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कर्मकाण्ड

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मूर्त्यष्टकस्तोत्र

मूर्त्यष्टकस्तोत्र

जो मनुष्य शुक्राचार्य [भार्गव ] के इस मूर्त्यष्टकस्तोत्र का पाठ करता है उसे मृतसंजीवनी नामक निर्मल विद्या की प्राप्ति होती और उनके सारे कार्य सिद्ध व फलप्रद होता तथा पुत्रवान् एवं सौभाग्य से सम्पन्न, विद्यायुक्त तथा सुखी होते हैं ।

शुक्राचार्य ने शिवजी को प्रणाम कर इस प्रकार अष्टमूर्ति-स्तुति के आठ श्लोकों से शिवजी की स्तुति किया -

मूर्त्यष्टकस्तोत्रम्

मूर्त्यष्टकस्तोत्रम्

॥ भार्गव उवाच ॥

त्वं भाभिराभिरभिभूय तमस्समस्तमस्तं नयस्यभिमतानि निशाचराणाम् ।

देदीप्यसे दिवमणे गगने हिताय लोकत्रयस्य जगदीश्वर तन्नमस्ते ॥ १ ॥

लोकेऽतिवेलमतिवेलमहामहोभिर्निर्भासि कौ च गगनेऽखिललोकनेत्रः ।

विद्राविताखिलतमास्सुतमो हिमांशो पीयूष पूरपरिपूरितः तन्नमस्ते ॥ २ ॥

त्वं पावने पथि सदागतिरप्युपास्यः कस्त्वां विना भुवनजीवन जीवतीह ।

स्तब्धप्रभंजनविवर्द्धि तसर्वजंतोः संतोषिता हि कुलसर्वगः वै नमस्ते ॥ ३  

विश्वेकपावक न तावकपावकैकशक्तेर्ऋते मृतवतामृतदिव्यकार्यम् ।

प्राणिष्यदो जगदहो जगदंतरात्मंस्त्वं पावकः प्रतिपदं शमदो नमस्ते ॥ ४  

पानीयरूप परमेश जगत्पवित्र चित्रविचित्रसुचरित्रकरोऽसि नूनम् ।

विश्वं पवित्रममलं किल विश्वनाथ पानीयगाहनत एतदतो नतोऽस्मि ॥ ५ ॥

आकाशरूपबहिरंतरुतावकाशदानाद्विकस्वरमिहेश्वर विश्वमेतत् ।

त्वत्तस्सदा सदय संश्वसिति स्वभावात्संकोचमेति भक्तोऽस्मि नतस्ततस्त्वाम् ॥ ६ ॥

विश्वंभरात्मक बिभर्षि विभोत्र विश्वं को विश्वनाथ भवतोऽन्यतमस्तमोरिः ।

स त्वं विनाशय तमो तम चाहिभूषस्तव्यात्परः परपरं प्रणतस्ततस्त्वाम् ॥ ७ ॥

आत्मस्वरूप तव रूपपरंपराभिराभिस्ततं हर चराचररूपमेतत् ।

सर्वांतरात्मनिलयप्रतिरूपरूप नित्यं नतोऽस्मि परमात्मजनोऽष्टमूर्ते ॥ ८ ॥

इत्यष्टमूर्तिभिरिमाभिरबंधबंधो युक्तौ करोषि खलु विश्वजनीनमूर्त्ते ।

एतत्ततं सुविततं प्रणतप्रणीत सर्वार्थसार्थपरमार्थ ततो नतोऽस्मि ॥ ९  

॥ इति श्रीशिवमहापुराणे रुद्रसंहितायां मूर्त्यष्टकस्तोत्रं सम्पूर्णम् ॥

मूर्त्यष्टक स्तोत्र भावार्थ सहित                 

भार्गव उवाच -

त्वं भाभिराभिरभिभूय तमस्समस्त-

मस्तं नयस्यभिमतानि निशाचराणाम् ।

देदीप्यसे दिवमणे गगने हिताय

लोकत्रयस्य जगदीश्वर तन्नमस्ते ॥ १॥

भार्गव ने कहा--सूर्यस्वरूप भगवन्! आप त्रिलोकी का हित करने के लिये आकाश में प्रकाशित होते हैं और अपनी इन किरणों से समस्त अन्धकार को अभिभूत करके रात में विचरने वाले असुरों का मनोरथ नष्ट कर देते हैं । जगदीश्वर! आपको नमस्कार है ।

लोकेऽतिवेलमतिवेलमहामहोभि-

निर्भासि कौ च गगनेऽखिललोकनेत्रः ।

विद्राविताखिलतमास्सुतमो हिमांशो

पीयूषपूरपरिपूरित तन्नमस्ते ॥ २॥

घोर अन्धकार के लिये चन्द्रस्वरूप शंकर! आप अमृत के प्रवाह से परिपूर्ण तथा जगत्के सभी प्राणियों के नेत्र हैं । आप अपनी अमर्याद तेजोमय किरणों से आकाश में और भूतल पर अपार प्रकाश फैलाते हैं जिससे सारा अन्धकार दूर हो जाता है; आपको प्रणाम है ।

