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- मन्त्रमहोदधि तरङ्ग ८
- षोडशी कवच
- मातङ्गी शतनाम स्तोत्र
- शीतला कवच
- मातङ्गी सहस्रनाम स्तोत्र
- मातङ्गीसुमुखीकवच
- मातङ्गी कवच
- मन्त्रमहोदधि तरङ्ग ७
- मातङ्गी हृदय स्तोत्र
- वाराही कवच
- शीतलाष्टक
- श्री शीतला चालीसा
- छिन्नमस्ताष्टोत्तरशतनामस्तोत्र
- धूमावती अष्टोत्तर शतनाम स्तोत्र
- छिन्नमस्ता स्तोत्र
- धूमावती सहस्रनाम स्तोत्र
- छिन्नमस्ता सहस्रनाम स्तोत्र
- धूमावती अष्टक स्तोत्र
- छिन्नमस्ता हृदय स्तोत्र
- धूमावती कवच
- धूमावती हृदय स्तोत्र
- छिन्नमस्ता स्तोत्र
- मन्त्रमहोदधि तरङ्ग ६
- नारदसंहिता अध्याय ११
- छिन्नमस्ता कवच
- श्रीनायिका कवचम्
- मन्त्रमहोदधि पञ्चम तरङ्ग
- नारदसंहिता अध्याय १०
- नारदसंहिता अध्याय ९
- नारदसंहिता अध्याय ८
- नारदसंहिता अध्याय ७
- नारदसंहिता अध्याय ६
- नारदसंहिता अध्याय ५
- मन्त्रमहोदधि चतुर्थ तरङ्ग
- मन्त्रमहोदधि तृतीय तरङ्ग
- मन्त्रमहोदधि द्वितीय तरङ्ग
- मन्त्रमहोदधि - प्रथम तरड्ग
- द्वादशलिङगतोभद्रमण्डलदेवता
- ग्रहलाघव त्रिप्रश्नाधिकार
- ग्रहलाघव पञ्चतारास्पष्टीकरणाधिकार
- ग्रहलाघव - रविचन्द्रस्पष्टीकरण पञ्चाङ्गानयनाधिकार
- नारदसंहिता अध्याय ४
- नारदसंहिता अध्याय ३
- ग्रहलाघव
- नारद संहिता अध्याय २
- नारद संहिता अध्याय १
- सवितृ सूक्त
- शिवाष्टकम्
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- ब्रह्मा स्तुति श्रीरामकृत
- श्रीरामेश्वरम स्तुति
- ब्रह्माजी के १०८ तीर्थनाम
- ब्रह्मा स्तुति
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- चामुण्डा स्तोत्र
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- शिवमहापुराण – द्वितीय रुद्रसंहिता [प्रथम-सृष्टिखण्...
- शिवमहापुराण – रुद्रसंहिता सृष्टिखण्ड – अध्याय 19
- शिवमहापुराण – रुद्रसंहिता सृष्टिखण्ड – अध्याय 18
- सरस्वती स्तोत्र
- नील सरस्वती स्तोत्र
- मूर्त्यष्टकस्तोत्र
- श्रीराधा स्तुति
- श्रीपुरुषोत्तम माहात्म्य
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नारदसंहिता अध्याय ६
नारदसंहिता अध्याय ६ में नक्षत्र प्रकरण, नक्षत्रों का तिर्यक आदि संज्ञा व इनमें शुभाशुभ कर्मज्ञान,नक्षत्रों की तारा संख्या और इनमे वृक्षों की उत्पत्ति का वर्णन किया गया है।
नारदसंहिता अध्याय- ६
नक्षत्र और नक्षत्रों के स्वामी
नक्षत्रेशाः
क्रमाद्दस्रयमवह्निपितामहः॥
चंद्रशाऽदितिजीवाहिपितरो
भगसंज्ञिताः ॥ १ ॥
दस्त्र ( अश्विनीकुमार ) १ यम २
वह्नि ३ ब्रह्मा ४ चंद्रमा ५ शिवजी ६ अदिति ७ बृहस्पति ८ सर्प ९ पितर १० भग ११ ।। १ ।।
अर्यमार्कत्वष्टुमरुच्छक्राग्निमित्रवासवाः॥
निर्ऋत्युदविश्वविधि
गोविंदवसुतोयपाः ॥ २॥
अर्यमा १२ सूर्य १३ त्वष्टा १४ वायु
१५इंद्राग्नि १६ मित्र १७ इंद्र १८ निर्ऋति १९ जल २० विश्वेदेवा २१ ब्रह्मा २२
विष्णु २३ वसु २४ वरुण २५ ।। २ ।।
ततोऽजपादहिर्बुध्न्यः पूषा चेति
प्रकीर्तिताः ॥
अजैकपाद् २६ अहिर्ब्रुध्न्य २७ पूषा
२८ ऐसे ये २७ देवता आश्विनी आदि २७ नक्षत्रों के स्वामी कहे हैं।
नक्षत्र और नक्षत्रों के स्वामी
नक्षत्र
स्वामी |
अश्विनी
अश्विनीकुमार |
भरणी यम
|
कृतिका अग्नि |
रोहिणी
ब्रह्मा
|
मृगशिरा चन्द्रमा
|
आर्द्रा
रूद्र
|
पुनर्वसु
अदिति
|
नक्षत्र
स्वामी |
पुष्य
गुरु
|
अश्लेषा सर्प
|
मघा
पितर |
पू.फा. भग |
उ.फा. अर्यमा
|
हस्त
सूर्य
|
चित्रा
विश्वकर्मा
|
नक्षत्र
स्वामी |
स्वाति वायु
|
विशाखा
इंद्राग्नि |
अनुराधा
मित्र
|
ज्येष्ठा
इन्द्र |
मूल
निर्ऋति |
पूर्वाषाढ़ा जल |
उ.षा.
