
ज्ञान से निर्मल बुद्धि वाले ज्ञानी
पुरुष यहाँ जिस गति को प्राप्त करना चाहते हैं, सत्पुरुषों
की उसी गति को निश्चित रूप से हम प्राप्त हो गये हैं; अतः आज
हम निश्चय ही कृतार्थ हो गये।
अयो मूढाः स्म सुचिरमिमं कालमचेतसा ।
यन्न विद्मः परं देवं शाश्वतं यं
विदुर्बुधाः ।।
अहो, हम अज्ञानवश इतने दीर्घकाल तक मोह में पड़े रहे हैं, क्योंकि जिन्हें विद्वान पुरुष जानते हैं, उन्हीं
सनातन परमदेव को हम अब तक नहीं जान सके थे।
सेयमासादिता
साक्षात्त्वद्भक्तिर्जन्मभिर्मया ।
भक्तानुग्रहकृद्देवो यं
ज्ञात्वाऽमृतमश्नुते ।।
अब अनेक जन्मों के प्रयत्न से मैंने
यह साक्षात आपकी भक्ति प्राप्त की है। आप ही भक्तों पर अनुग्रह करने वाले महान
देवता है,
जिन्हें जानकर ज्ञानी पुरुष मोक्ष प्राप्त कर लेते हैं।
देवासुरमुनीनां तु यच्च गुह्यं
सनातनम् ।
गुहायां निहितं ब्रह्मि
दुर्विज्ञेयं मुनेरपि ।।
जो सनातन ब्रह्मा देवताओं,
असुरों और मुनियों के लिये भी ग्रह है, जो
हृदयगुहा में स्थित रहकर मननशील मुनि के लिये भी दुर्विज्ञेय बने हुए हैं, वही ये भगवान हैं।
स एष भगवान्देवः सर्वकृत्सर्वतोमुखः
।
सर्वात्मा सर्वदर्शी च सर्वगः
सर्ववेदिता ।।
ये ही सबकी सृष्टि करने वाले देवता
हैं। इनके सब ओर मुख हैं। ये सर्वात्मा,सर्वदर्शी,सर्वव्यापी और सर्वज्ञ हैं।
देहकृद्देहभृद्देही देहभुग्देहिनां
गतिः ।
प्राणकृत्प्राणभृत्प्राणी प्राणदः
प्राणिनां गतिः ।।
आप शरीर के निर्माता और शरीरधारी
हैं,
इसीलिये देही कहलाते हैं। देहके भोक्ता और देहधारियों की परम गति
हैं। आप ही प्राणों के उत्पादक, प्राणधारी, प्राणी, प्राणदाता तथा प्राणियों की गति हैं।
अध्यात्मगतिरिष्टानां
ध्यायिनामात्मवेदिनाम् ।
अपुनर्भवकामानां या गतिः
सोऽयमीश्वरः ।।
ध्यान करने वाले प्रिय भक्तों की जो
अध्यात्मगति हैं तथा पुनर्जन्म की इच्छा न रखने वाले आत्मज्ञानी पुरुषों की जो गति
बतायी गयी हैं, वह ये ईश्वर ही हैं।
अयं च सर्वभूतानां शुभाशुभगतिप्रदः ।
अयं च जन्ममरणे
विदध्यात्सर्वजन्तुषु ।।
ये ही समस्त प्राणियों को शुभ और
अशुभ गति प्रदान करने वाले हैं। ये ही समस्त प्राणियों को जन्म और मृत्यु प्रदान
करते हैं।
अयं संसिद्धिकामानां या गतिः
सोयमीस्वरः ।
भूराद्यान्सर्वभुवनानुत्पाद्य
सदिवौकसः ।
दधाति देवस्तनुभिरष्टाभिर्यो
बिभर्ति च ।।
संसिद्धि (मुक्ति)-की इच्छा रखने
वाले पुरुषों की जो परम गति है, वह ये ईश्वर
ही हैं। देवों सहित भू आदि समस्त लोकों को उत्पन्न करके ये महादेव ही (पृथ्वी,
जल, वायु, अग्नि,
आकाश, सूर्य,चन्द्र,यजमान- इन) अपनी आठ मूर्तियों द्वारा उनका धारण और पोषण करते हैं।
अतः प्रवर्तते सर्वमस्मिन्सर्वं
प्रतिष्ठितम् ।
अस्मिंश्च प्रलयं याति अयमेकः
सनातनः ।।
इन्हीं से सबकी उत्पत्ति होती है और
इन्हीं में सारा जगत् प्रतिष्ठित है और इन्हीं में सबका लय होता है। ये ही एक
सनातन पुरुष हैं।
