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कर्मकाण्ड

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मातङ्गीसुमुखीकवच

मातङ्गीसुमुखीकवच 

सुमुखी देवी के समान शीघ्र फल देने वाली दूसरी कोई देवी नहीं हैं। उसके मन्त्र, स्तोत्र अथवा कवच के जप से मनुष्य के मनोरथ सिद्ध हो जाते हैं। मातङ्गीसुमुखीकवच के पाठ करने से सभी सिद्धियाँ प्राप्त होती हैं।

मातङ्गीसुमुखीकवचम्

मातङ्गीसुमुखीकवचम्

श्रीपार्वत्युवाच ।

देवदेव महादेव सृष्टिसंहारकारक ।

मातङ्ग्याः कवचं ब्रूहि यदि स्नेहोऽस्ति ते मयि ॥ १॥

श्री पार्वती बोली : हे देवदेव महादेव, सृष्टिसंहारकारक ! यदि आप का मुझ पर स्नेह है तो आप मातङ्गी देवी का कवच मुझे बतायें।

शिव उवाच ।

अत्यन्तगोपनं गुह्यं कवचं सर्वकामदम् ।

तव प्रीत्या मयाऽऽख्यातं नान्येषु कथ्यते शुभे ॥ २॥

शिवजी बोले : हे शुभे ! सब कामनाओं को देने वाला अत्यन्त गोप्य कवच मैं तुम्हारे प्रेम से तुम्हें बता रहा हूँ। इसे किसी दूसरे को नहीं बताना।

शपथं कुरु मे देवि यदि किञ्चित्प्रकाशसे ।

अनया सदृशी विद्या न भूता न भविष्यति ॥ ३॥

तुम शपथ लो कि तुम किसी से इसे नहीं कहोगी। इसके समान कोई विद्या नहीं हुई है न होगी।

शवासनां रक्तवस्त्रां युवतीं सर्वसिद्धिदाम् ।

एवं ध्यात्वा महादेवीं पठेत्कवचमुत्तमम् ॥ ४॥

लाल वस्त्र पहने शव पर बैठी हुई सब सिद्धियों को देने वाली युवती महादेवी का ध्यान करके उत्तम कवच का पाठ करें।

अथ मातङ्गी सुमुखी कवचम्

उच्छिष्टं रक्षतु शिरः शिखां चण्डालिनी ततः ।

सुमुखी कवचं रक्षेद्देवी रक्षतु चक्षुषी ॥ ५॥

महापिशाचिनी पायान्नासिकां ह्रीं सदाऽवतु ।

ठः पातु कण्ठदेशं मे ठः पातु हृदयं तथा ॥ ६॥

ठो भुजौ बाहुमूले च सदा रक्षतु चण्डिका ।

ऐं च रक्षतु पादौ मे सौः कुक्षिं सर्वतः शिवा ॥ ७॥

ऐं ह्रीं कटिदेशं च आं ह्रीं सन्धिषु सर्वदा ।

ज्येष्ठमातङ्ग्यङ्गुलिर्मे अङ्गुल्यग्रे नमामि च ॥ ८॥

उच्छिष्टचाण्डालि मां पातु त्रैलोक्यस्य वशङ्करी ।

शिवे स्वाहा शरीरं मे सर्वसौभाग्यदायिनी ॥ ९॥

उच्छिष्टचाण्डालि मातङ्गि सर्ववशङ्करि नमः ।

स्वाहा स्तनद्वयं पातु सर्वशत्रुविनाशिनी ॥ १०॥

मातङ्गी सुमुखी कवच फलश्रुति  

अत्यन्तगोपनं देवि देवैरपि सुदुर्लभम् ।

भ्रष्टेभ्यः साधकेभ्योऽपि द्रष्टव्यं न कदाचन ॥ ११॥

हे देवि ! यह देवताओं के लिए भी दुर्लभ, अत्यन्त गोपनीय कवच है। भ्रष्ट साधकों को इसे कभी नहीं दिखाना चाहिये।

दत्तेन सिद्धिहानिः स्यात्सर्वथा न प्रकाश्यताम् ।

उच्छिष्टेन बलिं दत्वा शनौ वा मङ्गले निशि ॥ १२॥  

रजस्वलाभगं स्पृष्ट्वा जपेन्मन्त्रं च साधकः ।

रजस्वलाया वस्त्रेण होमं कुर्यात्सदा सुधीः ॥ १३॥

इसे दूसरे को देने से सिद्धि को हानि पहुँचती है। किसी प्रकार भी इसका प्रकाशन नहीं करना चाहिये। रात्रि में जूठे मुँह मङ्गलवार या शनिवार को बलि देकर रजस्वला के भग को स्पर्श करके साधक को मन्त्र का जाप करना चाहिये, तथ उसे सदा रजस्वला के रजोवस्त्र से होम करना चाहिये।

सिद्धविद्या इतो नास्ति नियमो नास्ति कश्चन ।

अष्टसहस्रं जपेन्मन्त्रं दशांशं हवनादिकम् ॥ १४॥

इससे बढ़कर कोई सिद्ध विद्या नहीं है। इसके साधन में कोई नियम भी नहीं है। आठ हजार मन्त्र का जप करना चाहिये तथा तत्तद्दाशांश हवन, तर्पण, ब्राह्मण भोजन आदि करना चाहिये।

भूर्जपत्रे लिखित्वा च रक्तसूत्रेण वेष्टयेत् ।

प्राणप्रतिष्ठामन्त्रेण जीवन्यासं समाचरेत् ॥ १५॥

भोजपत्र पर इस मन्त्र को लिख कर लाल धागे से बाँध कर प्राणप्रतिष्ठा के मन्त्र से उसमें प्राणप्रतिष्ठा करें ।

स्वर्णमध्ये तु संस्थाप्य धारयेद्दक्षिणे करे ।

सर्वसिद्धिर्भवेत्तस्य अचिरात्पुत्रवान्भवेत् ॥ १६॥

तदनन्तर उसे सोने के यन्त्र में रखकर जो दाहिने हाथ में धारण करे उसे सभी सिद्धियाँ प्राप्त होती हैं। शीघ्र ही वह पुत्रवान भी होता है।

स्त्रीभिर्वामकरे धार्यं बहुपुत्रा भवेत्तदा ।

वन्द्या वा काकवन्द्या वा मृतवत्सा च साङ्गना ॥ १७॥

जीवद्वत्सा भवेत्सापि समृद्धिर्भवति ध्रुवम् ।

शक्तिपूजां सदा कुर्याच्छिवाबलिं प्रदापयेत् ॥ १८॥

स्त्री को इसे बाएँ हाथ में बाँधना चाहिये। इससे वह बहुत पुत्रों वाली होती है। चाहे बन्ध्या हो या जिसका बच्चा होकर मर जाता हो वह भी जीवित पुत्रों वाली होती है और उसे निश्चित रूप से समृद्धि प्राप्त होती है। शक्ति की सदा पूजा करनी चाहिये तथा शिवा को बलि देनी चाहिये।

इदं कवचमज्ञात्वा मातङ्गी यो जपेत्सदा ।

तस्य सिद्धिर्न भवति पुरश्चरणलक्षतः ॥ १९॥

इस कवच को बिना जाने जो मातङ्गी देवी का सदा जप करता है उसको लाख पुरश्चरण से भी सिद्धि नहीं प्राप्त होती।

॥ इति श्रीरुद्रयामले तन्त्रे मातङ्गीसुमुखीकवचं समाप्तम् ॥

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