विश्वेदेवा |
नक्षत्र
स्वामी |
अभिजित
ब्रह्मा(विधि) |
श्रवण विष्णु
|
घनिष्ठा
वसु |
शतभिषा
वरुण
|
पू.भा.
अजैकपाद् |
उ.भा. अहिर्ब्रुध्न्य |
रेवती
पूषा
|
नक्षत्रों में कर्मज्ञान
वस्त्रोपनयनं क्षौरः
सीमंताभरणक्रिया ॥ ३ ॥
अब इन नक्षत्रों में करने योग्य
कार्यो को कहते हैं वस्त्र यज्ञोपवीत और सीमंत आभूषण कर्म ।। ३ ।।
स्थापनाश्वादियानं च
कृषिविद्यादयोऽश्विभे ॥
वापीकूपतडागादि
विषशस्त्रोग्रदारुणम् ॥ ४ ॥
प्रतिष्ठा,
घोड़ा आदि सवारी, खेती विद्या पढना इत्यादि
काम अश्विनी नक्षत्र में करने शुभ हैं और बावड़ी कुँवा तलाब कराना विष शस्त्र उग्र
दारुण काम ॥ ४ ॥
बिलप्रवेशगणितनिक्षेपा याम्यभे
शुभाः ॥
अग्न्याधानास्त्रशस्त्रोग्रसन्धिविग्रहदारुणाः
॥ ४ ॥
गुफा में प्रवेश होना गणित विद्या
धरोहड़ जमा करना ये कार्यं भरणी नक्षत्र में करने शुभ हैं अग्निस्थापन अस्र शस्त्र
उग्रकर्म संधि दारुण विग्रह ।। ५ ।।
संग्रामौषधवादित्रक्रियाः शस्ताश्च
बाह्निभे ॥
सीमंतोपनयनोद्वाहवस्त्रभूषास्थिरक्रियाः
॥
गजवास्त्वभिषेकाश्च प्रतिष्ठा
ब्रह्मभे शुभाः ॥ ६ ॥
संग्राम औषध बाजा ये काम कृत्तिका
नक्षत्र में करने शुभ हैं, और सीमंतकर्म,
यज्ञोपवीत,विवाह, वस्र पहिनना,
आभूषण, स्थिरक्रिया, व
हाथी लेना, वास्तुकर्म, अभिषेक,
प्रतिष्ठा ये कर्म रोहिणी नक्षत्र में शुभ हैं । ६ ॥
प्रतिष्ठाभूषणोद्वाहसीमंतोपनयनक्रियाः
॥
क्षौरवास्तुगजोष्ट्राश्च यात्रा
शस्ता च चंद्रभे ॥ ७ ॥
प्रतिष्ठा,
आभूषण, विवाह, सीमंतकर्म,
उपनयन, क्षौर, वास्तु
कर्म, हाथी, ऊंट का काय, यात्रा ये मृगशिरा नक्षत्र में शुभ हैं ।। ७॥
ध्वजतोरणसंग्रामप्राकारास्त्रक्रियाःशुभाः
॥
संधिविग्रहवैतानरसाद्याःशिवभे शुभाः
॥ ८ ॥
ध्वजा,
तोरण, संग्राम, किला,
( कोट ) शस्र क्रिया संधि, विग्रह मंडप,
रसक्रिया, ये कर्म आर्द्रा नक्षत्र में करने
शुभ हैं ॥ ८॥
प्रतिष्ठा
यानसीमंतवस्रवास्तूपनायनम् ॥
क्षीरास्त्रकर्मादितिभे
विधेयं धान्यभूषणम् ॥ ९॥
प्रतिष्ठा गमन,
सीमंतकर्म, वस्त्रकर्म, वास्तु,
उपनयन, क्षौरकर्म, अस्त्रकर्म,
धान्य, आभूषण, ये कार्यं
पुनर्वसु नक्षत्र में करने शुभ हैं।। ९ ।।
यात्राप्रतिष्ठासीमंतव्रतबंधप्रवेशनम्
॥
करग्रहं विना सर्वं कर्म देवेज्यभे
शुभम् ॥ १० ॥
यात्रा,
प्रतिष्ठा,सीमंत, यज्ञोपवीत,
गृहप्रवेश ये कर्म तथा विवाह कर्म विना अन्य सब कार्यं पुष्य
नक्षत्र में करने शुरू हैं ।। १० ॥
अनृतव्यसनद्यूतक्रोधाग्निविषदाहकम्
॥
विवादरसवाणिज्यं कर्म कद्रुजभे
शुभम् ॥ ११ ॥
झूठ, व्यसन, जूवा, क्रोध, अग्नि, विष, दाह, विवाद, रस, वाणिज्य ये कर्म
आश्लेषा नक्षत्र में करने शुभ हैं ।। ११ ॥
कृषिवाणिज्यगोधान्यरणोपकरणादिकम् ॥
विवाहनृत्यगीताद्यं निखिलं कर्म
पैत्रभे ॥ १२ ॥
