मन्त्रमहोदधि पञ्चम तरङ्ग
मन्त्रमहोदधि पञ्चम तरङ्ग में तारा
के भेद कहे गए हैं।
मन्त्रमहोदधिः पञ्चमः तरङ्गः
मन्त्रमहोदधि - पञ्चम तरङ्ग
मन्त्रमहोदधि तरङ्ग ५
ताराभेदा अथोच्यन्ते शीघ्रं
सिद्धिप्रदायिनः ।
अब तारा के मन्त्रभेदों को कहता हूँ जो शीघ्र ही सिद्धि प्रदान करने
वाले हैं –
ब्रह्योपासितताराविद्याकथनम्
वहिनवामाक्षिबिन्दृढ्या कामिका
भुवनेश्वरी ॥१॥
भुवनेशी वर्मरुद्धाफडन्ता
प्रणवादिका ।
सप्ताक्षरीमहाविद्या
विरिञ्चिसमुपासिता ॥२॥
वह्नि (र), दीर्घाक्षि (ई) और
बिन्दु से युक्त कामिकास्त्र (अर्थात् त्रीं) फिर भुवनेश्वरी (ह्रीं) एवं दो
वर्मबीजों के मध्य में भुवनेशी (हुं ह्रीं हुं) इसके अन्त में फट् तथा आदि में
प्रणम (ॐ) लगाने से ब्रह्योपासित सप्ताक्षरी महाविद्या (तारा) का मन्त्र निष्पन्न
होता है ॥१-२॥
विमर्श - (१) ब्रह्योपासित तारा मन्त्र का स्वरुप इस प्रकार है - ॐ
त्रीं ह्रीं हुं ह्रीं हुं फट् ॥१-२॥
विष्णूपासिततारविद्याकथनम्
वाक्शक्तिः कमलाकामो
हंसोऽनुग्रहसर्गवान् ।
वर्मोग्रतारे वर्मास्त्रं
विष्ण्वर्चा द्वादशाक्षरी ॥३॥
वाक् (ऐं), शक्ति (ह्रीं),
कमला (श्रीं) काम (क्लीं), अनुग्रह सर्गवान्
हंस (सौः), वर्म (हुं), ‘उग्रतारे’
फिर वर्म (हुं), इसके अन्त में ‘फट्’ लगाने से विष्णु के द्वारा उपासित १२ अक्षरों
का तारा मन्त्र निष्पन्न होता है ॥३॥
विमर्श - (२) विष्णूपासित तारा मन्त्र का स्वरुप इस प्रकार है - ऐं ह्रीं श्रीं क्लीं सौः हुं
उग्रतारे हुं फट् ॥३॥
विष्णूपासितद्वितीयताराविद्याकथनम्
तारवर्मशिवाकामो मनुसर्गयुतो भृगुः
।
वर्मास्त्रमेषा सप्तार्णा सिद्धिदा
विष्णुसेविता ॥४॥
तार (ॐ), वर्म (हुं), शिवा (ह्रीं), काम (क्लीं) मनुसर्गसहित भृगु (सौः)
वर्म (वर्म) एवं अन्त में अस्त्र (फट्) लगाने से सिद्धि प्रदान करने वाला
विष्णुसेवित तारा का सप्ताक्षरी मन्त्र निष्पन्न होता है ॥४॥
विमर्श - (३) विष्णु द्वारा उपासित द्वितीय तारा मन्त्र का स्वरुप इस प्रकार है - ॐ हुं ह्रीं क्लीं सौः हुं फट्
॥४॥
चतुर्मुखोपासितविद्याद्वयकथनम्
एतयोः पञ्चमे बीजे सकारो
हादिरान्तिमः ।
तदा विद्याद्वयं प्रोक्तं
चतुर्मुखसमर्चितम् ॥५॥
ऊपर कहे गये विष्णु से उपासिते द्वादशाक्षर एवं सप्ताक्षर इन दोनों
विद्याओं में पञ्चमं बीज (सौः) के आदि में यदि ह लगा दिया जाये तो प्रथम मन्त्र और
उसके अन्त में ‘रेफ’ लगा
दिया जाय तो वह ‘ब्रह्योपासित’ तारा का
दूसरा मन्त्र बन जाता है ॥५॥
विमर्श - (४) द्वादशाक्षर मन्त्र के पञ्चम (सौः) के पहले ह लगाने से ब्रह्योपासित
तारा का प्रथम मन्त्र निष्पन्न होता है । इसका स्वरुप इस प्रकार है - ‘ऐं ह्रीं श्रीं क्लीं ह्सौः हुं उग्रतारे हुं फट् ।
(५) सप्ताक्षर मन्त्र के पञ्चम (सौः) के पहले (रृ) अन्त में है जिसके,
ऐसा ह अर्थात् ह लगाने से ब्रह्योपासित
तारा मन्त्र का द्वितीय मन्त्र बनता है । जिसका स्वरुप इस प्रकार होता है - ‘ॐ हुं ह्रीं क्लीं ह्रसौः हुं फट्’ ॥५॥
एकजटाविद्याद्वयम्
तारो माया वर्म माया वर्मास्त्रं च
रसाक्षरी ।
हरिरग्नित्रिमूर्तीग्दुयुग्
वर्मपुटिताद्रिजा ॥६॥
इसका अनन्तर एकजटा के दो मन्त्र का प्रतिपादन करते हैं -
तार (ॐ) माया (ह्रीं), वर्म (हुं)
फिर माया (ह्रीं) वर्म (हुँ) और इसके अन्त में अस्त्र (फट्) लगाने से षडक्षर
मन्त्र बन जाता है ॥६॥
विमर्श - (६) एकजटा मन्त्र का स्वरुप इस प्रकार है - ॐ ह्रीं हुं ह्रीं हुं फट् । इस
प्रकार तारा का अन्य (प्रथम एकजटा) षटक्षर मन्त्र निष्पन्न होता है ॥६॥
अस्त्रान्ता पञ्चवर्णोऽयं
प्रोक्तेमेकजटाद्वयम् ।
नारायणीया ताराविद्या
रेफशान्तीन्दुयुङणान्तो वर्मास्त्रं
कामवाग्भवम् ॥७॥
अग्नि (रृ) त्रिमूर्ति (इ), इन्दु
(अनुस्वार) के सहित हरि (त ) अर्थात्
(त्रीं) वर्मसंपुटित अद्रिजा (हुं ह्रीं हुं) फिर अन्त में अस्त्र (फट्)
लगाने से पञ्चाक्षर मन्त्र बन जाता है । ये दोनों एकजटा के मन्त्र हैं ॥७॥
विमर्श - (७) एकजटा के दूसरे मन्त्र का स्वरुप इस प्रकार हैं - ‘त्रीं हुं ह्रीं हुं फट्’ । इस प्रकार एकजटा का
द्वितीय मन्त्र बनता है । दोनों मन्त्र षडक्षर एकजटा के हैं ॥७॥
नारायणोपासितेयं पञ्चार्णा
सर्वसिद्धिदा ।
उक्तानामष्टविद्यानामृष्यादिकथनम्
रेफ (र), शान्ति (ईकार) इन्दु (अनुस्वार)
से युक्तणान्त (अर्थात् तकार त्रीं),
वर्म (हुं), अस्त्र (फट्) काम (क्लीं) और अन्त
में वाग्भव (ऐं) लगाने से जो मन्त्र बनता है वह पञ्चाक्षरों से युक्त नारायणोप्रासित
तारा मन्त्र सर्वसिद्धियों को देने वाला कहा जाता है ॥८॥
विमर्श - (९) नारायणपासित तारा मन्त्र का स्वरुप इस प्रकार है - ‘त्रीं हुं फट् क्लीं ऐं’ ॥८॥
अमूषामष्टविद्यानामृषिः
शक्तिर्वसिष्ठजः ॥८॥
गायत्रीतारके छन्दोदेवते
परिकीर्तिते ।
न्यासं तु पूर्ववत् कृत्वा
ध्यायेत्तारां हृदम्बुजे ॥९॥
ऊपर कही गई इन आठों विद्याओं के वशिष्ठ पुत्र शक्ति ऋषि हैं । गायत्री छन्द
तथा तारा देवता हैं । पूर्वोक्त विधि से
न्यास कर हृत्कमल पर इस मन्त्र में भगवती तारा का इस प्रकार ध्यान करना चाहिए
॥८-९॥
विमर्श - इसके विनियोग,
ऋष्यादिन्यास तथा कराङ्गन्यास का स्वरुप इस प्रकार हैं-
विनियोग - ॐ अस्यास्ताराविद्यायाः वशिष्टजो शक्तिऋशिः गायत्रीछन्दः
तारादेवता ह्रीं बीजं हुं शक्तिः स्त्रीं कीलकं आत्मनोऽभीष्टसिद्धयर्थे जपे
विनियोगः ।
ऋष्यादिन्यासः -
ॐ वशिष्ठशक्तिऋषये नमः,शिरसि ॐ गायत्रीछन्दसे नमः, मुखे
।
ॐ तारादेवतायै नमः, हृदि । ॐ ह्रीं बीजाय नमः, गुह्ये ।