अयं स सत्यकामानां सत्यलोकः परं
सताम् ।
अपवर्गश्च मुक्तानां कैवल्यं
चात्मवेदिनाम् ।।
ये ही सत्य की इच्छा रखने वाले
सत्पुरुषों के लिये सर्वोत्तम सत्यलोक है। ये ही मुक्त पुरुषों के अप वर्ग मोक्ष
और आत्मज्ञानियों के कैवल्य हैं।
अयं ब्रह्मादिभिः सिद्धैर्गुहायां
गोपितः प्रुभुः ।
देवासुरमनुष्याणामप्रकाशो भवेदिति ।।
देवता,असुर और मनुष्यों को इनका पता न लगने पाये, मानो
इसीलिये ब्रह्मादि सिद्ध पुरुषों ने इन परमेश्वर को अपनी हृदयगुफा में छिपा रखा
है।
तं त्वां देवासुरनरास्तत्त्वेन न
विदुर्भवम् ।
मोहिताः खल्वनेनैव
हृदिस्थेनाप्रकाशिना ।।
हृदयमन्दिर में गूढ़भाव से रहकर
प्रकाशित न होने वाले इन परमात्मा देव ने सबको अपनी माया से मोहित कर रखा है। इसीलिये
देवता,
असुर और मनुष्य आप महादेव को यथार्थ रूप से नहीं जान पाते हैं।
ये चैनं प्रतिपद्यन्ते भक्तियोगेन
भाविताः ।
तेषामेवात्मनात्मानं दर्शयत्येष
हृच्छयः ।।
जो लोग भक्तियोग से भावित होकर उन
परमेश्वर की शरण लेते हैं, उन्हीं को यह
हृदय-मन्दिर में शयन करने वाले भगवान स्वयं अपना दर्शन देते हैं।
यं ज्ञात्वा न पुनर्जन्म मरणं चापि
विद्यते ।
यं विदित्वा परं वेद्यं वेदितव्यं न
विद्यते ।।
जिन्हें जान लेने पर फिर जन्म और
मरण का बन्धन नहीं रह जाता तथा जिनका ज्ञान प्राप्त हो जाने पर फिर दूसरे किसी
उत्कृष्ट ज्ञेय तत्त्व का जानना शेष नहीं रहता है।
यं लब्ध्वा परमं लाभं नाधिकं मन्यते
बुधः ।
यां सूक्ष्मां परमां प्राप्तिं
गच्छन्नव्ययमक्षयम् ।।
जिन्हें प्राप्त कर लेने पर विद्वान
पुरुष बड़े-से-बड़े लाभ को भी उनसे अधिक नहीं मानता है,
जिस सूक्ष्म परम पदार्थ को पाकर ज्ञानी मनुष्य ह्रास और नाश से रहित
परमपद को प्राप्त कर लेता है।
यं साङ्ख्या गुणतत्त्वज्ञाः
साङ्ख्यशास्त्रविशारदाः ।
सूक्ष्मज्ञानतराः सूक्ष्मं ज्ञात्वा
मुच्यन्ति बन्धनैः ।।
सत्त्व आदि तीन गुणों तथा चौबीस
तत्त्वों को जानने वाले सांख्यज्ञान विषारद सांख्ययोगी विद्वान जिस सूक्ष्म तत्त्व
को जानकर उस सूक्ष्म ज्ञानरूपी नौका के द्वारा संसार समुद्र से पार होते और सब
प्रकार के बन्धनों से मुक्त हो जाते हैं।
यं च वेदविदो वेद्यं वेदान्ते च
प्रतिष्ठितम् ।
प्राणायामपरा नित्यं यं विशन्ति
जपन्ति च ।।
प्राणायाम परायण पुरुष वेदवेताओं के
जानने योग्य तथा वेदान्त में प्रतिष्ठित जिस नित्य तत्त्व का ध्यान और जप करते हैं
और उसी में प्रवेश कर जाते हैं।
ओंकाररथमारुह्य ते विशन्ति
महेश्वरम् ।
अयं स देवयानानामादित्यो
द्वारमुच्यते ।।
वही ये महेश्वर हैं। उंकाररूपी रथ
पर आरूढ़ होकर वे सिद्ध पुरुष इन्हीं में प्रवेश करते हैं। ये ही देवयान के
द्वाररूप सूर्य कहलाते हैं।
अयं च पितृयानानां चन्द्रमा
द्वारमुच्यते ।
एष काष्ठा दिशश्चैव संवत्सरयुगादि च
।।
ये ही पितृयान-मार्ग के द्वार
चन्द्रमा कहलाते हैं। काष्ठा, दिशा, संवत्सर और युग आदि भी ये ही हैं।
