त्रिप्रकार स्तुति
माँ चामुण्डा की यह स्तुति को 'त्रिप्रकार' नाम से जाना जाता है। यह स्तुति वाराह
पुराण अध्याय ९६ त्रिशक्तिमाहात्म्य में रौद्रीव्रत नाम से वर्णित है।
श्रीचामुण्डा त्रिप्रकार स्तुति
जयस्व देवि चामुण्डे जय
भूताऽपहारिणि ।
जय सर्वगते देवि कालरात्रि नमोऽस्तु
ते ॥ १॥
विश्वमूर्तियुते शुद्धे विरूपाक्षी
त्रिलोचने ।
भीमरूपे शिवे विद्ये महामाये महोदरे
॥ २॥
मनोजये मनोदुर्गे भीमाक्षि
क्षुभितक्षये ।
महामारि विचित्राङ्गि
गीतनृत्यप्रिये शुभे ॥ ३॥
विकरालि महाकालि कालिके पापहारिणि ।
पाशहस्ते दण्डहस्ते भीमहस्ते भयानके
॥ ४॥
चामुण्डे ज्वलमानास्ये
तीक्ष्णदंष्ट्रे महाबले ।
शिवयानप्रिये देवी प्रेतासनगते शिवे
॥ ५॥
भीमाक्षि भीषणे देवि सर्वभूतभयङ्करि
।
करालि विकरालि च महाकालि करालिनि ॥
६॥
कालि करालविक्रान्ते कालरात्रि
नमोऽस्तु ते ।
सर्वशस्त्रभृते देवि नमो देवनमस्कृते
॥ ७॥
॥फलश्रुतिः ॥
एवं स्तुता शिवदूती रुद्रेण
परमेष्ठिना ।
तुतोष परमा देवी वाक्यं चैवमुवाच ह
॥ ८॥
वरं वृष्णीष्व देवेश यत्ते मनसि
वर्तते ।
श्रीरुद्र उवाच
स्तोत्रेणाऽनेन ये देवि स्तोष्यन्ति
त्वां वरानने ॥ ९॥
तेषां त्वं वरदा देवि भव सर्वगता
सती ।
इमं पर्वतमारुह्य यः पूजयति भक्तितः
॥ १०॥
स पुत्रपौत्रपशुमान्
समृद्धिमुपगच्छतु ।
यश्चैवं शृणुयाद्भक्त्या स्तवं देवि
समुद्भवम् ॥ ११॥
सर्वपापविनिर्मुक्तः परं
निर्वाणमृच्छतु ।
भ्रष्टराज्यो यदा राजा नवम्यां
नियतः शुचिः ॥ १२॥
अष्टम्यां च चतुर्दश्यां सोपवासो
नरोत्तम ।
संवत्सरेण लभतां राज्यं निष्कण्टकं
पुनः ॥ १३॥
एषा ज्ञानान्विता शाक्तिः शिवदूतीति
चोच्यते ।
य एवं शृणुयान्नित्यं भक्त्या परमया
नृप ॥ १४॥
सर्वपापविनिर्मुक्तः परं
निर्वाणमाप्नुयात् ।
यश्चैनं पठते भक्त्या स्नात्वा वै
पुष्करे जले ॥ १५॥
सर्वमेतत्फलं प्राप्य ब्रह्मलोके
महीयते ।
यत्रैतल्लिखितं गेहे सदा तिष्ठति
पार्थिव ॥ १६॥
न तत्राऽग्निभयं घोरं सर्वचोरादि सम्भवम् ।
यश्चेदं पूजयेद्भक्त्या पुस्तकेऽपि
स्थितं बुधाः ॥ १७॥
तेन चेष्टं भवेत्सर्वं त्रैलोक्यं
सचराचरम् ।
जायन्ते बहवः पुत्राः धनं धान्यं
वरा स्त्रियः ॥ १८॥
रत्नान्यश्वा गजा भृत्यास्तेषामाशु
भवन्ति च ।
यत्रेदं लिख्यते गेहे तत्राप्येवं
ध्रुवं भवेत् ॥ १९॥
॥ इति पाद्मे पुराणे सृष्टिखण्डे
श्रीचामुण्डा स्तुतिः समाप्ता ॥
त्रिप्रकार स्तुति त्रिशक्तिमाहात्म्य में रौद्रीव्रत कथा
भगवान् वराह कहते हैं- वसुंधरे! जो