खेती, वाणिज्य, गौ, धान्य, रण, कोई वस्तुसंचय तैयारी, विवाह,
नृत्य, गीत ये सब कर्म मघा नक्षत्र में करने
शुभ हैं ॥ १२॥
विवादविषशस्त्राग्निदारुणोग्राहादिकम्
।
पूर्वत्रयेऽखिलं कर्म कर्तव्यं
मांसविक्रयम् ॥ १३ ॥
विवाद विष शस्त्र अग्नि दारुण
उग्रकर्म युद्ध मांस वेचना इत्यादि कर्म तीनों पूर्वाओं में करने शुभ हैं ।। १३ ।।
वस्त्राभिषेकलोहाश्मविवाहव्रतबंधनम्
॥
प्रवेशस्थापनाश्वेभवास्तुकर्म्मोत्तरात्रये
॥ १४ ॥
वस्त्र अभिषेक लोहा पत्थर विवाह
यज्ञोपवीत प्रवेश प्रतिष्ठा कर्म घोडा हाथी वास्तुकर्म ये सब कार्य तीनों उत्तराओं
में करने शुभ हैं ।। १४ ।।
प्रतिष्ठोद्वाहसीमंतयानवस्त्रोपनायनम्
॥
क्षौरवास्त्वभिषेकाश्च भूषणं कर्म
भानुभे ॥ १५॥
प्रतिष्ठा विवाह सीमंतकर्म सवारी
वस्त्र उपनयनकर्म क्षौर वास्तु कर्म अभिषेक आभूषण ये कर्म हस्त नक्षत्र में करने
शुभ हैं ।।१५।
प्रवेशवस्त्रसीपंतप्रतिष्ठानतबंधनम्
॥
त्वाष्ट्रभे
वास्तुविद्य च क्षौरभूषणकर्म यत् ॥ १६॥
प्रवेश वस्त्र सीमंत प्रतिष्ठा
यज्ञोपवीत वास्तुविद्या क्षौर आभूषण ये कर्म चित्रा नक्षत्र में करने शुभ हैं ॥
१६॥
प्रतिष्टोपनयोद्वाहवस्त्रसीमंतभूषणम्
॥
प्रवेशाभकृष्यादिक्षौरकर्म समीरभे ॥
१७॥
प्रतिष्ठा उपनयन विवाह वस्त्र
सीमंतकर्म आभूषण प्रवेश घोडा हाथी खरीदना खेती क्षौरकर्म ये स्वाति नक्षत्र में
करनेशुभहैं ।१७।
वस्त्रभूषणवाणिज्यवस्तुधान्यादिसंग्रहः
।
इंद्राग्निभे नृत्यगीतशिल्पलोहाश्मलेखनम्
।। १८॥
वस्त्र आभूषण वणिज वस्तु व धान्य
आदि का संग्रह, नृत्य गीत शिल्पकर्म लोहा पत्थर
लिखना ये कर्म विशाखा नक्षत्र में करने शुभ हैं ।। १८ ।।
प्रवेशस्थापनेद्वाहव्रतबंधाष्टमंगलाः
॥
वास्तुभूषणवस्राश्वा मैत्रभे
संधिविग्रहः ।। १९॥
प्रवेश प्रतिष्ठा विवाह व्रतबन्ध
अष्ट प्रकार के मंगल, वास्तुकर्म,
आभूषण वस्र अश्व संधि विग्रह ये कार्यं अनुराधा नक्षत्र में करने
शुभ है ॥ १९ ।।
क्षौरास्त्रशास्त्रवाणिज्यगोमहिष्यंबुकर्म
यत् ॥
इंद्रभे
गीतवादित्रशिल्पलोहाश्मलेखनम् ॥ २० ॥
क्षौरकर्म,
अस्त्रकर्म, शस्त्रकर्म, वणिज, गौ, महिषी, जल, गीत, बाज़ा, शिल्पलोहा, पत्थर, लिखना,
ये कर्म ज्येष्ठा नक्षत्र में करने शुभ हैं ॥ २० ॥
विवाहकृषिवाणिज्यदारुणाहवभेषजम् ॥
नैर्ऋते
नृत्यशिल्पास्त्रशस्त्रलोहश्मलेखनम् ॥ २१ ॥
विवाह खेती,
वणिज, दारुण, युद्ध,
औषध, नृत्य, शिल्प
अस्त्र, शस्त्र, लोहा, पत्थर, लिखना ये कर्म मूल नक्षत्र में करने शुभ हैं
॥ २१ ॥
प्रतिष्ठाक्षौरसीमंतयानोपनयनौषधम् ॥
पुराणे स्तु गृहारंभो विष्णुभे च
समीरितम् ॥ २२ ॥
प्रतिष्ठा,
क्षौर, सीमंत, सवारी;
उपनयन; औषध पुराना घर चिनना इन कामों में
श्रवण नक्षत्र शुभ है। तीनों पूर्वो, तीनों उत्तराओं का फल एकत्र कह चुके हैं। २२॥
वस्त्रोपनयनं क्षीरं
