मन्त्रमहोदधि तरङ्ग ८
मन्त्रमहोदधि तरङ्ग ८ अष्टम तरङ्ग
में त्रिपुराबाला तथा उनके भेदों का विवेचन विस्तार से किया गया है।
मन्त्रमहोदधि अष्टम तरङ्ग
मन्त्रमहोदधिः अष्टमः तरङ्गः
मन्त्रमहोदधि तरङ्ग ८
अथ
अष्टमः तरङ्गः
अथ बालां प्रवक्ष्यामि मन्त्री
संसेव्य यां द्रुतम् ।
बृहस्पतिः
कुबेरश्च जायते विद्यया धनैः ॥१॥
अब बाला के विषय में बतलाता हूँ
उपासना कर साधक शीघ्र ही विद्या में बृहस्पति के समान तथा धन में कुबेर के समान हो
जाता है ॥१॥
बालात्रिपुरामन्त्रकथनम्
दामोदरश्चन्द्रयुत आद्यं
वाग्बीजमीरितम् ।
विधिर्वासवशान्तीन्दुयुक्तं
कामाभिधं परम् ॥२॥
संकर्षणविसर्गाढ्योभृगुस्तार्तीयमीरितम्
।
त्रिबीजीगदिता बाला
जगत्त्रितयमोहिनी ॥३॥
अब बाला मन्त्र का उद्धार
कहते हैं -
चन्द्र (अनुस्वार) के सहित दामोदर
(ऐ) अर्थात् ऐं यह प्रथम वाग्बीज, वासव (ल),
शान्ति (ई) तथा इन्द्र (अनुस्वार) से युक्त विधि (क्) अर्थात् क्ली
यह दूसरा कामबीज सङ्गर्षण (औ) तथा विसर्ग युक्त भृगु (सः) अर्थात् सौः यह तृतीय
बीज इस प्रकार ‘ऐं क्लीं सौः’ इन तीनों बीजों से युक्त बाला का
मन्त्र है जो तीनों लोकों का मोहन करने वाली है ॥२-३॥
दक्षिणामूर्तिपंक्ती च मुनिश्छन्दः
क्रमात्स्मृतम् ।
देवता त्रिपुराबाला मध्यान्ते
शक्तिबीजके ॥४॥
इस मन्त्र के दक्षिणामूर्ति ऋषि,
पंक्ति छन्द एवं त्रिपुरा बाला देवता हैं । मन्त्र का मध्य वर्ण
(क्लीं) शक्ति तथा अन्तिम (सौः) ‘बीज’ कहा
गया है ॥४॥
विमर्श - विनियोग - ‘अस्य श्रीत्रिपुराबालामन्त्रस्य दक्षिणामूर्त्तिऋषिः पंक्तिछन्दः
त्रिपुराबालादेवता क्लीं शक्तिः सौः बीजं ममाऽभीष्टसिद्ध्यर्थे जपे विनियोगः ॥४॥
न्यासविधिवर्णनम्
नाभेरापादमाद्यं तु नाभ्यन्तं
हृदयात् परम् ।
मूर्ध्निहृदन्तं तार्तीयं क्रमाद्
देहे प्रविन्यसेत् ॥५॥
शरीर के नाभि से लेकर पाद पर्यन्त
प्रथम बीज का, हृदय से लेकर नाभिपर्यन्त
द्वितीय बीज का, तथा शिर से आरम्भ कर हृदय पर्यन्त तृतीय बीज
का न्यास करना चाहिए ॥५॥
आद्यं वामकरे दक्षकरेऽन्यदुभयोः
परम् ।
पुनर्बीजत्रयम् न्यस्येन्मूर्ध्नि
गुह्ये च वक्षसि ॥६॥
इसके बाद बायें हाथ में प्रथम बीज
का,
द्वितीय हाथ में द्वितीय बीज का तदनन्तर दोनों हाथों में तृतीय बीज
का न्यास करना चाहिए । फिर मस्तक्, गुह्यस्थान एवं वक्षःस्थल
में क्रमशः एक एक के क्रम से तीनों बीजों का न्यास करना चाहिए ॥६॥
विमर्श - प्रथम न्यास विधि
- ॐ ऐं नमः,
नाभेः पादान्तम्,
ॐ क्लीं नमः,
हृदयान्नाभिपर्यन्तम्,
ॐ सौः नमः, मूर्ध्नि, हृदयान्तम् ।
द्वितीय न्यास विधि
- ॐ ऐं नमः,
वामकरे,
ॐ क्लीं नमः,
दक्षिण करे, ॐ सौः नमः, उभयोः करयोः ।
तृतीय न्यास विधि
- ॐ ऐं नमः मूर्ध्नि,
ॐ क्लीं नमः,
गुह्ये, ॐ सौः नमः, वक्षसि ।
नवयोन्यभिधे न्यासे नवकृत्वो मनुं
न्यसेत् ।
कर्णयोश्चिबुके
न्यस्येच्छंखयोर्मुखपंकजे ॥७॥
नेत्रयोर्नासिकायां च स्कन्धयोरुदरे
तथा ।
न्यसेत्कूर्पायोर्नाभौ
जानुनोर्लिङमस्तके ॥८॥
पादयोरपि गुह्ये च पार्श्वयोर्हृदये
पुनः ।
स्तनयोः कण्ठदेशे च वामाङगादि
प्रविन्यसेत् ॥९॥
अब नवयोनि संज्ञक न्यास कहते
हैं –
इस न्यास में एक एक मन्त्र को नौ
बार न्यस्त करन चाहिए । १. दोनों कान एवं दोनों चिबुक्म २. दोनों गण्ड एवं मुख,
३. दोनों नेत्र एवं नासिका, ४. दोनों कन्धे
एवं उदर, ५. दोनों कूर्पर एवं नाभि - ६. दोनों जानु एवं
लिङ्ग, ७. दोनों पैर एवं गुप्ताङ्ग, ८.
दोनों पार्श्व एवं हृदय, तदनन्तर ९. दोनों स्तन एवं कण्ठ में
न्यास करें । इसमें वामाङ्गक्रम से न्यास करना चाहिए ॥७-९॥
विमर्श - नव योनि न्यास विधि
इस प्रकार है -
ॐ ऐं नमः,
वामकर्णे ॐ क्लीं नमः,
दक्षिण कर्णे ॐ सौः
नमः, चिबुके
ॐ ऐं नमः,
वाम चिबुके ॐ क्लीं नमः,
दक्षिण चिबुके ॐ सौः
नमः, मुखे
ॐ ऐं नमः,
वाम नेत्रे ॐ क्लीं
नमः, दक्षिण नेत्रे
ॐ सौः नमः, नासिकायाम्
ॐ ऐं नमः,
वाम स्कन्धे ॐ क्लीं नमः, स्कन्धे ॐ सौः नमः, उदरे
ॐ ऐं नमः,
वाम कूर्परे ॐ क्लीं
नमः, कूर्परे
ॐ सौः नमः, नाभौ
ॐ ऐं नमः,
वाम जानौ ॐ क्लीं नमः,
जानौ ॐ सौः नमः,
लिङ्गोपरि
ॐ ऐं नमः,
वाम पादे ॐ क्लीं
नमः, पादे ॐ सौः नमः, गुह्ये
ॐ ऐं नमः,
वाम पार्श्वे ॐ क्लीं
नमः, पार्श्वे
ॐ सौः नमः, हृदि
ॐ ऐं नमः,
वाम स्तने ॐ नमः,
दक्षिण स्तने ॐ
सौः नमः, कण्ठे
वाग्भवाद्या रतिं गुह्ये
प्रीतिमन्त्यादिका हृदि ।
कामबीजादिकां न्यस्येद् भ्रूमध्ये
तु मनोभवा ॥१०॥
पुनर्वाङ्गत्यकामाद्यास्तिस्र
एष्वेव विन्यसेत् ।
अमृतेशीं च योगेशीं विश्वयोनिं
तृतीयकाम् ॥११॥
अब रतिन्यास कहते हैं -
वाग्भव बीज सहित रति को मूलाधार में,
अन्तिम बीज सहित प्रीति को हृदय में, कामबीज
सहित मनोभवा को भ्रूमध्य में न्यस्त करना चाहिए । इसी प्रकार वाग काम को आदि में
कर अन्त्य बीज कर अमेतंशी योगिनी तथा विश्वयोनि को न्यास करना चाहिए ॥१०-११॥
विमर्श - रतिन्यास विधि इस
प्रकार है -
ऐं रत्यै नमः,
गुह्ये,
ॐ सौः प्रीत्यै नमः, हृदि,
ॐ क्लीं मनोभवायै नमः,
भ्रूमध्ये ॐ ऐं
अमृतेश्यै नमः, गुह्ये,
ॐ क्लीं योगेश्यै नमः,
हृदि, ॐ सौः विश्वयोन्यैः, भ्रूमध्ये ॥१०-११॥
मूर्ध्नि
वक्त्रे हृदि न्यस्येद् गुह्ये चरणयोरपि ।
कामेशीपञ्चबीजाद्यान्स्मरान्
मनोभवादिकान् ॥१२॥
अब मूर्तिन्यास कहते हैं -
रत्यादिन्यास के बाद कामेशी के
पाँचों बीजों (द्र० - ७. १०९)) के साथ मनोभव आदि पाँच कामदेवों का न्यास क्रमशः
शिर्,
मुख, हृदय, गुप्ताङ्ग और
पैरों पर करना चाहिए ॥१२॥
विमर्श - मूर्तिन्यास की विधि
इस प्रकार है - ॐ ह्रीं मनोभवाय नमः, शिरसि,
ॐ क्लीं कमरध्वजाय नमः,
गुह्ये, ॐ ऐं कन्दर्पाय नमः, हृदि,
ॐ ब्लूं मन्मथाय नमः,
गुह्ये, ॐ स्त्रीम कामदेवाय नमः, चरणयोः ॥१२॥
शिरः पन्मुखगुह्येषु ह्रुदये
पञ्चदेवताः ।
द्राविण्याद्दाः क्रमान्
न्यस्येद् बाणेशीबीजपूर्विकाः ॥१३॥
अब कामेशी का न्यास कहकर बाणेशी
के न्यास का प्रकार कहते हैं ।
बाणेशी के बीजों को प्रारम्भं में
लगाकर द्राविणी आदि का क्रमशः शिर, परि,
मुख, गुप्ताङ्ग एवं हृदयं में न्यास करे ॥१३॥
विमर्श - बाणन्यास विधि इस
प्रकार है -
द्रां द्राविण्यै नमः,
शिरसि, द्रीं क्षिभिण्यै नमः, पादयोः,
क्लीं वशीकरण्यै नमः,
मुखे ब्लूं आकर्शण्यै
नमः, गुह्ये,
सः सम्मोहन्यै नमः,
हृदि ॥१३॥
तार्तीयवाग्मध्यगेन कामेन स्यात्
षडङ्गकम् ।
षड्दीर्घस्वरयुक्तेन ततो देवीं
विचिन्तयेत् ॥१४॥
अब षडङ्गन्यास कहते हैं -
तार्तीय (सौः) वाग्भव (ऐं) इन दोनों के मध्य में ६ दीर्घ संयुक्त काम बीज (क्लीं)
से षडङ्गन्यास करना चाहिए ॥१४॥
विमर्श - षडङ्गन्यास विधि इस
प्रकार है -
सौः क्लां ऐं हृदयाय नमः, सौ क्लीं ऐं शिरसे स्वाहा,
सौः क्लूं ऐं शिखायै वषट्, सौः क्लैं ऐं कवचाय हुम्,
सौं क्लौं ऐं नेत्रत्रयाय वौषट्, सौः क्लः ऐं अस्त्राय फट्
॥१४॥
ध्यानकथनम्
रक्ताम्बरां चन्द्रकलावतंसां
समुद्यदादित्यनिभां त्रिनेत्राम् ।
विद्याक्षमालाभयदानहस्तां ध्यायमि
बालामरुणाम्बुजस्थाम् ॥१५॥
अब बाला देवी का ध्यान कहते
हैं -
लाल वस्त वाली मस्तक पर चन्द्रकला
से सुशोभित, उदीयमान सूर्य के समान आभा से
युक्त चारों हाथों में क्रमशः पुस्तक, अक्षमाला, अभय एवं वरद मुद्रा धारण की हुई रक्त कमल पर विराजमान बाला देवी का मैं
ध्यान करता हूँ ॥१५॥
लक्षत्रयं जपेन्मन्त्रं दशांशं
किंशुकोद्भवैः ।
पुष्पैर्हयारिजैर्वापि
जुहुयान्मधुरान्वितः ॥१६॥
इस मन्त्र का तीन लाख जप करना चाहिए
तथा मधु सहित पलाश या कनेर के पुष्पों से दशांश होम करना चाहिए ॥१६॥
पूजायन्त्रवर्णनम्
नवयोन्यात्मंक यन्त्रं
बहिरष्टदलावृतम् ।
भूगृहेण पुनर्वीत पूजनाय लिखेत्
सुधीः ॥१७॥
मध्ययोनौ तु तार्तीयमष्टयोनिषु
मन्मथम् ।
केसरेषु स्वरान्न्यस्येद्वर्गानष्टौ
दलेष्वपि ॥१८॥
दलाग्रेषु त्रिशूलानि पद्मं
मातृकायावृतम् ।
एवं विलिखिते यन्त्रे पीठशक्तिः
प्रपूजयेत् ॥१९॥
अब बाला यन्त्र निर्माण विधि
कहते हैं - विद्वान् साधक नव योनि वाले यन्त्र के बाहर अष्टदल को भूपुर से वेष्टित
कर पूजा के लिए यन्त्र लिखे ।
मध्य योनि में तृतीय (सौः) बीज तथा
शेष आठ योनियों में काम बीज (क्लीं) केशरों में स्वर एवं आठ दलों में आठ वर्ग
लिखाअ चाहिए । दलों के अग्रभाग में त्रूसूलादि पद्म आदि लिखकर अष्टदल के चारों ओर
मातृका (वर्णमाला) से घेर देना चाहिए । इस प्रकार से बने यन्त्र पर पीठ शक्तियों
का पूजन करना चाहिए ॥१७-१९॥
रतीरतिप्रियानन्दामनोन्मन्यपि
चान्तिमा ॥२०॥
पीठशक्तिरिमा इष्ट्वा पीठं तं
मनुना दिशेत् ।
अब पीठशक्तियाँ कहते हैं-
१. इच्छा,
२. ज्ञान, ३. क्रिया, ४.