रौद्रीशक्ति मन में तपस्या का निश्चय कर 'नीलगिरि
पर गयी थीं और जिनका प्राकट्य रुद्र की तमःशक्ति से हुआ था, अब
उनके व्रत की बात सुनो। अखिल जगत्की रक्षा के निश्चय से वे दीर्घकाल तक तपस्या के
साधन में लगी रहीं और पञ्चाग्नि-सेवन का नियम बना लिया। इस प्रकार उन देवी के
तपस्या करते हुए कुछ समय बीत जाने पर 'रुरु' नामक एक असुर उत्पन्न हुआ। जो महान् तेजस्वी था। उसे ब्रह्माजी का वर भी
प्राप्त था। समुद्र के मध्य में वनों से घिरी 'रत्नपुरी'
उसकी राजधानी थी। सम्पूर्ण देवताओं को आतङ्कित कर वह दानवराज वहीं
रहकर राज्य करता था। करोड़ों असुर उसके सहचर थे, जो एक-से-एक
बढ़-चढ़कर थे। उस समय ऐश्वर्य से युक्त वह 'रुरु' ऐसा जान पड़ता था, मानो दूसरा इन्द्र ही हो। बहुत
समय व्यतीत हो जाने के पश्चात् उसके मन में लोकपालों पर विजय प्राप्त करने की
इच्छा उत्पन्न हुई। देवताओं के साथ युद्ध करने में उसकी स्वाभाविक रुचि थी,
अतः एक विशाल सेना का संग्रहकर जब वह महान् असुर रुरु युद्ध करने के
विचार से समुद्र से बाहर निकला, तब उसका जल बहुत जोरों से
ऊपर उछलने लगा और उसमें रहनेवाले नक्र, घड़ियाल तथा मत्स्य
घबड़ा गये। वेलाचल के पार्श्ववर्ती सभी देश उस जल से आप्लावित हो उठे। समुद्र का
अगाध जल चारों ओर फैल गया और सहसा उसके भीतर से अनेक असुर विचित्र कवच तथा आयुध से
सुसज्जित होकर बाहर निकल पड़े एवं युद्ध के लिये आगे बढ़े। ऊँचे हाथियों तथा
अश्व-रथ आदि पर सवार होकर वे असुर-सैनिक युद्ध के लिये आगे बढ़े। उनके लाखों एवं
करोड़ों की संख्या में पदाति सैनिक भी युद्ध के लिये निकल पड़े।
शोभने! रुरुकी सेना के रथ सूर्य के
रथ के समान थे और उन पर यन्त्रयुक्त शस्त्र सुसज्ज थे। ऐसे असंख्य रथों पर उसके
अनुगामी दैत्य हस्तत्राण से सुरक्षित होकर चल पड़े। इन असुर-सैनिकों ने देवताओं के
सैनिकों की शक्ति कुण्ठित कर दी और वह अपनी चतुरङ्गिणी सेना लेकर इन्द्र की नगरी
अमरावतीपुरी के लिये चल पडा। वहाँ पहुँचकर दानवराज ने देवताओं के साथ युद्ध आरम्भ
कर दिया और वह उनपर मुद्गरों, मुसलों,
भयंकर वाणों और दण्ड आदि आयुधों से प्रहार करने लगा। इस युद्ध में
इन्द्र सहित सभी देवता उस समय अधिक देर तक टिक न सके और वे आहत हो मुँह पीछेकर भाग
चले। उनका सारा उत्साह समाप्त हो गया तथा हृदय आतङ्क से भर गया। अब वे भागते हुए
उसी नीलगिरि पर्वत पर पहुंचे, जहाँ भगवती रौद्री तपस्या में
संलग्न होकर स्थित थीं। देवी ने देवताओं को देखकर उच्च स्वर से कहा-'भय मत करो।'