मौंजीबंधनभेषजम् ।
वसुभे वास्तुसीमंतप्रवेशाश्च
विभूषणः॥ २३ ॥
वस्त्र उपनयनकर्म,
क्षौर, मौंजीबंधन, औषध,
वास्तुकर्म, सीमंत; गृहप्रवेश,
आभूषण ये कर्म धनिष्ठा नक्षत्र में करने शुभ हैं ।। २३ ।।
वेशस्थापनं क्षौरमौंजीबंधनभेषजम् ॥
अश्वरोहणसीमंतवास्तुकर्म जलेशभे ॥
२४ ॥
गृहप्रवेश,
प्रतिष्ठा, क्षौर, मौंजीबंधन,
औषध घोडे की सवारी करना, सीमंत, वास्तुकर्म ये शतभिषा नक्षत्र में करने शुभ हैं ।। २४ ।।
विवाहव्रतबंधाश्च
प्रतिष्ठायानभूषणम् ।
वेशवत्रसीमंतक्षौरभेषजमंत्यमी ॥ २९
॥
विवाह,
ब्रतबंध, प्रतिष्ठा, सवारी,
आभूषण, प्रवेश, वस्र,
सीमंत, क्षौर, औषध,
ये रेवती नक्षत्र में करने शुभ हैं ।२५॥
नक्षत्रों की संज्ञा
॥ अधोमुखम् ।
पूर्वत्रयाग्निसूलाहिद्विदैवत्यमघांतकम्
॥
अधोमुखं तु नवकं भानां तत्र विधीयते
॥ २६ ॥
तीनों पूर्वा,
कृत्तिक, मूळ, आश्लेषा,
विशाखा,मघा, भरणी ये व
नक्षत्र अधोमुख संज्ञक हैं ।। २६ ॥
बिलप्रवेशगणितभूतसाधनलेखनम् ॥
शिल्पकर्म
लताकूपनिक्षेपोद्धरणादि यत् ॥ २७ ॥
इन अधोमुख नक्षत्रों में गुफा में
प्रवेश होना गणित मंत्र यंत्र साधन, लिखना
शिल्पकर्म लता (वेल ) लगाना कूँवा में गिरी हुई वस्तु निकलना शुभ है ॥ २७ ॥
॥ तिर्यङ्मुखम् ॥
मित्रेंदुत्वाष्ट्रहस्तार्द्रादितिभांत्योश्ववायुभम्
॥
तिर्यङ्मुखाख्यं नवकं भानां तत्र
विधीयते ॥ २८ ॥
अनुराधा,
मृगशिरा, चित्रा, हस्त,
ज्येष्ठा, पुनर्वसु, रेवती, अश्विनी, स्वाति
ये नव नक्षत्र तिर्यङ्मुख संज्ञक हैं ।। २८ ॥
हलप्रवाहगमनं गंत्री
यंत्रगजोष्ट्रकम् ॥
अजादिग्रहणं चैव हयकर्म यतस्ततः ॥
२९॥
इन नक्षत्र में हल जोतना,
गमन, गाडी बनाना, हाथी
ऊँट, बकरी आदि खरीदना घोडा खरीदना ये शुभ हैं ।। २९॥
खरगोरथनौयानं लुलायहयकर्म च ॥
शकटग्रहणं चैव तथा पश्वादिकर्म च ॥
३० ॥
और गधा,
बैल,रथ, नौका इनकी सवारी
करना, भैंस, घोडा का कार्य गाडी का कार्य, ऊंट खरीदना तथा
अन्य पशु का कार्य शुभ है ॥ ३० ॥
॥ ऊर्ध्वमुखम् ॥
ब्रह्मविष्णुमहेशार्यशततारावसूत्तराः
॥
ऊर्ध्वास्यं नवकं भानां प्रोक्तं
चैव विधीयते ॥ ३१ ॥
रोहिणी,
श्रवण, आर्द्रा, पुष्य,
शतभिषा, धनिष्ठा, तीनों
उत्तरा ये नव नक्षत्र ऊर्द्ध्वमुखसंज्ञक कहे हैं ॥ ३१ ॥
पुरहर्म्यगृहारामवारणध्वजकर्म च ॥
प्रासादभित्तिकोद्यानप्राकाराचैव
मण्डपम्॥ ३२ ॥
इन नक्षत्रों में शहर, हवेली, घर, बगीचा, हाथी, ध्वजा, इनके कार्य,
देवमंदिर, दीवालबाग, कोटमंडप
ये कार्य शुभ हैं।३२॥
नक्षत्रों के ध्रुवादि संज्ञा
स्थिरं रोहिण्युत्तराभं क्षिप्रं
सूर्यश्खिपुष्यभम्॥
साधारणं द्विदैवत्यं वह्निभं
चरसंज्ञितम् ॥ ३३ ॥
रोहिणी तीनों उत्तरा ये स्थिर
संज्ञक नक्षत्र हैं हस्त, अश्विनी पुष्य ये
क्षिप्रसंज्ञक हैं विशाखा, भरणी, कृत्तिका
ये साधारण संज्ञक नक्षत्र हैं ॥ ३३ ॥
