नारदसंहिता अध्याय ५

नारदसंहिता अध्याय ५

नारदसंहिता अध्याय ५ में वार लक्षण, सूर्यादिवारों में शुभाशुभ कर्म तथा कुलिक आदि योग का वर्णन किया गया है। 

नारदसंहिता अध्याय ५

नारदसंहिता अध्याय ५

नृषाभिषेकमांगल्यसेवायानास्रकर्म यत् ॥

औषधाहवधान्यादि विधेयं रविवासरे ॥ १ ॥

राज्याभिषेक, मंगळकर्णी, सेव, सवारी, अश्नकर्म, औषध, युद्ध, धान्य कर्म ये रविवार में करने चाहिये ।। १ ।।

शंखमुक्तांबुरजतवृक्षेक्षुस्त्रीविभूषणम् ।

पुष्पगीतऋतुक्षीरकृषिकर्मेन्दुवासरे ॥ २ ॥

शंख मोती चांदी वृक्ष ईख स्त्री का आभूषण पुष्प गीत यज्ञ दूध खेती ये कर्म सोमवार में करने चाहियें ॥ २ ॥

विषाग्निबंधनस्तेयं संधिविग्रहमाहवे ।

धात्वाकरप्रवालास्त्रकर्मभूमिजवासरे ॥ ३॥

विष अग्नि बंधन चोरी युद्ध में संधि या विग्रह धातु खजान मूँगा शस्त्रकर्म ये मंगलवार में करने चाहियें ।। ३ ।।

नृत्यशिल्पकलागीतलिपिभूरससंग्रहम् ।

विवाहधातुसंग्रामकर्म सौम्यस्य वासरे ॥ ४ ॥

नृत्य शिल्पकला गीत लिखना पृथ्वी के रसों का संग्रह विवाह धातु संग्राम ये कर्म बुधवार में करने चाहिये।। ४ ।।

यज्ञपौष्टिकमांगल्यं स्वर्णवस्त्रादिभूषणम् ।

वृक्षगुल्मलतायानकर्म देवेज्यवासरे ॥ ६ ॥

यज्ञ पौष्टिक कर्म मांगल्यकर्म सुवर्ण वस्त्र आदि का श्रृंगार वृक्ष गुच्छा लता सवारी ये कर्म बृहस्पति वार में करने चाहियें ॥ ५॥

नृत्यगीतादिवादित्रस्वर्णश्रीरत्नभूषणम् ॥

भूषण्योत्सवगोधान्यकर्म भार्गववासरें ॥ ६ ॥

नृत्य, गीतबाजा, सुवर्ण, स्त्री, रत्न, आभूषण, भूमि दूकान, उत्सव, गौ, धान्य इनके कार्य शुक्रवार में करने चाहियें ।। ६ ॥

त्रपुसीसायसोऽमात्रविषपापासवानृतम् ॥

स्थिरकर्माखिलं वास्तुसंग्रहं सौरिवासरे ॥ ७ ॥

राँग, सीसा, लोहा, पत्थर, शस्त्र, विष, पाप, मदिरा, झूँठ, स्थिरकर्म, वास्तुकर्म ( घर में प्रवेश ) संग्रह, ये कर्म शनिवार में करने शुभ हैं ॥ ७ ॥

रविः स्थिरश्चरश्चंद्र कुजः क्रूरो बुधोखिलः ॥

लघुरीज्यो मृदुः शुक्रस्तीक्ष्णो दिनकरात्मजः ॥ ८॥

सूर्य स्थिर है चंद्रमा चर, मंगल क्रूर और बुध अच्छे प्रकार पूर्ण है बृहस्पति लघु (अच्छा हलका) है शुक्र मृदु (कोमल) है शनि तीक्ष्ण कहा है ॥ ८ ॥

अभ्यक्तो भानुवारे यः स नरः क्लेशवान् भवेत् ॥

ऋक्षेशे कांतिभाग् भौमे व्याधिः सौभाग्यमिंदुजे ॥ ९॥

जो मनुष्य रविवार को तेल आदि की मालिश करै वह दुःखी हो चंद्रवार को तेल लगावे तो अच्छी कांति बढे मंगल को लगावे तो बीमारी हो बुध को सौभाग्य प्राप्त हो ।। ९॥

जीवे नैःस्वं सिते हानिर्मदे सर्वसमृद्धयः ।

उदयादुदयं वर इति पूर्वविनिश्चितम् ॥ १० ॥

बृहस्पति को दरिद्रता शुक्र को हानि और शनिवार को तेल लगावे तो सब बातों की समृद्धि हो सूर्य के उदयप्रति बार लगता है यह पहिले का निश्चय चला आता है ॥ १० ॥

लंकोदयात् स्याद्वारादिस्तस्मादूर्ध्वमधोपि वा ।

देशान्तरचरार्द्धाभिर्नाडीभिरपरो भवेत् ॥ ११ ॥

लंका में सूर्य उदय हो वह वारादि हैं और लंका से ऊपर को तथा नीचे को जो देशांतर हैं उनके चर खंडाओं करके घटियों के अंतर होते हैं अर्थात् सब जगह सब समय में एकवक्त वार नहीं लगता है शास्त्रोक्तविधि से वार प्रवेश देखा जाता है ॥ ११ ॥