देवी बोलीं-देवतागण! आपलोग इस
प्रकार भयभीत एवं व्याकुल क्यों हैं? यह
मुझे तुरंत बतलाएँ।
देवताओं ने कहा-'परमेश्वरि! इधर देखिये! यह 'रुरु' नामक महान् पराक्रमी दैत्यराज चला आ रहा है। इससे हम सभी देवता त्रस्त हो
गये हैं, आप हमारी रक्षा कीजिये।' यह
देखकर देवी अट्टहास के साथ हँस पड़ीं। देवी के हँसते ही उनके मुख से बहुत-सी अन्य
देवियाँ प्रकट हो गयीं, जिनसे मानो सारा विश्व भर गया। वे
विकृत रूप एवं अस्त्र-शस्त्र से सुसज्जित थी और अपने हाथों में पाश, अङ्कश, त्रिशूल तथा धनुष धारण किये हुए थीं। वे सभी
देवियाँ करोड़ों की संख्या में थी तथा भगवती तामसी को चारों ओर से घेरकर खड़ी हो
गयीं। वे सब दानवों के साथ युद्ध करने लगी और तत्काल असुरों के सभी सैनिकों का
क्षणभर में सफाया कर दिया। देवता अब पुन: लड़ने लग गये थे। कालरात्रि की सेना तथा
देवताओं को सेना अब नयी शक्ति से सम्पन्न होकर दैत्यों से लड़ने लगी और उन सभी ने
समस्त दानवों के सैनिकों को यमलोक भेज दिया। बस, अब उस महान्
युद्धभूमि में केवल महादैत्य 'रुरु' ही
बच रहा था। वह बड़ा मायावी था। अब उसने 'रौरवी' नामक भयंकर माया की रचना की, जिससे सम्पूर्ण देवता
मोहित होकर नींद में सो गये। अन्त में देवी ने उस युद्ध-स्थल पर त्रिशूल से दानव को
मार डाला। शुभलोचने! देवी के द्वारा आहत हो जाने पर 'रुरु'-दैत्य के चर्म (धड़) और मुण्ड अलग-अलग हो गये। दानवराज 'रुरु के चर्म और मुण्ड जिस समय पृथक् हुए. उसी क्षण देवी ने उन्हें उठा
लिया, अतः वे 'चामुण्डा' कहलाने लगीं। वे ही भगवती महारौद्री, परमेश्वरी,
संहारिणी और 'कालरात्रि' कही जाती हैं। उनकी अनुचरी देवियाँ करोड़ों की संख्या बहुत सी हैं। युद्ध के
अन्त में उन अनुगामिनी देवियों ने इन महान् ऐश्वर्यशालिनी देवी को-सब ओर से घेर
लिया और वे भगवती रौद्री से कहने लगीं-'हम भूख से घबड़ा गयी
हैं। कल्याणस्वरूपिणि देवि! आप हमें भोजन देने की कृपा कीजिये।' इस प्रकार उन देवियों के प्रार्थना करने पर जब रौद्री देवी के ध्यान में
कोई बात न आयी, तब उन्होंने देवाधिदेव पशुपति भगवान् रुद्र का
स्मरण किया। उनके ध्यान करते ही पिनाकपाणि परमात्मा रुद्र वहाँ प्रकट हो गये। वे
बोले-'देवि! कहो! तुम्हारा क्या कार्य है?'
देवी ने कहा-देवेश! आप इन उपस्थित
देवियों के लिये भोजन की कुछ सामग्री देने की कृपा करें;
अन्यथा ये बलपूर्वक मुझे ही खा जायेंगी।
रुद्र ने कहा-देवेश्वरि! महाप्रभे!