वस्वादित्यंवुपस्वातिविष्णुभं
मृदुसंज्ञितम् ।
चित्रांत्यमित्रशशिभमुग्रं
पूर्वामघांतकम् ॥
मूलेंद्रार्द्रभं तीक्ष्णं
स्वनामसदृशं फलम् ॥ ३४ ॥
धनिष्ठा,
पुनर्वसु, शतभिषा, स्वाती,
श्रवण ये नक्षत्र चरसंज्ञक हैं और चित्रा, रेवती, अनुराधा, मृगशिरा ये मृदुसंज्ञक हैं । मूळ, ज्येष्ठ, आश्लेषा, आर्द्रा ये
तीक्ष्णसंज्ञक नक्षत्र ये अपने नाम के सदृश फल देनेवाले हैं । ये संज्ञा मुहूर्त
देखने में काम आती हैं ॥ ३४ ॥
ध्रुवादि संज्ञा नक्षत्रों में
कर्मज्ञान
चित्रादित्याश्विविष्ण्वंत्यरविमित्रवसूडुषु
।।
स मृगेषु च बालानां कर्णवेधक्रिया
हिता ॥ ३८ ॥
दर्स्त्रेंद्वदितातिष्येषु
करादित्रितये तथा ॥
गजकर्माखिलं यत्तद्विधेयं स्थिरभेषु
च ॥ ३६॥
चित्रा, पुनर्वसु, अश्विनी,
श्रवण, रेवती, हस्त, अनुराधा,
धनिष्ठा, मृगशिरा इन नक्षत्रों में बालकों के
कान विंधवा ने चाहियें अश्विनी, मृगशिर, पुनर्वसु, पुष्य, हस्त,
चित्रा, स्वाति इन नक्षत्रों में हाथी का लेना
देना शुभ है । और स्थिरसंज्ञक नक्षत्रों में लेना देना शुभ है ॥ ३५- ३६ ॥
अथ अश्वमुहूर्त ।
सुदिने चरभे क्षिप्रे मृदुभे
स्थिरभेषु च।
द्वाजिकर्माखिलं
कर्म सूर्यवारे विशेषतः ॥ ३७॥
चंद्रबल आदि से शुभवार हो और
चरसंज्ञकःक्षिप्र मृदु और स्थिरसंज्ञक नक्षत्र होवें तब सब प्रकार से घोडों का
कार्य ( बेचना खरीदना आदि ) करना रविवार में शुभ कहा है । ३७ ॥
चित्राश्रवणवैरिचित्र्युत्तरासु
गमागमम् ।
दर्शाष्टम्यां चतुर्दश्यां पशूनां न
कदाचन ॥ ३८ ॥
चित्रा, श्रवण, रोहिणी, तीनों
उत्तरा इन नक्षत्रों में तथा अमावस्या अष्टमी चतुर्दशी इन तिथियों में गौ बैल आदि
पशुओं को खरीदके घर में नहीं लावे और घर से बाहर भी नहीं निकालै ॥ ३८ ॥
अथ हलप्रवाहमुहूर्तः ।
मृदुध्रुवक्षिप्रचरविशाखापितृभेषु
च॥
हतप्रवाहं प्रथमं विदध्यान्मूलेभ
वृषैः॥ ३९॥
मृदु, ध्रुव, क्षिप्र चर इन
संज्ञावाले तथा विशाखा और मघा नक्षत्र व मूल नक्षत्र में खेत में पहिले बैलों करके
हल जोतना शुभदायक है ॥ ३९ ॥
हलचक्र १
३
|
८
|
९
|
८
|
नक्षत्र
|
अशुभ
|
शुभ
|
अशुभ
|
शुभ
|
फल
|
हलचक्र २
३
|
३
|
३
|
५
|
३
|
५
|
३
|
२
|
नक्षत्र
|
हानि |
वृद्धि
|
हानि |
वृद्धि
|
हानि |
वृद्धि
|
हानि |
वृद्धि
|
नक्षत्र
|
हलादौ वृषनाशाय भत्रयं सूर्यभुक्तभात् ॥
अग्रे यच्चैव वै लक्ष्म्यै सौम्यं
पाठं च पंचकम् ॥ ४० ॥
और हळचक्र की आदि में सूर्य के
नक्षत्र से तीन नक्षत्र हैं वे बैलों का नाश करते हैं फिर ३ नक्षत्र अग्रभाग में
हैं उनमें लक्ष्मी प्राप्ति हो बराबर में ५ नक्षत्र शुभदायक कहे हैं ॥ ४० ॥
शूलत्रयेऽपि नवकं मरणायान्यपंचकम् ॥
श्रियै पुच्छे त्रयं श्रेष्ठं
स्याच्चक्रे लांगले शुभम् ॥ ४१ ॥
त्रिशूल के ऊपर नौ नक्षत्र मरणदायक
