मन्त्रमहोदधि तृतीय तरङ्ग
मन्त्रमहोदधि तृतीय तरङ्ग : कालीतथा काली नाम से अभिहित दक्षिणाकाली आदि के अनेक मन्त्र एवं सुमुखी के मन्त्र का
प्रतिपादन एवं काम्यप्रयोग कहा गया है।
मन्त्रमहोदधिः - तृतीयः तरङ्गः
मन्त्रमहोदधि –
तरङ्ग ३
तृतीयः तरङ्गः
अथ कालीमनून वक्ष्ये सद्यो
वाक्सिद्धिदायकान् ।
आराधितैर्यैः सर्वेष्टं
प्राप्नुवन्ति जना भुवि ॥१॥
अब सद्यः वाक्सिद्धि प्रदान करने
वाले काली के मन्त्रों को कहता हूँ, जिनके
द्वारा आराधना करने से मनुष्य इस भूलोक में अपना समस्त अभीष्ट प्राप्त कर लेता है
॥१॥
कालिकाया द्वाविंशत्यर्णात्मको
मन्त्रः
कोधीशात्रितयं
वहिनवामाक्षिविधुभिर्युतम् ।
वराहद्वितयं
वामकर्णचन्द्रसमान्वितम् ॥२॥
मायायुग्मं दक्षिणे च दीर्घासृष्टिः
सदृक् क्रिया ।
चक्रीझिण्टीशमारुढः प्रागुक्तं
बीजसप्तकम् ॥३॥
मन्त्रो वहिनप्रियान्तोऽयं
द्वाविंशत्यक्षरो मतः ।
सर्वप्रथम दक्षिणकाली मन्त्र का
उद्धार कहते हैं -
वहिन (र),
बामाक्षि (ई) एवं विधु (र) के साथ अनुस्वार तथा क्रोधीश (क) अर्थात्
क्रीं इसकी तीन आवृत्ति, वामकर्ण (ऊ) एवं चन्द्रमा (
अनुस्वार) सहित वराह (ह) अर्थात् हूँ की आवृत्ति, फिर माया
युग्म (ह्रीं ह्रीं), तदनन्तर दक्षिणे, दीर्घसृष्टि (का), सदृक् किया (लि) और झिण्टीश (ए)
के सहित चक्री (क अर्थात् के) तदनन्तर पुनः पूर्वोक्त सात बीज - क्रीं क्रीं क्रीं
हूं हूं ह्रीं ह्रीं - उसके अन्त में वह्निप्रिया अर्थात् स्वाहा लगाने से बाईस
अक्षरों का काली मन्त्र निष्पन्न होता है ॥२-४ ॥
विमर्श - मन्त्र का स्वरूप इस
प्रकार है - 'क्रीं क्रीं क्रीं हूं हूं ह्रीं
ह्रीं दक्षिणे कालिके क्रीं क्रीं क्रीं हूं हूं ह्रीं ह्रीं स्वाहा' ॥ २-४ ॥
न चात्र सिद्धसाध्यादिशोधनं मनसापि
च ॥४॥
न यत्नातिशयः
कशिच्त्पुरश्चर्यानिमित्तकः ।
विद्याराज्ञयाः स्मृतेरेव
सिद्धयष्टकमवाप्नुयात् ॥५॥
इस मन्त्र की सिद्धि के लिए मन से
भी किसी साधन की आवश्यकता नहीं है और न तो पुरश्चरण का प्रयत्न ही आवश्यक है,
इस विद्याराज्ञी के स्मरण मात्र से साधक को सारी सिद्धियाँ प्राप्त
हो जाती हैं ॥ ४-५ ॥
भैरवोऽस्य ऋषिश्छन्दउष्णिक्काली तु
देवता ।
बीजं माया दीर्घवर्मशक्तिरुक्ता
मनीषिभिः ॥६॥
षड्दीर्घाढ्याद्यबीजेन विद्याया
अङुमीरितम् ।
मातृकां पञ्चधा भक्त्या वर्णान्
दशदशक्रमात् ॥७॥
हृदये भुजयोः पादद्वये मन्त्री
प्रविन्यसेत् ।
व्यापकं मनुना कृत्वा ध्यायेच्चेतसि
कालिकाम् ॥८॥
मनीषियों ने इस मन्त्र के भैरव ऋषि,
उष्णिक छन्द, काली देवता, माया बीज (ह्रीं) तथा दीर्घ वर्म (हूं) को शक्ति कहा है । छ दीर्घ सहित
आद्य बीज से इस विद्या का षडङ्गन्यास कहा गया है । वर्णमाला के कुल पचास अक्षरों
को दश दश अक्षरों का पांच विभाग कर हृदय, दोनों हाथ और दोनों
पैरों में न्यास करना चाहिए । तदनन्तर मुख्य मन्त्र से व्यापक न्यास कर चित्त में
महाकाली का ध्यान करना चाहिए ॥ ६-८ ॥
विमर्श - सर्वप्रथम इसका विनियोग
कहते हैं - ॐ अस्य श्रीकालीमन्त्रस्य भैरवऋषिः उष्णिक्छन्दः कालीदेवता ह्रीं बीजं
हूँ शक्तिः क्रीं कीलक आत्मनोऽभीष्टसिद्ध्यर्थे पुरुषार्थचतुष्टयप्राप्तये वा
कालीमन्त्र जपे विनियोगः ।
ऋष्यादिन्यास - ॐ भैरवऋषये नमः
शिरसि,
ॐ उष्णिक्छन्दसे नमः मुखे,
ॐ दक्षिणकालीदेवतायै नमः,
हृदि, ॐ ह्रीं बीजाय नमः गुह्ये,
ॐ हूं शक्तये नमः पादयोः, ॐ क्रीं कीलकाय नमः सर्वाङ्गे
कराङ्गन्यास - ॐ क्रां
अङ्गुष्ठाभ्यां नमः, ॐ क्रीं
तर्जनीभ्यां नमः,
ॐ क्रूं मध्यमाभ्यां नमः, ॐ क्रैं अनामिकाभ्यां नमः,
ॐ क्रौं कनिष्ठिकाभ्यां नमः,
ॐ क्रः करतलकरपृष्ठाभ्यां नमः ।
हृदयादिन्यास - उक्त प्रकार से
दीर्घान्त ६ वर्णों के साथ बीज मंत्र लगाकर हृदयादिन्यास भी क्रमशः कर लेना चाहिए
।
वर्णन्यास - अं आं इं ईं उं ऊं ऋं
ऋृं लृं लॄं नमः,
हृदि ।
एं ऐं ओं औं अं अः कं खं गं घं नमः,
दक्षबाहौ ।
डं चं छं जं झं टं ठं डं ढं नमः,
वामबाहौ ।
णं तं थं दं धं नं पं फं बं भं नमः,
दक्षपादे ।
मं यं रं लं वं शं षं सं हं क्षं
नमः,
वामपादे ।
क्रीं क्रीं क्रीं हूं हूं ह्रीं
ह्रीं दक्षिणकालिके क्रीं क्रीं क्रीं हूं हूं ह्रीं ह्रीं स्वाहा,
सर्वाङ्गे ॥६-८ ॥
ध्यानवर्णनम्
सद्यश्छिन्नशिरः कृपाणमभयं
हस्तैर्वरं बिभ्रतीं
घोरास्यां शिरसां
स्त्रजासुरुचिरामुन्मुक्तकेशावलिम् ।
सृक्क्यसृक्प्रवहां श्मशाननिलयां
श्रुत्योः शवालङ्कृतिं
श्यामङीं कृतमेखलां शवकरैर्देवीं
भजे कालिकाम् ॥९॥
अब भगवती दक्षिणकालिका का ध्यान
कहते हैं-
भगवती दक्षिणकालिका का मुख अत्यन्त
भयानक है,
उनके गले में मुण्ड माला विराज रही है तथा केश खुले हुये हैं,
उनकी चार भुजायें हैं, बायें के निचले भाग