कामिनी, ५. कामदायिनी, ६. रति, ७. रतिप्रिया ८. नन्दा एवं ९. मनोन्मनी इन नौ पीठ शक्तियों की केशरों पर
पूर्वादि क्रम से चतुर्थ्यन्त नमः लगाकर आठ दिशाओं में पूजा करें तथा मध्य में ‘ॐ मनोन्मन्यै नमः’ से पूजा करें - पूजा कर पीठ
मन्त्र से देवी को आसन देना चाहिए ॥२०-२१॥
पीठमन्त्रकथनम्
व्योमपूर्वं तु तार्तीयं
सदाशिवमहापदम् ॥२१॥
प्रेतपद्मासनं ङ्गेत नमोन्तः
पीठमन्त्रकः ।
षोडशार्णस्ततो मूर्त्तौं
क्लृप्तायां मूलमन्त्रतः ॥२२॥
आवाहय पूजयेद् देवीमुपचारैः
पृथग्विधैः ।
व्योम (ह्) पूर्वक तृतीय बीज ‘सौ’ अर्थात् (ह्सौः) फिर ‘सदाशिव
महा’, तदनन्तर चतुर्थ्यन्त प्रेतपद्मासन (सदाशिव
महाप्रेतपद्मासनाय)उसमें ‘नमः’ लगाने
से सोलह अक्षरों का पीठ मन्त्र बनता है । फिर मूल मन्त्र से मूर्ति की कल्पना कर
देवी की आवाहनादि द्वारा विधान से पूजा करनी चाहिए ॥२१-२३॥
देवीमिष्टवा मध्ययोनौ त्रिकोणे
रतिपूर्विकाः ॥२३॥
वामकोणे रतिं दक्षे प्रीतिमग्रे
मनोभवाम् ।
देवी की पूजा के अनन्तर मध्य योनि
के त्रिकोण में रति आदि का पूजन इस प्रकार करना चाहिए । वामकोण मे रति दक्षिण में
प्रीति तथा अग्रभाग में मनोभवा का पूजन करना चाहिए ॥२३-२४॥
अङ्गपूजाकथनम्
योन्यन्तर्वहिनकोणादावङ्गानि
परिपूजयेत् ॥२४॥
मध्ययोनेर्बहिः पूर्वा दिक्षु
चाग्रे स्मरानपि ।
अब अङ्गपूजा कहते हैं - मध्य
योनि के मध्य में एवं अग्निनिऋति वायव्य ईशान कोण में क्रमशः हृदय,
शिर, शिखा तथा कवच का पूजन कर पुनः आग्नेय,
वायव्य और ईशान में अस्त्र का पूजन करना चाहिए । मध योनि के बाहर
पूर्वादि दिशाओं में एवं अग्रभाग में कामदेवों का पूजन करे और इसी प्रकार
बाणदेवियों (द्राविणी आदि) का भी पूजन करना चाहिए ॥२४-२५॥
बाणदेवीस्तद्वदेवं शक्तिरष्टसु
योनिषु ॥२५॥
सुभगाख्या भगापश्चात्
तृतीयाभगसर्पिणी ।
भगमाली तथानङ्गानङ्गाद्याकुसुमापरा
॥२६॥
अनङ्गमेखलानङ्गमदनेत्यष्टशक्तयः ।
फिर आठ योनियों मे आठ शक्तियों १.
सुभगा,
२. भगा, ३, भगसर्पिणी,
४. भगमाली, ५. अनङ्गा, ६.
अनङ्गकुसुमा, ७. अनङमेखला एवं ८. अनङ्गमदना आदि का पूजन करना
चाहिए ॥२५-२७॥
पद्मकेसरगाब्राह्मीमुखाः पत्रेषु
भैरवाः ॥२७॥
दीर्घाद्यामातरः पूज्या
ह्रस्वाद्याश्चाष्टभैरवाः ।
पद्म केसर पर ब्राह्यी आदि देवियों
का,
तथा पत्रों पर असिताङ्गदि भैरवों का, पूजन
करना चाहिए । आदि में अनुस्वार तथा दीर्घ स्वर लगाकर मातृकाओं का, तथा आदि सानुस्वार हृस्व स्वर लगा कर आठ भैरवों का पूजन करना चाहिए
॥२७-२८॥
दलाग्रेष्वष्टपीठानि
कामरुपाख्यमादिमम् ॥२८॥
मलयं कोल्लगिर्य्याख्यं चौहाराख्यं
कुलान्तकम् ।
जालन्धरं तथोड्यानं
कोढ्ढपीठमथाष्टमम् ॥२९॥
दल के अग्रभाग पर आठ पीठ १. कामरुप,
२. मलय, ३. कोल्लगिरि, ४.
चोहार. ५. कुलान्तक, ६. जालन्धर, ७.
उड्ड्यान, एवं ८. कोट्ट का पूजन करना चाहिए ॥२८-२९॥
भूगृहे दशदिक्ष्वर्चेद्धेतुकं
त्रिपुरान्तकम् ।
वेतालमग्निजिहवं च कालान्तककपालिनौ
॥३०॥
एकपादं भीमरुपं मलयं हाटकेश्वरम्
।
भूपुर के दश दिशाओं में १. हेतुक,
२. त्रिपुरान्तक, ३. वेताल, ४. अग्निजिहवा, ५. कालान्तक, ६.
कपाली, ७. एकपाद, ८. भीमरुप. ९. मलय
एवं १०. हाटकेश्वर का पूजन करना चाहिए ॥३०-३१॥
शक्राद्यानायुधैः सार्द्धं
स्वस्वदिक्षु समर्चयेत् ॥३१॥
तद्बहिर्दिक्षु बटुकं योगिनीक्षेत्रपालकम्
।
गणेशं विदिशास्वर्चेद् वसून्
सूर्याञ्छिवांस्ततः ॥३२॥
भूतांश्चेत्थं भजेद् बालानीशः
स्याद् धनविद्ययोः ।
इसी प्रकर वज्रादि आयुधों के साथ
इन्द्रादि दश दिक्पालों का अपनी अपनी दिशाओं में पूजन करना चाहिए । इसके बाद
दिशाओं में वटुक, योगिनी, क्षेत्रपाल एवं गणेश का तथा चारों कोणों में वसु, सूर्य,
शिवा एवं भूतों का पूजन करना चाहिए । इस प्रकार धन और विद्या की
स्वामिनी बाला की पूजा करनी चाहिए ॥३१-३३॥
विमर्श - आवरण पूजा विधि
- पीठ की पूजा कर मूल मन्त्र से देवी की
मूर्ति की कल्पना कर ध्यान करें । तदनन्तर आवाहनादि उपचार से आरम्भ कर पुष्पाञ्जलि
दान पूर्वक उनकी पूजा करें । तदनन्तर सर्वप्रथम मध्ययोनि में त्रिकोण में रति आदि
की पूजा करें । यथा –
ऐं रत्यै नमः,
वामकोणे, क्लीं प्रीत्यै नमः, दक्षिण कोणे,
सौः मनोभवायै नमः,
अग्रे ।
पुनः मध्य योनि के आग्नेय कोण
से प्रारम्भ कर ईशान कोण तक मध्य में एवं दिशाओं में षडङ्ग पूजा इस प्रकार करें -
सौः क्लां ऐं हृदयाय नमः, सौः क्लीं ऐं शिरसे स्वाहा,
सौः क्लूं ऐं शिखायै वषट्, सौः क्लैं ऐं कवचाय हुम्,
सौः क्लौं ऐं नेत्रत्रया वौषट्
पुनः सौः क्लः ऐं अस्त्राय फट्
।(चतुःकोणेषु)
तपश्चात् मध्य योनि के बाहर
पूर्वादि चारों दिशाओं में तथा अग्रभाग में इस प्रकार पूजा करें –
ह्रीं कामाय नमः, क्लीं मन्मथाय नमः,
ऐं कन्दर्पाय नमः, ब्लूं मकरध्वजाय नमः, स्त्रीं मीनकेतने नमः,
प्रकार पूजा करें - ह्रीं कामाया
नमः, क्लीं मन्मथाय नमः,
ऐं कन्दर्पाय नमः, ब्लूं मकरध्वजाय नमः, स्त्रीं मीनकेतने नमः,
पुनः उन्हीं स्थानो में द्राविणी
आदि देवियों की पूजा करे -
द्रां द्राविण्यै नमः, द्रें क्षोभिण्यै नमः, क्लीं वशीकरण्यै नमः,
ब्लूं आकर्षन्यै नमः, सः सम्मोहन्यै नमः,।
तदनन्तर अष्टयोनियों में सुभगा आदि
आठ शक्तियों की पूजा करे -
१ - ॐ ऐं क्लीं ब्लूं स्त्रीं सः
सुभगायै नमः,
२ - ॐ ऐं क्लीं ब्लूं स्त्रीं सः
भगयायै नमः,
३ - ॐ ऐं क्ली ब्लूं स्त्रीं सः
भगसर्पिण्यै नमः,
४ - ॐ ऐं क्लीं ब्लूं स्त्रीं सः
भगमालिन्यै नमः,
५ - ॐ ऐं क्लीं ब्लूं स्त्रीं सः
अनङ्गायै नमः,
६ - ॐ ऐं क्लीं ब्लूं स्त्रीं सः
अनङ्गसुमायै नमः,
७ - ॐ ऐं क्लीं ब्लूं स्त्रीं सः
अनमेखलायै नमः,
८ - ॐ ऐं क्लीं ब्लूं स्त्री सः
अनङ्गमदनायै नमः,
तदनन्तर पद्मकेशरों में पूर्वादि
दिशाओं के क्रम से ब्राह्यी आदि मातृकाओं की -
ॐ आं ब्राह्ययै नमः ॐ ईं माहेश्वर्यै नमः ॐ ऊं कौमार्यै नमः
ॐ ऋं वैष्णव्यै नमः ॐ लृं वाराह्यै नमः ॐ ऐं इन्द्राण्यै नमः,
ॐ औं चामुण्डायै नमः, ॐ अः महालक्ष्म्यै नमः,
तत्पश्चात् दलों में उसी प्रकार पूर्वादि
क्रम से असिताङ्गादि अष्ट भैरवों का -
१. ॐ अं असिताङ्गभैरवाय नमः, २. ॐ इं रुरुभैरवाय नमः,
३. ॐ उं चण्डभैरवाय नमः, ४. ॐ ऋं क्रोधभैरवाय
नमः,
५. ॐ लृँ उन्मत्तभैरवाय नमः, ६. ॐ एं कपालीभैरवाय
नमः,
७. ॐ ओं भीषणभैरवाय नमः, ८. ॐ अः संहारभैरवाय नमः,
इसके बाद दलों के अग्रभाग में
पूर्वादि क्रम से आठ पीठों का-
१ - ॐ कामरुपपीठाय नमः, २ - ॐ मलयगिरिपीठाय नमः,
३ - ॐ कोल्लागिरिपीठाय नमः, ४ - ॐ चौहारपीठाय नमः,
५ - ॐ कुलान्तपीठाय नमः ६ - ॐ जानन्धरपीठाय नमः,
७ - ॐ उड्डयानपीठाय नमः, ८ - ॐ कोट्टपीठाय नमः,
इसके पश्चात् भूपुर में पूर्व आदि
दिशाओं के क्रम से दश दिशाओं में हेतुक आदि दश गणों का यथा -
ॐ हेतुकाय नमः, ॐ त्रिपुरान्तकाय नमः,
ॐ वेतालाय नमः, ॐ अग्निजिहवाय नमः, ॐ कालान्तकाय नमः,
ॐ कपालिने नमः, ॐ एकपादाय नमः, ॐ भीमरुपाय नमः,
ॐ मलयाय नमः, ॐ हाटकेश्वराय नमः,
पुनः भूपुर के पूर्वादि दिशाओं में
वज्रादि आयुधों के सहित इन्द्रादि दश दिक्पालों का यथा -
ॐ वज्रसहिताय इन्द्राय नमः,
पूर्वे, ॐ शक्तिसहिताय अग्नये नमः, आग्नेये,
ॐ दण्डसहिताय यमाय नमः,
दक्षिणे, ॐ खड्गसहिताय निऋतये नमः, नैऋत्ये,
ॐ पाशसहिताय वरुणाय नमः,
पश्चिमे, ॐ अंकुशसहिताय वायवे नमः, वायव्ये,
ॐ गदासहिताय सोमाय नमः,
उत्तरे ॐ शूलसहिताय
ईशानाय नमः, ऐशान्ये,
ॐ पद्मसहिताय ब्रह्मणे नमः,
पूर्वेशानयोर्मध्ये,
ॐ चक्रसाहिताय अनन्ताय नम्ह निऋति पश्चिमयोर्मध्ये ।
भूपुर के बाहर पूर्वादिदिशाओं के
क्रम से बटुक आदि का
ॐ बं बटुकाय नमः,
पूर्वे, ॐ क्षं क्षेंत्रपालाय नमः, दक्षिणे,
ॐ यं योगिनीभ्यो नमः,