ॐ हुं शक्त्ये नमः, पादयो। ॐ स्त्रीं कीलकाय नमः, सर्वाङे ।
हृदयादिन्यास -
ॐ ह्रां हृदयायं नमः, ॐ ह्रीं शिरसे स्वाहा,
ॐ हूं शिखायै वषट्, ॐ ह्रैं कवचाय हुं,
ॐ ह्रौं नेत्रत्रयाय वौषट्, ॐ हः अस्त्राय फट् ।
इसी प्रकार कराङ्गन्यास - ॐ
ह्रां अङ्गुष्ठाभ्यां नमः, ॐ ह्रीं
तर्जनीभ्यां स्वाहा, ॐ ह्रूं मध्यमाभ्या वषट्, ॐ ह्रैं अनामिकाभ्यां हुं, ॐ ह्र्ॐ कनिष्टिकाभ्यां
वौषट् ॐ हः करतलकरपृष्ठाभ्या फट् भी कर लेना चाहिए ॥८-९॥
ध्यानवर्णनम्
श्वेताम्बरां
शारदचन्द्रकान्तिं सद्भूषणां चन्द्रकलावतंसाम् ।
कर्त्रींकपालान्वितपाणिपदमां तारां
त्रिनेत्राम प्रभजेऽखिलद्धर्यै ॥१०॥
अब तारा मन्त्र के जप के पूर्व ध्यान कहते हैं - श्वेत वस्त्र धारण
की हुई शारदीय चन्द्रिका के समान शरीर की आभा से युक्त,
चन्द्रकला को मस्तक पर धारण करने वाली, नाना
प्रकार के आभूषणों से उल्लसित, हाथों में कर्तारिका (कैंची
या चाकू) तथा कपाल लिए हुये त्रिनेत्रा भगवती तारा का मैं अपनी अभीष्ट सिद्धि के
लिए ध्यान करता हूँ ॥१०॥
जपपूजादिकं सर्वमासां पूर्ववदाचरेत्
।
प्रयोगवर्णनम्
मधुयुक्परमान्नेन
होमाद्विद्यानिधिर्भवेत ॥११॥
प्रयोग कथन - इन विद्याओं
का जप,
पूजन एवं होमादि सर्व कर्म पूर्वोक्त तारा मन्त्र (४. ५०.१०३) के
समान करना चाहिए । साधक मधु युक्त परमान्न के होम से विद्यानिधि हो जाता है ॥११॥
रक्तां वश्ये स्वर्णवर्णां स्तम्भने
मारणे सिताम ।
उच्चाटने धूम्रवर्णां शान्तौ
श्वेताम स्मरेदिमाम् ॥१२॥
वश्यकार्य के लिए रक्तवर्णा, स्तम्भकर्म
में स्वर्णवर्णा, मारणकर्म में कृष्णवर्णा, उच्चाटन में धूम्रवर्णा तथा शान्ति कार्यो में श्वेतवर्णा भगवती का ध्यान
करना चाहिए ॥१२॥
भूरिणा
किमिहोक्तेन विद्या एताः प्रसाधिताः ।
पूरयन्त्याखिलं नृणां मनोरथमिह
ध्रुवम् ॥१३॥
विषय में बहुत क्या कहें - उक्त रीति से आराधना कराने पर ये विद्यायें
निश्चित रुप से साधकों के समस्त अभीष्ट को पूर्ण कर देती हैं ॥१३॥
एकजटामन्त्रः
मायाहृद्भगवत्येकजटे मम जलं स्थिरा
।
वहनयासनगता पुष्पं
प्रतीच्छानलवल्लभा ॥१४॥
द्वाविंशत्यक्षरो
मन्त्रस्तारादिः सर्वसिद्धिदः ।
अब पुनः एकजटा मन्त्र कहते
हैं - माया (ह्रीं), हृदय (नमः),
फिर भगवत्येकजटे मम, फिर जल (व), तदनन्तर वहन्यासनगता स्थिरा (ज्र), फिर ‘पुष्पं प्रतीच्छ’ इसके अन्त में अनवल्लभा (स्वाहा)
तथा आदि में तार (ॐ) लगाने से बाईस अक्षरों का सर्वसिद्धदायक एकजटा मन्त्र
निष्पन्न होता है ॥१४-१५॥
विमर्श - एकजटा मन्त्र का स्वरुप
इस प्रकार है - ॐ ह्रीं नमो भगवत्येकजटे मम वज्रपुष्पं प्रतीच्छ स्वाहा
॥१४-१५॥
ऋषिः पतञ्जलिश्छन्दो गायत्र्येकजटा
पुनः ॥१५॥
देवता दीर्घषट्काढ्यमायया स्यात्
षड्ङुकम् ।
ध्यानार्चनप्रयोगांस्तु कुर्यात्
पूर्वोक्तमन्त्रवत् ॥१६॥
इस मन्त्र के पतञ्जलि ऋषि हैं, गायत्री
छन्द है तथा एकजटा देवता हैं । इस मन्त्र के जप में षड्दीर्घ युक्त माया बीज से
षडङ्गन्यास करना चाहिए । ध्यान, पूजा एवं प्रयोगादि
पूर्वोक्त रीति से करना चाहिए ॥१५-१६॥
विमर्श - मन्त्र का विनियोग
इस प्रकार - ॐ अस्य श्रीमदेजटामन्त्रस्य पतञ्जलिऋषिः गायत्रीछन्दः
श्रीमदेकजटादेवतात्मनोऽभीष्टसिद्धयर्थे जपे विनियोगः ।
षडङ्गन्यास - ॐ ह्रां एकजटायै हृदयाय नमः,
ॐ ह्रीं तारिण्यै शिरसे स्वाहा, ॐ ह्रूं
वज्रोदके शिखायै वषट्, ॐ ह्रैं उग्रजटे कवचाय हुं, ॐ ह्रौं महाप्रतिसरे नेत्रत्रयाय वौषट्, ॐ ह्रः
अस्त्राय फट् ।
इसी प्रकार कराङगन्यास कर एकजटा मन्त्र की देवता तारा का ध्यान पूर्वोक्त
४. ३९-४० श्लोकों में वर्णित स्वरुप से करें ॥१५-१६॥
नीलसरस्वतीमन्त्रः
रमां माया हसौ व्यापिन्यारुढौ
सर्गसंयुतौ ।
वर्मास्त्रं नीलभृगुरस्वत्यैठद्वयमीरितम्
॥१७॥
प्रणवाद्यो मनुः सर्वसिद्धिदो
मनुवर्णकः ।
अब नीलसरस्वती का मन्त्र
कहते हैं - रमा (श्रीं), माया (ह्रीं),
व्यापिनी (औ) एवं सर्व (विसर्ग) से युक्त हस् वर्ण (अर्थात् हसौः),
वर्म (हुं), अस्त्र (फट), फिर ‘नील’ पद, तदनन्तर भृगु ‘स’ फिर ‘रस्वत्यै’ तथा उसके अन्त में दो ठ (स्वाहा) ,
तथा मन्त्र के आदि में प्रणम (ॐ) लगाने से चौदह अक्षरों का
नीलसरस्वती मन्त्र बन जाता है ॥१७-१८॥
ऋष्याद्या ब्रह्मगायत्री तथा
नीलसरस्वती ॥१८॥
नेत्रचन्द्रेनेत्राङुत्रार्णैरङुकल्पना
।
मन्त्रोत्थितैरथा ध्यायेद् देवीं
सर्वेष्टसिद्धिदाम् ॥१९॥
इस मन्त्र के ब्रह्मा ऋषि, गायत्री छन्द
तथा नीलसरस्वती देवता हैं । मन्त्र के क्रमश २, १, १, २, ६, एवं २ अक्षरों से षडङ्गन्यास कर मनोरथपूर्ण करने वाली भगवती का ध्यान करना
चाहिए ॥१८-१९॥
विमर्श - नीलसरस्वती मन्त्र का स्वरुप इस प्रकार हैं - ॐ श्रीं
ह्रीं हसौः हुं फट् नीलसरस्वत्यै स्वाहा ।
विनियोग - ॐ अस्य श्रीनीलसरस्वतीमन्त्रस्य ब्रह्मऋषिर्गायत्रीछन्दः
नीलसरस्वतीदेवतात्मनोऽभीष्टसिद्धयर्थे जपे विनियोगः ।
षडङ्गन्यास - ॐश्री
हृदयाय नमः,
ह्रीं शिरसि स्वाहा,
हसौः शिखायै वषट् हुं फट् कवचाय हुम्
नीलसरस्वत्यै नेत्रत्रयाय वौषट्
स्वाहा,
अस्त्राय फट् ।
इसी प्रकार कराङ्गन्यास कर भगवती का ध्यान करना चाहिए ॥१८-१९॥
घण्टाशिरः शूलमसिं करग्रैः
सम्बिभ्रतीं चन्द्रकलावतंसाम् ।
प्रमथ्नंती पादतले पशुं तां भजे
मुदा नीलसरस्वतीशाम् ॥२०॥
अब नीलसरस्वती का ध्यान कहते हैं - दाहिने हाथों में शूल एवं तलवार
तथा बायें में घण्टा एवं मुण्ड करने वाली, शिर
पर चन्द्रकला धारण किये हुये तथा अपने पैरों के नीचे उन पशुओं का प्रमन्थन करती
हुई प्रसन्न मुद्रा वाली ईश्वरी भगवती नीलसरस्वती का मैं ध्यान करता हूँ ॥२०॥