वाली भुजा में तुरन्त का काटा गया शिर तथा ऊपरी हाथ में अभयमुद्रा है, दायें के निचले भाग वाली भुजा में वरद मुद्रा तथा ऊपर वाली भुजा में खड्ग
विराज रहा है, जिनके होठों के अग्रभाग से अजस्र रक्त की धारा
चू रही है । कानों में दो शव-शिशु के कर्ण फूल आभूषण के रूप में लटक रहे हैं । कमर
में शवहस्त से निर्मित करधनी शोभा दे रही है, ऐसी
श्मशानवासिनी श्यामवर्णा महाकाली का मैं ध्यान करता हूँ ॥९॥
पुरश्चरणकथणम्
एवं ध्यात्वा जपेल्लक्षं
जुहुयात्तद्दशांशतः ।
प्रसूनैः करवीरोत्थैः
पूजायन्त्रमशोच्यते ॥१०॥
इस प्रकार ध्यान कर उपरोक्त का
मन्त्र एक लाख जप करना चाहिए तथा कनेर के पुष्पों से उसका दशांश हवन करना चाहिए ।
अब उनका पूजा यन्त्र कहता हूँ ॥ १० ॥
आदौ षट्कोणमारच्य त्रिकोणत्रितयं
ततः ।
पद्ममष्टदलं ब्राह्ये भूपुरं तत्र
पूजयेत् ॥११॥
अब काली पूजा यन्त्र निर्माण की
विधि कहते हैं -
पूजन यन्त्र बनाने के लिए सर्वप्रथम
षट्कोण की रचना करके, तदनन्तर उसके बाहर
तीन त्रिकोण बनाना चाहिए । फिर उसके बाद अष्टदलकमल बनाकर उसके बाहर भूपुर की रचना
कर उस यन्त्र में महाकाली का पूजन करना चाहिए ॥ ११ ॥
पीठाद्यावरणपूजा पीठदेवता च
जयाख्या विजया पश्चादजिता चापराजिता
।
नित्या विलासिनी चापि दोग्ध्र्यघोरा
च मङुला ॥१२॥
पीठशक्तय एताः स्युः कालिकायोगपीठतः
।
आत्मने हृदयान्तोऽयं मायादिः
पीठमन्त्रकः ॥१३॥
अब महाकाली की पूजाविधि कहते हैं -
१. जया,
२. विजया, ३. अजिता ४. अपराजिता, ५. नित्या, ६. विलासिनी, ७.
दोग्ध्री, ८. अघोरा और ९. मङ्गला - ये नव पीठ की शक्तियां
हैं । ॐ ह्रीं कालिकायोगात्मने नमः' यह पीठ का मन्त्र है ॥
१२-१३ ॥
अस्मिन् पीठे यजेद्देवीं
शवरुपाशिवस्थिताम् ।
महाकालरतासक्ताम शिवाभिर्दिक्षु
वेष्टिताम् ॥१४॥
अङानि पूर्वमाराध्य षट्पत्रेषु
समर्चयेत् ।
कालीं कपालिनीं कुल्लां कुरुकुल्लां
विरोधिनीम् ॥१५॥
विप्रचित्तां च सम्पूज्य नवकोणेषु
पूजयेत् ।
उग्रामुग्रप्रभां दीप्तां नीलां
घनबलाकिके ॥१६॥
मात्रां मुद्रां तथा मित्रां
पूज्याः पत्रेषु मातरः ।
पद्स्याष्टसु पत्रेषु ब्राह्मी
नारायणीत्यपि ॥१७॥
माहेश्वरी च चामुण्डा कौमारी
चापरपजिता ।
वाराही नारसिंही च पुनरेतास्तु
भूपुरे ॥१८॥
भैरवीं महदाद्यान्तां सिंहाद्यां
धूम्रपूर्विकाम् ।
भीमोन्मत्तादिकां चापि
वशीकरणभैरवीम् ॥१९॥
मोहनाद्यां समाराध्य
शक्रादीनायुधान्यपि ।
एवमाराधिता काली सिद्धा भवति
मन्त्रिणाम् ॥२०॥
उस पीठ पर शव रूपी शिव पर स्थित
महाकाल के साथ रतासक्ता एवं चारों ओर शिवाओं से घिरी हुई महादेवी का पूजन करना
चाहिए । सर्वप्रथम अङ्गपूजा करनी चाहिए । तदनन्तर षट्कोणों में काली,
कपालिनी, कुल्ला, कुरुकुल्ला,
विरोधिनी एवं विप्रचित्ता का पूजन करें । तदनन्तर त्रिकोण के
नवकोणों में उग्रा, उग्रप्रभा, दीप्ता,
नीला, घना, बलाकिका,
मात्रा, मुद्रा तथा मित्रा का पूजन करना चाहिए
। इसके बाद अष्टदल में क्रमशः ब्राह्मी, नारायणी, माहेश्वरी, चामुण्डा, कौमारी,
अपराजिता, वाराही और नारसिंही का पूजन करना
चाहिए । भूपुर में महाभैरवी, सिंहभैरवी, घुम्रभैरवी, भीमभैरवी, उन्मत्तभैरवी.
वशीकरणभैरवी एवं मोहनभैरवी का तथा महाभैरवी का पूजन करना चाहिए । तदनन्तर भूपुर के
बाहर इन्द्रादि दशदिक्पालों का तथा उसके बाहर उनके वज्रादि आयुधों का पूजन करना
चाहिए । इस प्रकार की आराधना से मन्त्र वेत्ता को काली सिद्ध हो जाती हैं ॥ १४-२०॥
विमर्श - प्रयोग विधि - ३. ९ वें
श्लोक के अनुरूप महाकाली का ध्यान कर मानसोपचार से उनका पूजन करें । तदनन्तर
अर्ध्य स्थापित कर हूं गर्भित त्रिकोण लिखकर उस पर आधार सहित अर्ध्वपात्र स्थापित
करें । पुनः उसमें जल भर कर, गन्धादि डाल
कर 'गङ्गे च यमुने चैव' इत्यादि मन्त्र
से तीर्थों का आवाहन करें । तदनन्तर 'वं वह्निमण्डलाय
दशकलात्मने नमः' इस मन्त्र से आधार की ॐ सूर्यमण्डलाय
द्वादशकलात्मने नमः' इस मन्त्र से शङ्ख की तथा ॐ सोममण्डलाय
षोडशकलात्मने नमः' इस मन्त्र से अर्घ्यपात्र स्थित जल की
पूजा करना चाहिए । सर्वप्रथम जयायै नमः, विजयायै नमः,
अजितायै नमः, अपराजितायै नमः, नित्यायै नमः, विलासिन्यै नमः, दोग्ध्र्यै नमः, अघोरायै नमः, मङ्गलायै
नमः, इन मन्त्रों से ९ पीठ शक्तियों की पूजा कर 'कालिकायोगपीठात्मने नमः' इस मन्त्र से पीठ पूजा
संपादन करना चाहिए । इस प्रकार पीठ पूजन के अनन्तर उस पीठ पर भगवती कालिका का
श्लोक १४ के अनुसार ध्यान कर मूलमन्त्र से उनका आवाहन स्थापन तथा पूजा सम्पादन कर,
ॐ दक्षिणकालिके देवि आवरणं ते पूजयामि' इस
मन्त्र को बोल कर माँ से आवरण पूजा की आज्ञा लेकर आवरण पूजा करनी चाहिए ।
सर्वप्रथम षडङ्गपूजा करनी चाहिए । उसकी विधि इस प्रकार है -
ॐ क्रां हृदयाय नमः आग्नेये, क्रीं शिरसे