पश्चिमे, ॐ गं गणपतये नमः, उत्तरे,
पुनः
ॐ वसुभ्यो नमः,
आग्नेये, ॐ शिवाभ्यो नमः, नैऋत्ये,
ॐ आदित्येभ्यो नमः,
वायव्ये, ॐ भूतेभ्यो नमः, ऐशान्ये ।
इस प्रकार आवरण पूजा कर पुष्पाञ्जलि
समर्पित करें । तदनन्तर देवी की षोडशोपचार से पूजा करनी चाहिए । नैवेद्य समर्पित
करत समय श्री विद्यापद्धति के अनुसार चारो बलि उसी सम्य देनी चाहिए । इस विधि से
पूजन कर यथाशक्ति प्रतिदिन जप करना चाहिए ॥२३-३३॥
फलानुसारेण प्रयोगकल्पना
रक्ताम्भोजैर्हुतेनार्यो वश्याः
स्युः सर्षपैर्नृपाः ॥३३॥
अब काम्य प्रयोग कहते हैं -
लाल कमलों के होम से स्त्रियाँ वश मे हो जाती हैं तथा सरसों के होम से राजा वश में
हो जाते हैं ॥३३॥
नन्द्यावर्तराजवृक्षैः कुन्दैः
पाटलचम्पकैः ।
पुष्पैर्बिल्वफलैर्वापि
होमाल्लक्ष्मीः स्थिरा भवेत् ॥३४॥
तगर, राजवृक्ष, कुन्द, गुलाब या
चम्पा के फूलों से अथवा विल्व फलों से होम करने से लक्ष्मी स्थिर रहती हैं ॥३४॥
अपमृत्युं
जयेन्मन्त्री गुडूच्यादुग्धयुक्तया ।
पयोक्तदूर्वाहोमात्तु नीरोगायुः
समश्नुते ॥३५॥
दूध वाली गुडूची होम करने से साधक
अपमृत्यु पर विजय प्राप्त कर लेता है । दूध में डुबोई गई दूर्वा के होम से साधक
निरोग रहकर अपनी आयु व्यतीत करता है ॥३५॥
ज्ञानं कवित्वं लभते
चन्द्रागुरुपुरैर्हुतैः ।
द्विजेन्द्रा वश्यतां यान्ति
कुसुमैरपराजितैः ॥३६॥
कल्हारैः क्षत्रियाः कर्णिकारजैः
क्षितिपाङ्गनाः ।
कोरण्टकुसुमैर्वेश्याः पादजाः
पाटलैर्हुतैः ॥३७॥
चन्दन, अगर एवं गुग्गुलं के होम के ज्ञान ईवं कवित्वशक्ति प्राप्त होता है तथा अपराजिता नामक लता के पुष्पों के होम से श्रेष्ठ ब्राह्मण वश में हो जाते हैं । कल्हार पुष्पों के हवन से क्षत्रिय तथा कर्णिकार के होम से क्षत्रियोम की स्त्रियाँ, कुरण्ट पुष्पों के होम से वैश्य तथा गुलाब के होम से शूद्र वश में हो जाता है ॥३६-३७॥
पालाशपुष्पैर्वाक्सिद्धिरन्नाप्तिर्भक्तहोमतः
।
सारघक्षीरदध्यक्ताल्लाँजान्
हुत्वा रुजो जयेत् ॥३८॥
पलाश पुष्प के होम से वाक्सिद्धि
तथा भात के होम से अन्न प्राप्ति होती है । मधु, दूध, एवं दही लाजा होम से समस्त रोग दूर हो जाते हैं
॥३८॥
वश्यकरतिलककथनम्
रक्तचन्दनकर्पूरकर्चूरागुरुरोचनाः ।
चन्दनं केसरं मांसी क्रमाद्
भागैर्नियोजयेत् ॥३९॥
भूमिचन्द्रैकनन्दाब्धिदिक्सप्तनिगमोन्मितः
।
श्मशाने कृष्णभूतस्य निशि
नीहारपाथसा ॥४०॥
कुमार्या पेषयेत्तानि मन्त्रेणाप्यभिमन्त्रयेत्
।
विदध्यात्तिलकं तेन दर्शनाद्
वशयेज्जनान् ॥४१॥
गजसिंहादिभूतानि राक्षसाञ्छाकिनीरपि
।
प्रयोगेष्वेषु कथ्यन्ते क्रमाद्
ध्यानानि सिद्धये ॥४२॥
एक भाग लाल चन्दन १ भाग कपूर,
१ भग कर्चूर, ९ भाग अगर, ४ भाग गोरोचन, १० भाग चन्दन, ७
भाग केशर तथा ४ भाग जटामांसी एक में मिला लेना चाहिए । फिर कृष्णपक्ष की चतुर्दशी
को श्मशानि या चौराहे पर ओस के जल से कुमारी कन्या द्वारा पिसवा कर उसके उक्त
मन्त्र द्वारा अभिमन्त्रित कर तिलक लगावे तो मनुष्य की कौन कहे हाथी, सिंह, भूत, राक्षस एवं शाकिनी
आदि सभी उसके वश में हो जाते हैं ॥३९-४२॥
अब विविध प्रयोगों में सिद्धि के
लिए देवी के विविध ध्यानों क क्रमशः निर्देश करते हैं ॥४२॥
फलान्तरानुरोधाद्धयानभेदेन
वर्णनम्
मातुलिङ्गपयोजन्महस्तां
कनकसन्निभाम् ।
पद्मासनगतां बालां लक्ष्मीप्राप्तौ
विचिन्तयेत् ॥४३॥
लक्ष्मी प्राप्ति के लिए ध्यान
- अपने दोनों हाथों में बीजपूर तथा कमल
धारण करने वालो सुवर्ण के समान जगमगाती हुई पद्मासन पर विराजमान बाला का लक्ष्मी
प्राप्ति के लिए ध्यान करना चाहिए ॥४३॥
वरपीयूषकलशपुस्तकाभीतिधारिणीम् ।
सुधां स्त्रवन्तीं ज्ञानाप्तौ
ब्रह्मरन्ध्रे विचिन्तयेत् ॥४४॥
ज्ञान प्राप्ति के लिए ध्यान - अपने चारों हाथों में वरद मुद्रा, अमृत कलश, पुस्तक एवं अभयमुद्रा धारण करने वाली, अमृत की धारा बहाने वाली (त्रिपुरा) बाला का ज्ञानप्राप्ति के लिए ब्रह्मरन्ध्र में ध्यान करना चाहिए ॥४४॥
शुक्लाम्बरां शशांकाभा रोगनाशे
स्मरेच्छिवाम् ।
अकारादिक्षकारान्तवर्णावयवरुपिणीम्
॥४५॥
रोगनाश के लिए ध्यान - शुक्ल वर्ण का अम्बर धारण की हुई, चन्द्रमा के समान कान्तिमती, अकार से लेकर क्षकार पर्यन्त वर्णरुप अङ्गावयवों वाली त्रिपुरा बालाम्बा का रोगनाश के लिए ध्यान करना चाहिए ॥४५॥
सृणिपाशधरां देवीं
रत्नालङ्कारभूषिताम् ।
प्रसन्नामरुणां ध्यायेद्
वशीकरणसिद्धये ॥४६॥
वशीकरण के लिए ध्यान
- दोनों हाथों में अंकुश एवं पाश धारण
किये हुए,
रत्नों के आभूषणों से देदीप्यमान, प्रसन्नवदना,
अरुण कान्ति वाली बाला का वशीकरण के लिए ध्यान करना चाहिए ॥४६॥
अथ प्रत्येकमन्त्रस्य जपध्यानविधिं
ब्रुवे ।
शापोद्धारप्रकारं च बीजानां
दीपिनीरपि ॥४७॥
अब एक एक बीज के जप एवं ध्यान की
विधि कहते हैं तथा शापोद्धार का प्रकार एवं बीजों की उद्दीपन विधि कहते हैं ॥४७॥
वाग्बीजध्यानम्
विद्याक्षमालासुकपालमुद्रा
राजत्करां कुन्दसमानकन्तिम् ।
मुक्ताफलालङ्ग्कृतिशोभोताङ्गी
बालां स्मरेद् वाड्मयसिद्धिहेतोः ॥४८॥
वाग्बीज का ध्यान
- पुस्तक अक्षमाला,
न्टकपाल एवं ज्ञानमुद्रा से सुशोभित चतुर्भुजा, कुन्दपुष्प के समान कान्तिमती, मोती के अलङ्गारों
से सुशोभित अङ्गों वाली त्रिपुरा बाला
वाङ्गमय सिद्धि के लिए ध्यान करना चाहिए ॥४८॥
ध्यात्वैवं वाग्भवं लक्षत्रयं
शुक्लाम्बरावृतः ।
शुक्लचन्दनालिप्ताङ्गो
मौक्तिकाभरणान्वितः ॥४९॥
जपित्वा तद्दशांशेन
पालाशकुसुमैर्नवैः ।
जुहुयान्मधुराक्तैर्यः स
कविर्युवतिप्रियः ॥५०॥
श्वेत वस्त्र पहन कर,
श्वेत चन्दन लगाकर, मुक्ता निर्मित आभूषण धारण
कर, साधल बाला का ध्यान कर वाग्भव बीज (ऐं) का तीन लाख जप
करें तथा जप के अनन्तर मधुमिश्रित नवीन पालाश पुष्पों से जप के दशांश से होम करें
तो वह श्रेष्ठ कवि एवं समस्त युवतियों का प्रिय हो जाता है ॥४९-५०॥
भजेत् कल्पवृक्षाय उद्दीप्तरत्नासने
सन्निषण्णां मदाधूर्णिताक्षीम् ।
करैर्बीजपूरं कपालेषु चापं
सपाशांकुशां दधानाम् ॥५१॥
अब कामबीज का ध्यान कहते हैं
- कल्पवृक्ष ल्के नीचे देदीप्यमान रत्नसिंहासन पर विराजमान मद के कारण मदमत्त
नेत्रों वाली, अपने छः हाथों में वीजपूर (विजौरा)
कपाल, धनुष, बाण तथा पाश और अंकुश धारण
करने वाली रक्तवर्णा देवी का मैं ध्यान करता हूँ ॥५१॥
ध्यात्वा देवीं जपेल्लक्षत्रयं यो
मध्यबीजकम् ।
रक्तवस्त्रावृतो रक्तभूषणो
रक्तलेपनः ॥५२॥
दशांशं
मालतीपुष्पैश्चन्द्रचन्दनलोलितैः ।
जुहुयात्तस्य वश्याः स्युस्त्रिलोकीजनताः
क्षणात् ॥५३॥
लाल वस्त्र और लाल आभूषण धारण कर
एवं रक्तचन्दन का तिलक लगाकर देवी के उक्त स्वरुप का ध्यान कर जो साधक काम बीज का
तीन लाख जप करता है तथा कपूर एवं लाल चन्दन मिश्रित मालती पुष्पों से दशांश होम
करता है उसके वश में त्रिलोकी के समस्त जीव अपने आप हो जाते हैं ॥५२-५३॥
तृतीयबीजध्यानम्
व्याखयनमुद्रामृतकुम्भविद्या
मक्षस्रजं सन्दधतीं कराग्रैः
चिद्रुपिणीं शारदचन्द्रकान्तिं
बालां स्मरेन् मौक्तिकभूषिङ्गीम् ॥५४॥
अब तृतीय बीज का ध्यान कहते
हैं - चारो हाथों में क्रमशः व्याख्यान मुद्रा, अमृतकलश, पुस्तक और अक्षमाला धारण की हुई, शरच्चन्द्र्म के समान आभा वाली तथा मुक्ताभरण मण्डित श्री बाला का ध्यान
करना चाहिए ॥५४॥
ध्यात्वैवं चरमं बीजं
जपेल्लक्षत्रयं सुधीः ।
सितवस्त्रानुलेपाढ्यमात्मानां
देवताम स्मरेत् ॥५५॥
मालतीकुसुर्मर्हुत्वा
चन्दनाक्तैर्दशांशतः ।
लक्ष्मीं विद्यासुकीर्तीनामाधारो
जायतेऽचिरात् ॥५६॥
श्वेत वस्त्र पहन कर,
श्वेत चन्दन का अनुलेप कर, अपने को स्वयं
देवता मानते हुये जो साधक देवी के उक्त स्वरुप का ध्यान कर बाला के तृतीय बीज का
तीन लाख जप करता हैं तदनन्तर श्वेत चन्दन मिश्रित मालती पुष्पों से दशांश होम करता