जपपूजादिकं सर्वमस्याः
पूर्ववदीरितम् ।
विशेषाज्जयदा वादे विद्येयं साधिता
नृणाम् ॥२१॥
इस मन्त्र के जप पूजादि का विधान हम पूर्व में कह आये हैं । यह विद्या
सिद्ध हो जाने पर मनुष्यों को वाद-विवाद में विशेष रुप से विजय प्रदान करने वाली
होती हैं ॥२१॥
नीलसरस्वत्या अपरो मन्त्रः
माया सानन्तसंयुक्ता वर्महृन्ङेयुता
पुनः ।
तारामहापदाद्या सा
भृगुब्रह्मनलन्तिमः ॥२२॥
दुस्तरांस्तारद्वन्द्व तरयुग्मं च
ठद्वयम् ।
द्वात्रिंशदर्णा ताराद्या पूजास्याः
पूर्ववन्मताः ॥२३॥
अब अन्य तारा मन्त्र कहते हैं -
आदि में तारा (त्रीं), सानन्त आकार
सहित माया (ह्रां), वर्म (हुं), हृत
(नमः) उसके बाद चतुर्थन्त तारा पद (तारायै), एवं महातारा पद
(महातारायै), भृगु (स), ब्रह्या (क),
अनलान्तिम (ल), फिर दुस्तरां पद, फिर दो तारय पद (तारय तारय), दो तर पद (तर तर)
तदनन्तर ठद्वय ‘स्वाहा’ लगाने से
बत्तीस अक्षरों का तारा मन्त्र बनता है । इस मन्त्र का पूजनादि विधान तारा मन्त्र
के समान समझना चाहिए ॥२२-२३॥
विमर्श - मन्त्र का स्वरुप इस प्रकार है - ॐ त्रीं ह्रां हुं
नमस्तारायै महातारायै सकलदुस्तरांस्तारय तारय तर तर स्वाहा ॥२२-२३॥
विद्याराज्ञीमन्त्रः
विद्याराज्ञीमथो वक्ष्ये
सुरेन्द्रस्यापि दुर्लभाम् ।
लब्ध्वा यां मानवाः स्वेष्ट
साधयन्त्यर्चने रताः ॥२४॥
अब विद्याराज्ञी (महाविद्या मन्त्र) जो सुरेन्द्र के लिए भी दुर्लभ
है,
उसे कहता हूँ जिसे प्राप्त कर देवी के पूजनादि में तत्पर रहने वाला
साधक अपना सारा अभीष्ट प्राप्त कर लेता है ॥२४॥
वाङ्माया श्रीर्मनोजन्माहंसोऽनुग्रह बिन्दुयुक् ।
कामः शक्तिश्च वाग्बीजं
फान्तोलार्घीशबिन्दुयुक् ॥२५॥
स्त्रीबीजं नीलतारेस्यात्संबुद्धयन्ता
सरस्वती ।
अत्रीसरेफौ क्रमतः
शेषवामाक्षिरसंयुतौ ॥२६॥
सानुस्वारौ कामबीजं फान्तो
मांसार्घिबिन्दुगः ।
सर्गीभृगुर्वागहृल्लेखारमाकामोऽथ सौ
द्वयम् ॥२७॥
सर्गान्त भुवनेशानी स्वाहा
द्वात्रिंशदक्षरी ।
महाविद्या हि सा ख्याता सेविता
भोगमोक्षदा ॥२८॥
ब्रह्मानुष्टुप्सरस्वत्यो
मुन्याद्या अङुकल्पना ।
पञ्चपञ्चाष्टपञ्चेषु
युगार्णैर्मन्त्रसम्भवैः ॥२९॥
वाग् (ऐं), माया (ह्रीं),
श्री (श्रीं), मनोजन्मा (क्लीं), अनुग्रह (औ), बिन्दु सहित हंस (सौं), फिर काम (क्लीं), शक्ति (ह्रीं), वाग्बीज (ऐं), मांस (ब), - अर्घी
(ऊ), बिन्दु (अनुस्वार) से युक्त फान्त (ल अर्थात ब्लूं)
स्त्रीबीज (स्त्रीं) फिर सम्बुद्धयन्त ‘नीलतारे सरस्वति’
पद, रेफ (र्) शेष वामाक्षि से संयुक्त एवं
अनुस्वार के सहित अत्री दो बार (द्रां द्रीं), फिर काम बीज
(क्लीं) मांसार्घीबिन्दु युक्त फान्त (ब्लूं), विसर्ग युक्त
भृगु स (अर्थात् सः), वाग् (ऐं), हृल्लेखा
(ह्रीं), रमा (श्रीं), काम (क्लीं),
दो बार विसर्गान्त सौ (सौः सौः), भुवनेशानी
(ह्रीं) तथा अन्त में स्वाहा लगाने से बत्तीस अक्षरों का तारा मन्त्र निष्पन्न
होता है ॥२५-२८॥
इस महाविद्या कहते हैं, जो साधक को
भुक्ति तथा मुक्ति दोनों ही प्रदान करती है ।
इस मन्त्र के ब्रह्या ऋषि हैं, अनुष्टुप्
छन्द है, सरस्वती देवता हैं । इस मन्त्र के क्रमशः ५,
५, ८, ५, ५, एवं ४ वर्णो से षडङ्गन्यास करना चाहिए ॥२५-२९॥
विमर्श - विद्याराज्ञी मन्त्र का स्वरुप इस प्रकार हैं - ऐं ह्रीं
श्रीं क्लीं सौं क्लीं ह्रीं ऐं ब्लूं स्त्रीं नीलतारे सरस्वति द्रां द्रीं क्लीं
ब्लूं सः ऐं ह्रीं श्रीं क्लीं सौः सौः ह्रीं स्वाहा ।
विनियोग - ॐ अस्य श्रीमहाविद्यामन्त्रस्य ब्रह्माऋषिः अनुष्टुप्छन्दः
सरस्वतिदेवता ममाभीष्टसिद्धयर्थे जपे विनियोगः ।
षडङ्गन्यास -
ऐं ह्रीं श्री क्लीं हृदयाय नमः, क्लीं ह्रीं ऐं ब्लू
स्त्रीं शिरसे स्वाहा,
नीलतारे सरस्वति शिखायै वषट्, द्रां द्रीं क्लीं ब्लूं सः
कवचाय हुं,
ऐं ह्रीं श्री क्लीं सौः नेत्रत्रयाय वौषट्, सौः ह्रीं स्वाहा अस्त्राय फट्,
इस प्रकार हृदयादिन्यास कर कराङ्गन्यास भी करना चाहिए ॥२५-२९॥
ध्यानवर्णनम्
शवासनां सर्पविभूषणाढ्यां कर्त्री
कपालं चषकं त्रिशूलम् ।
करैर्दधानां नरमुण्डमालां त्र्यक्षा
भजे नीलासरस्वती ताम् ॥३०॥
अब महाविद्या का ध्यान कहते हैं - शवासन पर आसीन सर्पो के भूषण से
विभूषित अपने चारों हाथों में क्रमशः कर्तरिका (कैंची),
कपाल, चषक (पानपात्र) एवं त्रिशूल धारण किये
हुये तथा हाथों में चरमुण्डल्माला लिए हुये त्रिनेत्रा नीलसरस्वती का मैं ध्यान
करता हूँ ॥३०॥
प्रयोगवर्णनम्
चतुर्लक्षं जपेद् विद्यां
किंशुकैर्मधुरान्वितैः ।
दशांशं जुहुयाद् वहनौ
श्रद्धापूर्वमतन्द्रितः ॥३१॥
पुरश्चरण - उक्त सरस्वती महाविद्या
मन्त्र का चार लाख जप करना चाहिए, तदनन्तर
मधुमिश्रित पलाश पुष्पों का श्रद्धा एवं उत्साह सहित अग्नि में दशांश होम करना
चाहिए ॥३१॥
पूर्वोक्ते पूजयेत् पीठे
वक्ष्यमाणेन वर्त्मनो ।
आदौ त्रिकोणं षट्कोणमष्टषोडशपत्रके
॥३२॥
द्वात्रिंशत् पत्रमब्ज
स्याच्चतुष्षष्टिदलं ततः ।
त्रिरेखाढ्यं धरागेहं चतुरस्रमतः
परम् ॥३३॥
एवं यन्त्रं समालिख्य बाह्यतः पूजनं
चरेत् ।
पीठपूजाविधान - जपारम्भ के प्रथम
पूर्वोक्त पीठ पर वक्ष्यमाण मन्त्र से देवी की पूजा करनी चाहिए । सर्वप्रथम
त्रिकोण,
फिर षट्कोण, उसके बाद अष्टदल, फिर षोडशदल, तदनन्तर वत्तीसदल, फिर चौंसठ दल वाला कमल निमार्ण कर तीन रेखाओं वाल भूपुर से वेष्टित कर
चतुरस्त्र बनाना चाहिए । ऐसा यन्त्र लिखकर उसके वाह्य भाग से पूजन प्रारम्भ करना
चाहिए ॥३२-३४॥
विमर्श - चौथे तरङ्ग में कही गई विधि के अनुसार भूतशुद्धि,
षोढान्यास, दिग्बन्धन तथा अर्थस्थापन कर ४.
