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डी पी कर्मकांड भाग- १२
षोडशमातृकापूजन shodasha matrika pujan
इससे पूर्व डी पी कर्मकांड भाग- ११
में आपने सप्तघृतमातृका पूजन के विषय में पढ़ा । अब आप डी पी कर्मकांड भाग- १२ में आप षोडशमातृकापूजन shodasha
matrika pujan व स्थापन के विषय में पढ़ेंगे । मातृकाओं का पूजन
नान्दीश्राद्ध का ही अंग माना जाता है और जिस कर्म में नान्दीश्राद्ध नहीं होता
वहाँ मातृका पूजन भी नहीं होता।
डी पी कर्मकांड भाग- १२ षोडशमातृका पूजन
shodasha matrika pujan
षोडश मातृकाओं की स्थापना के लिए
किसी पाटा पर वृत्ताकार मंडल बनाया जाता है। इस आकृति में सोलह कोष्ठक (खाने) बनाए
जाते हैं। पश्चिम दिशा से पूर्व दिशा की ओर मातृकाओं की स्थापना करें।प्रत्येक
कोष्ठक में अक्षत, जौ, गेहूँ रखें। पहले कोष्ठक में गौरी का आवाहन किया जाता है। लेकिन गौरी के
आवाहन से पहले भगवान गणेश का आवाहन पुष्प और अक्षत से किया जाता है। फिर अन्य
कोष्ठकों में मंत्र उच्चारित करते हुए अन्य मातृकाओं का आवाहन करें।इसके लिए यहाँ
दो विधियाँ दी जा रही है अपने सुविधा अनुसार (१) चित्रानुसार वेदी बना लें,अथवा
(२) चित्रानुसार बनाकर आवाहन पूजन करें। यहाँ आवाहन पूजन की भी दो विधियाँ दी जा रही
है। (१) विधि-जिसमें की चतुर्थी से आवाहन तथा प्रथमा से स्थापन करें। (२) मूल
मंत्र से आवाहन तथा स्थापन करें।
डी पी कर्मकांड भाग- १२ षोडश मातृका पूजन
shodasha matrika pujan
(१)विधि-आवाहन एवं स्थापन
किसी भी देवी या देवता की पूजा में
आवाहन का सबसे अधिक महत्व होता है क्योंकि उस देवी या देवता के आवाहन के बिना पूजा
कार्य प्रारंभ नहीं होता है। षोडशमातृकापूजन में आवाहन और स्थापना के लिए निम्न मंत्रों का उच्चारण
किया जाता है :-
१- गौरी-गणेश
ॐ भूभुर्व: स्व: गणपतये नमः,
गणपतिमावाहयामि स्थापयामि ।
ॐ भूर्भुवः स्वः गौर्यै नमः,
गौरिमावाहयामि स्थापयामि पूजयामि ।
२-पद्मा
ॐ भूर्भुवः स्वः पद्मायै नमः,
पद्मावाहयामि स्थापयामि ।
३- शची
ॐ भूर्भुवः स्वः शच्यै नमः,
शचीमावाहयामि स्थापयामि ।
४- मेधा
ॐ भूर्भुवः स्वः मेधायै नमः,
मेधामावाहयामि स्थापयामि ।
५- सावित्री
ॐ भूर्भुवः स्वः सावित्र्यै नमः,
सावित्रीमावाहयामि स्थापयामि ।
६- विजया
ॐ भूर्भुवः स्वः विजयायै नमः,
विजयामावाहयामि स्थापयामि ।
७- जया
ॐ भूर्भुवः स्वः जयायै नमः,
जयामावाहयामि स्थापयामि ।
८- देवसेना
ॐ भूर्भुवः स्वः देवसेनायै नमः,
देवसेनामावाहयामि स्थापयामि ।
९- स्वधा
ॐ भूर्भुवः स्वः स्वधायै नमः,
स्वधामावाहयामि स्थापयामि ।
१०- स्वाहा
ॐ भूर्भुवः स्वः स्वाहायै नमः,