है वह शीघ्र ही लक्ष्मी, विद्या और कीर्ति का सप्तात्र हो
जाता है ॥५५-५६॥
देव्या शप्ता कीलिता च विद्येयं
तन्न सिद्धिदा ।
शापोद्धारमथोत्कीलं
विद्याय जपमाचरेत् ॥५७॥
अतः यह विद्या (मन्त्र) देवी के
द्वारा शापग्रस्त एवं कीलित है । इस कारण यह सिद्धिदायक नहीं है । इसलिए जप करने
से पूर्व इसका शापोद्धार एवं उत्कीलन अवश्य कर लेना चाहिए ॥५७॥
योजयेदादिबीजेन वराहभृगुपावकान् ।
मध्यमादौ नभोहंसौ मध्यमा तेन पावकम्
॥५८॥
आदावन्ते च तार्तीये क्रमात् खं
धूमकेतनम् ।
एवं जप्ता शतं विद्या शापहीना
फलप्रदा ॥५९॥
अब शापोद्धार का प्रकार कहते
हैं - प्रथम बीज के आगे वराह (ह्), भृगु
(स) एवं पावक (र) जोड देना चाहिए । इस प्रकार प्रकार यह बीज ‘हस्नौं’ बना जाता हैं, मध्यम
द्वितीय बीज के आगे नम (ह्) हंस (स्) तथा मध्यमा के अन्त में पावक (र्) जोड देना
चाहिए । इस प्रकार द्वितीय बीज ‘हंस्कल रीम’ कूट बन जाता है । तुतीय बीज के आदि में ख (ह्) तथा अन्त में धूमकेतन (र्)
लगाना चाहिए । इस प्रकार यह बीज ह्स्रौ’ बन जाता है । इस
मन्त्र का १०० बार जप कर अबाला का शाप दूर करना चाहिए ॥५८-५९॥
यद्वाद्ये चरमे बीजे नैव रेफं नियोजयेत्
।
शापोद्धारप्रकारोऽन्यो यद्वायं
कीर्तितो बुधैः ॥६०॥
अथवा आद्य एवं अन्त्य बीज से रेफ्
निकाल देना चाहिए और मध्यम बीज को यथावत् रखना चाहिए । इस प्रकार निष्पन्न मन्त्र
का जप बाला के शाप का उद्धार कर देता है ऐसा विद्वानों ने कहा है ॥६०॥
आद्यमाद्यं च तार्तीयं कामः कामोऽथ
वाग्भवम् ।
अन्त्यमन्त्यमन्ङ्गं च नवार्णः
कीर्तितो मनुः ॥६१॥
जप्तोऽयं शतधा शापं बालाया
विनिवर्तयेत् ।
आद्य (ऐं),
आद्य (ऐं) तार्तीय (सौः), काम (क्लीं),
काम (क्लीं), तदनन्तर वाग्भव (ऐं), अन्त्य (सौः), तथा अनङ्ग (क्लीं), इन ९ अक्षरों से निष्पन्न मन्त्र (ऐं ऐं सौः क्लीं क्लीं ऐं सौः सौः
क्लीं) को १०० बार जप करने से बाला का शाप दोर हो जाता है ॥६१-६२॥
विमर्श - शापोद्धार के लिए कहे गये
मन्त्र का निष्कर्ष - ‘हस्रौ हृ स्वलरौ
हस्रौः’ त्रिपुर भैरवी के इस मन्त्र का १००० बार जप करने से
बाला का शाप नहीं लगता अथवा हसौं, हस्व्ल्रीं ह्सौं’
इस मन्त्र का १०० बार जप बाला के शाप को दूर कर देता है । तृतीय
मन्त्र स्वरुप है ॥६१-६२॥
चेतन्याह्रादिनीमन्त्रौ जप्तौ
निष्कीलताकरौ ॥६२॥
त्रिस्वराश्चेतनीमन्त्रोधरः
शान्तिरनुग्रहः ।
तारादिहृदयान्तः स्यात् काम आहलादिनी
मनुः ॥६३॥
चेतनी एवं आहलादिनी मन्त्रों का जप
करने से इस विद्या का उत्कीलन हो जाता है । अधर (ऐं) शान्ति (ई) अनुग्रह (औ) इस
प्रकार त्रिस्वर ‘ऐं ई औं’ यह चेतनी मन्त्र है । आदि में तार (ॐ) तथा अन्त में हृदय (नमः) के सहित
काम बीज (क्लीं) लगाने से आहलादिनी मन्त्र बन जाता है ॥६२-६३॥
विमर्श - मन्त्र का स्वरुप इस
प्रकार है -
१. ॐ ऐं औं - चेतनी मन्त्र है ।
२. ॐ क्लीं नमः - आहलादिनी मन्त्र
है ॥६२-६३॥
इस प्रकार ६०-६३ श्लोक पर्यन्त
शपोद्धार,
फिर चेतनी और आहलादिनी दो मन्त्रों से उत्कीलन विधि कहकर मूल मन्त्र
के उद्दीपन का विधान कहते हैं ।
तथा त्रयाणां बीजानां
दीपनैर्मनुभिस्त्रिभिः ।
सुदीप्तानि विधायादौ
जपेत्तानीष्टसिद्धये ॥६४॥
जप से पहले आगे वक्ष्यमाण तीन दीपन
मन्त्रों से तीनों बीजोम को उद्दीपित कर फिर अभीष्ट सिद्धि के लिए मूल मन्त्र का
जप करना चाहिए ॥६४॥
वदयुग्मं सदीर्घाम्बुस्मृति
बालावनन्तगौ ।
सत्यः सनेत्रो नस्ताट्टग्वाङ्नवार्णाद्यदीपिनी
॥६५॥
वायुग्म (वद वद),
सदीर्घाम्बु (वा), अनन्तग स्मृति एवं बाला
(ग्वा) पुनः सनेत्र सत्य (दि) पुनः तादृश ‘न’ (नि) तदनन्तर (ऐं) लगाने से ‘वद वद वाग्वादिनी ऐं’
- यह नौ अक्षरों का बाला के आद्य बीज (वाग्भवबीज) का उद्दीपक
मन्त्र बनता है ॥६५॥
क्लिन्ने क्लेदिनि बैकुण्ठो दीर्घं
खं सद्यगोन्तिमः ।
निद्रासचन्द्रकुर्वताशिवार्णामध्यदीपिनी
॥६६॥
‘क्लिन्ने क्लेदिनि’, फिर वैकुण्ठ (म), दीर्घ ख (हा), सद्यग (क्षो), सचन्द्रा निद्रा (भं) और कुरु इस
प्रकार ‘क्लिन्ने
क्लेदिनि महाक्षोभं कुरु’ यह ग्यारह अक्षरों का मन्त्र (मध्य
काम बीज) का उद्दीपक है ॥६६॥
तारो मोक्षं च
कुर्वन्तापञ्चार्णान्त्यस्य दीपिनी ।
दीपिनीमन्तराबालाराधितापि न सिध्यति
॥६७॥
तार (ॐ) मोक्षं कुरु इस प्रकार ‘ॐ मोक्षं कुरु’ यह पाँच अक्षरों का मन्त्र अन्तिम
बीज उद्दीपक हैं । उक्त उद्दीपनी मन्त्रों के बिना आराधना करने पर भी बाला सिद्ध
नहीं होता हैं ॥६७॥
विमर्श - अतः तीनों बीजों के साथ
उक्त तीनों दीपनी (प्रकाशक) मन्त्रों का प्रारम्भ में ७,
७ बार जप करना आवश्यक है ॥६७॥
इदं रहस्यं नाख्येयं कृतघ्ने कितवे
शठे ।
परीक्षिताय दातव्यमन्यथा दातृदोषदम्
॥६८॥
कृतघ्न,
धूर्त्त एवं शठ व्यक्ति को ऊपर कहे गये मन्त्र, चेतनी, उत्कीलन तथा उद्दीपन मन्त्रों का उपदेश नहीं
करना चाहिए । केवल परीक्षित शिष्य को ही यह रहस्य वतलाना चाहिए । अन्यथा बतलाने
वाला पाप का भागी होता है ॥६८ ॥
वागन्त्यकामान् प्रजपेदरीणां
क्षोभेहेतवे ।
कामवागन्त्यबीजानि त्रैलोक्यस्य
वशीकृतौ ॥६९॥
कामान्त्यवाणीबीजानि मुक्तये नियतो
जपेत् ।
पूजाविधौ तु
बालायास्त्रिविधानर्चयेद् गुरुन् ॥७०॥
कामना के भेद से मन्त्रों का स्वरुप
- शत्रु नाश के लिए प्रथम वाग्भव,
तदनन्तर तृतीय, फिर काम बीज ‘ऐं सौः क्लीं’ का जप करना चाहिए । तीनों लोकों को वश
में करने के लिए प्रथम बीज, तदनन्तर वाग्भव, फिर तृतीय बीज ‘क्लीं ऐं सौः’ का
जप करना चाहिए । मुक्ति के लिए पहले कामबीज, फिर तृतीय बीज,
तदनन्तर वाग्भव बीज ‘क्लीं ऐं सौः’ का जप करना चाहिए ॥६९-७०॥
अब बाला के अनुष्ठान में गुरुपूजन
का विधान कहते हैं –
सप्तदिव्यौघगुरुवर्णनम्
दिव्यौघश्चेति सिद्धौघो मानवौघ इति
त्रिधा ।
परप्रकाशः परमेशानः परशिववस्तथा
॥७१॥
कामेश्वरस्ततो मोक्षः षष्ठः
कामोमृतोन्तिमः ।
एते सप्तैव दिव्यौघा आनन्दपदपश्चिमाः
॥७२॥
दिव्यौघ,
सिद्धौघ और मानवौघ भेद से गुरु तीन प्रकार के कहे गये हैं । १.
पारप्रकाशानन्द, २. परमेशानानन्द, ३.
परशिवानन्द, ४. कामेश्वरानन्द, ५.मोक्षानन्द,
६. कामानन्द एवं ७. अमृतानन्द - ये सात दिव्यौघ नाम के गुरु कहे गये
हैं ॥७०-७२॥
पञ्चसिद्धौघगुरुवर्णनम्
ईशानाख्यस्तत्पुरुषो घोराख्यो
वामदेवकः ।
सद्योजात् इमे पञ्चसिद्धौघाख्याः
स्मृता बुधैः ॥७३॥
मानवौघः प्रविज्ञेयः स्वगुरोः
सम्र्प्रदायतः ।
विद्वानों ने पाँच सिद्धौघगुरु इस
प्रकार बतलाए हैं - १.ईशान, २.तत्पुरुष,
३. घोर, ४. वामदेव और ५. सद्योजात । इसके
अतिरिक्त अपने गुरु के सम्प्रदायानुसार मानवौघ गुरुओं के नामों को जानना चाहिए
॥७३-७४॥
विमर्श - गुरुओं के नाम के आगे
चतुर्थ्यन्त लगाकर पश्चात् नमः उच्चारण करने से गुरु मन्त्र निष्पन्न होता है ।
यथा - ‘परप्रकाशाननदाय नमः’ इत्यादि ।
शारदातिलक के अनुसार पीठ पूजा के
बाद पूर्व योनि एवं मध्य योनि के बीच गुरुपूजन करना चाहिए । श्रीविद्यार्णव तत्र
के अनुसार गुरु पंक्ति का पूजन कर वहीं दिव्यौघ, सिद्धौघ एवं मानवौघ गुरुओं का पूजन करना चाहिए ॥७३-७४॥
त्रैपुराख्ययन्त्रकथनम्
नवयोन्यात्मके यन्त्रे विलिखेन्मध्ययोनितः
॥७४॥
प्रादक्षिण्येन बीजानि त्रिवारं
साधकोत्तमः ।
त्रींस्त्रींन् वर्णास्तु
गायत्र्या अष्टपत्रेषु संलिखेत् ॥७५॥
बहिर्मातृकया वेष्टय तद्बहिर्भूपुरद्वयम्
।
कामबीजलसत्कोणं व्यतिभिन्नं
परस्परम् ॥७६॥
यन्त्रं त्रैपुरमाख्यातं जप्तं सम्पातसाधितम्
।
बाहुना विधृतं दद्याद्धनं कीर्तिः
सुखं सुतान् ॥७७॥
अब धारण करने के लिए बाला यन्त्र का विधान कहते हैं -
नवयोन्यात्मक यन्त्र में उत्तम साधक