८६-८८ में बताई गई विधि के अनुसार पीठ पूजा, ध्यान एवं आवाहन
कर षोडशोपचारों से नीलसरस्वती का पूजन कर योनि मुद्रा प्रदर्शित कर - देवि आज्ञापय
आवरणं ते पूजयामि - इस मन्त्र से देवी से आज्ञा लेकर आगे कही गई विधि के अनुसार
आवरण पूजा करनी चाहिए ॥३२-३४॥
आवरणपूजाकथनम्
चतुरस्रस्याग्निकोणे विघ्नेशं
परिपूजयेत् ॥३४॥
वायुकोणे क्षेत्रपालमैशान्ये भैरवं
तथा ।
नैऋते योगिनीः सर्वा वामभागे गुरुं
यजेत् ॥३५॥
अब आवरण पूजा कहते हैं - चतुरस्त्र के बाहर अग्नि कोण में गणपति का,
वायव्यकोण में क्षेत्रपाल का, ईशान कोण में
भैरव का तथा नैऋत्य कोण में योगिनियों का पूजन करना चाहिए और चतुरस्त्र के वामभाग
में गुरु की पूजा करनी चाहिए ॥३४-३५॥
अष्टसिद्धिकथनम्
भूगृहस्याद्यरेखायामणिमालघिमा
तथा ।
महिमा चेशिता पूज्या वशिता कामपूरणी
॥३६॥
गरिमा प्राप्तिरित्येताः पूज्याः
पूर्वादिदिक् क्रमात् ।
भूपुर की प्रथम रेखा में पूर्वादि दिशाओं के क्रम से १. अणिमा,
२. लघिमा, ३. महिमा, ४.
ईशिता, ५. वशिता, ६. कामपूरणी, ७. गरिमा एवं ८. प्राप्ति की पूजा करनी चाहिए ॥३६-३७॥
अष्टभैरवकथनम्
धरागृहस्य रेखायां द्वितीयायां तु
भैरवाः ॥३७॥
असिताङो रुरुश्चण्डः
क्रोधोन्मत्तकपालिनः ।
भीषणश्चाथ संहार एतेष्टौ भैरवाः
स्मृताः ॥३८॥
सप्तमातृकाकथनम्
भूमिगेहे तृतीयायां रेखायां मातरः
पुनः ।
ब्राह्मी माहेश्वरी चैव
कौमारीवैष्णवी तथा ॥३९॥
वारहीन्द्राणिका चैव चामुण्डा
सप्तमी स्मृता ।
महालक्ष्मीस्तथेज्यास्ताः
पूर्वादिषु यथाक्रमम् ॥४०॥
इत्थमाद्यावृतिं चेष्टवा
योनिमुद्रां प्रदर्शयेत् ।
पुनः भूपुर की द्वितीय रेखा में पूर्वादि क्रम से - १. असिताङ्ग,
२. रुरु, ३. चण्ड, ४.
क्रोध, ५. उन्मत्त, ६. कपाली, ७. भीषण एवं ८. संहार - इन आठ भैरवों का पूजन करना चाहिए । तथा भूपुर की
तृतीय रेखा में १. ब्राह्यी, २.माहेश्वरी, ३. कौमारी, ४. वैष्णवी, ५. वाराही,
६. इन्द्राणी, ७. चामुण्डा एवं ८. महालक्ष्मी
- इन आठ मातृकाओं के नाम के आगे चतुर्थ्यन्त नमः पद लगाकर पूर्वादि क्रम से पूजा
करनी चाहिए । इस प्रकार प्रथम आवरण की पूजा कर योनि मुद्रा प्रदर्शित करनी
चाहिए ॥३७-४१॥
चतुःषष्टिशक्तिकथनम्
चतुःषष्टिदले पद्मे शक्तिरर्चेच्च
तावतीः ॥४१॥
कुलेशी कुलनन्दा च वागीशी भैरवी तथा
।
उमा श्रीः शान्तया चण्डा धूम्रा
काली करालिनी ॥४२॥
महालक्ष्मीश्च कङ्काली रुद्रकाली
सरस्वती ।
वाग्वादिनी च नकुली भद्रकाली
शशिप्रभा ॥४३॥
प्रत्यङिरा सिद्धलक्ष्मीरमृतेशी च
चण्डिका ।
खेचरी भूचरी सिद्धा कामाक्षी हिङुला
बला ॥४४॥
जया च विजया चाप्यजिता
नित्यापराजिता ।
विलासिनी तथा घोरा चित्रा मुग्धा
धनेश्वरी ॥४५॥
सोमेश्वरी महाचण्डा विद्या हंसी
विनायिका ।
वेदगर्भा तथा भीमा उग्रा वैद्या च
सद्गतिः ॥४६॥
उग्रेश्वरी चन्द्रगर्भा ज्योत्स्ना
सत्या यशोवती ।
कुलिका कामिनी काम्या ज्ञानवत्यथ
डाकिनी ॥४७॥
राकिनी लाकिनी चाथ काकिनी
शाकिनीत्यपि ।
हाकिनीति चतुःषिष्टिशक्तयः
सिद्धिदायिकाः ॥४८॥
दर्शयेत् खेचरीमुद्रा
द्वितीयावरणेर्चिते ।
अब सरस्वती की चौंसठ शक्तियों को कहते हैं -
तदनन्तर चौंसठ दल वाले कमल में चौंसठ शक्तियों की पूजा करनी चाहिए -
१. कुलेशी, २. कुलनन्दा, ३.
वागीशी, ४. भैरवी, ५. उमा, ६. श्री, ७. शान्तया, ८. चण्डा,
९. धूम्रा. १०. काली, ११. करालिनी, १२. महालक्ष्मी, १३. कंकाली, १४.
रुद्रकाली, १५. सरस्वती, १६.सरस्वती,
१७. नकुली, १८. भद्रकाली, १९. शशिप्रभा, २०. प्रत्यङ्गिरा, २१. सिद्धलक्ष्मी, २२. अमृतेशी, २३. चण्डिका, २४. खेचरी, २५.
भूचरी, २६. सिद्धा, २७. कामाक्षी,
२८. हिंगुला, २९. बला, ३०.
जया, ३१. विजया, ३२. अजिता, ३३. नित्या, ३४. अपराजिता, ३५.
विलासिनी, ३६. घोरा, ३७. चित्रा,
३८ मुग्धा, ३९. धनेश्वरी, ४०. सोमेश्वरी, ४१. महाचण्डा, ४२.
विद्या, ४३. हंसी, ४४. विनायिका,
४५. वेदगर्भा, ४६. भीमा, ४७. उग्रा, ४८. वैद्या, ४९.
सद्गती, ५०. उग्रश्वरी, ५१.
चन्द्रगर्भा, ५२. ज्योत्स्ना, ५३.
सत्या, ५४. यशोवती, ५५. कुलिका,
५६. कामिनी, ५७. ‘काम्या,
५८. ज्ञानवती, ५९. डाकिनी. ६०. राकिनी,
६१. लाकिनी, ६२. काकिनी, ६३. शाकिनी एवं ६४. हाकिनी -- ये चौंसठ सिद्धिदायिका सरस्वती की शक्तियाँ
कहीं गई हैं । इस प्रकार चतुर्थ्यन्त नामों के आगे नमः लगाकर इनकी पूजा कर खेचरी
मुद्रा प्रदर्शित कर द्वितीयावरण की पूजा समाप्त करनी चाहिए ॥४१-४५॥
द्वात्रिंशच्छक्तिकथनं पूजाविधिश्च
द्वात्रिंशत् पत्रमध्ये तु पूज्या
एतास्तु शक्तयः ॥४९॥
किराता योगिनी वीरा वेताला यक्षिणी
हरा ।
ऊर्ध्वकेशी च मातङी मोहिनी
वंशवर्द्धिनी ॥५०॥
मालिनी ललिता दूती मनोजा पदिमनी
धरा ।
वर्वरी छत्रहस्ता च रक्तनेत्रा
विचर्चिका ॥५१॥
मातृकादूरदर्शी च क्षेत्रेशी रङिनी
नटी ।
शान्तिर्दीप्ता वज्रहस्ता धूम्रा
श्वेता सुमङुला ॥५२॥
इष्टवा तृतीयावरणं बीजमुद्रां प्रदर्शयेत् ।
फिर बत्तीस दल वाले कमल पर बत्तीस शक्तियों की पूजा करनी चाहिए । उनके नाम
इस प्रकार हैं - १. किराता, २. योगिनी, ३. वीरा, ४. वेताला, ५.
यक्षिणी, ६. हरा, ७. ऊर्ध्वकेशी,
८. मातङ्गी, ९. मोहिनी, १०.
वंशवर्द्धिनी, ११. मालिनी, १२. ललिता,
१३. दूती, १४. मनोजा, १५.
पद्मिनि, १६. धरा, १७. वर्वरी, १८. छत्रहस्ता, १९. रक्तनेत्रा, २०. विचर्चिका, २१. मातृका, २२.
दूरदशींनी, २३. क्षेत्रेक्षी, २४.
रङ्गिनी, २५. नटी, २६. शान्ति, २७. दीप्ता, २८. वज्रहस्ता, २९.
धूम्रा, ३०. श्वेता, ३१, सुमङ्गला (एवं ३२. सर्वेश्वरी) - इनके नामों में चतुर्थ्यन्त विभक्ति
युक्त नमः लगाकर पूजा करने के पश्चात् तृतीयवरण की पूजा बीज मुद्रा
प्रदर्शित कर संपन्न करनी चाहिए ॥४९-५३॥
षोडशशक्तिपूजनम्
ततः षोडशपत्रेषु पूज्याः षोडशशक्तयः
॥५३॥
मुग्धा श्रीः कुरुकुल्ला च त्रिपुरा
तोतला क्रिया ।
रतिः प्रीतिस्तथा बाला सुमुखी
श्यामलाविला ॥५४॥
पिशाची च विदारी च शीतला वज्रयोगिनी
।
सर्वेश्वरीति सम्पूज्य सृणिमुद्रां
प्रदर्शयेत् ॥५५॥
इसके बाद सोलह दलों में इन सोलह शक्तियों की पूजा करनी चाहिए ।
१. मुग्धा,
२. श्रीं, ३. कुरुकुल्ला, ४. त्रिपुरा, ५. तोतला, ६.
