षोडशी कवच
यह षोडशी (त्रिपुरसुन्दरी) कवच धन,
यश, आयु, भोग तथा मोक्ष
को देने वाला, दुःस्वप्न का नाशक, पुण्य, नर-नारी को वश में करने वाला आकर्षणकारक, स्तम्भनकारक
तथा उच्चाटनकारक है।
षोडशी (त्रिपुरसुन्दरी) कवचम्
देव्युवाच ।
भगवन्देवदेवेश लोकानुग्रहकारक ।
त्वत्प्रसादान्महादेव श्रुता
मन्त्रास्त्वनेकधा ।।१।।
साधनं विविधं देव कीलकोद्धरणं तथा ।
शापादिदूषणोद्धारः श्रुतस्त्वत्तो
मयाप्रभो ।।२।।
राजराजेश्वरीदेव्याः कवचं सूचितं
मया।
श्रोतुमिच्छामि त्वत्तस्तत्कथयस्व
दयानिधे ।।३।।
देवी बोली : हे देवदेवेश,
लोकानुग्रहकारक भगवन् महादेव! आपकी कृपा से मैंने अनेक प्रकार के
मन्त्र सुने; अनेक प्रकार के साधन भी सुने; कीलक का उद्धार भी सुना; शापादि दूषणों का उद्धार भी
सुना। हे प्रभो! जो मैंने राजराजेश्वरी देवी का कवच सूचित किया था उसे मैं सुनना
चाहती हूं। हे दयानिधे! कृपया आप उसे कहें।
ईश्वर उवाच।
लक्षवारसहस्राणि वारितासि पुनःपुनः
।
स्त्रीस्वभावात्पुनर्देवि पृच्छसि
त्वं मम प्रिये ।।४।।
अत्यन्तकवचं गुह्यं सर्वकामफलप्रदम्
।
प्रीतये तव देवेशि कथयामि श्रृणुष्व
तत् ।।५।।
ईश्वर बोले : हे प्रिये ! हजारों
लाखों बार मैंने तुम्हें पुनः पुनः मना किया फिर भी तुम स्त्रीस्वभाव से उसे पूछ
रही हो । यह कवच अत्यन्त रहस्यमय तथा सभी अभीष्टों का फल देने वाला है। हे देवेशि!
तुम्हारी प्रीति के लिए मैं कह रहा हूं , उसे
तुम सुनो।
षोडशी (त्रिपुरसुन्दरी) कवचम्
विनियोगः अस्य षोडशीकवचस्य
महादेवऋषिः प्रस्तारपंक्तिश्छन्दो राजराजेश्वरी महात्रिपुरसुन्दरी देवता
धर्मार्थकाममोक्षसाधने पाठे विनियोगः ।
पूर्वे मां भैरवी पातु बाला मां
पातु दक्षिणे ।
मालिनी पश्चिमे पातु त्रासिनी
तूत्तरेऽवतु ।।६।।
ऊर्ध्वं पातु महादेवी
महात्रिपुरसुन्दरी।
अधस्तात्पातु देवेशी पातालतलवासिनी
।।७।।
आधारे वाग्भवः पातु कामराजस्तथा
हृदि ।
डामरः पातु मां नित्यं मस्तके
सर्वकामदः ।।८।।
ब्रह्मरन्ध्रे सर्वगात्रे
छिद्रस्थाने च सर्वदा।
महाविद्या भगवती पातु मां परमेश्वरी
।।९।।
ऐं ह्रीं ललाटे मां पातु क्लीं
क्लुं सश्चनेत्रयोः ।
मे नासायां कर्णयोश्च द्रीं नै
द्रां द्रीं चिबुके तथा ।।१०।।
सौः पातु गले हृदये सहहीं
नाभिदेशके।
कलहीं क्लीं स्त्री गुह्यदेशे सहीं
पादयोस्तथा।।११।।
सहीं मां सर्वतः पातु सकली पातु
सन्धिषु ।
जले स्थले तथा काशे दिक्षु राजगृहे
तथा ।।१२।।
हूं क्षेमा त्वरिता पातु सहीं
सक्लीं मनोभवा ।
हंसः पायान्महादेवि परं निष्कलदेवता
।।१३।।
विजया मङ्गला दूती कल्याणी भगमालिनी
।
ज्वाला च मालिनी नित्या सर्वदा पातु
मां शिवा ॥१४॥
षोडशी (त्रिपुरसुन्दरी) कवच फलश्रुति
इत्येवं कवचं देवि देवानामपि
दुर्लभम् ।
तव प्रीत्या मयाख्यातं गोपनीयं
प्रयलतः ।।१५।।
हे देवि!
तुम्हारी प्रसन्नता के लिए इस कवच को मैंने तुम्हें बताया है। इसे प्रयल से
तुम्हें गुप्त रखना चाहिये।
इदं रहस्यं परमं गुह्याद्गुह्यतरं
प्रिये ।
धन्यं यशस्यमायुष्यभोगमोक्षप्रदं
शिवे ।।१६।।
हे प्रिये ! यह परम रहस्य तथा गुह्य
है। हे शिवे! यह धन, यश, आयु, भोग तथा मोक्ष को देने वाला है ।
दुःस्वप्ननाशनं पुण्यं
नरनारीवशङ्करम् ।
आकर्षणकरं देवि स्तम्भोच्चाटनकं
शिवे ।।१७।।
हे देवि ! यह दुःस्वप्न का नाशक,
पुण्य, नर-नारी को वश में करने वाला
आकर्षणकारक, स्तम्भनकारक तथा उच्चाटनकारक है।
इदं कवचमज्ञात्वा राजराजेश्वरी
पराम् ।
योर्चयेद्योगिनीवृन्दैः स भक्ष्यो
नात्र संशयः ।।१८।।
इस कवच को बिना जाने परा
राजराजेश्वरी की जो पूजा करता है उसे योगिनियाँ खा जाती हैं। इसमें कोई संशय नहीं
है।
न तस्य मन्त्रसिद्धिः स्यात्कदाचिदपि
शाङ्करि ।
इह लोके च दारिद्र्यं
रोगदुःखाशुभानि च ।।१९।।
परत्र नरकं गत्वा
पशुयोनिमवाप्नुयात् ।
तस्मादेतत्सदाभ्यासादधिकारी
भवेत्किल ।।२०।।
हे शांकरि! ऐसे व्यक्ति को सिद्धि
प्राप्त नहीं हो सकती। इस संसार में उसे दरिद्रता, रोग, दुःख, तथा अशुभ प्राप्त
होते हैं और परलोक में वह नरक में जाकर पशुयोनि प्राप्त करता है। इसलिए इसका सदा
अभ्यास करने वाला ही निश्चितरूप से अधिकारी हो सकता है।
महानिर्गतमिदं कवचं सुपुण्यं
पूजाविधिश्च पुरतो विधिना पठेद्यः ।
सौभाग्यभागललितानि शुभानि भुक्त्वा
देव्याः पदं भजति तत्पुरन्तकाले ।।२१।।
मेरे
मुख से निकले हुये पुण्यप्रद कवच तथा पूजाविधि को जो देवी के सामने विधि से पढ़ता
है,
वह सौभाग्य का भागी हो सुन्दर शुभ फलों का उपभोग करके अन्त में देवी
के परमपद को प्राप्त होता है।
इति कुलानन्दसंहितायां षोडशीकवचं समाप्तम्।
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