स्वाहामावाहयामि स्थापयामि ।
११-मातर:
ॐ भूर्भुवः स्वः मातृभ्यो नमः,
मातृः आवाहयामि स्थापयामि ।
१२- लोकमातर:
ॐ भूर्भुवः स्वः लोकमातृभ्यो नमः,
लोकमातृः आवाहयामि स्थापयामि ।
१३- धृति
ॐ भूर्भुवः स्वः धृत्यै नमः,
धृतिमावाहयामि स्थापयामि ।
१४-पुष्टि
ॐ भूर्भुवः स्वः पुष्टयै नमः,
पुष्टिमावाहयामि स्थापयामि ।
१५- तुष्टि
ॐ भूर्भुवः स्वः तुष्टयै नमः,
तुष्टिमावाहयामि स्थापयामि।
१६-आत्मनः कुलदेवता
ॐ भूर्भुवः स्वः आत्मनः कुलदेवतायै
नमः, आत्मनः कुलदेवतामावाहयामि स्थापयामि
।
इस मंत्र द्वारा षोडशमातृकाओं का
आवाहन,
स्थापना करने के साथ 'ॐ मनो जूति'
मंत्र से अक्षत छोड़ते हुए मातृका-मंडल की प्रतिष्ठा कर पूजन करें ।
डी पी कर्मकांड भाग१२- षोडशमातृकापूजन
(२) विधि-गौर्यादि मातृकाणां पूजनम्
अग्किोण में (उत्तराभिमुख पूजन करें
तो स्वदक्षिण याने ईशानकोण में) रक्तवस्त्र पर गोधूमाक्षत पुञ्ज से षोडश कोष्ठक
बनायें। फिर गणेश गौर्यादि का आवाहन करें।
कुलदेवीं गणेशं च गौरीं
पद्मासमन्विताम् ।
पूजयेन्मध्यमे कोष्ठे शेषा बाह्ये
हि कोष्ठके ॥
गणेशं वायुकोणे च मध्यमे च
कुलेश्वरीम् ।
गौरीं च नैर्ऋत्ये पूज्या पद्मा
पावक कोणके ॥
शची च पश्चिमे स्थाप्या मेधा
चैवद्वितीयके ।
सावित्री दक्षिणे पूज्या विजया च
द्वितीयके ॥
जया च उत्तरे स्थाप्या देवसेना
द्वितीयके ।
स्वाहाऽऽग्नेयां समभ्यर्च्या ईशानां
च स्वधा तथा ॥
पूर्वतु मातर: पूज्यास्वदग्रे
लोकमातरः ।
धृतिः पुष्टिर्वायुकोणे तुष्टिं च
नैर्ऋते तथा ॥
एवं हि मातरः स्थाप्याः स्व
स्वस्थाने पृथक् पृथक् ।।
आवाहन क्रम - अगर मध्य के चार
कोष्ठक को एक भाग माने तो शेष १२ खाने उनके चारों और बन जातें हैं।
मध्य के चार कोष्ठक में वायव्य में
गणेश, नैर्ऋत्य में गौरी, अग्नि कोण में पद्मा, ईशान में कुलदेवी का आवाहन
करें।
यथा -
स्वधा |
मातर: |
लोकमातरः |
स्वाहा |
देवसेना |
कुलदेवी |
पद्मा |
सावित्री |
जया |
गणेश |
गौरी |
विजया |
धृतिः
पुष्टि |
मेघा |
शची |
तुष्टि |
१-गणपति आवाहन -
(मध्य चतुर्कोष्ठे वायव्य कोणे )
ॐ गणांना त्वा गणपतिं हवामहे कविं
कवीनामुपमश्रवस्तम् ।
जेष्ठराजं ब्रह्मणां ब्रह्मणस्पतआ
नः शृण्वत्रूतिभिः सीद सादनम् ॥
ॐ समीपे मातृवर्गस्य सर्वविघ्नहरं
सदा ।
त्रैलोक्यवन्दितं देवं गणेशं
स्थापयाम्यहम् ॥
ॐ गणेशाय नमः आवाहयामि स्थापयामि । भो गणपते इहागच्छ इहतिष्ठ ।
१-गौरी
(मध्यचतुर्कोष्ठे नैर्ऋत्यकोणे)-
हिमाद्रितनयां देवीं वरदां भैरव
प्रियाम् ।
लम्बोदरस्य जननीं गौरीमावाहयाम्यहम्
॥
ॐ आयंगौः पृश्निरक्रमीद सदन्मातरं
पुरः ।
पितरञ्च प्रयन्त्स्वः ॥
गौर्यै नमः । गौरीम् आवाहयामि