क्रिया, ७. रति, ८. प्रीति, ९. बाला, १०. सुमुखी, ११.
श्यामलाविला, १२. पिशाची, १३. बिदारी,
१४. शीतला, १५ वज्रयोगिनी, १६, सर्वेश्वरी -- इन नामों में चतुर्थ्यन्त सहित ‘नमः’ लगाकर पूजा करे और अंकुश मुद्रा प्रदर्शित कर चतुर्थावरण
की पूजा सम्पन्न करनी चाहिए ॥५३-५५॥
अष्टसरस्वतीपूजनं मन्त्राश्च
अष्टपत्रे
स्वस्वमन्त्रैर्यजेदष्टसरस्वतीः ।
तारो
हृल्लोहितः सत्यो वैकुण्ठानन्तसंयुताः ॥५६॥
भृगुर्नशब्दरुपे वाङ्मायाकामो
वदद्वयम् ।
वाग्वादिन्यग्निकान्तेति मन्त्रो
वेदाक्षिवर्णवान् ॥५७॥
अनेन मनुना पूर्वपत्रे वागीश्वरीं
यजेत् ।
(१) अब वागीश्वरी के मन्त्र का उद्धार करते हैं -
तार (ॐ), हृत् (नमः), लोहित (प), वैकुण्ठानन्त सहित सत्य (द्या), भृगु (स), फिर ‘ने शब्दरुपे’
यह पद, फिर वाक् (ऐं), माया
(ह्रीं), काम (क्लीं), इसके बाद दो बाद
वर शब्द ( वद वद), फिर ‘वाग्वादिनी’
इसके बाद अग्निकान्ता (स्वाहा) लगाने से चौबीस अक्षरों का मन्त्र
बनता है इस मन्त्र से पूर्वदिशा के पत्र के पर वागीश्वरी का पूजन करना चाहिए
॥५६-५८॥
विमर्श - वागीश्वरी के पूजन में विनियुक्त २४ अक्षरों के मन्त्रो का
स्वरुप इस प्रकार है - ‘ॐ नमः पद्मासने
शब्दरुपे ऐं ह्रीं क्लीं वद वद वाग्वादिनी स्वाह’ ॥५६-५८॥
वराहहंसचक्रीन्द्रसंयुता भुवनेश्वरी
॥५८॥
वदयुग्मं च चित्रेश्वरि
वाग्बीजानलप्रिया ।
द्वादशार्णेन मनुना वहनौ
चित्रेश्वरी यजेत् ॥५९॥
(२) अब चित्रेश्वरी पूजन का मन्त्र कहते हैं - ‘वराह हंसचक्रीन्द्रसंयुक्ता भुवनेश्वरी अर्थात् ‘ह्स
कल ह्रीं’ फिर दो बार वद शब्द (वद वद), फिर ‘चित्रेश्वरि’ पद, इसके बाद वाग्बीज (ऐं), फिर अनलप्रभा (स्वाहा) लगाने
से द्वादश अक्षर का मन्त्र बन जाता है । इस बारह अक्षर वाले मन्त्र से साधक
अग्निकोण में चित्रेश्वरी की पूजा करें ॥५८-५९॥
विमर्श - चित्रेश्वरी के मन्त्र का स्वरुप इस प्रकार है - ‘हसकलह्रीं वद वद चित्रेश्वरी ऐं स्वाहा’ । ऊपर हकार
में ६ अक्षरों का मेल होने से १ अक्षर समझना चाहिए ॥५८-५९॥
वाग्बीजं कुलजे वाक् च
सरस्वत्यनलाङुना ।
एकादशार्णमनुना कुलजां
दक्षिणेर्चयेत् ॥६०॥
(३) इसके बाद कुलजा का मन्त्र कहते हैं - वाग्बीज (ऐं), फिर ‘कुलजे’ पद, फिर वाग्बीज (ऐं), फिर सरस्वती पद, तदनन्तर अनलाङ्गना (स्वाहा) लगाने से ग्यारह अक्षरों का कुलजा मन्त्र बनता
है, इससे दक्षिण में कुलजा का पूजन करना चाहिए ॥६०॥
विमर्श - मन्त्र का स्वरुप का प्रकार हैं - ‘ऐं कुलजे ऐं सरस्वति स्वाहा’ ॥६०॥
वाङ्माया श्रीं वदद्वन्द्वं
कीर्तीश्वरि वसुप्रिया ।
त्रयोदशार्णेन यजेन्नैऋत्ये
कीर्तिनायिका ॥६१॥
(४) अब कीर्तीश्वरी का मन्त्र कहते हैं -
वाग् (ऐं), माया (ह्रीं),
श्री (श्रीं), दो बार ‘वद’
पद (वद वद) फिर कीर्तीश्वरि और अन्त में वसुप्रिया (स्वाहा) लगाने
से तेरह अक्षरों का मन्त्र बनता हैं । इससे नैऋत्यकोण में कीर्तीश्वरी का पूजन
करना चाहिए ॥६१॥
विमर्श - मन्त्र का स्वरुप इस प्रकार है - ‘ऐं ह्रीं श्रीं वद वद कीर्तींश्वरि स्वाहा ॥६१॥
वाङ्माया चान्तरिक्षान्ते सरस्वति
च ठद्वयम् ।
रव्यर्णेन
यजेत् प्रत्यगन्तरिक्षसरस्वतीम् ॥६२॥
(५) अब अन्तरिक्षसरस्वती मन्त्र कहते हैं -
वाग (ऐं), माया (ह्रीं),
फिर ‘अन्तरिक्षसरस्वति’ यह
पद, इसके अन्त में ‘ठद्वय’ (स्वाहा) लगाने से बारह अक्षरों का मन्त्र निष्पन्न होता है । इससे पश्चिम
के दल में अन्तरिक्ष सरस्वती का पूजन करना चाहिए ॥६२॥
विमर्श - मन्त्र का स्वरुप इस प्रकार है - ‘ऐं ह्रीं अन्तरिक्षसरस्वति स्वाहा ॥६२॥
वराहहंसचण्डीशजनार्दनकृशानुयुक् ।
सेन्दुर्योनिश्च
लकुलीभृगुवहनीन्दुयुङ् मनुः ॥६३॥
अरुणाभृगुशिख्यग्निसंयुता
शान्तिरिन्दुयुक् ।
वाङ्माया श्रीषु बीजानि घ्रीं
घटान्ते सरस्वतीम् ॥६४॥
घटेवदतद्वन्द्वं रुद्राज्ञा टायुता
मम ।
अभिलाषं कुरु द्वन्द्वं
प्रेयसीकृष्णवर्त्मनः ॥६५॥
गुणवेदार्णेन यजेद्वायौ घटसरस्वतीम्
।
(६) अब घटसरस्वती मन्त्र
कहते हैं - वराह हंस चण्डीश जनार्दनकृशानुयुक् (ह्ं स् ष् फ र ) सेन्दु
(ह्रष्फ्रं,) लकुलीभृगुवहनी (ह् स् र्) और इन्दु से युक्त मन
(ओं) अर्थात् ह्स्त्रों अरुण भृगु शिख्यग्निसंयुत इन्दु युक् शान्ति अर्थात् अरुण
(ह् ), भृगु (स), शिखी (फ), अग्नि (र् ) इससे युक्त सबिन्दु शान्ति (ह्स्फ्रों), फिर वाग्बीज (ऐं), माया (ह्रीं), श्री (श्रीं) इषु बीज (द्रां द्रीं क्लीं ब्लूं सः) फिर ‘घ्रीं घटसरस्वती घटे’ पद, फिर
दो बार ‘वद’ पद (वद वद) एवं ‘तर’ पद (तर तर), टा युता
(तृतीयान्ता) रुद्राज्ञा (रुद्राज्ञया), फिर ‘मामाभिलाषं’, फिर दो बार ‘कुरु’
शब्द (कुरु कुरु), तदनन्तर
कृष्णवर्त्माप्रेयसी (स्वाहा) लगाने से तिरालिस अक्षरों का मन्त्र निष्पन्न होता
है । इस मन्त्र से वायव्य दल में घटसरस्वती का पूजन करना चाहिए ॥६३-६६॥
विमर्श - मन्त्र का स्वरुप इस प्रकार है - ‘ह्स्ष्फ्रं हंस्नों ह्स्फ्रों ऐं ह्रीं श्रीं द्रां द्रीं क्लीं ब्लूं सः
घ्रीम घटसरस्वती घटे वद वद तर तर रुद्राज्ञया ममाभिलाषं कुरु कुरु स्वाहा’
(४३) ॥६३-६६॥
विमर्श - ‘मन्त्र का स्वरुप इस प्रकार है - ‘ह्स्ष्फ्रं ह्स्रों हस्फों ऐं
ह्रीं श्रीं द्रां द्रीं क्लीं ब्लूं सः घ्रीं घटसरस्वती घटे वद वद तर तर
रुद्राज्ञया ममाभिलाषं कुरु कुरु स्वाहा (४३) ॥६३-६६॥
नीलामन्त्रकथनम्
भूधरेन्द्रयुतोर्घीशो बिन्द्वाढ्यो
वें वदद्वयम् ॥६६॥
त्री हुँ फट् नवार्णेन
नीलामर्चेदुदग्दिशि ।
(८) अब नीलसरस्वती का मन्त्र कहते हैं -
भूधरेन्द्र युत् बिन्दु सहित अर्घीश (ब्लूं), फिर बिन्दु सहित (वें), तदनन्तर दो बार वद पद (वद वद),
फिर ‘त्रीं हुं फट् लगाने से ९ अक्षरों का
मन्त्र निष्पन्न होता है । इससे उत्तर के दल में नीलसरस्वती का पूजन करना चाहिए
॥६६-६७॥
विमर्श - नीलसरस्वती मन्त्र का स्वरुप इस प्रकार है - ‘ब्लूं वें वद वद त्रीं हुं फट्’ (९) ॥६६-६७॥
वाग्बीजमधराक्रान्तो नकुलीबिन्दुमान्
पुनः ॥६७॥
शान्तिचन्द्राढ्यमाकाशं
किणिद्वन्द्वं सदृग्जलम् ।
कूर्मद्वन्द्वं भगाक्रान्तं
नवार्णेनामुना यजेत् ॥६८॥
मन्त्रेणेशानदिग्भागे किणिसंज्ञा
सरस्वतीम् ।
पञ्चमावृत्तिमाराध्य क्षोभमुद्रां
प्रदर्शयेत् ॥६९॥
(९) अब किणिसरस्वती का मन्त्र कहते हैं -
वाग्बीज (ऐं), अधराक्रान्त
सबिन्दु नकुली (हैं), शान्तिचन्द्राढ्य आकाश (हीं), दो बार किणि शब्द (किणि किणि), सदृक् इकार सहित जल व् (अर्थात् वि), भगाक्रान्त कूर्मद्वय (च्चे) यह ९ अक्षर का मन्त्र निष्पन्न होता है ।
इससे ईशानकोण में किणि सरस्वति का पूजन चाहिए । इस प्रकार अष्टदलों में आठ
सरस्वतियों का पूजन कर पञ्चमावरण की पूजा समाप्त कर क्षोभमुद्रा प्रदर्शित
करनी चाहिए ॥६७-६८॥
विमर्श - मन्त्र का स्वरुप इस प्रकार हैं - ‘ऐं हैं हीं किणि किणि विच्चें’ ॥६७-६९॥
डाकिन्यादिषण्णां पूजनम्
डाकिन्याद्याः पूर्वमुक्ताः षट्कोणे
षट् प्रपूजयेत् ।
दर्शयेद् द्राविणीं मुद्रां
षष्ठावरणपूजने ॥७०॥
षट्कोण में पूर्वोक्त १. डाकिनी, २.