त्वं पावने पथि सदा गतिरस्युपास्यः

कस्त्वां विना भुवनजीवन जीवतीह ।

स्तब्धप्रभञ्जनविवर्धितसर्वजन्तो

संतोषिताहिकुल सर्वग वै नमस्ते ॥ ३॥

सर्वव्यापिन्! आप पावन पथ-योगमार्ग का आश्रय लेनेवालों की सदा गति तथा उपास्यदेव हैं  । भुवन-जीवन! आपके बिना भला इस लोक में कौन जीवित रह सकता है । सर्पकुल के संतोषदाता! आप निश्चल वायुरूप से सम्पूर्ण प्राणियों की वृद्धि करनेवाले हैं, आपको अभिवादन है ।

विश्वैकपावक नतावक पावकैक-

शक्ते ऋते मृतवतामृतदिव्यकार्यम् ।

प्राणिष्यदो जगदहो जगदन्तरात्मं-

स्त्वं पावकः प्रतिपदं शमदो नमस्ते ॥ ४॥

विश्व के एकमात्र पावनकर्ता! आप शरणागतरक्षक और अग्नि की एकमात्र शक्ति हैं  । पावक आपका ही स्वरूप है। आपके बिना मृतकों का वास्तविक दिव्य कार्य-दाह आदि नहीं हो सकता । जगत्के अन्तरात्मन् ! आप प्राणशक्ति के दाता, जगत्स्वरूप और पद-पद पर शान्ति प्रदान करनेवाले हैं; आपके चरणों में मैं सिर झुकाता हूँ ।

पानीयरूप परमेश जगत्पवित्र

चित्रातिचित्रसुचरित्रकरोऽसि नूनम् ।

विश्वं पवित्रममलं किल विश्वनाथ

पानीयगाहनत एतदतो नतोऽस्मि ॥ ५॥

जलस्वरूप परमेश्वर! आप निश्चय ही जगत के पवित्रकर्ता और चित्र-विचित्र सुन्दर चरित्र करनेवाले हैं  । विश्वनाथ ! जल में अवगाहन करने से आप विश्व को निर्मल एवं पवित्र बना देते हैं; आपको नमस्कार है ।

आकाशरूप बहिरन्तरुतावकाश-

दानाद् विकस्वरमिहेश्वर विश्श्वमेतत् ।

त्वत्तस्सदा सदय संशवसिति स्वभावात्

संकोचमेति भवतोऽस्मि नतस्ततस्त्वाम् ॥ ६॥

आकाशरूप ईश्वर! आपसे अवकाश प्राप्त करने के कारण यह विश्व बाहर और भीतर विकसित होकर सदा स्वभाववश श्वास लेता है अर्थात् इसकी परम्परा चलती रहती है तथा आपके द्वारा यह संकुचित भी होता है अर्थात् नष्ट हो जाता है; इसलिये दयालु भगवन्! मैं आपके आगे नतमस्तक होता हूँ ।   

विश्वम्भरात्मक बिभर्षि विभोऽत्र विश्वं

को विश्वनाथ भवतोऽन्यतमस्तमोऽरिः ।

स त्वं विनाशय तमो मम चाहिभूष

स्तव्यात् परः परपरं प्रणतस्ततस्त्वाम् ॥ ७॥

विश्वम्भरात्मक ! आप ही इस विश्व का भरण-पोषण करते हैं । सर्वव्यापिन्! आपके अतिरिक्त दूसरा कौन आज्ञानान्धकार को दूर करने में समर्थ हो सकता है । अतः विश्वनाथ! आप मेरे अज्ञानरूपी तम का विनाश कर दीजिये । नागभूषण ! आप स्तवनीय पुरुषों में सबसे श्रेष्ठ हैं; आप परात्पर प्रभु को मैं बारम्बार प्रणाम करता हूँ ।

आत्मस्वरूप तव रूपपरम्पराभि-

राभिस्ततं हर चराचररूपमेतत् ।

सर्वान्तरात्मनिलय प्रतिरूपरूप

नित्यं नतोऽस्मि परमात्मजनोऽष्टमूर्ते ॥ ८॥

आत्मस्वरूप शंकर! आप समस्त प्राणियों की अन्तरात्मा में निवास करनेवाले, प्रत्येक रूप में व्याप्त हैं और मैं आप परमात्मा का जन हूँ। अष्टमूर्ते! आपको इन रूप परम्पराओं से यह चराचर विश्व विस्तार को प्राप्त हुआ है, अतः मैं सदा से आपको नमस्कार करता हूँ ।

इत्यष्टमूर्तिभिरिमाभिरबन्धवन्धो

युक्तः करोषि खलु विश्वजनीनमूर्ते ।

एतत्ततं सुविततं प्रणतप्रणीत

सर्वार्थसार्थपरमार्थ ततो नतोऽस्मि ॥ ९॥

हे मुक्तपुरुषों के वन्धो! आप विश्व के समस्त प्राणियों के स्वरूप, प्रणतजनों के सम्पूर्ण योगक्षेम का निर्वाह करनेवाले और परमार्थ स्वरूप हैं । आप अपनी इन अष्टमूर्तियों से युक्त होकर इस फैले हुए विश्व को भलीभाँति विस्तृत करते हैं, अतः आपको मेरा अभिवादन है ।

॥ इस प्रकार श्रीशिवमहापुराण के रुद्रसंहिता में मूर्त्यष्टकस्तोत्र सम्पूर्ण हुआ ॥

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