को मध्य योनि से प्रदक्षिण क्रम से, प्रारम्भ
कर तीन आवृत्तियों में तीन बीजों को लिखना चाहिए । फिर अष्टदल में त्रिपुरा
गायत्री के तीन तीन अक्षरों को लिखकर तत्पश्चात् अष्टदल के बाहर लिखित वर्णमाला से
उसे वेष्टित करें । फिर परस्पर विलोम रुप में लिखे दो चतुरस्र भूपुर के कोणों में
आठ बार काम बीज लिखे । यह त्रिपुरा यन्त्र कहा जाता है । इसे त्रिपुरा के होम के आहुति
शेष घृत द्वारा संयोजित कर भुजा में धारण करने से धन, कीर्ति
, सुख एवं पुत्र प्राप्त होता है ॥७४-७७॥
बालत्रिपुरागायत्रीमन्त्रोद्धारः
कामान्ते त्रिपुरा देवि
विद्महेकाविषम्भगि ।
बकः खड्गीशमारुढः सनेत्रोऽन्गिश्च
धीमहि ॥७८॥
तन्नः क्लिन्ने प्रचोदान्ते यादन्ता
कीर्तिता बुधैः ।
गायत्री त्रैपुरी सर्वसिद्धिदा
सुरसेविता ॥७९॥
अब त्रिपुरा गायत्री मन्त्र का
उद्धार कहते हैं -
काम (क्लीं) उसके बाद बाद ‘त्रिपुरा देवि विद्महे का’ यह पद, फिर भगि विष (मे), फिर खड्गीश वक (श्व), फिर सनेत्र अग्नि,फिर ‘धीमहि’,
तदनन्तर ‘तन्नः क्लिन्ने प्रचोदयात्’ इसी को बुद्धिमानों ने सुरसेवित सर्वसिद्धिप्रदा त्रिपुरागायत्री कहा है
॥७८-७९॥
विमर्श - इस मन्त्र का स्वरुप इस प्रकार है - ‘क्लीं त्रिपुरादेवि विद्महे कामेश्वरि धीमहि । तन्नः क्लिन्ने प्रचोदयात्
॥७८-७९॥
तन्त्रान्तरगुप्तानां चतुर्दशबालाभेदानां
चतुर्दशमन्त्रकथनम्
अथ वक्ष्यामि बालाया
भेदानागमगोपितान् ।
मायाकामोम्बरारुढं
तार्तीयं त्र्यक्षरो मनुः ॥८०॥
इसके बाद मैं आगम शास्त्र में
अत्यन्त गोपनीय माने जाने वाले बाला मन्त्रों के भेद कहता हूँ - मया (ह्रीं),
काम (क्लीं), तथा अम्बरारुढ तार्तीय बीज (ह्सौः)
इन तीन अक्षरों का प्रथम भेद है । यथा - ‘ह्रीं क्लीं ह्सौः’
॥८०॥
अनुलोमप्रतिलोभ्यां बालामन्त्रः
षडक्षरः ।
बालश्रीकामहृल्लेखा सम्पुटोऽयं
नवाक्षरः ॥८१॥
अनुलोम एवं विलोम क्रम से बाला
मन्त्र छः अक्षरों का बन जाता है यथा - ‘ऐं
क्लीं सौः सौः क्लीं ऐं’ यह षडक्षर द्वितीय भेद है । पुनः
बाला मन्त्र को श्रीबीज, कामबीज एवं मायाबीज से सम्पुटित
करने पर नौ अक्षरों का तीसरा भेद बन जाता है - यथा - ‘श्रीं
क्लीं ह्रीं - ऐं क्लीं सौः - ह्रीं क्लीं श्रीं’ ॥८१॥
बालान्ते बालत्रिपुरे स्वाहान्तो
दशवर्णवान् ।
वाक्कामो व्योमभृग्बिन्दुयुङ्ग्मनुर्दीर्घभूधरः
॥८२॥
पिनाकी त्रिपुरे सिद्धि देहि
हृन्मनुवर्णवान् ।
बाला मन्त्र के बाद ‘बालात्रिपुरे स्वाहा’ लगाने से दश अक्षरों का चतुर्थ
भेद बन जाता है । यथा - ‘ऐं क्लीं सौः बाला त्रिपुरे स्वाहा’
। वाग्बीज (ऐं) कामबीज (क्लीं) व्योम इन्दुयुक् भृगु (ह्सौः)
दीर्घयुक्त भूधर (वा) दीर्घयुक्त पिनाकी (ला) फिर ‘त्रिपुरे
सिद्धिं देहि’ इसके अन्त में हृदय (नमः) लगाने से चौदह
अक्षरों का पञ्चम भेद बन जाता है । यथा - ‘ऐं क्लीं ह्सौ बालत्रिपुरे सिद्धें देहि नमः’ यह
पञ्चम भेद है ॥८२-८३॥
लक्ष्मी बीज (श्रीं) पार्वती बीज
(ह्रीं),
कामबीज (क्लीं) के बाद ‘त्रिपुराभारती कवित्वं
देहि’ के बाद ठद्वय ‘स्वाहा’ लगाने से सोलह अक्षरों का षष्ठ भेद निष्पन्न होता है । यथा - ‘ह्रीं श्रीं क्लीं त्रिपुराभारती कवित्वं देहि स्वाहा’ ।
मायालक्ष्मीर्मनोजन्मा त्रिपुरान्ते
तु भारती ॥८३॥
कवित्वं देहि ठद्वन्द्वं षोडशार्णो
मनुः स्मृतः ।
कमलापार्वतीकामस्त्रिपुरान्ते च
मालती ॥८४॥
मह्यं सुखं ततो देहि स्वाहा
सप्तदशाक्षरः ।
लक्ष्मी बीज (श्रीं),
पार्वती बीज (ह्रीं), कामबीज (क्लीं) के बाद ‘त्रिपुरामालती महयं सुखं देहि स्वाहा ‘लगाने से
सत्रह अक्षरों का सप्तम भेद होता है । यथा - ‘श्रीं ह्रीं
क्लीं त्रिपुरामालती मह्यं सुखं देहि स्वाहा’ यह सप्तम भेद
है ॥८३-८५॥
भृगुर्ब्रह्याक्रियावहिनयुक्ता
शान्तिरस रात्रिया ॥८५॥
दहनान्त्यमहाकालभुजङ्गपुरुषोत्तमाः
।
मन्वर्घीशेन्दुसंयुक्ता द्वितीयं
बीजमीरितम् ॥८६॥
वाग्बीजं त्रिपुरे सर्वं वाञ्छितं
देहि हृत्ततः ।
वहिनप्रिया
सप्तदशवर्णोऽयं कीर्तितो मनुः ॥८७॥
अब आठवाँ भेद कहते हैं - भृगु (स्)
ब्रह्या (क्) क्रिया (ल्) एवं वहिन (र्) से युक्त शान्ति ईकार सरात्रिया स विन्दुः
(स्व्ल्रीं), फिर दहन (र), अन्त्य (क्ष्), महाकालो (म्) भुजङ्ग (र्), पुरुषोत्तम (य), मनु अर्घीश इन्द्र से संयुक्त (औ)
क्ष्म्यरों यह द्वितीय बीज हुआ । फिर वाग्बीज (ऐं), तदनन्तर ‘त्रिपुरे सर्ववाञ्छितं देहि’ इसके बाद ‘नमः’ एवं स्वाहा लगाने से सत्रह अक्षरों का अष्टम
भेद बनता है । यथा ‘स्वल्रीं क्ष्य्रौं ऐं त्रिपुरे
सर्ववाञ्छितं देहि नमः स्वाहा’ ॥८५-८७॥
हृल्लेखात्रितयं
प्रौढत्रिपुरेनन्तारोग्यमै ।
श्वर्यं देहि
प्रियावहनेर्मनुरष्टादक्षाक्षरः ॥८८॥
हृल्लेखा त्रितय (ह्रीं ह्रीं
ह्रीं),
फिर ‘पौढ त्रिपुरे’ के
बाद अनन्त (आ), फिर ‘रोग्यमैश्वर्यं
देहि’ फिर वहिनप्रिया (स्वाहा), यह
अष्टादशाक्षर बाला का नवम भेद निष्पन्न होता है । यथा ‘ह्रीं
ह्रीं ह्रीं पौढत्रिपुरे आरोग्यमैश्वर्यं देहि स्वाहा’ ॥८८॥
मायारमामन्मथान्ते त्रिपुरामदने
पदम् ।
सर्वं
शुभं साधयाग्नेः प्रियान्तोऽष्टादशाक्षरः ॥८९॥
अब दशम भेद कहते हैं - माया (ह्रीं),
रमा (श्रीं), मन्मथ (क्लीं) के बाद ‘त्रिपुरामदने सर्वंशुभं साधय’ के बाद अग्निप्रिया
(स्वाहा) लगाने से अष्टादशाक्षर दशम भेद हो जाता है । यथा - ‘ह्रीं श्रीं क्लीं त्रिपुरामदने सर्वशुभं साधय स्वाहा’ ॥८८-८९॥
हृल्लेखाकमलानङ्गो बालान्ते
त्रिपुरेपदम् ।
मदायत्तां ततो विद्यां कुरु हृद्वहिनवल्लभा
॥९०॥
अब एकादश भेद कहते हैं - हृल्लेखा
(ह्रीं),
कमला (श्रीं), अनङ्ग (क्लीं) के बाद ‘बालात्रिपुरे’ यह पद, फिर ‘मदायत्तां विद्यां कुरु’, तदनन्तर हृत् (नमः) फिर
वहिनवल्लभा (स्वाहा) लगाने से बीस अक्षरों का ग्यारहवाँ भेद होता है यथा - ‘ह्रीं श्रीं क्लीं बालात्रिपुरे मदायत्तां विद्यां कुरु नमः स्वाहा’
॥९०॥
मन्त्रो विंशतिवर्णोऽयं
मायापद्मामनोभवः ।
परापरेन्ते त्रिपुरे
सर्वमीप्सितमुच्यताम् ॥९१॥
साशयानकान्तायमन्यो विंशतिवर्णकः ।
अब द्वादश भेद कहते हैं - माया
(ह्रीं),
पद्मा (श्रीं), मनोभव (क्लीं) के बाद ‘परापरे त्रिपुरे सर्वमीप्सितं साधय’ के बाद
अनलकान्ता (स्वाहा) यह बीस वर्ण का बारहवाँ भेद है ।
यथा - ‘ह्रीं श्रीं क्लीं परापरे त्रिपुरे सर्वमीप्सितं साधय स्वाहा’ ॥९१-९२॥
कामद्वन्द्वं रमायुग्मं
मायायुक्त्रिपुरापदम् ॥९२॥
ललितेन्ते मदीप्सीति तामन्ते योषितं
पदम् ।
देहि वाञ्छितमित्युक्त्त्वा कुरु
ज्वलनकामिनी ॥९३॥
अब तेरहवाँ भेद कहते हैं - काम
द्वन्द्व (क्लीं क्लीं), रमायुग्म (श्रीं
श्रीं), मायायुग्म (ह्रीं ह्रीं), फिर ‘
त्रिपुरा ललिते मदीप्सितां योषितं देहि वाञ्छितं कुरु’, इसके बाद ‘ज्वलन कामिनी स्वाहा’ लगाने से बाला का अठठाइस अक्षरों का तेरहवाँ भेद निष्पन्न होता है । यथा -
‘क्लीं क्लीं श्रीं श्रीं ह्रीं ह्रीं त्रिपुराललिते
मदीप्सितां योषितं देहि वाछितं कुरु स्वाहा’ ॥९२-९३॥
अष्टविंशतिवर्णोऽयं
मनुरिष्टप्रियाप्रदः ।
कामपद्माद्रिपुत्रीणां प्रत्येकं
त्रितयं वदेत् ॥९४॥
त्रिपुरान्ते सुन्दरीति सर्वं जग
दिनद्वयम् ।
वशं कुरु द्वयं मह्यं बलं
देह्यनलाङ्गना ॥९५॥
अब चौदहवाँ भेद कहते हैं - कामबीज,
पद्मबीज और अद्रिपुत्री बीज का तीन, तीन बीज
(क्लीं क्लीं क्लीं श्रीं श्रीं श्रीं ह्रीं ह्रीं ह्रीं ) इसके बाद ‘त्रिपुरसुन्दरि सर्वजगत्’ के बाद इन द्वय (मम) ‘वशं’, तदनन्तर कुरु द्वय (कुरु कुरु), फिर मह्यं बलं देहि, के बाद अनलाङ्गना (स्वाहा) लगाने से समस्त अभीष्टदायक
पैंतीस अक्षरों का चौदहवाँ भेद बनता है । यथा - ‘क्लीं क्लीं
क्लीं श्रीं श्रीं श्रीं ह्रीं ह्रीं ह्रीं त्रिपुरसुन्दरि सर्वजगन्मम वंश कुरु
