चामुण्डा स्तोत्र

चामुण्डा स्तोत्र

जो मनुष्य महानवमी के दिन भक्तिपूर्वक चर्ममुण्डा देवी का पूजन और चामुण्डा स्तोत्र का पाठ करता है, वह मनोवाञ्छित पदार्थों को प्राप्त करके सनातन पद पा लेता है। सिद्धक्षेत्र के रुद्रावर्त क्षेत्र में पूर्वकाल में महात्मा राजा नल ने चर्ममुण्डा देवी की स्थापना की थी। वीरसेन के पुत्र नल इस भूमण्डल के राजा थे, जो समस्त सद्गुणों से युक्त थे। विदर्भदेश की राजकुमारी दमयन्ती उनकी पतिव्रता पत्नी थी । एक समय राजा नल ने कलियुग से आविष्ट होकर अपने भाई पुष्कर के साथ जूआ खेला । उसमें वे अपना सारा राज्य हार गये । तदनन्तर नल अपनी स्त्री को साथ लेकर गहन बन के भीतर चले गये । वहाँ उन्होंने यह सोचा यदि दमयन्ती राजा भीम के घर चली जाय तो बनवास के कष्ट से मुक्त हो सकती है। इसलिये रात में इसको सोती छोड़कर मैं दूर चला जाऊँगा जिससे यह साध्वी दमयन्ती मुझसे विलग होकर कुण्डिनपुर को चली जायगी।'

ऐसा निश्चय करके राजा नल सुख से सोयी हुई दमयन्ती को छोड़कर घोर वन में चले गये । प्रातःकाल उठकर दमयन्ती जब इधर-उधर देखने लगी, तो उसने अपने पास नल को नहीं पाया । तब वह दुःख से आतुर हो वन में करुणस्वर से विलाप करने लगी और धीरे-धीरे कुण्डिनपुर की राह लेकर अपने पिता के राजमहल में जा पहुँची । नल भी उस वन को छोड़कर दूसरे बड़े भारी वन में चले गये और घूमते-घूमते हाटकेश्वरक्षेत्र में जा पहुँचे । इसी बीच में महानवमी का दिन आ गया । तदनन्तर नल ने वहाँ चर्ममुण्डधारिणी दुर्गा की मृन्मयी मूर्ति बनाकर उसका पूजन किया और फल मूलों का भोग लगाकर देवी को तृप्त किया । तत्पश्चात् ये देवी के आगे हाथ जोड़कर खड़े हो गये तथा बड़ी श्रद्धा के साथ स्तुति करने लगे-