राकिनी, ३. लाकिनी, ४. काकिनी, ५. शाकिनी एवं ६. हाकिनी का पूजन कर षष्ठावरण की पूजा समाप्त कर
द्राविणीमुद्रा प्रदर्शित करनी चाहिए ॥७०॥
परादि - तिसृणां पूजनम्
परबालाभैरवीति पूजनीयास्त्रिकोणके ।
सप्तमावृतिपूजायां मुद्रां
कुर्याच्चकर्षिणीम् ॥७१॥
इत्थं सम्पूज्य तारेशीं
मनोभीष्टमवाप्नुयात् ।
तदनन्तर त्रिकोण में परा, बाला एवं
भैरवी का पूजन कर सप्तमावरण की पूजा समाप्त कर आकर्षणी मुद्रा प्रदर्शित करनी
चाहिए । इस प्रकार सप्तावरण युक्त तारा देवी तारेशी का पूजन करने से समस्त
मनोरथों की पूर्ति होती है ॥७१-७२॥
विमर्श - आवरण पूजा प्रयोग
इस प्रकार हैं - नाम मन्त्रों में चतुर्थी लगाकर ततत्स्थानों में आवरण पूजा
करनी चाहिए ।
पूर्वोक्त विधि से देवी की पूजा करने के बाद उनकी आज्ञा लेकर प्रथम आवरण
पूजा करनी चाहिए । सर्वप्रथम चतुरस्त्र के बाहर अग्निकोण में विधिवत् ध्यान कर ‘ॐ ह्रीं गं गणपतये नमः’ मन्त्र से गणेशजी का पूजन
करना चाहिए । इसी प्रकार वायव्य में ‘ॐ ह्रीं क्षं
क्षेत्रपालाय नमः’ क्षेत्रपाल का, ईशान
कोण में ‘ॐ ह्रीं बें बटुकाय नमः’ से
बटुकभैरव का तथा नैऋत्यकोण में ‘ॐ ह्रीं यं योगिनीभ्यो नमः’
मन्त्र से योगिनीयोम का पूजन करना चाहिए।
भूपुर की प्रथम रेखा में
पूर्व आदि दिशाओं में -
ॐ अणिमायै नमः,‘ ॐ लघिमायै नमः, ॐ महिमायै नमः,
ॐ ईशित्यै नमः, ॐ वशितायै नमः, ॐ कामपूरण्यै नमः,
ॐ गरिमायै नमः तथा प्राप्त्यै नमः - इन मन्त्रों से क्रमशः
अणिमा आदि का पूजन करन चाहिए ।
भूपुर की द्वितीय रेखा में पूर्व आदि आठ दिशाओं में निम्नलिखित
मन्त्रों से आठ भैरवों का पूजन करना चाहिए-
ॐ असिताङ्गभैरवाय नमः, ॐ रुरुभैरवाय नमः,
ॐ चण्डभैरवाय नमः, ॐ क्रोधभैरवाय नमः,
ॐ उन्मत्तभैरवाय नमः, ॐ कपालीभैरवाय नमः,
ॐ भीषणभैरवाय नमः एवं ॐ
संहारभैरवाय नमः ।
भूपुर की तृतीय रेखा में पूर्व आदि दिशाओं में -
ॐ ब्राह्ययै नमः, ॐ माहेश्वर्यै नमः, ॐ कौमार्यै नमः,
ॐ वैष्णव्यै नमः, ॐ वाराह्यै नमः, ॐ इन्द्राण्यै नमः,
ॐ चामुण्डायै नमः, ॐ महालक्ष्म्यै नमः,
इन मन्त्रों से अष्टमातृकाओं का पूजन करना चाहिए । इस प्रकार प्रथम आवरण
का पूजन कर योनिमुद्रा प्रदर्शित करनी चाहिए ।
द्वितीय आवरण मे चौंसठ दलों पर निम्नलिखित मन्त्रों से चौंसठ शक्तियों का
पूजन करना चाहिए -
१. ॐ कुलेश्यै नमः २. ॐ
कुलनन्दायै नमः ३. ॐ वागीश्वर्यै
नमः
४. ॐ भैरव्यै नमः ५. ॐ
उमायै नमः ६. ॐ श्रियै नमः
७. ॐ शान्ततायै नमः ८. ॐ
चण्डायै नमः ९. ॐ धूम्रायै नमः
१०. ॐ काल्यै नमः ११. ॐ
करालिन्यै नमः १२. ॐ
महालक्ष्म्यै नमः
१३. ॐ कड्काल्यै नमः १४. ॐ
रुद्रकाल्यै नमः १५. ॐ
सरस्वत्यै नमः
१६. ॐ वाग्वादिन्यै नमः १७ ॐ
नकुल्यै नमः १८. ॐ भद्रकाल्यै
नमः
१९. ॐ शशिप्रभायै नमः २०. ॐ
प्रत्यङ्गिरायै नमः २१. ॐ
सिद्धलक्ष्म्यै नमः
२२. ॐ अमृतेश्वै नमः २३. ॐ
चण्डिकायै नमः २४. ॐ खेचर्यै नमः
२५. ॐ भूचर्यै नमः २६. ॐ
सिद्धायै नमः २७. ॐ कामाख्ये
नमः
२८. ॐ हिंगुलायै नमः २९. ॐ
बलायै नमः ३०. ॐ जयायै नमः
३१. ॐ विजयायै नमः ३२. ॐ
अजितायै नमः ३३. ॐ नित्यायै नमः
३४. ॐ अपराजितायै नमः ३५. ॐ
विलासिन्यै नमः ३६. ॐ घोरायै नमः
३७. ॐ चित्रायै नमः ३८. ॐ
मुग्धायै नमः ३९. ॐ धनेश्वर्यै
नमः
४०. ॐ सोमेश्वर्यै नमः ४१.