मह्यं बलं देहि स्वाहा’ ॥९४-९५॥
सर्वाभीष्टप्रदो मन्त्र उक्तो
बाणगुणाक्षरः ।
चतुर्दशानामेतेषां मनूनामृषिरीरितः
॥९६॥
तेषां मन्त्रानामृष्यादिकथनम्
दक्षिणामूर्तिसंज्ञस्तु
च्छन्दो गायत्रमुच्यते ।
त्रिपुरादेवता बाला षडङुं
मातृकासमम् ॥९७॥
इस प्रकार इन चौदह बाला के मन्त्रों
के भेदों को कहा है ॥९६॥
इन सभी चौदह मन्त्रों के
दक्षिणामूर्ति ऋषि हैं, गायत्री छन्द है
तथा त्रिपुरा बाला देवता हैं, इनका षडङ्गन्यास मातृका के समान
है ॥९६-९७॥
विमर्श - ॐ अस्य श्रीबालामन्त्रस्य
दक्षिणमूर्तिऋषिः गायत्रीछन्दः त्रिपुराबालादेवता ऐं बीजं सौः शक्तिः क्लीम कीलकं
ममाभीष्टसिद्धर्थे जपे विनियोगः ॥९७॥
ध्यानवर्णनम्
पाशांकुशौ पुस्तकमक्षसूत्रं
करैर्दधाना सकलामरार्च्या ।
रक्ता त्रिनेत्रा शशिशेखरे यं
ध्येयाखिलद्धयैं त्रिपुरात्र बाला ॥९८॥
अब इनके अनुष्ठान के लिए ध्यान कहते
हैं - अपने चारोम हाथों में पाश अंकुश, पुस्तक
तथा अक्षसूत्र धारण करने वाली, रक्तवर्ण वाली, त्रिनेत्रा, मस्तक पर चन्द्रकला धारण किये त्रिपुरा
बाला का समस्त अभीष्ट सिद्धि के लिए ध्यान करना चाहिए ॥९८॥
जपेल्लक्षं दशांशेन होमः
पुष्पैर्हयारिजैः ।
पूजापूर्वोदिते पीठेङ्गे
रस्याद्यैश्च सायकैः ॥९९॥
मातृभिर्दिगधीशास्त्रैः प्रयोगाः
पूर्ववन्मताः ।
लघुश्यामामथो
वक्ष्ये स्मरनादिष्टदायिनीम् ॥१००॥
उक्त मन्त्रों का एक लाख जप करना
चाहिए । फिर हयारिज (कनेर) के फूलों से दशांश होम करना चाहिए । पूर्वोक्त पीठ पर
षडङ्गपूजा, रत्यादि की, पञ्चबाणदेवताओं की, मातृकाओं की, दिक्पालों एवं उनके अस्त्रों की पूजा कर देवी का पूजन पूर्वोक्त रीति से
करना चाहिए । इसी प्रकार इनका प्रयोग भी पूर्व की भाँति करना चाहिए ॥९९-१००॥
अब स्मरण मात्र से मनोकामनाओं को
पूर्ण करने वाली लघुश्यामा का मन्त्र कहता हूँ ॥१००॥
लघुश्यामामन्त्रकथनम्
वाग्बीजं हृदयं कर्ण एकनेत्रः
सनेत्रकः ।
वृषो मुकुन्दमारुढो कूर्मो
दीर्घन्दुसंयुतः ॥१०१॥
नन्दीदीर्घोलिमाङ्गिसर्वान्ते
स्याद्वशङ्करिं ।
वैश्वानरप्रियान्तोऽयं
मन्त्रो विंशतिवर्णवान् ॥१०२॥
वाग्वीज (ऐं),
हृदय (नमः), कर्ण (उ), सनेत्र
एक नेत्र (च्छे), मुकुन्दारुढ वृष (ष्ट), दीर्घेन्दु संयुत कूर्म (चां), दीर्घनन्दी (डा),
फिर ‘लिमातङ्गि’ ‘सर्ववशंकरि’
यह पद, तदनन्तर वैश्वानर प्रिया (स्वाहा)
लगाने से बीस अक्षरों का लघुश्यामा मन्त्र निष्पन्न होता है ॥१०१-१०२॥
विमर्श - इस मन्त्र का स्वरुप इस
प्रकार है - ‘ऐं नमः उच्छिष्टचाण्डलि मातङ्गि
सर्ववशंकरि स्वाहा’॥१०१-१०२॥
मदनोऽस्य मुनिः प्रोक्तो
गायत्रीनिचृदादिका ।
छन्दो देवीलघुश्यामा बीजं
वाग्वहिनवल्लभा ॥१०३॥
शक्तिरुक्ताखिलाऽभीष्टसाधने
विनियोजनम् ।
इस मन्त्र के मदन ऋषि हैं,
निचृद गायत्री छन्द है तथा लघु श्यामा देवता हैं, वाग्भवबीज (ऐं) एवं वहिनवल्लभा (स्वाहा) शक्ति है । समस्त अभीष्ट साधन में
इसका विनियोग किया जाता है ॥१०३-१०४॥
न्यासकथनम्
वाक्पूर्विकां रतिं मूर्ध्नि
प्रीतिं मायादिकां हृदि ॥१०४॥
पादयोर्विन्यसेन्मन्त्री कामपूर्वो
मनोभवाम् ।
इच्छाशक्तिं ज्ञानशक्तिं
क्रियाशक्तिं क्रमान्न्यसेत् ॥१०५॥
वाङ्मायाकामबीजाद्यां
मुखे कण्ठे शिवे तथा ।
प्रारम्भ में वाग्भीज लगाकर रति का
शिर में,
माया बीज सहित प्रीति का हृदय में, कामबीज
सहित मनोभवा का पैर में न्यास करना चाहिए, फिर वाग्बीज सहित
इच्छाशक्ति का मुख में, मायाबीज सहित ज्ञानशक्ति का कण्ठ में
दोनों ओर कामबीज सहित क्रियाशक्ति का लिङ्ग में न्यास करना चाहिए ॥१०४-१०५॥
विमर्श - विनियोग - अस्य श्रीलघुश्यमामनत्रस्य मदनऋषिः
निचृदगायत्रीछन्दः लघुश्यामादेवता ऐं बीजं स्वाहाशक्तिः ममाभीष्टसिद्धयर्थे जपे
विनियोगः ।
रत्यादिन्यास विधिः-
ॐ ऐं रत्यै नमः,
मूर्ध्नि, ॐ ह्रीं प्रीर्त्यै नमः, हृदि,
ॐ क्लीं मनोभवायै नमः,
पादयोः, ॐ ऐं इच्छाशक्त्यै नमः, मुखे,
ॐ ह्रीं ज्ञानशक्त्यै नमः,
कण्ठे, ॐ क्लीं क्रियाशक्त्यै नमः, लिङ्गे ॥१०४-१०५॥
बानेशीबीजानि
द्रावणं शोषणं बाणं तापनं
मोहनाभिधम् ॥१०६॥
उन्मादनं क्रमात्
पञ्चाबाणेशीबीजपूर्वकान् ।
कास्यहृद्गुह्यपादेषु न्यस्य
कुर्यात् षडङुकम् ॥१०७॥
रामाग्निगुणरामाङुनेत्रवर्णैर्मनूत्थितैः
अब वाणन्यास कहते हैं - वाणेशी के
बीजों को प्रारम्भ में लगाकर द्रावण, शोषण,
तापन, मोहन एवं उन्मादन इन ५ बाणों का क्रमशः
शिर, मुख, हृदय, गुह्याङ्ग
एवं पैरों पर न्यास करना चाहिए । यथा -
ॐ द्रां द्रावणवाणाय नमः,
शिरसि,
ॐ द्रीं शोषणवाणाय नमः,
मुखे, ॐ क्लीं तापबाणाय नमः, हृदये,
ॐ ब्लूं मोहनबाणाय नमः,
गुह्ये, ॐ सः उन्मादन बाणाय नमः, पादयोः ।
इसके बाद मूल के ३,
३, ३, ३,६ एवं २ वर्णो से इस प्रकार षडङ्गन्यास करना चाहिए ॥१०७॥
विमर्श - ॐ ऐं नमः, हृदयाय
नमः, ॐ उच्छिष्टे
शिरसे स्वाहा,
ॐ चाण्डालि शिखायै वषट्, ॐ मातङ्गि कवचाय हुम्
ॐ सर्ववशङ्करि नेत्रत्रयाय
वौषट् ॐ स्वाहा अस्त्राय फट् ॥१०६-१०८॥
अष्टमातृकान्यासः
ङ्गेनमोन्ताः कन्यकान्ता
ब्राह्मयाद्या अष्टमातरः ॥१०८॥
दीर्घस्वराद्यदीर्घक्षाद्यष्टकाद्याविलोमतः
।
विन्यस्य मूर्ध्नि वामांसे
वामपार्श्वेषु नाभितः ॥१०९॥
दक्षपार्श्वे
दक्षिणांसे ककुद्धृदययोरपि ।
तनन्तर दीर्घ अष्टस्वर सहित विलोम
क्रम से दीर्घ आकार सहित क्षकार आदि अष्टक वर्णो को चतुर्थ्यन्त ब्राह्यीकन्यका
आदि इष्ट मातृकाओं के साथ लगाकार मूर्धा, वामांस,
वामपार्श्व नाभि, दक्षपार्श्व, दक्षांस तथा हृदय में न्यास करें ॥१०८-११०॥
विमर्श - मातृकान्यास - यथा -
ॐ आं क्षां बाह्यीकन्यकायै नमः,
मूर्ध्नि,
ॐ ईं लां माहेश्वरीकन्यकायै नमः,
वामांसे,
ॐ हां कौमारीकन्यकायै नमः,
वामपार्श्वे,
ॐ ऋं सां वैष्णवीकन्यकायै नमः,
नाभौ,
ॐ लृं षां वाराहीकन्यकायै नमः,
दक्षपार्श्वे
ॐ ऐं शां इन्द्राणीकन्यकायै नमः,
दक्षांसे,
ॐ ओं वां चामुण्डाकन्यकायै नमः,
ककुदि,
ॐ अः लां महालक्ष्मीकन्यकायै नमः,
हृदि ॥१०८-११०॥
तारवागादिका अष्टौ सिद्धयः
कन्यकान्तिमाः ॥११०॥
चतुर्थी नमसायुक्ता न्यस्याः
कालिकाचिल्लिषु ।
कण्ठे च हृदये नाभावाधारे
लिङ्गमूर्द्धानि ॥१११॥
तार (ॐ) वाग्बीज (ऐं) प्रारम्भ में
लगाकर अष्ट सिद्धयों के नाम को चतुर्थ्यन्त कन्यका के साथ जोडकर अन्त में ‘लगाकर ‘क’ (शिर), अलिक (ललाट), चिल्लि (भ्रू), कण्ठ,
हृदय, नाभि, मूलाधार और
लिङ्ग के ऊपर न्यास करें ॥११०-१११॥
अणिमा महिमा चापि लघिमा गारिमेशिता
।
वशिता चाथ प्राकाम्यं
प्राप्तिरित्यष्ट सिद्धयः ॥११२॥
१. अणिमा,
२. महिमा, ३. लघिमा, ४.
गरिमा, ५. ईशिता, ६.; वशिता, ७. प्राकाम्य एवं ८. प्राप्ति - ये आठ
सिद्धियाँ कही गयीं हैं ॥११२॥
विमर्श - अष्टसिद्धियों का न्यास इस
प्रकार हैं -
ॐ ऐं अणिमासिद्धिकन्यकायै नमः,
शिरसि,
ॐ ऐं महिमासिद्धिकन्यकायै नमः,
ललाटे,
ॐ ऐं लघिमासिद्धिकन्यकायै नमः,
भ्रुवो,
ॐ ऐं गरिमासिद्धिकन्यकायै नमः,
कण्ठे,
ॐ ऐं ईशिआसिद्धिकन्यकायै नमः,
हृदये,
ॐ ऐं वशितासिद्धिकन्यकायै नमः,
नाभौ,
ॐ ऐं प्राकाम्यसिद्धिकन्यकायै नमः,
मूलाधारे,
ॐ ऐं प्राप्तिसिद्धिकन्यकायै नमः,
लिङ्गोपरि ॥११०-११२॥
अष्टाप्सरसां नामानि न्यासश्च
कामाद्याः कन्यकाः प्रीता
अष्टावप्सरसो न्यसेत् ।
के भाले नेत्रयोर्वक्त्रे कर्णयोः
काकुदेऽपि च ॥११३॥
अब अप्सरान्यास कहते हैं-
प्रारम्भ में कामबीज लगाकर प्रसन्न
चित्त वाली उर्वशी आदि आठ अप्सराओं को चतुर्थ्यन्त कन्यका शब्द के साथ जोडकर (शिर)
भाल (ललाट), दक्षिण नेत्र, वामनेत्र, मुख, दक्षिण कर्ण,
वामकर्ण, एवं ककुद स्थानों में न्यास करें
॥११३॥
उर्वशी मेनका रम्भा घृताची
पुञ्चकस्थला ।
सुकेशी
मञ्जुघोषा च महारङुवतीरिताः ॥११४॥
उर्वशी,
२. मेनका, ३. रम्भा, ४.