स्वाहा, ईशाने,
ॐ क्रूं शिखायै वषट्,
नैर्ऋत्ये,
क्रैं कवचाय हुम् वायव्ये,
ॐ क्रौं नेत्रत्रयाय वौषट् अग्रे, ॐ क्र: अस्त्राय
फट् चतुर्दिक्षु,
इस विधि से पूजन कर तदनन्तर
मूलमन्त्र पढ़कर 'अभीष्ट सिद्धिं में
देहि प्रथमावरणार्चन' पर्यन्त पुष्पाञ्जलि समर्पित
करनी चाहिए ।
तदनन्तर षट्कोणों में क्रमशः –
ॐ काल्यै नमः, ॐ कपालिन्यै नमः, ॐ कुल्लायै नमः,
ॐ कुरुकुल्लायै नमः,
ॐ विरोधिन्यै नमः, ॐ विप्रचित्तायै नमः
इन मन्त्रों से पूजन कर मूलमन्त्र
पढ़ें । फिर 'अभीष्ट सिद्धिं में देहि ... द्वितीयावरणार्चन'
पर्यन्त मन्त्र बोलकर पुष्पाञ्जलि समर्पित करनी चाहिए ।
तदनन्तर तीनों त्रिकोणों में क्रमशः
प्रथम त्रिकोण के तीन कोणों में ॐ उग्रायै नमः, ॐ
उग्रप्रभायै नमः, ॐ दीप्तायै नमः - इन तीनों मन्त्रों से,
तदनन्तर द्वितीय त्रिकोण के तीनों कोणों में ॐ नलायै नमः, घनायै नमः, वलाकायै नमः - इन तीन मन्त्रों से,
तदनन्तर तृतीय त्रिकोण के तीनों कोणों में ॐ मात्रायै नमः, ॐ मुद्रायै नमः, ॐ मित्रायै नमः से पूजन करें,
फिर मूलमन्त्र पढ़कर अभीष्टसिद्धि से लेकर तृतीयावरणार्चन
पर्यन्त मन्त्र बोलकर पुष्पाञ्जलि समर्पित करनी चाहिए ।
तदनन्तर अष्टदल कमल में पूर्वादि
दिशा क्रम से
ॐ ब्राह्मयै नमः,
ॐ नारायण्यै नमः,
ॐ माहेश्वर्यै नमः,
ॐ चामुण्डायै नमः, ॐ कौमार्यै नमः,
ॐ अपराजितायै नमः, ॐ वाराह्यै नमः, नारसिंहयै नमः
इन मन्त्रों से पञ्चोपचार पूजन कर 'अभीष्ट सिद्धि में ... चतुर्थावरणार्चन पर्यन्त मन्त्र बोलकर
पुष्पाञ्जलि समर्पित करनी चाहिए ।
तदनन्तर भूपुर के आठों दिशाओं में
पूर्वादि क्रम से
ॐ महाभैरव्यै नमः, ॐ सिंहभैरव्यै नमः,
ॐ धूम्रभैरव्यै नमः,
ॐ भीमभैरव्यै नमः, ॐ उन्मत्तभैरव्यै नमः,
ॐ वशीकरणभैरव्यै नमः,
ॐ मोहनभैरव्यै नमः ॐ महाभैरव्यै नमः
इन मन्त्रों को पढ़कर पञ्चोपचार
पूजन करें । फिर 'अभीष्टसिद्धिं मे
देहि पञ्चमावरणार्चन पर्यन्त मन्त्र पढ़कर पुष्पाञ्जलि समर्पित करनी चाहिए
।
तदनन्तर भूपुर के बाहर पूर्वादि
दिशाओं के क्रम से
ॐ इन्द्राय नमः,
ॐ अग्नये नमः,
ॐ यमाय नमः,
ॐ नैर्ऋत्ये नमः, ॐ वरुणाय नमः,
ॐ वायवे नमः,
ॐ सोमाय नमः, ॐ ईशानाय नमः,
ऊपर ॐ ब्रह्मणे नमः, अधः ॐ अनन्ताय नमः
इन मन्त्रों को पढ़कर पञ्चोपचार से
दश दिक्पालों का पूजन कर मूलमन्त्र सहित 'अभीष्टसिद्धिं
मे .....' से लेकर षष्ठावरणार्चन पर्यन्त मन्त्र
पढ़कर पुष्पाञ्जलि समर्पित करनी चाहिए ।
तदनन्तर दिक्पालों के सन्निकट उनके
आयुधों को पूर्वादिदिशाओं के क्रम से
ॐ वज्राय नमः,
ॐ शक्तये नमः, ॐ दण्डायै नमः,
ॐ खङ्गाय नमः,
ॐ पाशाय नमः, ॐ अंकुशाय नमः,
ॐ गदायै नमः,
ॐ त्रिशूलाय नमः, ॐ चक्राय नमः,ॐ पद्माय नमः
मन्त्र से पञ्चोपचार पूजन कर
मूलमन्त्र सहित 'अभीष्ट सिद्धिं मे
देहि ...' पर्यन्त मन्त्र पढ़कर सप्तम, अष्टम और नवम तीन बार पुष्पाञ्जलि
समर्पित करनी चाहिए ।
इसके बाद मूल मन्त्र से गन्धादि
उपचारों द्वारा देवी का पूजन कर मूलमन्त्र का जप करना चाहिए । निश्चित जप पूरा
करने के पश्चात् प्रतिदिन 'गुह्यतिगुह्यगोप्त्री
त्वम्' इत्यादि मन्त्र पढ़कर देवी के बायें हाथ में जप
समर्पित करना चाहिए । तदनन्तर प्रदक्षिणा और नमस्कार कर स्तोत्र और कवच
का पाठ करना चाहिए ।
फिर देवी के अङ्गों में आवरण
देवताओं को विलीन कर संहार मुद्रा द्वारा 'दक्षिण
कालिके देवि क्षमस्व' पढ़कर देवी का विसर्जन करें । देवी के
तेज को पुष्प में समाहित कर अपने हृदय में लगाकर आरोपित करें । नैवेद्य का कुछ अंश
- ॐ उच्छिष्ट चाण्डालिन्यै नमः' । इस मन्त्र से ईशान कोण में
रख देवें तथा निर्माल्य को मस्तक पर धारण करें ।
उक्त मन्त्र का पुरश्चरण दो लाख
करना चाहिए । जिसमें एक लाख जप दिन में पवित्र रहकर हविष्यान्न भोजन कर करें तथा
एक लाख जप रात को ताम्बूल चर्वण कर शय्या पर बैठकर करें। जप पूरा होने पर पूर्वत्
दशांश होम, तर्पण मार्जन एवं ब्राह्मण भोजन
करावें । तदनन्तर गुरुदेव को दक्षिणा प्रदान कर उनसे आशीर्वाद ग्रहण करे ॥ १४-२० ॥
ततः प्रयोगान् कुर्वीत
महाभैरवभाषितान् ।
आत्मनोऽर्थे परस्यार्थे
क्षिप्रसिद्धिप्रदायकान् ॥२१॥
पुरश्चरण द्वारा मन्त्र सिद्धि हो
जाने पर महाभैरव द्वारा बतलाये गये शीघ्र सिद्धि प्रदायक काम्य प्रयोगों को अपने
लिए अथवा अन्यों के लिए करना चाहिए ॥ २१॥
स्त्रीणां निन्दां प्रहारं च
कौटिल्यं वाप्रिय वचः ।
आत्मनो हितमन्विच्छन् कालीभक्तो
विवर्जयेत् ॥२२॥
ध्यान रहे काली की सिद्धि चाहने
वाले तथा अपना हित चाहने वाले साधकों को स्त्रियों की निन्दा,
उन पर प्रहार, उनसे कुटिल व्यवहार अथवा अप्रिय
कटुभाषण त्याग देना चाहिए ॥ २२ ॥
अस्य मन्त्रस्य नानाविधानानि