हैं अन्य पांच नक्षत्र लक्ष्मीदायक हैं फिर पूंछ के ऊपर तीन नक्षत्र श्रेष्ठ हैं
ऐसे हलचक्र पर २८ नक्षत्र रखकर शुभ अशुभ फल विचारना चाहिये ॥ ४१ ॥
मृदुध्रुवक्षिप्रभेषु
पितृवायुवसूडुषु ।
समूलभेषु
बीजोप्तिरत्युत्कृष्टफलप्रदा ॥ ४२ ॥
और मृदुसंज्ञक ध्रुवसंज्ञक
क्षिप्रसंज्ञक तथा मघा, स्वाति, धनिष्ठा, मूल इन नक्षत्रों में बीज बोवना अत्यंत
शुभदायक है ॥ ४२ ॥
भवेद्भत्रितयं मूर्ध्नि धान्यनाशाय
राहुभात् ॥
गले त्रयं कज्जलाय वृद्धयै च
द्वादशोदरे ॥ ४३ ॥
राहु के नक्षत्र से तीन नक्षत्र
मस्तक पर धरने वे धान्य का नाश करने वाले हैं और गले पर तीन नक्षत्र हैं उनमें जल
थोड़ा वर्षे अथवा अन्न के कौवा लग जाता है उदर पर बारह नक्षत्र वृद्धिदायक
हैं।४३।।
निस्तंडुलत्व लांगूले
भचतुष्टयमीरितम् ।
नाभौ वह्निः पंचकं यद्वीजोप्ताविति
चिंतयेत् ॥४४॥
पूंछ पर चार नक्षत्र हैं उनमें दाना
कम पडता है फिर पांच नक्षत्र नाभि पर हैं उनमें अग्नि का भय हो ऐसे बीज बोने में
यह राहुचक्र भी विचारा जाता है ।। ४४ । ।
अथ रोगिस्नानमुहूर्तः।
स्थिरेष्वादितिसर्पौत्यपितृमारुतभेषु
च ।
न कुर्याद्रोगमुक्तश्च स्नानं
वारेंदुशुक्रयोः॥ ४५॥
स्थिरसंज्ञक नक्षत्र और पुनर्वसु,
आश्लेषा, रेवती, मघा,
स्वाति इन नक्षत्रों में तथा चंद्र शुक्रवार में रोग से छूटा हुआ पुरुष
ने स्नान नहीं करना चाहिये ॥ ४५॥
अथ नृत्यमुहूर्तः।
उत्तरात्रयामित्रेंद्रवसुवारुणभेषु
च ॥
पुष्यार्कपौष्णधिष्ण्येषु
नृत्यारंभः प्रशस्यते ॥ ४६॥
तीनों उत्तरा, अनुराधा, ज्येष्ठा,
धनिष्ठा, शतभिषा, पुष्य, हस्त, रेवती इन नक्षत्रों में नाचना प्रारंभ करना शुभ है
।। ४६ ।।
युंजासंज्ञक
नक्षत्र
पूर्वार्धयुंजि
षङ्कानि पौष्णभाद्रुद्रभात्ततः ॥
मध्यपुंजि
द्वादशश्रेणीन्द्र्भान्नवभानि च ॥ ४७ ॥
रेवती आदि छह नक्षत्र पूर्वार्ध
युंजा संज्ञक कहे हैं फिर आर्द्रा आदि बारह नक्षत्र मध्य युंजासंज्ञक कहे हैं और
ज्येष्ठा आदि नव नक्षत्र परार्ध युंजासंज्ञक हैं ।। ४७ ।।
परार्धयुंजि क्रमशः
संप्रीतिर्दपतेर्मिथः॥४८॥
ये नक्षत्र वरकन्या के विचारने
चाहियें जो एक युंजा होय तो स्त्री-पुरुषों की आपस में प्रीति रहै ॥४८॥
अथ चंद्रोदयविचारः
जघन्यास्तोयमार्द्राहिपावनांतकतारकाः॥
धुवादितिद्विदैवत्यो बृहत्ताराः
पराः समाः ॥ ४९ ॥
शतभिषा,
आर्द्र, आश्लेषा,स्वाति,
रेवती ये जघन्यसंज्ञक तारे हैं और ध्रुवसंज्ञक नक्षत्र तथा पुनर्वसु,
विशाखा ये बृहत् संज्ञक तारे हैं अन्य सम कहे हैं ॥ ४९ ।।
क्रमादभ्युदिते चंद्रे
त्वनर्धार्घसमानि च ॥
अश्व्यग्नींदुभ
नैर्ऋत्यभाग्यभत्वाष्ट्रत्युत्तराः॥ ५० ॥
तह क्रम से अर्थात् जघन्यसंज्ञक
नक्षत्रों में चंद्रमा उदय होय तो अन्नादिक का भाव मॅहिगा रहै बृहत संज्ञक नक्षत्र