घृताची, ५. पुंजकस्थला, ६. सुकेशी,
७. मञ्जुघोषा एवं ८. महारङ्गवती ये आठ अप्सरायें कहीं गई हैं ॥११४॥
विमर्श - अप्सरान्यास विधि -
क्ली
उर्वशीकन्यकायै नमः, मूध्नि,
क्लीं मेनकाकन्यकायै नमः,
ललाटे, क्लीं रम्भाकन्यकायै नमः, दक्षिणनेत्रे,
क्लीं घृताचीकन्यकायै नमः,
वामनेत्रे क्लीं
सुकेशीकन्यकायै नमः, दक्षिणकर्णे
क्लीं मञ्जुघोषाकन्यकायै नमः,
वामकर्णे, क्लीं महारङ्गतीकन्यकायै नमः, ककुदि ॥११३-११४॥
यक्षादिकन्यान्यासकथनम्
यक्षगन्धर्वसिद्धानां कन्यका
नरनागयोः ।
विद्याधरः किंपुरुषः
पिशाचानामपीहताः ॥११५॥
अंसयोर्हृदये न्यस्येत्
स्तनजोर्जठरे क्रमात् ।
गुह्येऽप्याधारदेशे च नमोन्ता
मदनादिकाः ॥११६॥
तदनन्तर यक्षकन्या,
गन्धर्वकन्या, सिद्धकन्या, नरकन्या, नागकन्या, विद्याधरकन्या,
किंपुरुषकन्या और पिशाचकन्या को चतुर्थ्यन्त कर अन्त में नमः,
तथा प्रारम्भ में काम बीज लगाकर दोनों कन्धे, हृदय,
दोनों स्तन, जठर, गुह्य
एवं मूलाधार में न्यास करें ॥११५-११६॥
विमर्श - यथा - १. ॐ क्लीं यक्षकन्यकायै नमः,
दक्षांसे
२. ॐ क्लीं गन्धर्वकन्यकायि नमः,
वामांसे ३. ॐ क्लीं
सिद्धकन्यकायै नमः, हृदि
४. ॐ क्लीं नरकन्यकायै नमः,
दक्षिणस्तने ५. ॐ
क्लीं नागकन्यकायै नमः, वामस्तने
६. ॐ क्लीं विद्याधरकन्यकायै नमः,
जठरे ७. ॐ क्लीं
नागकन्यकायै नमः, गुह्ये
८. ॐ क्लीं पिशाचाकन्यकायै नमः,
मूलाधारे ॥११५-११६॥
ताराद्यान्नमसायुक्तान्
मूलवर्णान्सबिन्दुकान् ।
न्यसेत् सन्धिषु साग्रेषु करयोः
पादयोरपि ॥११७॥
अब मन्त्र वर्ण का न्यास कहते हैं -
प्रारम्भ में तार (ॐ) तथा अन्त में ‘नमः’
लगाकर सानुस्वार मूल मन्त्र के प्रत्येक वर्ण से हाथ एवं पैरों की
संधियों में तथा अग्रभाग में न्यास करे ॥११७॥
विमर्श - यथा - ॐ ऐं नमः,
दक्षांसे ॐ नं नमः
दक्षकूर्परे,
ॐ मं नमः,
दक्षमणिबन्धे,
ॐ उं नमः, दक्षाङ्गगुलिमूले,
ॐ च्छिं नमः,
वामकूर्परे, ॐ ष्टं नमः, वामांसे
ॐ चा नमः,
वामकूर्परे, ॐ डां नमः, वाममणिबन्धे,
ॐ लिं नमः,
वामाङ्गुलि मूले,
ॐ मां नमः, वामाड्गुल्यग्रे,
ॐ तं नमः,
दक्षपादमूले, ॐ ङ्गिं नमः, दक्षजंघायाम्,
ॐ सं नमः,
दक्षपादाङ्गुल्यग्रे, ॐ र्वं नमः, दक्षपादाङ्गुलिमूले,
ॐ वं नमः,
दक्षपादाङ्गुल्यग्रे, ॐ शं नमः, वामपादमूले,
ॐ कं नमः,
वामजंघायाम्, ॐ रिं नमः, वामगुल्फे,
ॐ स्वां नमः,
वामपादाङ्गुलिमूले,
ॐ हां नमः, वामपादागुल्यग्रे ॥११७॥
न्यासानेवंविधान् कृत्वा
मातङीमासने स्मरेत् ।
सुरार्णवान्तरीपस्थरत्नमन्दिरमध्यगे
॥११८॥
मातङीध्यानकथनम्
माणिक्याभरणान्वितां स्मितमुखीं
नीलोत्पलाभाम्बरां रम्यालक्तकलिप्तपादकमलां नेत्रत्रयोल्लासिनीम् ।
वीणावादनतत्परं सुरनतां
कीरच्छदश्यामलां मातङ्गी शशिशेखरामनुभजेत्ताम्बूलपूर्णाननाम् ॥११९॥
अब मातङ्गी देवी ध्यान -
इस प्रकार उपरोक्त सभी न्यास कर
मातङ्गी का ध्यान उनके आसन पर इस प्रकार करें जो सुरा के सागर के मध्य में स्थित
द्वीप में रत्नमन्दिर के मध्य में सिंहासन पर विराज रही हैं,
माणिक्य के आभूषणों से सुशोभित मन्द मन्द हास करती हुई नील कमल के
कमल कान्तिमती हैं,जिसके शरीर पर नीले वस्त्र तथा चरणकमलों
में अलक्तक सुशोभित हो रहे हैं, ऐसी त्रिनेत्रा, वीणावादन में तत्पर, देवताओं द्वारा वन्दित, तोता के पंखो के समान नील वर्णवाली, मस्तक पर चन्द्र
धारण किये, पान का बीडा मुख में लिए मातङ्गी भगवती का मै ध्यान करता हूँ ॥११८-११९॥
प्रयोगकथनम्
लक्षं जपेन्मधूकोत्थैर्जुहुयदयुतं
शुभैः ।
मातङ्गीप्रोदिते पीठे लघुश्यामां
प्रपूजयेत् ॥१२०॥
उक्त मन्त्र का एक लाख जप करना चाहिए तथा महुये के पुष्प या फल से दश हजार आहुतियाँ देनी चाहिए । पूर्वोक्त मातङ्गी पीठ पर लघुश्यामा का पूजन करना चाहिए (द्र० ७. ७३-७४) ॥१२०॥
त्रिकोणपञ्चकोणाऽष्टदलषोडशपत्रके ।
वेदद्वाधरगेहावृत्ते यन्त्रे
विधानतः ॥१२१॥
अब पूजन यन्त्र का विधान कहते हैं -
त्रिकोण पञ्चकोण अष्टदल एवं षोडशदल को चार द्वार वाले भूपुर से वेष्टित करें । इस
प्रकार निर्मित मन्त्र पर लघुश्यामा का पूजन करें ॥१२१॥
देव्या अग्रे पार्श्वयोश्च
त्रिस्रोर्चेद्रतिपूर्विकाः ।
इच्छाज्ञानक्रियाशक्तीः
कोणेष्वग्रादिषु त्रिषु ॥१२२॥
देवी के अग्रभाग में एवं दोनों
पार्श्वभाग में रति, प्रीति एवं मनोभाव
का, त्रिकोण के अग्र त्रिभाग में इच्छाशक्ति, ज्ञानशक्ति और क्रियाशक्ति का पूजन करना चाहिए ॥१२२॥
बाणान्पञ्चसु कोणेषु
केसरेष्वङ्गदेवताः ।
ब्राह्ययाद्या
अष्टपत्रेषु पत्राग्रेष्वणिमादिकाः ॥१२३॥
पञ्चकोण के पाँच कोणों में द्रावण,
शोषण, तापन, मोहन एवं
उन्माद इन पाँच बाणों का तथा केशरों में षडङ्ग पूजन करना चाहिए । अष्टदल में
ब्राह्यी आदि शक्तियों का तथा दलाग्रभाग में अणिमदिसिद्धियों का पूजन करना चाहिए
॥१२३॥
यजेत् षोडशपत्रेषूर्वश्याद्याः
कन्यका अपि ।
प्रयोगान्न्यासवत्कुर्याद्
रत्यादीनां प्रपूजने ॥१२४॥
तदनन्तर षोडशदलों में उर्वशी आदि अप्सराओं का तथा यक्षादि आठ कन्याओं का पूजन करना चाहिए । रति आदि के पूजन में न्यासवत् प्रयोग करना चाहिए ॥१२४॥
भूगृहस्य चतुर्दिक्षु योगिनीः
परिपूजयेत् ।
चतुःषष्टियोगिनीकथनम्
गजानना सिंहमुखी गृधास्या
काकतुण्डिका ॥१२५॥
उष्ट्रग्रीवा ह्यग्रीवा वाराही
शरभानना ।
उलूकिका शिवारावा मयूरी विकटानना
॥१२६॥
अष्टवक्त्रा कोटराक्षी कुब्जा
विकटलोचना ।
समर्चयेदिदशि प्राच्यामेताः
षोडशयोगिनीः ॥१२७॥
शुष्कोदरी ललज्जिहवाक्ष्वंदंष्ट्रा
वानरानना ।
ऋक्षाक्षी केकराक्षी च बृहत्तुण्डा
सुराप्रिया ॥१२८॥
कपालहस्ता रक्ताक्षी शुकी श्येनी
कपोतिका ।
पाशहस्ता दण्डहस्ता प्रचण्डेत्यपि
षोडश ॥१२९॥
पूज्या कीनाशदिग्भागे प्रतीच्या
चण्डविक्रमा ।
शिशुघ्नी पापहन्त्री च काली
रुधिरपायिनी ॥१३०॥
वसाधया गर्भभक्षा
शवहस्तान्त्रमालिनी ।
स्थूलकेशी बृहत्कुक्षिः सर्पास्या
प्रेतवाहना ॥१३१॥
दन्तशूककरा क्रौञ्ची मृगशीर्षेति
षोडश ।
सम्पूज्या उत्तरस्यां तु षोडशैव
वृषानना ॥१३२॥
व्यातास्या धूमनिःश्वासा
व्योमैकचरणोर्ध्वदृक् ।
तापनी शोषनी दृष्टिः कोटरी
स्थूलनासिका ॥१३३॥
विद्युत्प्रभा बलाकास्या मार्जारी
कटपूतना ।
अट्टाट्टहासा कामाक्षेत्यर्चनीया
अभीष्टदाः ॥१३४॥
नश्यन्ति भूतशाकिन्य आसां नाम
श्रुतेरपि ।
तदनन्तर भूपुर के चारों दिशाओं में
१६,
१६ योगिनियों के क्रम से पूजन करना चाहिए ।
पूर्व दिशा में -
१. गजानन, २. सिंहमुखी, ३. गृघ्रास्या, ४.काकतुण्डिका,
५. उष्ट्रग्रीवा, ६. हयग्रीवा, ७. वाराही, ८. शरभानना,
९. उलूकिका, १०. शिवारावा, ११. मयूरी, १२. विकटानना,
१३. अष्टवक्त्रा, १४. कोटराक्षी १५. कुब्जा एवं १६. विकटलोचना
दक्षिण दिशा में -
१. शुष्कोदरी, २. ललज्जिहवा, ३. श्वदंष्ट्रा ४. वानरानना,
५. ऋक्षाक्षी, ६. केकराक्षी, ७. बृहतुण्डा, ८. सुराप्रिया,
९. कपालहस्ता, १०. रक्ताक्षी, ११. शुकी, १२. श्येनी,
१३. कपोतिका, १४. पाशहस्ता, १५. दण्डहस्ता एवं १६. प्रचण्डा
पश्चिम दिशा में -
१. चण्डविक्रमा, २. शिशिघ्नी, ३. पापहन्त्री, ४ काली,
५ रुधिरपायिनी, ६ वसाधया, ७ गर्भभक्षा, ८ शवहस्ता,
९ अन्त्रमालिनी, १० स्थूलनासिका, ११ वृहत्कुक्षी, १२ सर्पास्या,
१३ प्रेतवाहना, १४ दन्तशूककरा १५ क्रौञ्ची एवं १६ मृगशीर्षा
उत्तर दिशा में -
१ वृषानना, २ व्यात्तास्या, ३ धूमनिश्वासा, ४ व्योमैकचरणा,
५ ऊर्ध्वदृक्, ६ तापनी, ७ शोषणी, ८ दृष्टि,
९ कोटरी १० स्थूलनासिका, ११ विद्युत्प्रभा, १२ वलाकास्या,
१३ मार्जारी १४ कटपूतना १५ अट्टाट्टहासा एवं १६
कामाक्षी
इन योगिनियों का नाम सुनते ही भूतगण
तथा शाकिनियाँ नष्ट हो जाती हैं ॥१२५-१३५॥
भूमन्दिरस्य कोणेषु वहन्यादिषु
यजेत्क्रमात् ॥१३५॥
स्वस्वमन्त्रेण बटुकं गणेशं
क्षेत्रपालकम् ।
दुर्गां तद्बहिरिन्द्रादीन्
वज्रादीनपि पूजयेत् ॥१३६॥
पुनः भूपुर के आग्नेयादि कोणों में
क्रमशः तत्तन्मन्त्रों से बटुकः गणेश, क्षेत्रपाल
एवं दुर्गा का पूजा करना चाहिए । भूपुर के बाहर पूर्वादि दिक् क्रम से इन्द्रादि
दश दिक्पालों का तथा उनके वज्रादि आयुधों का भी पूजन करना चाहिए ॥१३५-१३६॥
भूगृहस्य चतुर्दिक्षु चतुर्वाद्यानि
पूजयेत् ।
तत्तत्संज्ञ च विततं घनं च
सुषिराभिधम् ॥१३७॥
द्वादशावरणैरेवं लघुश्यामां यजेत्तु
यः ।
सर्वासां सम्पदां पात्रमचिराज्जायते
स ना ॥१३८॥
पुनः भूपुर के चारों दिशाओं में १.