चामुण्डा स्तोत्र

श्रीचामुण्डास्तोत्रम्

जय सर्वगते देवि चर्ममुण्डधरे वरे ।

जय दैत्यकुलोच्छेददक्षे दक्षात्मजे शुभे ॥ १॥

कालरात्रि जयाचिन्त्ये नवम्यष्टमिवल्लभे ।

त्रिनेत्रे त्र्यम्बकाभीष्टे जय देवि सुरार्चिते ॥ २॥

भीमरूपे सुरूपे च महाविद्ये महाबले ।

महोदये महाकाये जयदेवि महाव्रते ॥ ३॥

नित्यरूपे जगद्धात्रि सुरामांसवसाप्रिये ।

विकरालि महाकालि जय प्रेतजनानुगे ॥ ४॥

शवयानरते रम्ये भुजङ्गाभरणान्विते ।

पाशहस्ते महाहस्ते रुधिरौघकृतास्पदे ॥ ५॥

फेत्कारारवशोभिष्ठे गीतवाद्यविराजिते ।

जयानाद्ये जय ध्येये भर्गदेहार्धसंश्रये ॥ ६॥

त्वं रतिस्त्वं धृतिस्तुष्टिस्त्वं गौरी त्वं सुरेश्वरी ।

त्वं लक्ष्मीस्त्वं च सावित्री गायत्री त्वमसंशयम् ॥ ७॥

यत्किञ्चित्त्रिषु लोकेषु स्त्रीरूपं देवि दृश्यते ।

तत्सर्वं त्वन्मयं नात्र विकल्पोऽस्ति मम क्वचित् ॥ ८॥

येन सत्येन तेन त्वमत्रावासं द्रुतं कुरु ।

सान्निध्यं भक्तितस्तुष्टा सुरासुरनमस्कृते ॥ ९॥

सूत उवाच -

एवं स्तुता च सा देवी नलेन पृथिवीभुजा ।

प्रोवाच दर्शनं गत्वा तं नृपं भक्तवत्सला ॥ १०॥

श्रीदेव्युवाच -

परितुष्टाऽस्मि ते वत्स स्तोत्रेणानेन साम्प्रतम् ।

तस्माद्गृहाण मत्तस्त्वं वरं मनसि संस्थितम् ॥ ११॥

नल उवाच -

दमयन्तीति मे भार्या प्राणेभ्योऽपि गरीयसी ।

सा मया निर्जने मुक्ता वने व्यालगणान्विते ॥ १२॥

अखण्डशीलां निर्दोषां यथाहं त्वत्प्रसादतः ।

लभे भूयोऽपि तां देवि तथात्र कुरु सत्वरम् ॥ १३॥

स्तोत्रेणानेन यो देवि स्तुतिं कुर्यात्पुरस्तव ।

तत्रैव दिवसे तस्मै त्वया देयं मनोगतम् ॥ १४॥

॥ इति श्रीस्कान्दे नागरखण्डे चामुण्डास्तोत्रं सम्पूर्णम् ॥ 

चामुण्डा स्तोत्रम् भावार्थ सहित

जय सर्वगते देवि चर्ममुण्डधरे वरे ।

जय दैत्यकुलोच्छेददक्षे दक्षात्मजे शुभे ॥ १॥

नल बोले-चर्ममुण्ड धारण करनेवाली श्रेष्ठ देवि! तुम सर्वत्र व्यापक हो, तुम्हारी जय हो । सर्वेश्वर तथा सम्पूर्ण राजाओं के द्वारा वन्दित दक्षकुमारी ! तुम प्रत्येक कार्य में दक्ष हो, शुभे ! तुम्हारी जय हो ।

कालरात्रि जयाचिन्त्ये नवम्यष्टमिवल्लभे ।

त्रिनेत्रे त्र्यम्बकाभीष्टे जय देवि सुरार्चिते ॥ २॥

कालरात्रि ! अचित्ये ! नवमी और अष्टमी को प्रिय माननेवाली देवि ! तुम्हारी जय हो । त्रिलोचने ! त्रिलोचनप्रिये ! देवपूजिते ! देवि ! तुम्हारी जय हो ।

भीमरूपे सुरूपे च महाविद्ये महाबले ।

महोदये महाकाये जयदेवि महाव्रते ॥ ३॥

भयङ्कर रूप धारण करनेवाली तथा सुन्दर रूपवाली महाविद्ये ! महावले ! तुम्हारी जय हो । महोदये ! महाकाये ! महाव्रते ! देवि! तुम्हारी जय हो ।

नित्यरूपे जगद्धात्रि सुरामांसवसाप्रिये ।

विकरालि महाकालि जय प्रेतजनानुगे ॥ ४॥

नित्यरूपे ! जगद्धात्रि ! तुम्हारी जय हो । विकराली महाकालिके ! तुम्हारी जय हो ।

शवयानरते रम्ये भुजङ्गाभरणान्विते ।

पाशहस्ते महाहस्ते रुधिरौघकृतास्पदे ॥ ५॥

सुन्दरि ! देवेश्वरि ! पाशहस्ते! महाहस्ते ! तुम्हें नमस्कार है ।

फेत्कारारवशोभिष्ठे गीतवाद्यविराजिते ।

जयानाद्ये जय ध्येये भर्गदेहार्धसंश्रये ॥ ६॥

मनोहर देहलता से युक्त तथा प्रिय गीतवाद्य से प्रसन्न होनेवाली देवि! तुम्हारी जय हो । अनन्ता, चिन्तनीया तथा भगवान् शिव के आधे शरीर में निवास करनेवाली देवि ! तुम्हारी जय हो ।