स्थापयामि ।
२-पद्मा (मध्य
चतुकण्ठे अग्निकोणे) -
पद्माभां पद्मवदनां
पद्मनाभोरुसंस्थिताम् ।
जगत्प्रियां पद्मवासां
पद्मावाहयाम्यहम् ॥
ॐ हिरण्य रूपा ऽउषसो विरोक
ऽउभाविंद्रा ऽउदिथः सूर्यश्च ।
आरोहतं वरुण मित्र
मित्रगर्तततश्चक्षाथा मदितिं दितिं च मित्रोसि वरुणोऽसि ॥
सुवर्णाढ्यां पद्महस्तां
विष्णोर्वक्षस्थले स्थिताम् ।
त्रैलोक्ये पूजितां देवीं
पद्मामावाहयाम्यहम् ॥
३-शची (पश्चिमे)
-
दिव्यरुपां विशालाक्षीं
शुचिकुण्डलधारिणीम् ।
रक्तमुक्ताद्यलङकारां
शचीमावाहयाम्यहम् ॥
ॐकदाचनस्तरीरसिंनेन्द्र
सश्चसिदाशुषे ।
उपोपेन्नुमघवन्भूयऽईन्नुतेदानं
देवस्य पृच्यतआदित्त्येभ्यस्त्वा ॥
उत्पलाक्षीं सुवदनां शचीं (शशि)
कुंडल धारिणीम् ।
देवराज प्रियां भद्रां
शचीमावाहयाम्यहम् ॥
४-मेधा
(पश्चिम वायव्यतः द्वितीय कोष्ठे)-
विश्वेऽस्मिन् भूरिवरदां जरां
निर्जरसेविताम् ।
बुद्धिप्रबोधिनीं सौम्यां
मेधामावाहयाम्यहम् ॥
मेधां मे वरुणो ददातु मेधामग्निः
प्रजापतिः ।
मेधामिन्द्रश्च वायुश्च
मेधांधाताददातु मे स्वाहा ॥
वैवस्वत प्रफुल्लाभाममलेंदीवर
स्थिताम् (सुगंधि पद्मवासिताम्)
बुद्धि प्रसादिनीं सौम्यां
मेधामावाहयाम्यहम् ॥
५-सावित्री :
(दक्षिणे- अग्निकोण के नीचे द्वितीय कोष्ठक)
जगत्सृष्टिकरीं धात्रीं देवीं
प्रणवमातृकाम् ।
वेदगर्भां यज्ञमयीं सावित्रीं
स्थापयाम्यहम् ॥
ॐ तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य
धीमहि ।
धियो यो नः प्रचोदयात् ।।
जगत्स्रष्टीं जगद्धात्रीं पत्निं
(पक्षि) रूपेण संस्थिताम् ।
ओंकाराक्षीं भगवतीं सावित्री
माह्वायाम्यहम् ॥
६-विजया
(दक्षिणे - नैऋत्य से दूसरा कोष्ठक पूर्व की ओर)
-
सर्वास्तधारिणीं देवीं
सर्वाभरणभूषिताम् ।
सर्वदेवस्तुतां वन्द्यां विजयां
स्थापयाम्यहम् ॥
ॐ विज्यंधनुः कपर्दिनो विशल्यो
बाणवाँ ३ उत ।
अनेशन्नस्य या ऽइषव ऽआभुरस्य
निषङ्गधिः॥
दैत्यपक्ष क्षयकरीं देवानां
चाभयप्रदाम् ।
गीर्वाण वंदितां देवीं
विजयामावाहयाम्यहम् ॥
७-जया
(उतरे वायव्य कोण से पूर्व की ओर द्वितीय
कोष्ठक) -
सुरारिमथिनीं देवीं
देवानामभयप्रदाम् ।
त्रैलोक्यवन्दितां शुभ्रां
जयामावाहयाम्यहम् ॥
ॐ याते रुद्र शिवातनूर घोरा
पापकाशिनी
तयानस्तन्वा शंतमया गिरिशंताभि
चाकशीहि ॥
विश्वभद्रां जयां रक्तां रक्तांबर
धरांसदा
(विष्णु रुद्रार्कशक्रादि
गीर्वाणेषुव्यस्थिताम् )
त्रैलोक्यवंदितां
देवींजयामावाहयाम्यहम् ॥
८-देवसेना
(उत्तरे - वायव्यकोण से पूर्व की ओर तृतीय
कोष्ठक)-
मयूरवाहनां देवीं खड्गशक्तिधनुर्धराम्
।
आवाहयेद् देवसेनां
तारकासुरमर्दिनीम् ॥
ॐ देवानां भद्रा सुमतिर्ऋजूयतां
देवाना ঌरातिरभिनोनिवर्त्तताम्