दिव्यादिव्यः परो लाभ अयने
दक्षिणोत्तरे ।
दिव्य लाभ (देवलोक का सुख),
अदिव्य लाभ (इस लोका का सुख), परम लाभ (मोक्ष),
उतरायण और दक्षिणायन भी ये ही हैं।
एनं प्रजापतिः पूर्वमाराध्य बहुभिः
स्तवैः ।
प्रजार्थं वरयामास नीललोहितसंज्ञितम्
।।
पूर्वकाल में प्रजापति ने नाना
प्रकार के स्तोत्रों द्वारा इन्हीं नीललोहित नाम वाले भगवान की आराधना करके प्रजा
की सृष्टि के लिये वर प्राप्त किया था।
क्रग्भिर्यमनुशासन्ति तत्त्वे
कर्मणि बह्वृचाः ।
यजुर्भिर्यत्त्रिधा वेद्यं
जुह्वत्यध्वर्यवोऽध्वरे ।।
सामभिर्यं च गायन्ति सामगाः
शुद्धबुद्धयः ।
ऋतं सत्यं परं ब्रह्म
स्तुवन्त्याथर्वणा द्विजाः ।
यज्ञस्य परमा योनिः परिश्चायं परः
स्मृतः ।।
ऋग्वेद के विद्वान तात्त्विक यज्ञ
कर्म में ऋग्वेद के मंत्रों द्वारा जिनकी महिमा का गान करते हैं,
यजुर्वेद के ज्ञाता द्विज यज्ञ में यजुर्मन्त्रों द्वारा
दक्षिणाग्नि, गार्हपत्य और आहवनीय- इन त्रिविध रूपों से
जानने योग्य जिन महादेव जी के उदेश्य से आहुति देते हैं तथा शुद्ध बुद्धि से युक्त
सामवेद के गाने वाले विद्वान साममन्त्रों द्वारा जिनकी स्तुति गाते हैं, अथर्ववेद ब्राह्मणों ऋत, सत्य एवं परब्रह्मा नाम से
जिनकी स्तुति करते हैं, जो यज्ञ के परम कारण हैं, वे ही ये परमेश्वर समस्त यज्ञों के परमपति माने गये हैं।
रात्र्यहः श्रोत्रनयनः
पक्षमासशिरोभुजः ।
ऋतुवीर्यस्तपोधैर्यो
ह्यब्दगुह्योरुपादवान् ।।
रात और दिन इनके कान और नेत्र हैं,
पक्ष ओर मास इनके मस्तक और भुजाएं हैं, ऋतु
वीर्य है, तपस्या धैर्य है तथा वर्ष गुह्म-इन्द्रिय, उरू और पैर हैं।
मृत्युर्यमो हुताशश्च कालः
संहारवेगवान् ।
कालस्य परमा योनिः कालश्चायं सनातनः
।।
मृत्यु,
यम, अग्नि, संहार के
लिये वेगशाली काल, काल के परम कारण तथा सनातन काल भी- ये
महादेव ही हैं।
चन्द्रादित्यौ सनक्षत्रौ ग्रहाश्च
सह वायुना ।
ध्रुवः सप्तर्षयश्चैव भुवनाः सप्त
एव च ।।
प्रधानं महदव्यक्तं विशेषान्तं
सवैकृतम् ।
ब्रह्मादिस्तम्बपर्यन्तं भूतादि
सदसच्च यत् ।
अष्टौ प्रकृतयश्चैव प्रकृतिभ्यश्च
यः परः ।।
भुवन, मूल प्रकृति, महत्त्व, विकारों
के सहित विशेष पर्यन्त समस्त तत्त्व, ब्रह्मा जी से लेकर
कीटपर्यन्त सम्पूर्ण जगत, भूतादि, सत
और असत आठ प्रकृतियां तथा प्रकृति से परे जो पुरुष है, इन
सबके रूप में ये महादेव जी ही विराजमान हैं।
अस्य देवस्य यद्भागं कृत्स्नं
सम्परिवर्तते ।
एतत्परममानन्दं यत्तच्छाश्वतमेव च ।
एषा गतिर्विरक्तानामेष भावः परः
सताम् ।।
इन महादेव जी का अंशभूत जो सम्पूर्ण
जगत चक्र की भाँति निरन्तर चलता रहता है, वह
भी ये ही हैं। ये परमानन्दस्वरूप हैं। जो शाश्वत ब्रह्मा हैं, वह भी ये ही हैं। ये ही विरक्तों की गति हैं और ये ही सत्पुरुषों के
परमभाव हैं।
एतत्पदमनुद्विग्नमेतद्ब्रह्म
सनातनम् ।
शास्त्रवेदाङ्गविदुषामेतद्ध्यानं
परं पदम् ।।