इनके खानेयोग्य वस्तु वह है-जो गर्भवती स्त्री दूसरी स्त्री के पहने हुए वस्त्र को
पहनकर अथवा विशेष करके दूसरे पुरुष का स्पर्श कर पाक का निर्माण करती है,
वह इन देवियों के लिये भोजन की सामग्री है। अज्ञानी व्यक्तियों द्वारा
दिया हुआ बलिभाग भी ये देवियाँ ग्रहण करें और उसे पाकर सौ वर्षों के लिये सर्वथा
तृप्त हो जायें। अन्य कुछ देवियाँ प्रसव-गृह में छिद्र का अन्वेषण करें। वहाँ लोग
उनकी पूजा करेंगे। देवेशि! उस स्थान पर उनका निवास होगा। गृह, क्षेत्र, तडागों, वापियों और
उद्यानों में जाकर निरन्तर रोती हुई जो स्त्रियाँ मनमारे बैठी रहेंगी, उनके शरीर में प्रवेश कर कुछ देवियाँ तृप्ति लाभ कर सकेंगी।
फिर भगवान् शंकर ने इधर जब रुरु को
मरा हुआ देखा, तब वे देवी की इस प्रकार स्तुति
करने लगे।
त्रिप्रकार चामुण्डा स्तुति
जयस्व देवि चामुण्डे जय
भूताऽपहारिणि ।
जय सर्वगते देवि कालरात्रि नमोऽस्तु
ते ॥ १॥
विश्वमूर्तियुते शुद्धे विरूपाक्षी
त्रिलोचने ।
भीमरूपे शिवे विद्ये महामाये महोदरे
॥ २॥
मनोजये मनोदुर्गे भीमाक्षि
क्षुभितक्षये ।
महामारि विचित्राङ्गि
गीतनृत्यप्रिये शुभे ॥ ३॥
विकरालि महाकालि कालिके पापहारिणि ।
पाशहस्ते दण्डहस्ते भीमहस्ते भयानके
॥ ४॥
चामुण्डे ज्वलमानास्ये
तीक्ष्णदंष्ट्रे महाबले ।
शिवयानप्रिये देवी प्रेतासनगते शिवे
॥ ५॥
भीमाक्षि भीषणे देवि सर्वभूतभयङ्करि
।
करालि विकरालि च महाकालि करालिनि ॥
६॥
कालि करालविक्रान्ते कालरात्रि
नमोऽस्तु ते ।
सर्वशस्त्रभृते देवि नमो
देवनमस्कृते ॥ ७॥
भगवान् रुद्र बोले-देवि! आपकी जय
हो। चामुण्डे! भगवती भूतापहारिणि एवं सर्वगते परमेश्वरि! आपकी जय हो। देवि! आप
त्रिलोचना, भीमरूपा, वेद्या,
महामाया, महोदया, मनोजवा,
जया, जृम्भा, भीमाक्षी,
क्षुभिताशया, महामारी, विचित्राङ्गा,
नृत्यप्रिया, विकराला, महाकाली,
कालिका, पापहारिणी, पाशहस्ता,
दण्डहस्ता, भयानका, चामुण्डा,
ज्वलमानास्या, तीक्ष्णदंष्ट्रा, महाबला, शतयानस्थिता, प्रेतासनगता,
भीषणा, सर्वभूतभयंकरी, कराला,
विकराला, महाकाला, करालिनी,
काली, काराली, विक्रान्ता
और कालरात्रि-इन नामों से प्रसिद्ध हैं; आपके लिये मेरा
बारंबार नमस्कार है।
परमेष्ठी रुद्र ने जब इस प्रकार
देवी की स्तुति की तब वे भगवती परम संतुष्ट हो गयीं। साथ ही उन्होंने कहा-'देवेश ! जो आपके मन में हो, वह वर माँग लें।'
रुद्र बोले-"वरानने! यदि आप
प्रसन्न हैं तो इस स्तुति के द्वारा जो व्यक्ति आपका स्तवन करें,
देवि! आप उन्हें वर देने की कृपा करें। इस स्तुति का नाम' 'त्रिप्रकार' होगा। जो भक्ति के साथ इसका पाठ करेगा,