ॐ महाचण्डायै नमः ४२. ॐ विद्यायै
नमः
४३. ॐ हंस्यै नमः ४४. ॐ
विनायकायै नमः ४५. ॐ वेदगर्भायै नमः
४६. ॐ भीमायै नमः ४७. ॐ
उग्रायै नमः ४८. ॐ वैद्यायै नमः
४९. ॐ सद्गत्यै नमः ५०. ॐ
उग्रेश्वर्यै नमः ५१. ॐ
चन्द्रगर्भायै नमः
५२. ॐ ज्योत्स्नायै नमः ५३. ॐ
सत्यायै नमः ५४. ॐ यशोवत्यै नमः
५५. ॐ कुलिकायै नमः ५६. ॐ
कामिन्यै नमः ५७. ॐ काम्यायै
नमः
५८. ॐ ज्ञानवत्यै नमः ५९. ॐ
डाकिन्यै नमः ६०. ॐ राकिन्यै
नमः
६१. ॐ लाकिन्यै नमः ६२. ॐ
काकिन्यै नमः ६३. ॐ शाकिन्यै
नमः
६४. ॐ हाकिन्यै नमः
इस प्रकार द्वितीय आवरण की पूजा कर खेचरी मुद्रा प्रदर्शित करनी
चाहिए ।
तृतीय आवरण में बत्तीस दलों पर निम्नलिखित मन्त्रों से बत्तीस शक्तियों का
पूजन करना चाहिए ।
१. ॐ किरातायै नमः २. ॐ
योगिन्यै नमः ३. ॐ बीरायै नमः
४. ॐ बेतलायै नमः ५. ॐ
दृत्यै नमः ६. ॐ यक्षिण्यै नमः
७. ॐ हरायै नमः ८. ॐ
ऊर्ध्वकेश्यै नमः ९. ॐ मातंग्यै
नमः
१०. ॐ विचर्चिकायै नमः ११. ॐ
मोहिन्यै नमः १२. ॐ वंशवर्द्धिन्यै
नम
१३. ॐमालिन्यै नमः १४. ॐ
ललितायै नमः १५. ॐ दीप्तायै नमः
१६. ॐ मनोजार्यै नमः १७. ॐ
पदिमन्यै नमः १८. ॐ धरायै नमः
१९. ॐ बर्वयै नमः २०. ॐ
छत्रहस्तायै नमः २१. ॐ रक्तेनेत्रायै
नमः
२२. ॐ मातृकायै नमः २३. ॐ
दूरदश्यैं नमः २४. ॐ क्षेत्रेश्यै
नमः
२५. ॐ रङ्गिन्यै नमः २६. ॐ
नट्यै नमः २७. ॐ शान्त्यै नमः
२८. ॐ वज्रहस्तायै नमः २९. ॐ
धूम्रायै नमः ३०. ॐ श्वेतायै नमः
३१. ॐ सुमङ्गलायै नमः ३२. ॐ
सर्वेश्वर्यै नमः
इस प्रकार तृतीय आवरण में उक्त मन्त्रों से ३२ शक्तियों का पूजन कर
बीजमुद्रा प्रदर्शित करनी चाहिए ।
चतुर्थ आवरण में १६ दलों पर निम्नलिखित मन्त्रों से १६ शक्तियों का पूजन
करना चाहिए, यथा-
१. ॐ मुग्धायै नमः, २. ॐ श्रियै नमः, ३. ॐ कुरुकुल्लायै नमः,
४. ॐ त्रिपुरायै नमः,
५. ॐ तोतलायै नमः, ६. ॐ क्रियायै नमः,
७. ॐ रत्यै नमः, ८. ॐ प्रीत्यै नमः, ९. ॐ बालायै नमः,
१०. ॐ सुमुख्यै नमः, ११. ॐ श्यामलाविलायै नमः, १२. ॐ पिशाच्यै नमः,
१३. ॐ विदार्यै नमः,
१४. ॐ शीतलायै नमः, १५. ॐ वज्रयोगिन्यै नमः,
१६. ॐ सर्वेश्वर्यै नमः ।
इस प्रकार चतुर्थ आवरण में उक्त मन्त्रों से १६ शक्तियों का पूजन कर
अंकुश मुद्रा दिखलानी चाहिए ।
पञ्चम आवरण में पूर्व आदि आठ दिशाओं के कमल दलों पर निम्नलिखित मन्त्रों से
अष्टसरस्वतियों का पूजन करना चाहिए, यथा
-
१. पूर्वदिशा दल पर - ॐ नमः पद्मासने
शब्दरुपे ऐं ह्रीं क्लीं वद वद वाग्वादिनी स्वाहा’ मन्त्र से
वागीश्वरी का पूजन करना चाहिए ।
२. अग्निकोण दल पर - ‘क्लीं वद वद चित्रेश्वरी ऐं स्वाहा’ मन्त्र से
चित्रेश्वरि का पूजन करना चाहिए ।
३. दक्षिण दल पर - ऐं कुलिजे ऐं
सरस्वति स्वाहा’ मन्त्र से कुलजा का पूजन करना चाहिए ।
४. नैऋत्यकोण दल पर - ‘ऐं ह्रीं श्रीं वद वद
कीर्तीश्वरी स्वाहा’ मन्त्र से कीर्तीश्वरी का पूजन करना
चाहिए ।
५. नैऋत्यकोण दल पर - ‘ऐं ह्रीं अन्तरिक्षसरस्वति स्वाहा’ मन्त्र से
अन्तरिक्षसरस्वती का पूजन करना चाहिए ।
६. वायव्य कोण दल पर - ‘ह्स्ष्फ्रं ह्सौं ह्स्फ्रों ऐं ह्रीं श्रीं द्रां द्रीं क्लीं ब्लूं सः
घ्रीं घटसरस्वति घटे वद वद तर तर रुद्राज्ञया ममाभिलाषं कुरु कुरु स्वाहा’ मन्त्र से घटसरस्वती का पूजन करना चाहिए ।
७. उत्तर के दल पर - ‘ब्लूं वें वद वद त्रीं फट्’ मन्त्र से नीलसरस्वती का
पूजन करना चाहिए ।
८. ईशान कोण के दल पर - ऐं हैं
ह्रीं किणि किणि विच्चे’ मन्त्र से किणि का पूजन करना चाहिए
।
इस विधि से पञ्चम आवरण पूजा में आठ दलों पर उक्त मन्त्रों से
वागीश्वरो आदि का पूजन कर क्षोभमुद्रा प्रदर्शित करनी चाहिए ।
षष्ठ आवरण पूजा में षट्कोण में निम्नलिखित मन्त्रों से डाकिनी आदि का पूजन
करना चाहिए यथा -
१. ॐ डाकिन्यै नमः २. ॐ राकिण्यै
नमः ३. ॐ लाकिन्यै नमः
४. ॐ काकिन्यै नमः ५. ॐ
शाकिन्यै नमः ६. ॐ हाकिन्यै नमः
इस विधि से षष्ठ आवरण पूजा में ६ कोणों में निर्दिष्ट मन्त्रों से
डाकिनी आदि का पूजन कर द्राविणी मुद्रा प्रदर्शित करनी चाहिए ।
सप्तम आवरण पूजा में त्रिकोण में अपने - अपने मन्त्रो से परा,
वाला एवं भैरवी का पूजन करना चाहिए, यथा -
ह्रीं परायै नमः, ऐं क्लीं सौः बालायैः नमः,
ह्सैं ह्क्लीं ह्सौः
भैरव्यै नमः ।
इन मन्त्रों से त्रिकोण के तीनों कोणों में क्रमशः परा,
बाला एवं भैरवी का पूजन कर आकर्षणी मुद्रा प्रदर्शित करनी चाहिए ।
इस प्रकार आवरण पूजा कर पाँच पुष्पाञ्जलियाँ देकर विधिवत् मन्त्र का जप
(पुरश्चरण) करना चाहिए ॥७१-७२॥
गणेशक्षेत्रपालाभ्यां योगिन्यै
भैरवाय च ॥७२॥
तारायै चापि वितरेद् बलिं नित्यं
चतुष्पथे ।
मांसमाषान्नशकाज्यपायसापूपकादिकम्
॥७३॥
बलिद्रव्यं समाख्यातं तेनेष्टं सा
प्रयच्छति ।
प्रतिदिन चौराहे पर गणेश, क्षेत्रपाल
योगिनी, भैरवी एवं तारा देवी की बलिप्रदान करना चाहिए । मांस
से तथा उडद से बनी हुई वस्तु और शाक, घी, खीर एवं मालपूआ आदि पदार्थ बलि द्रव्य होते हैं । इस प्रकार के बलि
द्रव्यों के प्रदान से वह देवी साधक को अभीष्ट सिद्धि प्रदान करती है ॥७२-७४॥
विमर्श - चौथे तरङ्ग के ५०-५१ श्लोक में निर्दिष्ट मन्त्र से विधिपूर्वक
बलिदान करना चाहिए ॥७२-७४॥
तस्या ध्यानं त्रिधा वच्मि
सत्त्वादिगुणभेदतः ॥७४॥
सत्त्विकध्यावर्णनम्
श्वेताम्बराढ्यां हंसस्था
मुक्ताभरणभूषिताम् ।
चतुर्वक्त्रामष्टभुजैर्दधानां
कुण्डिकाम्बुजे ॥७५॥
वराभये पाशशक्ति
अक्षस्रक्पुष्पमालिके ।
शब्दपाथोनिधौ ध्यायेत्
सृष्टिध्यानमुदीरितम् ॥७६॥
महाविद्या के तीन ध्यानों का वर्णन -
सत्त्वादि गुणों के भेद से अब हम महाविद्या का तीन प्रकार का ध्यान कहते
हैं । सर्वप्रथम ‘सात्त्विक ध्यान’
कहते हैं - श्वेत वस्त्र, धारण किये हुए हंस
पर आसीन, मोती के आभूषणों से विभूषित, चार
मुखों वाली एवं अपनी आठ भुजाओं में क्रमशः १. कमण्डल, २. कमल,
३. वर, ४. अभय मुद्रा, ५.
पाश, ६. शक्ति, ७. अक्षमाला एवं ८.