नानाफलदानि
सुदृशो मदनावासं पश्यन् यः
प्रजपेन्मनुम् ।
अयुतं सोऽचिरादेव वाक्पतेः
समतामियात् ॥२३॥
दिगम्बरो मुक्तकेशः
श्मशानस्थोऽधियामिनि ।
जपेद्योऽयुतमेतस्य भवेयुः
सर्वकामनाः ॥२४॥
अब इस मन्त्र से काम्य प्रयोग का
विधान कहते हैं -
सुन्दरी के गुप्ताङ्ग को देखते हुये
जो साधक इस मन्त्र का दश हजार जप करता है वह शीघ्र ही बृहस्पति के तुल्य हो जाता
है । रात्रि में श्मशान में बैठकर दिगम्बर एवं केशों को खोलकर कर जो इस मन्त्र का
दश हजार जप करता है उसकी सारी कामनायें पूर्ण हो जाती हैं ॥ २३-२४ ॥
शावं हृदयमारुह्य निर्वासाः
प्रेतभूगतः ।
अर्कपुष्पसहस्त्रेणाभ्यक्तेन
स्वीयंरेतसा ॥२५॥
देवीं यः पूजयेद् भक्त्या
जपन्नेकैकशो मनुम् ।
सोऽचिरेणैव कालेन धरणीप्रभुतां
व्रजेत् ॥२६॥
श्मशान में जाकर शव के हृदय पर
आरूढ़ हो कर नग्न (विवस्त्र) हो जो साधक अपने वीर्य से अभ्यक्त आक के पुष्पों से
एक-एक मन्त्र के साथ एक एक पुष्प द्वारा इस प्रकार एक हजार पुष्पों से देवी का
भक्तिभाव से पूजन करता है वह शीघ्र ही भूपति बन जाता है ॥ २५-२६ ॥
रजःकीर्णभगं नार्या ध्यायन्
योऽयुतमाजपेत् ।
स कवित्वेन रम्येण जनान् मोहयति
ध्रुवम् ॥२७॥
स्त्री के रजः से आप्लुत भग का
ध्यान करते हुये जो व्यक्ति दश हजार जप करता है वह अपनी उत्कृष्ट कविता द्वारा
समस्त लोगों को निःसन्देह मोहितकर चकित कर देता है ॥ २७ ॥
त्रिपञ्चारे महापीठे शवस्य हृदि
संस्थिताम् ।
महाकालेन देवेन मारयुद्धं
प्रकुर्वतीम् ॥२८॥
तां ध्यायन् स्मेरवदनां विदधत्
सुरतं स्वयम् ।
जपेत् सहस्त्रमपि यः स शङ्करसमो
भवेत् ॥२९॥
त्रिगुणित पांच अरों के कोणों वाले
महापीठ पर शव के वक्षःस्थल पर बैठी हुई अपने पति महाकाल के साथ सुरत में प्रवृत्त
स्मैरमुखी देवी का ध्यान करते हुये जो साधक स्वयं सुरत में प्रवृत्त होकर उक्त
मन्त्र का एक हजार जप करता है वह शंकर के समान हो जाता है ॥२८-२९ ॥
अस्थिलोमत्वचायुक्तं मासं
मार्जारमेषयोः ।
ऊष्ट्रस्य महिषस्यापि बलिं यस्तु
समर्पयेत् ॥३०॥
भूताष्टम्योर्मध्यरात्रे वश्याः
स्युस्तस्य जन्तवः ।
विद्यालक्ष्मीयशः पुत्रैः स चिरं
सुखमेधते ॥३१॥
यो हविष्याशनरतो दिवा देवीं
स्मरञ्जपेत् ।
नक्तं निधुवनाशक्तो लक्षं स स्याद्
धरापतिः ॥३२॥
मार्जार,
भेंड, ऊंट अथवा भैसें के हड्डी, रोम एवं खाल सहित मांस से जो साधक कृष्ण पक्ष की अष्टमी अथवा चतुर्दशी
तिथि की अर्धरात्रि में बलि देता है, सारे जन्तु उसके वश में
हो जाते हैं । जो साधक दिन में हविष्यान्न भोजन कर देवी का स्मरण करते हुये जप
करता है वह विया, लक्ष्मी, यश एवं
पुत्र का चिरकाल पर्यन्त सुख प्राप्त करता है । रात्रि में निधुवन (सुरत) में
आसक्त रहकर जो व्यक्ति इस मन्त्र का एक लाख जप करता है वह राजा हो जाता है ॥ ३०-३२
॥
रक्ताम्भोजैर्हुतैर्मन्त्री
धनैर्जयति वित्तपम् ।
बिलवपत्रर्भवेद् राज्यं
रक्तपुष्पैर्वशीकृतिः ॥३३॥
लाल कमलों के हवन से व्यक्ति
राजमन्त्री बन जाता है और वह अपने धन से कुबेर को भी मात कर देता है । बिल्व पत्र
के होम से राज्य की प्राप्ति होती है तथा लाल पुष्पों के हवन से वशीकरण की सिद्धि
होती है ॥ ३३ ॥
असृजामहिषादीनां कालिकां यस्तु
तर्पयेत् ।
तस्य स्युरचिरादेव करस्थाः
सर्वसिद्धयः ॥३४॥
भैंस आदि के रक्तों से जो व्यक्ति
महाकाली का तर्पण करता है, समस्त सिद्धियां
शीघ्र ही उसकी वशवर्त्तिनी हो जाती हैं ॥ ३४ ॥
यो लक्षं प्रजपेन्मन्त्रं शवमारुह्य
मन्त्रवित् ।
तस्य सिद्धो मनुः सद्यः
सर्वेप्सितफलप्रदः ॥३५॥
जो मन्त्रवेत्ता शव पर बैठकर उक्त
मन्त्र का एक लाख जप करता है, उसका मन्त्र
सिद्ध हो जाता है तथा उसकी सारी मनोकामनायें शीघ्र ही पूर्ण हो जाती है ॥ ३५ ॥
तेनाश्वमेधप्रमुखैर्यागैरिष्टं
सुजन्मना ।
दत्तं दानं तपस्तप्तमुपास्ते यस्तु
कालिकाम् ॥३६॥
जो व्यक्ति महाकाली की उपासना करता
है,
उस सूजन्मा ने अश्वमेघादि सर्वश्रेष्ठ बलों को संपन्न कर लिया,
उसने सभी दान एवं समस्त तप कर अपना जन्म सार्थक बना लिया ॥ ३६ ॥
ब्रह्मा विष्णूः शिवो गौरी
लक्ष्मीगणपती रविः ।
पूजिताः सकला देवा यः कालीं पूजयेत्
सदा ॥३७॥
जिस व्यक्ति ने सदैव महाकाली की
उपासना कर ली, उसने ब्रह्मा, विष्णु, शिव, गौरी, लक्ष्मी, गणपति, सूर्य एवं
अन्य समस्त देवों का पूजन सम्पन्न कर लिया ॥ ३७ ॥
अथ कालीमन्त्रभेदास्तत्र
एकविंशत्यर्णात्मको मन्त्रः
अथ कालीमन्त्रभेदा उच्यन्ते
सिद्धिदायिनः ।
मायायुगं कूर्चयुग्मं
करशान्तिविधुत्रयम् ॥३८॥
दक्षिणेकालिके पूर्वबीजानि
स्युर्विलोमतः ।
एकविंशतिवर्णात्मा ताराद्यः
पूर्ववद्यजिः ॥३९॥
अब सिद्धिदायक काली मन्त्रों का भेद
कहते हैं -
प्रथम तार (ॐ),
फिर दो माया बीज ( ह्रीं ह्रीं ), फिर दो