त्वं रतिस्त्वं धृतिस्तुष्टिस्त्वं गौरी त्वं सुरेश्वरी ।

त्वं लक्ष्मीस्त्वं च सावित्री गायत्री त्वमसंशयम् ॥ ७॥

तुम्ही रति, तुम्ही धृति, तुम्ही तुष्टि, तुम्हीं गौरी तथा तुम्ही देवताओं की स्वामिनी शची हो । तुम्ही लक्ष्मी, सावित्री और गायत्री हो ।

यत्किञ्चित्त्रिषु लोकेषु स्त्रीरूपं देवि दृश्यते ।

तत्सर्वं त्वन्मयं नात्र विकल्पोऽस्ति मम क्वचित् ॥ ८॥

देवि ! तीनों लोकों में स्त्रीरूप में जो कुछ भी दिखायी देता है, यह सब तुम्हारे ही अंश से प्रकट हुआ है। इस विषय में मुझे कोई सन्देह नहीं है।

येन सत्येन तेन त्वमत्रावासं द्रुतं कुरु ।

सान्निध्यं भक्तितस्तुष्टा सुरासुरनमस्कृते ॥ ९॥

इस सत्य के प्रभाव से तुम इस मूर्ति में निवास करो । देव-दानववन्दिते ! इस भक्ति से सन्तुष्ट होकर तुम अपना सांनिध्य यहाँ स्थापित करो।

सूत उवाच -

एवं स्तुता च सा देवी नलेन पृथिवीभुजा ।

प्रोवाच दर्शनं गत्वा तं नृपं भक्तवत्सला ॥ १०॥

सूतजी कहते है-राजा नल के इस प्रकार स्तुति करने पर भक्तवत्सला चतुर्भुजा देवी ने प्रत्यक्ष दर्शन दिया

श्रीदेव्युवाच -

परितुष्टाऽस्मि ते वत्स स्तोत्रेणानेन साम्प्रतम् ।

तस्माद्गृहाण मत्तस्त्वं वरं मनसि संस्थितम् ॥ ११॥

और इस प्रकार कहा-वत्स ! मैं तुम्हारे इस स्तोत्र से सन्तुष्ट हूँ, अतः तुम मुझसे मनोवाञ्छित वर मांगो।'

नल उवाच -

दमयन्तीति मे भार्या प्राणेभ्योऽपि गरीयसी ।

सा मया निर्जने मुक्ता वने व्यालगणान्विते ॥ १२॥

राजा नल बोले-देवि ! मैंने प्राणों से भी अधिक प्रिय अपनी पत्नी दमयन्ती को हिंसक जन्तुओं से भरे निर्जन बन में त्याग दिया था।

अखण्डशीलां निर्दोषां यथाहं त्वत्प्रसादतः ।

लभे भूयोऽपि तां देवि तथात्र कुरु सत्वरम् ॥ १३॥

यह आपकी कृपा से अखण्ड शील से युक्त और निर्दोष रूप में मुझे फिर प्राप्त हो, ऐसा यत्न कीजिये।

स्तोत्रेणानेन यो देवि स्तुतिं कुर्यात्पुरस्तव ।

तत्रैव दिवसे तस्मै त्वया देयं मनोगतम् ॥ १४॥

जो आपके आगे इस स्तोत्र द्वारा स्तुति करे, उसे उसी दिन आप मनोवाञ्छित वस्तु प्रदान करें ।

सूतजी कहते हैं-तब दुर्गादेवी तथास्तु' कहकर अन्तर्धान हो गयी तथा राजाओ में श्रेष्ठ नल ने उन सभी कामनाओं को प्राप्त कर लिया ।

इस प्रकार श्रीस्कन्दपुराण के नागरखण्ड में वर्णित चामुण्डास्तोत्रम् सम्पूर्ण हुआ ॥

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