में उदय होय तो सस्ता भाव होय सम नक्षत्रों में समानभाव जानना । अश्विनी, कृत्तिका,
मृगशिर,
मूल, पूर्वफाल्गुनी, चित्रा, तीनों उत्तरा ।।
५०।।
अथ राजयात्र
पितृद्विदैवताख्यातास्ताराःस्युः
कुलसंज्ञकाः॥
धातृज्येष्ठाऽदितिस्वाती
पैौष्णार्कहरिदेवताः ॥ ५१ ॥
अजपांतकभौजंगताराश्चोपकुलाह्वयाः ॥
शेषाः कुलकुलास्तारास्तासां मध्ये
कुलोडुषु ॥ ५२ ॥
गम्यते यदि भूपालैः पराजयमवाप्यते ॥
भेषूपकुलसंज्ञेषु जयं प्राप्नोति
धूमिपः ॥ ५३ ॥
संधिर्भवेत्तयोः साम्यं तदा
कुलकुलोडुषु ॥
अर्कार्किभौमवारे
चेद्भद्राया विषमांघ्रिभे ॥ ५४ ॥
मघा,विशाखा ये कुलसंज्ञक तारा हैं रोहिणी' ज्येष्ठा,
पुनर्वसु, स्वाति, रेवती, हस्त, श्रवण, पूर्वाभाद्रपद,
भरणी, आश्लेषा ये उपकुलसंज्ञक नक्षत्र हैं तिनके मध्य में कुलसंज्ञक नक्षत्र में राजालोग
युद्ध के वास्ते गमन करें तो पराजय(हार) होती है और उपकुलज्ञक नक्षत्रों में
जय(जीत) होती है । कुलाकुल नक्षत्रों में गमन करे तो दोनों राजा समान रहैं आपस में
मिलाप रहै । रवि, शनि, भौमवार में विषमांघ्रि
नक्षत्र में ॥ ५१- ५४।।
त्रिपुष्करे त्रिगुणदं द्विगुणं
यमलांघ्रिभम् ।
दद्यात्तदोषनाशाय गोत्रयं मूल्यमेव
वा ॥ ५५ ॥
त्रिपुष्करयोग का तिगुना फल है और
यमलांघ्रियोग दुगुना दोष की शांति के वास्ते तीन गौओं का दान करे ॥ ५५॥
त्रिपुष्करे द्वयं दद्यान्न दोषो
ऋक्षमात्रतः ॥
पुष्यः परकृतं हंतुं शक्तोऽनिष्टं च
यत्कृतम् ॥ ५६ ॥
दोषं परो न शक्तस्तु
चंदेष्यष्टमगेपि वा ।
क्रूरो विधुयुतो वापि पुष्यो यदि
बलान्वितः॥ ५७॥
विना शनिग्रहं सर्वमंगलेष्विष्टदः
सदा ॥ ५८ ॥
और त्रिपुष्करयोग में राजा गमन करे
तो राजा ने उस दोष की शान्ति के वास्ते दो गौओं दान करना चाहिये । अथवा गो मुल्य
देना चाहिये और त्रिपुष्करयोग के फकत् नक्षत्र मात्र से दोष न ही हो सक्ता पुष्य
नक्षत्र में जो यात्रा आदि शुभकर्म किया जाय तहां कोई अनिष्ट योग होय तो पुष्य
नक्षत्र उस दोष को दूर कर सकता है और जो किसी प्रकार से पुष्य नक्षत्र ही अशुभ
दायक हो तो उसको कोई अन्य शुभयोग नहीं हटा सकता है और जो पुष्य बलयुक्त होय तो
आठवें चंद्रमा हो अथवा चंद्रमा कूरग्रह से युक्त हो इत्यादि सब दोषों को नष्ट करता
है संपूर्ण मंगल कार्यों को सिद्ध करता है । ५६ - ५८ ॥
अथ नक्षत्र तारा ।
रामा ३ ग्नि ३ ऋतु ६ बाणा ५ ग्नि ३
भू १ वेदा ५ ग्निशेरे ५ षवः५ ॥
नेत्र २ वाहु २ शरें ५ द्विं ३ दु १
वेद ४ वह्वय ३ ग्निशंकराः॥ ५९॥
अश्विनी के ३ तारे हैं, कृत्तिका० ६,
भरणी के ३, रोहिणी ५, मृगशिर० ३, आर्द्रा
१, पुनर्वसु ० ४, पुष्य०३, आश्लेषा ०5, मघा ०५, पूर्वा फाल्गुनी०२, उत्तरा
फाल्गुनी० २, हस्त० ५, चित्रा • १, स्वाती० १,
विशाखा ० ४, अनुराधा ० ३, ज्येष्ठा ० ३, मूल के ११ तारे हैं ॥ ५९ ॥