कूर्च (हूं हूं) करशान्ति विधु तीन ( क्रीं क्रीं क्रीं) फिर दक्षिणे कालिके,
तदनन्तर अन्त में विलोम क्रम से उक्त सातों बीज ( क्रीं क्रीं क्रीं
हूं हूं ह्रीं ह्रीं ) लगाने से इक्कीस अक्षरों का मन्त्र निष्पन्न होता है,
इसका पूजन एवं पुरश्चरण पूर्वोक्त विधि से करना चाहिए ॥ ३८-३९ ॥
विमर्श - मन्त्र का स्वरूप इस
प्रकार है - "ॐ ह्रीं ह्रीं हूँ हूँ क्रीं क्रीं क्रीं दक्षिणे कालिके क्रीं
क्रीं क्रीं हूं हूँ ह्रीं ह्रीं' ॥ ३८-३९ ॥
बिल्वमूले शवारुढो वटमूले तथैव च ।
लक्षं मनुमिमं जप्त्वा
सर्वसिद्धिश्वरो भवेत् ॥४०॥
बिल्ववृक्ष के नीचे,
अथवा शव पर, अथवा वट वृक्ष के नीचे बैठकर इस
मन्त्र का एक लाख जप करने से साधक सभी सिद्धियों का स्वामी बन जाता है ॥ ४० ॥
चतुर्दशार्णको मन्त्रो
नृसुराद्याकर्षणक्षमः
काली कूर्चं च हृल्लेखा
दक्षिणेकालिके पठेत् ।
पुनबींजत्रयं वहिनवधूर्मन्वक्षरो
मनुः ॥४१॥
अब चौदह अक्षरों वाले काली मन्त्र
का उद्धार कहते हैं -
काली बीज (क्रीं) कृर्च (हूं)
हल्लेखा (ह्रीं), फिर 'दक्षिणे कालिके' यह पद, फिर
तीनों बीज (क्रीं हूं ह्रीं), अन्त में वह्निवधू (स्वाहा)
लगाने से चौदह अक्षरों का काली मन्त्र निष्पन्न होता है ॥ ४१ ॥
विमर्श - मन्त्र का स्वरूप इस
प्रकार है - 'क्रीं हूं ह्रीं दक्षिणे कालिके
क्रीं हूं ह्रीं स्वाहा' ॥ ४१ ॥
यजनं पूर्ववत् प्रोक्तमस्य
मन्त्रस्य मन्त्रिभिः ।
विशेषान्नृसुरादीनामयमाकर्षणे क्षमः
॥४२॥
मन्त्र शास्त्र वेत्ताओं ने इस
मन्त्र का पुरश्चरण आदि पूर्वोक्त रीति से ही कहा है । यह मन्त्र मनुष्य तथा
देवताओं के आकर्षण में विशेष रूप से सक्षम है ॥ ४२ ॥
द्वाविंशत्यर्णो मन्त्रः
वशीकरणक्षमः
कूर्चद्वय त्रयं काल्या मायायुग्मं
तु दक्षिणे ।
कालिके पूर्वबीजानि स्वाहा मन्त्रो
वशीकृतौ ॥४३॥
अब वशीकरण का अन्य मन्त्र
(मन्त्रराज) कहते हैं -
दो कुर्च (हूं हूँ),
तीन काली बीज (क्रीं क्रीं क्रीं), दो माया
बीज (ह्रीं ह्रीं), फिर 'दक्षिणे
कालिके यह पद, तदनन्तर पुनः उक्त सात बीज फिर उसमें 'स्वाहा' लगाने से यह बाईस अक्षरों का मन्त्र
निष्पन्न होता है । वशीकरण के लिए इस मन्त्र का प्रयोग विशेष रूप से किया जाता है
॥ ४३ ॥
विमर्श - मन्त्र का स्वरूप इस
प्रकार है - 'हूं हूँ क्रीं क्रीं क्रीं ह्रीं
ह्रीं दक्षिणेकालिके हूं हूं क्रीं क्रीं क्रीं ह्रीं ह्रीं स्वाहा' । इस मन्त्र का विनियोग, न्यास तथा पुरश्चरण
पूर्वोक्त है । इसकी जप संख्या एक लाख मानी गई है ॥ ४३ ॥
पञ्चदशार्णमन्त्रः
मन्त्रराजे पुनः प्रोक्तं
बीजसप्तकमुत्सृजेत् ।
तिथिवर्णो महामन्त्र उपास्तिः
पूर्ववन्मता ॥४४॥
उक्त मन्त्रराज मंत्र से अन्त के
सात बीजाक्षरों को निकाल देने से पन्द्रह अक्षरों का एक और मन्त्र बन जाता है ।
इसका भी पुरश्चरण पूर्ववत् है ॥ ४४ ॥
विमर्श - मन्त्र का स्वरूप इस
प्रकार है - हूं हूं क्रीं क्रीं क्रीं ह्रीं ह्रीं दक्षिणे कालिके स्वाहा'
॥ ४४ ॥
ब्रह्मरेफौ वामनेत्रं चन्द्रारुढं
मनुर्मतः ।
एकाक्षरो महाकाल्याः
सर्वसिद्धिप्रदायकः ॥४५॥
अब काली एकाक्षर मन्त्र का उद्धार
कहते हैं -
वामनेत्र (ई) चन्द्र (अनुस्वार) से
युक्त ब्रह्म और रेफ (कर) यह काली का एकाक्षर मन्त्र समस्त सिद्धियों को देने वाला
है ॥ ४५ ॥
विमर्श - मन्त्र का स्वरूप इस
प्रकार है - 'क्रीं ॥ ४५ ॥
षडर्णमन्त्रः
बीजं दीर्घयुतश्चक्री पिनाकी
नेत्रसंयुतः ।
क्रोधीशो भगवानन्स्वाहा षडर्णो
मन्त्र ईरितः ॥४६॥
अब महाकाली के षडक्षर मन्त्र का
उद्धार कहते हैं –
कालीबीज (क्रीं),
दीर्घ से युक्त चक्री (का), नेत्रयुक्तपिनाकी
(लि), भगसहित क्रोधीश (के), तदनन्तर 'स्वाहा' लगा देने से ६ अक्षरों का मन्त्र निष्पन्न
हो जाता है ॥ ४६ ॥
विमर्श - मन्त्र का स्वरूप इस
प्रकार है - 'क्रीं कालिके स्वाहा' ॥ ४६॥
पञ्चार्णमन्त्रं सप्तार्णमन्त्रश्च
काली कूर्च तथा लज्जा त्रिवर्णो
मनुरीरितः ।
हुं फडन्तश्च पञ्चार्णः स्वहान्तः
सप्तवर्णकः ॥४७॥
काली का त्रिवर्ण,
पञ्चवर्ण एवं सप्तवर्णात्मक मन्त्र -
कालीबीज (क्रीं),
कूर्च (हूं) एवं लज्जा (ह्रीं) ये तीन बीज त्रिवर्ण हैं, इन बीजाक्षरों के आगे 'हुं फट् लगा देने से पञ्चवर्ण
मन्त्र बन जाता है । उसके आगे 'स्वाहा' लगा देने से वह सप्तवर्ण मन्त्र हो जाता है ॥ ४७ ॥
विमर्श - मन्त्र का स्वरूप इस
प्रकार है -
'क्रीं हूं ह्रीं' - त्रिवर्ण मन्त्र,
'क्रीं हूं ह्रीं हुं फट्'
- पञ्चवर्ण मन्त्र
''क्रीं हूं ह्रीं हुं फट् स्वाहा'
यह सप्तवर्ण मन्त्र है ॥ ४७ ॥
एतेषां पूर्ववत् प्रोक्तं यजनं
नारदादिभिः ।
निग्रहानुग्रहे शक्ताः कालीमन्त्राः
स्मृता इमे ॥४८॥
नारदादि महार्षियों ने इन सब मन्त्र
का विनियोग, ध्यान, पूजन,