पुष्पमाला धारण किये हुये शब्द समुद्र में स्थित महाविद्या का ध्यान करना चाहिए ।
इस प्रकार इसे ‘सृष्टि ध्यान’ कहते
हैं ॥७४-७६॥
राजसध्यानवर्णनम्
रक्ताम्बरां रक्तसिंहासनस्थां
हेमभूषिताम् ।
एकवक्त्रां वेदसंख्यैर्भुजैः
संबिभ्रतीं क्रमात् ॥७७॥
अक्षमालां पानपात्रमभयं वरमुत्तमम्
।
श्वेतद्वीपस्थितां ध्यायेत्
स्थितिध्यानमिदं स्मृतम् ॥७८॥
अब रजोगुणात्मिका भगवती का ध्यान कहते हैं - रक्त वस्त्र धारण किये
हुये,
रक्त वर्ण के सिंहासन पर आसीन, सुवर्ण निर्मित्त
आभूषणों से सुशोभित, एक मुख वाली, अपने
चार भुजाओं में १. अक्षमाला, २. पानपात्र, ३. अभय एवं ४. वरमुद्रा धारण किये हुये श्वेतद्वीप निवासिनी भगवती का
ध्यान करना चाहिए । इस प्रकार इसे ‘स्थिति’ ध्यान कहते हैं ॥७७-७८॥
तामसध्याकथनम्
कृष्णाम्बराढ्यां नौसंस्थामस्थ्याभरणभूषिताम्
।
नववक्त्रां भुजैरष्टादशभिर्दधतीं
वरम् ॥७९॥
अभयं परशुं दर्वीं खङु पाशुपतं हलम्
।
भिण्डी शूलं च मुसलं कर्त्री शक्तिं
त्रिशीर्षकम् ॥८०॥
संहारास्त्रं वज्रपाशौ खट्वाङं
गदया सह ।
रक्ताम्भोधौ स्थितां
ध्यायेत्संहारध्यानमीदृशम् ॥८१॥
अब तामस ध्यान कहते हैं - कृष्ण वर्ण का वस्त्र धारण किये हुये,
नौका पर विराजमान, हड्डी के आभूषणों से
विभूषित, नौ मुखों वाली, अपने अट्टारह
भुजाओं में १. वर. २. अभय, ३. परशु, ४.
दर्वी, ५. खड्ग, ६. पाशुपत, ७. हल, ८. भिण्दि, ९. शूल,
१०. मुशल, ११. कर्तृका (कैंची), १२. शक्ति, १३. त्रिशूल, १४.
संहार अस्त्र, १५. पाश, १६. वज्र,
१७. खट्वाङ्ग एं १८ गदा धारण करने वाली रक्त-सागर में स्थित देवी
का ध्यान करना चाहिए । इस प्रकार इसे ‘संहार ध्यान’
कहते हैं ॥७९-८१॥
कर्मसु क्रूरसौम्येषु
ध्यायेन्मन्त्री यथातथा ।
एवंसिद्धे
मनोमन्त्रीगिरावाचस्पतिर्भवेत् ॥८२॥
मन्त्रवेत्ता को मारणादि क्रूर कर्मो में संहार ध्यान,
उच्चाटन एवं वशीकरण में स्थिति ध्यान तथा शान्तिक-पौष्टिक आदि
कार्यो में सृष्टि ध्यान करना चाहिए । इस प्रकार प्रयोग तथा पुरश्चरण द्वारा
मन्त्र के सिद्ध हो जाने पर साधक वाणी में वाचस्पति के समान हो जाता है ॥८२॥
दूर्वोत्थया तु लेखन्या
रोचनारसयुक्तया ।
बालस्याच्छिन्ननालस्य जिहवायां
विलिखेन्मनुम् ॥८३॥
संप्राप्ते चाष्टमे वर्षे
सर्वशास्त्रज्ञतमियात् ।
अब काम्य प्रयोग कहते हैं -
बालक के नालच्छेदन होने से पहले उसकी जिहवा पर दूर्वा की लेखनी गथा गोरोचन
के रस से इस मन्त्र को लिखे तो वह ८ वर्ष का होते होते संपूर्ण शास्त्रोम का
पारंगत विद्वान् हो जाता है ॥८३-८४॥
मन्त्रेणायुतसंजप्तां वचां बालस्य
कण्ठतः ॥८४॥
बध्नीयात् पूर्वसम्प्रोक्तं बलिं
दत्त्वा विधानतः ।
द्वादशे वत्सरे प्राप्ते भक्षिता सा
कवित्वकृत् ॥८५॥
पूर्वोक्त रीति से बलिदान कर उक्त
मन्त्र से अभिमन्त्रित वचा नामक औषधि बालक के कण्ठ में बाँध देवें । फिर १२ वर्ष
बीत जाने पर उसे वह भक्षण कर ले तो उत्तम कविता करने वाला हो जाता है,
॥८४-८५॥
ज्योतिष्मती भवं तैलं कर्षमात्रं
सुमन्त्रितम् ।
उपरागे जलस्थो
योऽश्नीयाद्वाचस्पतिर्भवेत् ॥८६॥
एक कर्ष अर्थात् ४ तोला ज्योतिष्मती
का तेल ग्रहण के समय जल में स्थित हो इस मन्त्र से अभिमन्त्रित कर जो साधक पीता है
वह वाचस्पति हो जाता है ॥८६॥
चतुष्पथे श्मशाने वा हित्वा लज्जाभयं
तथा ।
जपेच्छवं समारुह्य विद्यातत्परमानसः
॥८७॥
श्रृणोत्यसावमुं शब्दं निशीथे
जपतत्परः ।
प .,
गो भव विद्यानां सर्वां सिद्धिमाप्नुहि ॥८८॥
चौराहे पर अथवा श्मशान में लज्जा एवं भंय का त्याग कर शव के ऊपर बैठ कर
एकाग्रचित्त से मध्यरात्रि में जप में तल्लीन हुये व्यक्ति को ऐसा सुनाई पडता है ‘कि विद्याओं में पारङगत हो जाओ और समस्त सिद्धियाँ प्राप्त करो’ ॥८७-८८॥
विद्वत्कुलसमुद्भूतमष्टवर्षं शिशुद्वयम्
।
उपवेश्य तयोर्मूर्ध्नि करौ दत्त्वा
जपेन्मनुम् ॥८९॥
वेदान्तन्यायसंयुक्त्या विवदेते
उभावपि ।
यः कौतुकी स आश्चर्य विद्यायाः
पश्यतु ध्रुवम् ॥९०॥
विद्वत्कुल में उत्पन्न आठ वर्ष के दो शिशुओं को बैठा कर उनके शिर पर हाथ
रखकर इस मन्त्र का जप करें तो वे दोनों ही वेदान्त एवं न्यायशास्त्र में
प्रतिपादित तर्कों से शास्त्रार्थ करने लगते है । जिसे इस विषय में कुतूहल हो वह
अवश्य इस विद्या के आश्चर्य को देखें ॥८९-९०॥
विधाय वेदिकां रम्यां विजने कदलीवने
।
तत्रासीनो जपेद्विद्यामर्कलक्षं
विधानतः ॥९१॥
किसी निर्जन केले के वन में सुन्दर वेदिका बना कर उस पर बैठकर विधिवत् बारह
लाख की संख्या में जप करें ॥९१॥
दासीचालितदोलायामारुढां
सुस्मिताननाम् ।
पुन्नागचम्पकाशोकरम्भाविपिनसंस्थिताम्
॥९२॥
एवं ध्यायन्भगवतीं बलिं
दद्याज्जपान्ततः ।
फिर दासियों द्वारा ढोई जाती हुई ढोला (डोली) में बैठी हुई मन्द-मन्द हास
करती हुई पुन्नाग, अशोक एवं केले के
वन में स्थित भगवती का ध्यान करते हुए जप के अन्त में बलि देनी चाहिए ॥९२-९३॥
अस्य मन्त्रस्य नानाफलकथनम्
एवं कुर्वन्नरः सर्वमभीष्टं लभते
चिरात् ॥९३॥
फलस्त्रुति कथन -
इस प्रकार पूजा अर्चना करने से साधक शीघ्र ही अपना अभीष्ट प्राप्त कर लेता
है ॥९३॥
निर्वासाविशिखः प्रेतभूमिस्थो यो
जपेन्मनुम् ।
अयुतं कृष्णभूताहे स
वाक्सिद्धिमवाप्नुयात् ॥९४॥
कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी को नङ्गा हो कर, केशों
को खोल कर प्रेतभूमि (श्मशान) में बैठकर दक्ष हजार जप करें तो साधक को वाक् सिद्धि
प्राप्त हो जाती है ॥९४॥
विद्यां सौख्यं धनं पुष्टिमायुः
किर्तिं बलं स्त्रियः ।
रुपं कामयमानेन तारासेव्या
निरन्तरम् ॥९५॥
॥ इति श्रीमन्महीधरविरचिते
मन्त्रमहोदधौ कालीमन्त्रकथनं नाम पञ्चमस्त रङ्गः ॥५॥
विद्या, सौख्य, धन,
पुष्टि, आयु, कान्ति,
बल, स्त्री एवं रुप की कामना रखने वाले साधकों
को निरन्तर भगवती तारा की आराधना करनी चाहिए ॥९५॥
॥ इति श्रीमन्महीधरविरचितायां
मन्त्रमहोदधिव्याख्यायां नौकायां कालीमन्त्रकथनं नाम पञ्चमस्तरङ्गः ॥५॥
इस प्रकार श्रीमन्महीधर विरचित मन्त्रमहोदधि के पञ्चम तरङ्ग की महाकवि पं० रामकुबेर मालवीय के द्वितीय आत्मज डॉ सुधाकर मालवीय कृत 'अरित्र' हिन्दी व्याख्या पूर्ण हुई ॥५ ॥
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