वेद ४ वेदा ४ ग्नि ३ वह्नय ३ ब्धि ४
शत १०० द्वि २ द्वि २ रदाः ३२
क्रमात् ॥
तारासंख्यास्तु विज्ञेया दस्रादीनां
पृथक्पृथक् ॥ ६० ॥
या दृश्यते दीप्ततारा भगणे योगतारका
॥ ६१ ॥
पूर्वाषाढ के ४ उत्तराषाढ के ४
अभिजित्के ३ श्रवण ० ३ धनिष्ठा० ४ शतभिषा ० १०० पूर्वाभाद्रपदा के २ तारे उत्तरा
भाद्रपदा के २ रेवती के ३२ तारे हैं ऐसे अश्विनी आदि नक्षत्रों के अलग २ तारे आकाश
में जानने चाहियें शिशुमार चक्र में जो प्रकाशमान तारा दीखते हैं वे योग तारा कहे
हैं ।। ६०- ६१ ॥
वृषवृक्षेऽश्विभार्याम्यधिष्ण्यात्पुरूषकस्ततः॥
उदुंबरो ह्यग्निधिष्ण्या द्रोहिण्या
जंबुकस्तरुः । ६२ ॥
आश्विनी नक्षत्र से बांसा उत्पन्न
हुआ है,
भरणी नक्षत्र से फालसा और कृत्तिका से गूलर, रोहिणी
से जामुन वृक्ष उत्पन्न हुआ ॥ ६२ ॥
इंदुभात्खदिरो जातः कूलिवृक्षश्च
रौद्रभात् ॥
संभूतो दितिभाद्वंशः पिप्पलः
पुष्यसंभवः ॥ ६३ ॥
मृगशिर नक्षत्र से खैर उत्पन्न भया,
आर्द्रा से बहेडा का वृक्ष उत्पन्न भया है पुनर्वसु से बांस उत्पन्न
भया, पुष्य से पीपल उत्पन्न भया है ॥ ६३ ॥
सर्पधिष्ण्यान्नागवृक्षे वटः
पितृभसंभवः ॥
पालशो भाग्यजातश्च
प्लक्षश्चर्यमसंभवः ॥ ६४ ॥
आश्लेषा से नाग वृक्ष (गंगेरन)
उत्पन्न भई है,मघा से बड उत्पन्न भया, पूर्वाफाल्गुनी से ढाक, उत्तराफाल्गुनी पिलखन ॥ ६४ ॥
अरिष्टवृक्षो
रविभाच्छ्रीवृक्षस्त्वाऽसंभवः ॥
स्वत्यृक्षादर्जुनो वृक्ष
द्विदैवात्पाहिकस्ततः॥ ६५ ॥
हस्त से रिंठडा वृक्ष चित्रा से
नारियल वृक्ष, स्वाति से अर्जुन वृक्ष विशाखा से
पाहवृक्ष ॥ ६५ ॥
मित्रभाद्वकुलो जातो विष्टिः
पौरंदरर्क्षजः॥
सर्जवृक्ष मूलभाच्च बंजुलो
वारिधिष्ण्यजः ॥ ६६ ॥
पनसो विश्वभाज्जातो ह्यर्कवृक्षस्तु
विष्णुभात् ॥
वमुधिष्ण्याच्छमी जाता कदंबो
वारुणर्क्षजः ॥ ६७ ॥
अजैकपाच्चूतवृक्षोऽहिर्बुन्ध्यपिचुमंदकः
॥
मधुवृक्षः पौष्णधिष्ण्यादेवं वृशं
प्रपूजयेत् ॥ ६८ ॥
अरेियोनिभवो वृक्षे पीडनीयः
प्रयत्नतः ॥ ६९ ॥
इति श्रीनारदीयसंहितायां
नक्षत्रफलाध्यायः षष्ठः ॥६॥
अनुराधा से बकुला,
ज्येष्ठा से देवदारु वृक्ष उत्पन्न भया है, मूल
से रालका वृक्ष, पूर्वाषाढा से जलवेत उत्पन्न भया, उत्तरषाढा से फालसा उत्पन्न भया, श्रवण से आक
उत्पन्न भया, धनिष्ठा से जाँट उत्पन्न भया, शतभिषा से कदंब, पूर्वाभाद्रपदा से आम्रवृक्ष,
उत्तरा भाद्रपदा से नींव व रेवती से महुवा वृक्ष उत्पन्न भया है इस
प्रकार इन नक्षत्रों की शांति के वास्ते इन वृक्ष का पूजन करना चाहिये और इन
नक्षत्रों का शत्रु संज्ञक योनिवाला जो नक्षत्र हो उस नक्षत्र के वृक्ष को पीडित
करै ॥ ६६- ६९ ॥
इति श्रीनारदसंहिताभाषाटीकायां नक्षत्रफलाध्यायः षष्ठः ।। ६ ॥
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