एवं पुरश्चरण विधि पूर्ववत् कहा है । अब तक कहे गये काली के ये सभी
मन्त्र निग्रह और अनुग्रह में समर्थ हैं ॥ ४७ ॥
विमर्श - प्रस्तुत तरङ्ग में
दक्षिणकाली के कुल दश मन्त्रों का वर्णन किया गया है,
जो निम्नलिखित है -
१.द्वाविंशत्यक्षर मन्त्र - 'क्रीं क्रीं क्रीं हूं हूं ह्रीं ह्रीं दक्षिणे कालिके क्रीं क्रीं क्रीं
हूं हूं ह्रीं ह्रीं स्वाहा' ।
२- एकविंशत्यक्षर मन्त्र - ॐ ह्रीं
ह्रीं हूं हूं क्रीं क्रीं क्रीं दक्षिणे कालिके क्रीं क्रीं क्रीं हूं हूं ह्रीं
ह्रीं स्वाहा' ।
३- चतुर्दशाक्षर मन्त्र - 'क्रीं हूं ह्रीं दक्षिणे कालिके क्रीं हूं ह्रीं स्वाहा' ।
४ - द्वाविंशत्यक्षर मन्त्र - हूं
हूं क्रीं क्रीं क्रीं ह्रीं ह्रीं दक्षिणे कालिके हूं हूं क्रीं क्रीं क्रीं
ह्रीं ह्रीं स्वाहा' ।
५ - पञ्चदशाक्षर मन्त्र - 'क्रीं क्रीं क्रीं हूं हूं ह्रीं ह्रीं दक्षिणे कालिके स्वाहा' ।
६ - एकाक्षर मन्त्र - 'क्रीं' ।
७ - त्रिवर्ण मन्त्र - 'क्रीं हूं ह्रीं ।
८
- पञ्चाक्षर मन्त्र - 'क्रीं हूं
ह्रीं हुं फट् ।
९ - षडक्षर मन्त्र - 'क्रीं कालिके स्वाहा' ।
१० - सप्ताक्षर मन्त्र - '
क्रीं हूं ह्रीं फट् स्वाहा' ।
इन समस्त मन्त्रों के ऋषि भैरव हैं
। प्रारम्भ के पाँच मन्त्रों का छन्द उष्णिक तथा शेष का विराट् छन्द है । समस्त
मन्त्रों की देवता दक्षिण काली हैं । इनके अनुसार विनियोग तथा ऋष्यादिन्यास कर
लेना चाहिए ।
अब सब मन्त्रों का कराङ्गन्यास एवं
अङ्गन्यास निम्नलिखित होता है -
ॐ क्रां अंगुष्ठाभ्यां नमः । हृदयाय
नमः ।
ॐ क्रीं तर्जनीभ्यां नमः । शिरसे
स्वाहा ।
ॐ क्रूं मध्यमाभ्यां नमः । शिखायै
वषट् ।
ॐ क्रैं अनामिकाभ्यां नमः । कवचाय
हुम् ।
ॐ क्रौं कनिष्ठिकाभ्यां नमः ।
नेत्रत्रयाय वौषट् ।
ॐ क्रः करतलकरपृष्ठाभ्यां नमः ।
अस्त्राय फट् ।
इन समस्त मन्त्रों का ध्यान
निम्नलिखित है -
'सयश्छिन्नशिरः
कृपाणमभयं हस्तैर्वरं विभ्रतीं,
घोरास्यां
शिरसांस्रजासुरुचिरामुन्मुक्तकेशावलिम् ।
सृक्क्यसृक् प्रवहां श्मशाननिलयां
श्रूत्योः शवालंकृति,
श्यामागीं कृतमेखलां शवकरैदेवी भजे
कालिकाम् ।।
उपर्युक्त समस्त मन्त्रों की
पूजाविधि,
पुरश्चरण विधि एवं जपसंख्या दक्षिण कालिका के पूर्वोक्त मन्त्र के
समान हैं ॥ ४८ ॥
द्वाविंशत्यर्णात्मको
गायत्रीसुमुखीमन्त्रः
अथ वक्ष्ये परां विद्यां
सुमुखीमतिगोपिताम् ।
यां लब्ध्वा देशिको विद्वान्न शोचति
कृताकृते ॥४९॥
अब अत्यन्त गोपनीय पराविद्या समुखी
मन्त्र का उद्धार कहते हैं -
इस मन्त्र को प्राप्त कर लेने के
पश्चात् विद्वान् साधक अपने कर्तव्याकर्तव्य के बारे में नहीं सोंचते ॥ ४९ ॥
कर्णो द्युतिः सनयना श्वेतेशः
स्याज्जरासनः ।
लक्ष्मीदीर्घन्दुसंयुक्ता
नन्दीदीर्घः सदृक्क्रिया ॥५०॥
मेषः समाधवः कर्णो भृगुस्तन्द्री च
सेन्धिका ।
खिदेविम वियद्दीर्घं पिशाचिनी
हिमाद्रिजा ॥५१॥
कर्ण (उकार),
युतिसनयना (च्छि), जरासन श्वेतेश कर्णो (ष्ट),
'दीर्धेन्दु संयुक्ता लक्ष्मी (चां), दीर्घनन्दी
(डा), सदृक् क्रिया (लि), समाधव मेष
(नि), भृगु (सु), सेन्धिका तन्द्री
(मु), फिर 'खिदेविम' शब्द फिर दीर्घवियत 'हा' तदनन्तर
'पिशाचिनि' फिर हिमाद्रिजा (ह्रीं) और
अन्त में विसर्ग सहित नन्दज त्रितय ( ठः ठः ठः) लगाना चाहिए । इस प्रकार बाईस
अक्षरों का यह मन्त्र निष्पन्न होता है ॥ ५०-५१ ॥
विमर्श - मन्त्र का स्वरूप इस
प्रकार है - "उच्छिष्ट चाण्डालिनि सुमुखि देवि महापिशाचिनि ह्रीं ठः ठः ठः ॥
५०-५१॥
नन्दजत्रितयं सर्गिद्वाविंशत्यक्षरो
मनुः ।
स्मृता भैरवगायत्री
सुमुखीमुनिपूर्विका ॥५२॥
मुनिरामद्विषटचन्द्रे वहनयर्णैरङुकं
मनोः ।
विन्यस्य सुमुखीं ध्यायेद्
भक्तचित्ताम्बुजस्थिताम् ॥५३॥
इस मन्त्र के भैरव ऋषि,
गायत्री छन्द तथा सुमुखी देवता हैं । इसके ७, ३,
२,६,१ एवं ३ अक्षरों से
षडङ्गन्यास करना चाहिए । षडङ्गन्यास के अनन्तर भक्तों के हृदय कमल पर विराजमान
सुमुखी देवी का ( आगे के श्लोक ५४ के अनुसार) ध्यान करना चाहिए ॥ ५२-५३ ॥
विमर्श - विनियोग - 'अस्य श्रीसुमुखीमन्त्रस्य भैरवऋषिर्गायत्रीछन्दः श्रीसुमुखीदेवता आत्मनो
ऽभीष्टसिद्धये सुमुखीमन्त्रजपे विनियोगः' ।
षडङ्गन्यास -ॐ उच्छिष्टचाण्डालिनि
हृदयाय नमः,
ॐ सुमुखि शिरसे स्वाहा,
ॐ देवि शिखायै वषट्,
ॐ महापिशाचिनि कवचाय हुम,
ॐ ह्रीं नेत्रत्रयाय वौषट्, ॐ ठः ठः ठः
अस्त्राय फट् ॥ ५२-५३ ॥
गुञ्जानिर्मितहारभूषितकुचां
सद्यौवनोल्लासिनीं
हस्ताभ्यां नृकपालखड्गलतिके रम्ये
मुदा बिभ्रतीम् ।
रक्तालंकृतिवस्त्रलेपनलसद्देहप्रभां
ध्यायतां
नृणां श्रीसुमुखीं शवासनगताम स्युः
सर्वदा सम्पदः ॥५४॥
अब सुमुखी के ध्यान के लिए उनका
स्वरूप कहते हैं -
गुञ्जानिर्मित हार से जिनके स्तन