बलप्रदस्य खेटस्य वारे सिध्यति यत्कृतम् ।

तत्कर्म बलहीनस्य दुःखेनापि न सिध्यति ॥ १२॥

बलदायक ग्रह के वार में जो कर्म किया जाय यह सिद्ध होता है। वही काम जो बलहीन ग्रह के वार में किया जाय तो परिश्रम होकर भी कार्य सिद्ध नहीं होता ॥ १२ ॥

बुधेंदुजीवशुक्राणां वासरः सर्वकर्मसु ।

सिद्धिदाः क्रूरेवारेषु यदुक्तं कर्म सिध्यति ॥ १३ ॥

बुध, चंद्र, बृहस्पति, शुक्र ये वार सब कामों में अच्छे हैं और क्रूरवारों में उग्र कर्म कहे हैं वे ही सिद्ध होते हैं ॥१३॥

रक्तवर्णो रविश्चन्द्रो गौरो भौमस्तु लोहितः॥

दूर्वावर्णो बुधो जीवः पीतः श्वेतस्तु भर्गवः ॥ १४ ॥

सूर्य लालवर्ण है चंद्रमा गौरवर्ण है मंगल लालवर्ण है। बुध हरितवर्ण है बृहस्पति का पीलवर्ण है शुक्र सफेदवर्ण है॥ १४॥

कृष्णः शैरिः स्ववारेषु स्वस्ववर्णाः क्रियाःशुभाः॥१५ ॥

शनैश्चर कालावर्ण है तहां अपने २ वर्णोके कामकरनेमें शुभ कहे हैं ।

अद्रि ७ बाणा ६ व्धय ४ स्तर्कं ६ तोयाकर ४ धराधराः ७॥

बाणा ५ ग्नि ३ लोचनानि २ स्यु र्वेद ४ बाहु २ शिलीमुखः ९॥ १६ ॥

अब कुलिक आदि योग कहते हैं रविवार को ७-५-४ इन प्रहरों में और चंद्रवार को ६-४-७ इन प्रहरों में मंगळवार को ५- ३-२- इन प्रहरों में बुध को ४-२-५- इन प्रहरों में ।। १६।।

लोके ३ न्दु १६ वसवो ८ नेत्र २ शैला ७ग्नी ३ न्दु १ रसो ६ रसः

कुलिका यमघंटाख्या अर्धप्रहरसंज्ञकाः॥१७ ॥

बृहस्पति को ३-१-८- इन प्रहरों में शुक्र को २-७-३-इन प्रहरों में शनि को १-६-६इन प्रहरों में यथाक्रम से कुलिक, यम घंटक, प्रहरार्द्ध अर्थात् वारवेला ये तीन योग होते हैं ।। १७ ।। ।

प्रहरार्धप्रमाणास्ते विज्ञेया सूर्यवासरात् ॥

यस्मिन्वारे क्षणो वार इष्टस्तद्वासराधिपः॥ १८॥

आद्यष्षष्ठो द्वितीयोऽस्मात्तस्मात्षष्ठस्तृतीयकः॥ ;

षष्ठषष्टश्चैतरेषां कालहोराधिपाः स्मृताः ॥ १९ ॥   

जिस वार के जो तीन प्रहर दिखाये हैं उनमें यथाक्रम से आधे २ प्रहर तक ये योग रहते हैं जैसे रविवार में ७ प्रहर में आधे प्रहर तक कुलिकयोग, फिर ५ प्रहर में यमघंटक, फिर ४ प्रहर में ४ घडी अर्ध प्रहर ( वारवेला ) ऐसे सभी में जानों ये शुभकर्म में निंदित हैं जिस वार में जिस वक्त जिसकी होरा आती है तब वह वार स्वामी होता है पहले तो वर्तमान वार फिर उससे छठा वार फिर उससे भी छठा वार फिर उससे छठ ऐसे छठे छठे वार की काल होरा होती है ॥ १८।। १९ ॥ ।

सार्धनाडीद्वयेनैवं दिवा रात्रौ यथाक्रमात् ।

यस्य खेटस्य यत्कर्म वारे प्रोक्तं विधीयते ।

ग्रहस्य कर्म वारेऽपि तत्क्षणे तस्य सर्वदा ॥ २० ॥

इति श्रीनारदीयसंहितायां वारलक्षणाऽध्यायः पंचमः॥ ५ ॥

दिनरात्रि में यथाक्रम से २॥ अढाई घडी की काल होरा जानना जिस ग्रह के वार में जो काम करना कहा है वही काम उसी वार की होरा में भी सदा कर लेना चाहिये जैसे रविवार को चंद्रमा की होरा आवै तब चंद्रवार के कार्य करने योग्य हैं ॥ । २० ॥

। इति श्रीनारदसंहिताभाषाटीकायां वारलक्षणाध्यायः पंचमः।। ५॥

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