वह पुत्र, पौत्र, पशु और
समृद्ध से सम्पन्न हो जायगा। तीन शक्तियों से सम्बद्ध इस स्तुति को जो श्रद्धा
भक्ति के साथ सुने, उसके सम्पूर्ण पाप विलीन हो जाये और वह
व्यक्ति अविनाशी पद का अधिकारी हो जाय।"
ऐसा कहकर भगवान् रुद्र अन्तर्धान हो
गये। देवता भी स्वर्ग को पधारे। वसुंधरे! देवी की तीन प्रकार की उत्पत्ति युक्त 'त्रिशक्ति-माहात्म्य का यह प्रसङ्ग बहुत श्रेष्ठ है। अपने राज्य से च्युत
राजा यदि पवित्रतापूर्वक इन्द्रियों को वश में करके अष्टमी, नवमी
और चतुर्दशी के दिन उपवास कर इसका श्रवण करेगा तो उसे एक वर्ष में अपना निष्कण्टक
राज्य पुनः प्राप्त हो जायगा। न्यायसिद्धान्तके द्वारा ज्ञात होनेवाली पृथ्वी
देवि! यह मैंने तुमसे 'त्रिशक्ति-सिद्धान्त की बात बतलायी।
इनमें सात्त्विकी एवं श्वेत वर्णवाली 'सृष्टि' देवी का सम्बन्ध ब्रह्मा से है। ऐसे ही वैष्णवी शक्ति का सम्बन्ध भगवान्
विष्णु से है। रौद्रीदेवी कृष्णवर्ण से युक्त एवं तमःसम्पन्न शिव की शक्ति हैं। जो
पुरुष स्वस्थचित्त होकर नवमी तिथि के दिन इसका श्रवण करेगा, उसे
अतुल राज्य को प्राप्ति होगी तथा वह सभी भयों से छूट जायगा। जिसके घर पर लिखा हुआ
यह प्रसङ्ग रहता है, उसके घर में भयंकर अग्निभय, सर्पभय, चोरभय और राज्य आदि से उत्पन्न भय नहीं
होते। जो विद्वान् पुरुष पुस्तकरूप में इस प्रसङ्ग को लिखकर भक्ति के साथ इसकी
पूजा करेगा, उसके द्वारा चर और अचर तीनों लोक सुपूजित हो
जायेंगे। उसके यहाँ बहुत-से पशु, पुत्र, धन-धान्य एवं उत्तम स्त्रियाँ प्राप्त हो जायेंगी। यह स्तुति जिसके घर पर
रहती है, उसके यहाँ प्रचुर रत्न, घोड़े
गौएँ, दास और दासियाँ आदि सम्पत्तियाँ अवश्य प्राप्त हो जाती
हैं।
भगवान् वराह कहते हैं-भूतधारिणि! यह
रुद्र का माहात्म्य कहा गया है। मैंने पूर्णरूप से तुम्हारे सामने इसका वर्णन कर
दिया। चामुण्डा की समग्र शक्तियों की संख्या नौ करोड़ है। वे पृथक्पृथक् रूप से
स्थित हैं। इस प्रकार जो रुद्र से सम्बन्ध रखनेवाली यह 'तामसी शक्ति चामुण्डा' कही गयी उसका तथा वैष्णवी
शक्ति के सम्मिलित भेद अठारह करोड़ है। इन सभी शक्तियों के अध्यक्ष सर्वत्र विचरण
करनेवाले भगवान् परमात्मा रुद्र ही हैं। जितनी ये शक्तियाँ हैं, रुद्र भी उतने ही हैं। महाभाग! जो इन शक्तियों की आराधना करता है, उस पर भगवान् रुद्र संतुष्ट होते हैं और वे साधक की मन:कल्पित सारी
कामनाएँ सिद्ध कर देते हैं।
इति श्रीवराहपुराणे त्रिशक्तिमाहात्म्ये त्रिशक्ति रहस्यं त्रिप्रकार स्तुति नाम षण्णवतितमोऽध्यायः॥९६॥
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