शोभा को प्राप्त हो रहे हैं, यौवन से
उदीप्त कान्तिवाली जिन प्रसन्न भगवती के दाहिने हाथ में रम्य खड्गलता एवं बायें
हाथ में नृकपाल हैं रक्तवर्ण के अलङ्कार, रक्तवर्ण के वस्त्र
और रक्त वर्ण के आलेपन से जिनके श्री अङ्गों की शोभा जगमगा रही है, जो शवासन पर विराजमान हैं और जो ध्यान करने वाले अपने भक्तों को सर्वदा
श्री संपदा प्रदान करती हैं, ऐसी सुमुखी का मैं ध्यान करता
हूं ॥ ५४ ॥
मन्त्रसिद्धेर्विधानम्
लक्षमेकं जपेन्मन्त्रं दशांशं
किंशुकोद्भवैः ।
पुष्पैः समिद्वरैर्वापि
जुहुयान्मन्त्रसिद्धये ॥५५॥
उक्त मन्त्र का एक लाख जप करना
चाहिए,
फिर मन्त्रसिद्धि के लिए किंशुक पुष्पों एवं उसकी समिधाओं से दशांश
हवन करना चाहिए ॥ ५५ ॥
कालीपीठे यजेद् देवीं
पञ्चकोणाढ्यकर्णिके ।
अष्टपत्रे षोडशाब्जे वृत्तं
भूपुरसंयुते ॥५६॥
सुमुखी पूजन की विधि –
पञ्चकोण की कर्णिका,
फिर अष्टदल और उसके ऊपर षोडश दल एवं भूपुर सहित यन्त्र में काली पीठ
पर सुमुखी देवी का पूजन करना चाहिए ॥ ५६ ॥
मूलेन मूर्तिं संकल्प्य पाद्यादीनि
प्रकल्पयेत् ।
चन्द्रां चन्द्राननां चारुमुखीं
चामीकरप्रभाम् ॥५७॥
चतुरां पञ्चकोणेषु केसरेष्वङुदेवताः
।
ब्राह्मयाद्या अष्टपत्रेषु षोडशारे
कलादिकाः ॥५८॥
कला कलानिधिः काली कमला च क्रिया
कृपा ।
कुला कुलीना कल्याणी कुमारी
कलभाषिणी ॥५९॥
करालाख्या किशोरी च कोमला कुलभूषणा
।
कल्पदा भूपुरे पूज्या इन्द्राद्या
हेतयोऽपि च ॥६०॥
मूल मन्त्र से यन्त्र में देवी की
मूर्ति की कल्पना करनी चाहिए । तदनन्तर पाद्य, अर्घ्य
आदि उपचारों से उनकी पूजा कर पञ्चकोणों में चन्द्रा, चन्द्रानना,
चारुमुखी, चामीकरप्रभा तथा चतुरा का पूजन करना
चाहिए । केशरों में पूजा तथा अष्टदलों में क्रमशः ब्राह्मी आदि का पूजन कर
षोडशदलों में कला, कलानिधि, काली,
कमला, क्रिया, कृपा,
कुला, कुलीना, कल्याणी,
कुमारी, कलभाषिणी, कराला,
किशोरी, कोमला, कुलभूषणा
और कल्पदा का पूजन करना चाहिए । फिर भूपुर में इन्द्रादि दश दिक्पालों का तथा उनके
वज्रादि आयुधों का पूजन करना चाहिए ॥ ५७-६०॥
विमर्श - पुरश्चरण का प्रकार -
प्रथमतः ५४ श्लोक में कहे गये सुमुखी देवी के स्वरूप का ध्यान करें । पुनः
मानसोपचार से पूजन कर काली देवी के पूजन में कही गयी विधि के अनुसार पीठ शक्तियों
का पूजन तथा पीठ पूजन कर यन्त्र में सुमुखी देवी की मूर्ति की कल्पना कर अर्ध्य से
लेकर पुष्पाञ्जलि पर्यन्त उनकी पूजा करें ।
कर्णिका के पांच कोणों में क्रमशः -
ॐ चन्द्रायै नमः,
ॐ चन्द्राननाय नमः,
ॐ चारुमुख्यै नमः,ॐ चामीकरप्रभायै नमः, ॐ चतुरायै नमः
इन मन्त्रों से पूजन कर मूल मन्त्र
से उच्चारण कर 'अभीष्ट सिद्धिं मे देहि .....'
इत्यादि मन्त्र का उच्चारण कर प्रथम पुष्पाञ्जलि तथा प्रथमावरण
की पूजा करें ।
यथा - ॐ उच्छिष्ट चाण्डालिनि हृदयाय
नमः आग्नेये, ॐ सुमुखि शिरसे स्वाहा ईशाने,
ॐ देवि शिखायै वषट् नैऋत्ये,
ॐ महापिशाचिनि कवचाय हुं वायव्ये,
ॐ ह्रीं नेत्रत्रयाय वौषट् मध्ये,
ॐ ठः ठः ठः अस्त्राय फट् चतुर्दिक्षु
इन मन्त्रों से पूजन कर मूल मन्त्र
का उच्चारण करते हुए 'अभीष्ट सिद्धिं मे,
देहि .....' से द्वितीय पुष्पाञ्जलि तथा द्वितीयावरण
की पूजा करें ।
तदनन्तर अष्टदल में पूर्वादि दिशाओं
के क्रम से –
ॐ ब्राह्म्यै नमः,
ॐ नारायण्यै नमः,
ॐ माहेश्वर्यै नमः,
ॐ चामुण्डायै नमः ॐ कौमार्यै नमः,
ॐ अपराजितायै नमः,
ॐ वाराह्यै नमः, ॐ नारसिंह्यै नमः
इन मन्त्रों से पूजन कर मूल मन्त्र
का उच्चारण कर 'अभीष्ट सिद्धि में देहि ...'
से तृतीय पुष्पाञ्जलि एवं तृतीयावरण की पूजा करें ।
तत्पश्चात् षोडशदलों में यथाक्रम –
ॐ कलायै नमः,
ॐ कलानिधये नमः,
ॐ काल्यै नमः,
ॐ कमलायै नमः,
ॐ क्रियायै नमः,
ॐ कृपायै नमः, ॐ कुलायै नमः,
ॐ कुलीनायै नमः,
ॐ कल्याण्यै नमः, ॐ कुमार्यै नमः,
ॐ कलभाषिण्यै नमः,
ॐ करालायै नमः, ॐ किशोर्य्यै नमः,
ॐ कोमलायै नमः,
ॐ कुलभूषणायै नमः, ॐ कल्पदायै नमः
इन मन्त्रों से पूजन कर मूलमन्त्र
एवं 'अभीष्ट सिद्धिं मे देहि .....' मन्त्र बोल कर चतुर्थ
पुष्पाञ्जलि एवं चतुर्थावरण की पूजा करनी चाहिए ।
फिर भूपुर में पूर्वादि दिशाओं के
क्रम से –
ॐ इन्द्राय नमः,
ॐ अग्नये नमः,
ॐ यमाय नमः,
ॐ निर्ऋतये नमः, ॐ वरुणाय नमः,
ॐ वायवे नमः,
ॐ सोमाय नमः, ॐ ईशानाय नमः,
ॐ ब्रह्मणे नमः ऊर्ध्व,
ॐ अनन्ताय नमः, अधः
इन मन्त्रों से दश दिक्पालों का
पूजन करें । तप्तश्चात उसके आगे –
ॐ वज्राय नमः,
ॐ शक्त्यै नमः,ॐ दण्डाय नमः,
ॐ खङ्गाय नमः,
ॐ पाशाय नमः, ॐ अंकुशाय नमः,
ॐ गदायै नमः,
ॐ त्रिशूलाय नमः, ॐ चक्राय नमः, ॐ पद्माय नमः
इन मन्त्रों से उनके दश आयुधों की
पूजा कर मूलमन्त्र पढ़कर 'अभीष्ट सिद्धिं ...'