ये ही उद्वेगरहित परमपद हैं। ये ही
सनातन ब्रह्मा हैं। शास्त्रों और वेदांगों के ज्ञाता पुरुषों के लिये यह ही ध्यान
करने के योग्य परमपद हैं।
इयं सा परमा काष्ठा इयं सा परमा कला
।
इयं सा परमा सिद्धिरियं सा परमा
गतिः ।।
यह वह पराकाष्ठा,
यही वह परम कला, यही वह परम सिद्धि और यही वह
परम गति हैं ।
इयं सा परमा शान्तिरियं सा
निर्वृतिः परा ।
यं प्राप्य कृतकृत्याः स्म
इत्यमन्यन्त योगिनः ।।
एव यही वह परम शान्ति और वह परम
आनन्द भी हैं, जिसको पाकर योगीजन अपनेको
कृतकृत्य मानते हैं।
इयं तुष्टिरियं सिद्धिरियं
श्रुतिरियं स्मृतिः ।
अध्यात्मगतिरिष्टानां विदुषां
प्राप्तिरव्यया ।।
यह तुष्टि,
यह सिद्धि, यह श्रुति, यह
स्मृति, भक्तों की यह अध्यात्मगति तथा ज्ञानी पुरुषों की यह
अक्षय प्राप्ति आप ही हैं।
यजतां कामयानानां
मखैर्विपुलदक्षिणैः ।
या गतिर्यज्ञशीलानां सा गतिस्त्वं न
संशयः ।।
प्रचुर दक्षिणा वाले यज्ञों द्वारा
सकाम भाव से यजन करने वाले यज्ञमानों की जो गति होती है,
वह गति आप ही हैं। इसमें संशय नहीं है।
सम्यग्योगजपैः
शान्तिर्नियमैर्देहतापनैः ।
तप्यतां या गतिर्देव परमा सा
गतिर्भवान् ।।
देव! उत्तम योग-जप तथा शरीर को सुखा
देने वाले नियमों द्वारा जो शान्ति मिलती है और तपस्या करने वाले पुरुषों को जो
दिव्य गति प्राप्त होती है, वह परम गति आप ही
हैं।
कर्मन्यासकृतानां च विरक्तानां
ततस्ततः ।
या गतिर्ब्रह्मिसदने सा गतिस्त्वं
सनातन ।।
स्नातन देव! कर्म-संन्यासियों को और
विरक्तों को ब्रह्मालोक में जो उत्तोमगति प्राप्य होती है,
वह आप ही हैं।
अपुनर्भवकामानां वैराग्ये वर्ततां च
या ।
प्रकृतीनां लयानां च सा गतिस्त्वं
सनातन ।।
सनातन परमेश्वर! जो मोक्ष की इच्छा
रखकर वैराग्य के मार्ग पर चलते हैं उन्हें, और
जो प्रकृति में लय को प्राप्त होते हैं उन्हें, जो गति
उपलब्ध होती हैं, वह आप ही हैं।
ज्ञानविज्ञानयुक्तानां निरुपाख्या
निरञ्जना ।
कैवल्या या गतिर्देव परमा सा
गतिर्भवान् ।।
देव! ज्ञान और विज्ञान से युक्त
पुरुषों को जो सारूप्य आदि नाम से रहित, निरंजन
एवं कैवल्यरूप परमगति प्राप्त होती है, वह आप ही हैं।
वेदशास्त्रपुराणोक्ताः पञ्च ता गतयः
स्मृताः ।
त्वत्प्रसादाद्धि लभ्यन्ते न लभ्यन्तेऽन्यथा
विभो ।।
प्रभो! वेद-शास्त्र और पुराणों में
जो ये पाँच गतियाँ बतायी गयी हैं, ये आपकी कृपा
से ही प्राप्त होती हैं, अन्यथा नहीं।
इति
तण्डिस्तपोराशिस्तुष्टावेसानमात्मना ।
जगौ च परमं ब्रह्म यत्पुरा
लोककृज्जगौ ।।
इस प्रकार तपस्या की निधिरूप तण्डि
ने अपने मन से महादेव जी की स्तुति की और पूर्वकाल में ब्रह्मा जी ने जिस परम
ब्रह्मास्वरूप स्तोत्र का गान किया था, उसी
का स्वयं भी गान किया।
।। इति श्रीमन्महाभारते अनुशासनपर्वणि दानधर्मपर्वणि तण्डिकृतं महादेव स्तुति सप्तचत्वारिंशोऽध्यायः।। 47 ।।
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