वीणा,
२. वितत, ३. घन एवं ४. सुषिर आदि चारों
वाद्यों का पूजन करना चाहिए । जो व्यक्ति इस प्रकार बारह आवरणों के साथ लघुश्यामा
का पूजन करता है वह शीघ्र ही समस्त स्मत्तियों का आश्रय बन जाता है ॥१३७-१३८॥
विमर्श - आवरण पूजा विधान - प्रथमतः ११८-११९ श्लोक में वर्णित देवी का ध्यान कर मानसोपचार से पूजन करें ।
७. ७३-७३
श्लोक में बतलाई गई विधि से मूल मन्त्र से पीठ पूजन कर उस पीठ पर मूल मन्त्र से
देवी की मूर्त्ति की कल्पना कर उनका विधिवत् पूजन करें । फिर पुष्प समर्पण के
उपरान्त उनकी अनुज्ञा ले कर यन्त्र में इस प्रकार आवरण पूजा करें-
प्रथम आवरण में देवी के आगे तथा दोनों पार्श्व में निम्न मन्त्रो से पूजन करना चाहिए-
ऐं रत्यै नमः, अग्रे,
ह्रीं प्रीत्यै नमः,
दक्षिणपार्श्वे,
क्लीं मनोभवायै नमः, वामपार्श्वे,
द्वितीय आवरण में त्रिकोण के
अग्रभाग से प्रारम्भ कर प्रदक्षिणा क्रम से इच्छाशक्ति,
ज्ञानशक्ति और क्रियशक्ति का पूजन निम्न मन्त्रों से करना चाहिए-
ऐं इच्छाशक्त्यै नमः, ह्रीं ज्ञानशक्त्यै नमः, क्लीं क्रियाशक्त्यै नमः,
तृतीयावरण में पञ्चकोण में द्रावण आदि पञ्चबाणों की पूजा करनी चाहिए-
द्रां द्रावणबाणाय नमः, द्रीं शोषणबाणाय नमः,
क्लीं तापनबाणाय नमः, ब्लूं मोहनबाणाय नमः,
सः उन्मादनबाणाय नमः,
।
चतुर्थावरण में केशरों में षडङ्ग
पूजा करनी चाहिए -
ऐं नमः हृदयाय नमः, उच्छिष्ट शिरसे स्वाहा,
चाण्डालि शिखायै वषट्, मातङ्गी कवचाय हुम्,
सर्ववशङ्करि नेत्रत्रयय वौषट्, स्वाहा अस्त्राय फट्
पञ्चम आवरण में अष्टदल में पूर्वादि
क्रम से ब्राह्यी आदि आठ मातृकाओं का पूजन करना चाहिए -
आं क्षां ब्राह्यीकन्यकायै नमः, ईं लां माहेश्वरीकन्यकायै
नमः,
ऊं हां कौमारीकन्यकायै नमः, ऋं सां वैष्णवीकन्यकायै
नमः,,
लृं षां वाराहीकन्यकायै नमः, ऐं शां इन्द्राणीकन्यकायै
नमः,
औं वां चामुण्डाकन्यकायै नमः, अः लां महालक्ष्मीकन्यकायै नमः,
।
षष्ठ आवरण में अष्टदल के अग्रभाग
में वाग्बीज पूर्वक अष्टसिद्धियों की पूजा करनी चाहिए ।
१ - ॐ ऐं अणिमासिद्धिकन्यकायै नमः, २ - ॐ ऐं
महिमासिद्धिकन्यकायै नमः,
३ - ॐ ऐं लघिमासिद्धिकन्यकायै नमः, ४ - ॐ ऐं
गरिमासिद्धिकन्यकायै नमः,
५ - ॐ ऐं ईशितासिद्धिकन्यकायै नमः, ६ - ॐ ऐं
वशितासिद्धिकन्यकायै नमः,
७ - ॐ ऐं प्राकाम्यसिद्धिकन्यकायै
नमः, ८ - ॐ ऐं
प्राप्तिसिद्धिकन्यकायै नमः,
सप्तम आवरण में कामबीजपूर्वक उर्वशी
आदि आठ अप्सराओं की निम्न नाममन्त्रों से पूजा करनी चाहिए -
१ - ॐ क्लीं उर्वशीकन्यकायै नमः, २ - ॐ क्लीं
मेनकाकन्यकायै नमः
३ - ॐ क्लीं रम्भाकन्यकायै नमः, ४ - ॐ क्लीं
घृताचीकन्यकायै नमः
५ - ॐ क्लीं पुञ्जकस्थलाकन्यकायै
नमः, ६ - ॐ क्लीं सुकेशीकन्यकायै
नमः,
७ - ॐ क्लीं मञ्जुघोषाकन्यकायै नमः, ८ - ॐ क्लीं
महारङ्गवतीकन्यकायै नमः,
इसी प्रकार सप्तम आवरण में ही
यक्षादि आठ कन्यकाओं की पूजा भी तत्तन्नामन्मन्त्रों से करनी चाहिए-
१ - ॐ क्लीं यक्षकन्यकायै नमः २ - ॐ क्लीं गन्धर्वकन्यकायै नमः
३ - ॐ क्लीं सिद्धकन्यकायै नमः ४ - ॐ क्लीं नरकन्यकायै नमः
५ - ॐ क्लीं नागकन्यकायै नमः ६ - ॐ क्लीं विद्याधरकन्यकायै नमः
७ - ॐ क्लीं किंपुरुषकन्यकायै
नमः ८ - ॐ क्लीं पिशाचकन्यकायै नमः
अष्टम आवरण में भूपुर के चारो दिशाओं में १६, १६ योगिनियों की पूजा करनी
चाहिए ।
भूपुर के पूर्वदिशा में -
१. ॐ गजाननायै नमः, २. ॐ सिंहमुख्यै नमः, ३. ॐ ग्रुध्रास्यायै नमः
४. ॐ काकतुण्टायै नमः, ५. ॐ उष्ट्रग्रीवायै नमः, ६. ॐ हयग्रीवायै नमः
७. ॐ वाराह्यै नमः ८. ॐ शरभाननायै नमः, ९. ॐ उलूकिकायै नमः
१०. ॐ शिवारावायै नमः ११. ॐ मयूर्यै नमः १२. विकटाननायै नमः
१३. ॐ अष्टवक्त्रायै नमः १४. ॐ कोटराक्ष्यै नमः १५. ॐ कुब्जायै नमः
१६. ॐ विकटलोचनायै नमः
भूपुर के दक्षिणदिशा में -
१. ॐ शुष्कोदर्यै नमः, २. ॐ ललज्जिहवायै नमः, ३. ॐ श्वदंष्ट्रायै नमः
४. ॐ वानराननायै नमः ५. ॐ ऋक्षाक्ष्यै नमः, ६. ॐ केकराक्ष्यै नमः
७. ॐ बृहत्तुण्डायै नमः ८. ॐ सुराप्रियायै नमः ९. ॐ कपालहस्तायै नमः
१०. ॐ रक्ताक्ष्यै नमः ११. ॐ शुक्यै नमः १२. श्येन्यै नमः
१३. ॐ कपोतिकायै नमः १४. ॐ पाशहस्तायै नमः १५. दण्डहस्तायै नमः
१६. ॐ प्रचण्डायै नमः
भूपुर के पश्चिम दिशा में -
१. ॐ चण्डविक्रमायै नमः, २. ॐ शिशुघ्न्यै नमः ३. ॐ पापहन्त्र्यै नमः
४. ॐ काल्यै नमः ५. ॐ रुधिपायिन्यै नमः ६. ॐ वसाधयायै नमः
७. ॐ गर्भभक्षायै नमः ८. ॐ शवहस्तायै नमः ९. ॐ अन्त्रमालिन्यै नमः
१०. ॐ स्थूलकेश्ये नमः ११. ॐ बृहत्कुक्ष्यै नमः १२. ॐ सर्पास्यायै नमः
१३. ॐ प्रेतवाहनायै नमः १४. ॐ दन्तशूककरायै नमः १५. ॐ क्रौञ्च्यै नमः
१६. ॐ मृगशीर्षायै नमः
भूपुर के उत्तर दिशा में -
१. ॐ वृषाननायै नमः, २. ॐ व्यात्तास्यायै
नमः ३. ॐ धूमनिश्वासायै नमः
४. ॐ व्योमैकचरणायै नमः ५. ॐ ऊर्ध्वदृशे नमः ६. ॐ तापिन्यै नमः
७. ॐ शोषिण्यै नमः ८. ॐ दृष्ट्ये नमः ९. ॐ कोटर्यै नमः
१०. ॐ स्थूलनासिकायै नमः ११. ॐ विद्युत्प्रभायै नमः १२. बलाकास्यायै नमः
१३. ॐ मार्जार्यै नमः १४. ॐ कटपूतनायै नमः १५. अट्टाटटहासकायै नमः
१६. ॐ कामाक्ष्यै नमः
तदनन्तर नवम आवरण में पुनः भूपुर के चारों दिशाओं में पूर्वादि से बटुक, गणपति, क्षेत्रपाल और दुर्गा की पूजा करनी चाहिए ।
ॐ बं बटुकाय नमः,
पूर्वे ॐ गं गणपतये
नमः, दक्षिणे
ॐ क्षं क्षेत्रपालाय नमः,
पश्चिमे ॐ दुं दुर्गायै
नमः, उत्तरे
इस बाद दशम आवरण में भूपुर के बाहर
इन्द्रादि दश दिक्पालों की पूजा करनी चाहिए ।
१ - ॐ इन्द्राय नमः,
पूर्वे २ - ॐ अग्नये
आग्नेये
३ - ॐ यमाय नमः,
दक्षिणे ४ - ॐ निऋतये
नमः, नैऋत्ये
५ - ॐ वरुणाय नमः,
पश्चिमे ६ - ॐ वायवे
नमः, वायव्ये
७ - ॐ सोमाय नमः,
उत्तरे ८ - ॐ ईशानाय
नमः, ऐशान्ये
९ - ॐ ब्रह्मणे नमः,
पूर्वेशानयोर्मध्ये,
१० - ॐ अनन्ताय नमः, पश्चिमनैऋत्ययोर्मध्ये,
इसके बाद एकादश आवरण में पुनः भूपुर
के बाहर दश दिक्पालों के समीप उनके वज्रादि आयुधों की पूजा करनी चाहिए ।
१ - ॐ वज्राय नमः,
पूर्वे २ - ॐ शक्तये
नमः, आग्नेये
३ - ॐ दण्डाय नमः,
दक्षिणे ४ - ॐ खड्गाय
नमः, नैऋत्ये
५ - ॐ पाशाय नमः,
पश्चिमे ६ - ॐ
अंकुशाय नमः, वायव्ये
७ - ॐ गदायै नमः,
उत्तरे ८ - ॐ
त्रिशूलाय नमः, ऐशान्ये
९ - ॐ पद्माय नमः,
पूर्वेशानयोर्मध्ये,
१० - ॐ चक्राय नमः, पश्चिमनैऋत्योर्मध्ये,
पुनः बारहवें आवरण में भूपुर के
बाहर पूर्वादि दिशाओं में वाद्यों की पूजा करे -
ॐ वीणाय नमः,
पूर्वे ॐ वितताय नमः,
दक्षिणे,
ॐ घनाय नमः,
पश्चिमे, ॐ सुषिराय नमः, उत्तरे,
इस प्रकार आवरण पूजा सम्पादन कर धूप
दीपादि उपचारों से देवी का पूजन कर पुनः जप करना चाहिए ॥१२५-१३८॥
लघुश्यामायाः
द्वादशावरणपूजागायत्रीकथनं च
वाणीशुक्रप्रिया ङ्गेता विद्महे
मीनकेतनः ।
कामेश्वरीं धीमहीति तन्नः
श्यामाप्रचोदयात् ॥१३९॥
एषोदिता तु मातङ्गीगायत्री
सर्वसिद्धिदा ।
अनया यागवस्तूनि
प्रोक्षेतस्यास्समर्चने ॥१४०॥
अब मातङ्गी गायत्री का उद्धार कहते
हैं -
वाणी (ऐं) चतुर्थ्यन्त शुकप्रिया
(शुकप्रियायै), फिर ‘विद्महे’
तदनन्तर मीनकेतन कामबीज (क्लीं), फिर ‘कामेश्वरीं धीमहि’ इसके बाद ‘तन्नः
श्यामा प्रचोदयात्’ लगाने से सर्वाभीष्टप्रदायिनी मातङ्गी
गायत्री निष्पन्न होती है । मातङ्गी की अर्चना में इसी गायत्री से समस्त यज्ञ
सामग्री अभिषिञ्चित करें ॥१३९-१४०॥
विमर्श - मन्त्र का स्वरुप इस
प्रकार है -
ऐं शुकप्रियायै विद्महे क्लीं
कामेश्वरीं धीमहि । तन्नः श्यामा प्रचोदयात ।
मातङ्गीमन्त्रसप्रोक्ताः प्रयोगाः
तत्र कीर्तिताः ।
राजानो राजपुत्राश्च सुदृशो मदमन्थराः
॥१४१॥
दासामनोवचःकायैर्भवन्त्यस्या
उपासितुः ।
शाकिनीप्रेतभूताश्च धर्षितुं तं न
शक्नुयुः ॥१४२॥
सप्तम तरङ्ग (६६-६९) में हमने
मातङ्गी के मन्त्र तथा उसके समस्त प्रयोगों को ७. ८३-९१ में कहा है ।
राजा, राजपुत्र, मदविहवला, स्त्रियाँ
ये सभी मातङ्गी की उपासना करने वाले साधक के मन वचन और कार्य से वश में हो जाते
हैं । किं बहुना शाकिनी अथवा प्रेत या भूत आदि उसे किसी प्रकार भयभीत नहीं कर सकते
॥१४१-१४२॥
भूरिणा किमिहोक्तेन देवीयमखिलेष्टदा
।
यन्मनुस्मरणादेव नरो देवोपमो भवेत्
॥१४३॥
इस विषय में विशेष कहने की आवश्यकता
नही है,
यह देवी अपने उपासकों के सारे अभीष्ट पूर्ण करती है । इन देवी के
मन्त्र के स्मरण मात्र से मनुष्य देवता के समान बन जाता है ॥१४३॥
देव्याउपासकैः पुम्भिः स्त्रियो
निन्द्या च जातुचित् ।
देवीवन्माननीयास्ता
मनोऽभीष्टमभीप्सुभिः ॥१४४॥
॥ इति श्रीमन्महीधरविरचिते
मन्त्रमहोदधौ बालालघुश्यामानिरुपणमष्टमस्तरङ्गः ॥८॥
देवी के उपासकों को कभी किसी भी
हालत में स्त्री निन्दा नहीं करनी चाहिए । अपना अभीष्ट चाहने वालों को उनका सत्कार
देवी की तरह ही करना चाहिए ॥१४४॥
॥ इति श्रीमन्महीधरविरचितायां
मन्त्रमहोदधिव्याख्यायां नौकायां बालालघुश्यामानिरुपणमष्टमस्तरङ्गः ॥८॥
इस प्रकार श्रीमन्महीधर विरचित मन्त्रमहोदधि के अष्टम तरङ्ग की महाकवि पं० रामकुबेर मालवीय के द्वितीय आत्मज डॉ सुधाकर मालवीय कृत 'अरित्र' हिन्दी व्याख्या पूर्ण हुई ॥८ ॥
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