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कर्मकाण्ड

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नारदसंहिता अध्याय ८

नारदसंहिता अध्याय ८ 

नारदसंहिता अध्याय ८ में करण और उसका फल तथा भद्रा का वर्णन किया गया है।   

नारदसंहिता अध्याय ८

नारदसंहिता अध्याय- ८ 

अथ करणेशफलम्।

इंद्रः प्रजापतिर्मित्रश्चार्यभूर्हरि प्रिया ।

कीनाशः कलिरुक्षाख्यौ तिथ्यर्धे शाख्यहिर्मरुत् ॥ १ ॥

इंद्र, प्रजापति, मित्र,अर्यमा, भूमि, लक्ष्मी, कीनाश, कलि, वृषभ, सर्प, वायु ये देवता क्रम से बबादिकरणों के स्वामी कहे हैं ।। १ ।।

                                                       ११ करण और उसका स्वामी

करण

स्वामी

बव

इंद्र

बालव

प्रजापति

कौलव

मित्र

तैतिल

अर्यमा

गर

भूमि

वणिज

लक्ष्मी

करण

स्वामी

विष्टि(भद्रा)

कीनाश

शकुनि

कलि

चतुष्पद

वृषभ

नाग

सर्प

किंस्तुघन

वायु

 

ववादिवणिगंतानि शुभानि करणानि षट्।

परीता विपरीता वा विष्टिर्नेष्टा तु मंगले ॥ २ ॥

बवआदि वणिजपर्यंत छह करण तो शुभ हैं और विष्टि अर्थात् भद्रा की सब घडी सर्वदा अशुद्ध हैं मंगल कार्यं में वर्ज देनी चाहियें ॥ २ ॥

अथ भद्राया अन्यप्रकारः ।

मुखे पंचगले का वक्षस्येकादश स्मृताः ।

नाभौ चतस्रः कट्यां तु तिस्रः पुच्छाख्यनाडिकाः॥ ३॥

भद्रा की प्रथम पांच घडी मुख पर रखनी, फिर १ घड़ी गला पर, फिर छाती पर ग्यारह घडी, नाभि पर चार, कटि पर तीन, पूँछ पर तीन घडी ॥ ३॥

कार्यहानिर्मुखे मृत्युर्गले वक्षसि निःस्वता ॥

कल्यामुद्गमनं नाभौ च्युतिः पुच्छे ध्रुवो जयः ॥

स्थिराण मध्यमान्येषां नेष्टौ नागचतुष्पदौ ॥ ४ ॥

इतिश्रीनारदीयसंहितायां करणाध्यायोऽष्टमः ॥ ८॥

मुख की घाडियों में कार्य की हानि, गला पर मृत्यु, छाती पर दरिद्रता, कटि पर भ्रमण, नाभि पर हानि, पूंछ पर की घटियों में कार्य की सिद्धि होती है । इनके बीच में स्थिरसंज्ञक करण मध्यम है और नाग चतुष्पद ये दो अशुभ हैं ।। ४ ॥

इति श्रीनारदीयसंहिताभाषाटीकायां करणाध्यायोऽष्टमः ॥८॥

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