से पचम एवं षष्ठ पुष्पाञ्जलि तथा पञ्चम और षष्ठ आवरण
की पूजा करें ।
आवरण पूजा के पश्चात् मूल मन्त्र
द्वारा देवी की गन्धादि उपचारों से पूजाकर देवी को पूजा समर्पित कर नैवेद्य ग्रहण
कर उच्छिष्ट मुख से मूल मन्त्र का जप कर पूर्ववत् दशांश होम,
तर्पण, मार्जन एवं ब्राह्मण भोजन सम्पन्न
करावें । इस प्रकार मन्त्र सिद्ध हो जाने पर साधक काम्य प्रयोग का अधिकारी हो जाता
है ॥ ५७-६०॥
इत्थं जपादिभिः सिद्धे मनौ काम्यानि
साधयेत् ।
भुक्त्वौदनमनाचम्य
जपेन्मन्त्रमनन्यधीः ॥६१॥
प्रयोगफलकथनम्
उच्छिष्टोऽयुतमेकं यः स भवेत्
सम्पदां पदम् ।
उच्छिष्टेनैव भक्तेन बलिं
दद्यान्निरन्तरम् ॥६२॥
अब सुमुखी मन्त्र से काम्य प्रयोग
कहते हैं -
उक्त पुरश्चरण से मन्त्र सिद्ध हो
जाने पर साधक को काम्य प्रयोग करना चाहिए - भात खाकर आचमन किए बिना एकाग्र चित्त
से उच्छिष्ट होकर जो व्यक्ति इस मन्त्र का १० हजार जप करता है वह सब प्रकार की
सम्पत्ति प्राप्त करता है। जप के अनन्तर निरन्तर उसी उच्छिष्ट भात की बलि देनी
चाहिए ॥ ६१-६२ ॥
दध्नाभ्यकैः प्रजुहुयाल्लक्षं
सिद्धार्थतण्डुलैः ।
राजानो मन्त्रिणस्तस्य भवन्ति वशगाः
क्षणात् ॥६३॥
शास्त्राणि वशगानि
स्युर्हुतान्मार्जारमांसतः ।
धनर्द्धिश्छागमांसेन
विद्याप्राप्तिस्तु पायसैः ॥६४॥
जो व्यक्ति भात में दही मिलाकर एक
लाख आहुति देता है राजा एवं राजमन्त्री तत्काल उसके वश में हो जाते हैं। मार्जार
के मांस का होम करने से व्यक्ति सभी शास्त्रों का पारङ्गत विद्वान हो जाता है,
छागमांस के होम से धन की अभिवृद्धि तथा पायस के होम से विद्या
प्राप्त होती है ॥ ६३-६४ ॥
मधुपायससंयुक्तस्त्रीजोयुक्तवाससा ।
होममाचरतः पुंसो जनतावशवर्तिनी ॥६५॥
मधुसर्पिर्युतैर्नागवल्लीपत्रैर्महाश्रियः
।
सद्यो निहतमार्जारमांसेन मधुसर्पिषा
॥६६॥
युक्तेनान्त्यकेशाद्यैर्हुतैराकर्षति
स्त्रियः ।
मध्वक्तशशमांसेन तत्फलं विद्यया सह
॥६७॥
रजस्वला स्त्री के वस्त्र के
टुकड़ों को मधु एवं पायस में मिलाकर होम करने वाला व्यक्ति समस्त जनसमूह को अपने
वश में कर लेता है । मधु, घी, तथा पान के होम से श्रीवृद्धि होती है । तत्काल मारे गये मार्जार के मांस
में मधु, घी एवं अन्त्यज के केश मिलाकर होम करने से स्त्री
आकर्षित होती है । मधुमिश्रित शशक (खरगोश) के मांस के होम से विद्या के साथ उक्त
फल की प्राप्ति होती है ॥ ६५-६७ ॥
उन्मत्ततरुभिर्दीप्ते चिताग्नौ
जुहुयाच्छदैः ।
कोकिला
काकयोर्मन्त्रीमाचरेदचिरादरीन् ॥६८॥
वायसोलूकयोः
पत्रैर्होमाद्विद्वेषयेदरीन् ।
गर्भपातः
सगर्भाणामुलूकच्छदनैर्भवेत् ॥६९॥
आज्याक्तैर्बिल्वपत्रैर्यो मासमेकं
सहस्त्रकम् ।
प्रत्यहं जुहुयात्तेन बन्ध्यापि
लभते सुतम् ॥७०॥
उन्मत्त ( धतूरे) की लकड़ी से
प्रज्वलित चिता की अग्नि में कोकिल एवं काक के पंखों का होम करने से मन्त्रवेत्ता
सद्यः अपने शत्रुओं को वश में कर लेता है । काक एवं उलूक के पंखों को मिश्रित कर
होम करने से शत्रुओं में विद्वेष हो जाता है । उल्लू के पंखों के होम से गर्भिणी
स्त्री का गर्भ गिर जाता है । घी मिश्रित विल्वपत्रों द्वारा एक मास तक प्रतिदिन
एक हजार होम करने से बन्ध्या स्त्री को भी पुत्र की प्राप्ति हो जाती है ॥ ६८-७० ॥
सौभाग्यार्थं दुर्भगाया
बन्धूककुसुमैर्नवैः ।
मधुनाक्तैः प्रजुहुयात्
स्त्रीणामाकृष्टयेर्पितैः ॥७१॥
निर्जने सदनेऽरण्ये प्रेतावासे
चतुष्पथे ।
बलिं दत्वा प्रजपतः सहस्त्रं
चाष्टसंयुतम् ॥७२॥
उच्छिष्टस्य च सा देवी प्रत्यक्षा
जायतेऽचिरात् ।
यत्र नोक्ता होमसंख्यायुतं तत्र
विनिर्दिशेत् ॥७३॥
मधुमिश्रित बन्धूक के नवीन पुष्पों
से होम करने से भाग्यहीन स्त्री सौभाग्यवती हो जाती है । निर्जन स्थान,
उजाड़ घर, वन, श्मशान
एवं चौराहे पर बलि समर्पित कर उच्छिष्ट होकर (जूठे मुंह) १००८ बार इस मन्त्र का जप
करने से सुमुखी देवी शीघ्र प्रत्यक्ष होकर अपने साधक पर कृपा करने लगती हैं।
पूर्वोक्त होम प्रकरण में जहाँ
आहुतियों की संख्या नहीं कही गई है वहाँ दश हजार आहुतियों की संख्या समझनी चाहिए ॥
७१-७३ ॥
वाममार्गेण सुमुखी शीघ्रं कामविधायिनी
।
भोजनान्ते तथोच्छिष्टैर्जप्या सा
स्वेष्टसिद्धये ॥७४॥
न शीघ्र फलदा देवी सुमुखी सदृषी परा
।
यस्या मन्त्रजपादेव प्रसिध्यन्ति
मनोरथाः ॥७५॥
॥ इति श्रीमन्महीधरविरचिते
मन्त्रमहोदधौ कालीसुमुखीमन्त्रोक्तिस्तृतीयस्त रङ्गः ॥३॥
वाम मार्ग की उपासना से सुमुखी देवी
शीघ्र ही समस्त कामनाओं को पूर्ण कर देती हैं । इनके मन्त्र का जप भोजन के बाद
उच्छिष्ट (जुठे मुंह) मुख से ही करना चाहिए, जिससे
अभीष्ट की सिद्धि हो । सुमुखी देवी के समान शीघ्र फलदात्री कोई अन्य देवी नहीं हैं
क्योंकि इनके मन्त्र के जप मात्र से समस्त मनोरथ पूर्ण हो जाते हैं ॥ ७४-७५ ॥
॥ इति श्रीमन्महीधरविरचित
मन्त्रमहोदधिव्याख्यायां नौकायां कालीमन्त्रकथनं नाम तृतीयस्त रङ्गः ॥३॥
इस प्रकार श्रीमन्महीधर विरचित मन्त्रमहोदधि के ततीय तरङ्ग की महाकवि पं० रामकुबेर मालवीय के द्वितीय आत्मज डॉ सुधाकर मालवीय कृत 'अरित्र' हिन्दी व्याख्या पूर्ण हुई ॥३॥
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