।
देवानां ঌसख्य मुपसेदिमा
व्वयन्देवानऽ आयुः प्रतिरंतु जीवसे ॥
मयूरवाहनारूढां शक्तिखङ्ग
धनुर्द्धराम् (धनुर्धराम् )
आवाहयेद्देवसेनां तारकासुरमर्दिनीम्
॥
९-स्वधा
(ईशाने)
अग्रजा सर्वदेवानां कव्यार्थं या
प्रतिष्ठिता ।
पितृणां तृप्तिदां देवीं
स्वधामावाहयाम्यहम् ॥
ॐ पितृभ्यः स्वधायिभ्यः स्वधाः नमः
।
पितामहेभ्यः स्वधायिभ्यः स्वधानमः ।
प्रपितामहेभ्यः स्वधायिभ्यः
स्वधानमः ।
अक्षन्नपितरोऽमीमदंत
पितरोतीतृपंतपितरः पितरः शुन्धध्वम् ॥
कव्यमादाय सततं पितृभ्यो या
प्रयच्छति
पितृलोकार्चितां देवीं स्वधामावहयाम्यहम्
॥
१०-स्वाहा
(अग्निकोणे) -
हविर्गृहीत्वा सततं देवेभ्यो या
प्रयच्छति ।
तां दिव्यरूपां वरदां
स्वाहामावाहयाम्यहम् ॥
ॐ स्वाहा यज्ञमनसः
स्वाहोरोरंतरिक्षात्स्वाहा ।
द्यावा पृथिवीभ्यां स्वाहा वातादार
भे स्वाहा ॥
हविर्गृहीत्वा सततं देवेभ्यो या
प्रयच्छति ।
वह्निप्रिया तु स्वाहा समगच्छतु मे ऽध्वरे
॥
(स्वर्गे लोचते स्वाहे
समागच्छममाध्वरे ) ॥
११-मातरः (पूर्वे,
ईशान से द्वितीय कोष्ठक अग्निकोण की ओर)-
आवाहयाम्यहं मातृ: सकला:
लोकपूजिता:।
सर्वकल्याणरुपिण्यो वरदा
दिव्यभूषणा:॥
ॐ आपोऽअस्मान्मातरः शुंधयंतु घृतेनो
घृतप्वः पुनंतु ।
विश्वঌ हिरप्रम्प्रवहति
देवीरुदिदाभ्यः शुचिरापूतऽएमि ।
दीक्षातपसो-स्तनूरसितान्त्वाशिवा ঌशग्माम्परि दधे
भद्रवर्णं ष्यन् ॥
भूतग्राममिमं कृस्त्नं यया उत्पदितं
पुरा (मया प्रीत्यादितं पुरा ) ।
त्रैलोक्य पूजितां देवीं मातरं
आवाहयाम्यहम् ॥
१२-लोक मातरः
(मध्य चतुकण्ठे - ईशाने)
आवाहयेल्लोकमातृर्जयन्तीप्रमुखा:
शुभा: ।
नानाऽभीष्टप्रदा: शान्ता:
सर्वलोकहितावहा:॥
ॐ स्वाहा यज्ञं वरुणः सुक्षत्रो
भेषजं करत् ।
अतिच्छंदाऽइन्द्रियं वृहदृष
भोगौर्वयोदधुः ।।
ॐ भवतन्न: समनसौ सचेत सावरे पसौ ।
मा यज्ञঌ हि ঌसिष्टं मा
यज्ञपतिं जातवेदसौशिवौभवतमद्यनः ॥
मावाहयेल्लोकमातरं जगत्पालन
संस्थिताम् ।
शक्रांद्यैर्वंदिता देवीं
स्तोत्रपाठाभिचारकै ( देवीं तत्रैत्यैश्च सुरैरपि ॥
१३-धृति (वायव्य
कोण में) –
सर्वहर्षकरीं देवीं
भक्तानामभयप्रदाम् ।
हर्षोत्फुल्लास्यकमलां धृतिमावाहयाम्यहम्
॥
यत्प्रज्ञानमुत चेतो धृतिश्च
यज्जोति रंतरमृतं प्रजासु ।
यस्मान्नऽऋते किंचन कर्म क्रियते
तन्मे मनः शिव संकल्पमस्तु ॥
नमस्तुष्टिकरी (मनस्तुष्टिकरी)
देवीं लोकानुग्रह कारिणीम् ।
सर्वकाम समृद्ध्यर्थं धृतिमावाहयाम्यहम्
।।
१४-पुष्टि(वायव्य
कोण में)-
पोषयन्तीं जगत्सर्व
स्वदेहप्रभवैर्नवै:।
शाकै: फलैर्जलैरत्नै:
पुष्टिमावाहयाम्यहम् ॥
ॐ तत्वायामि ब्रह्मणा
वंदमानस्तदाशास्ते यजमानो हविर्भिः ।
अहेडमानो वरुणे हवोध्युरुश ঌ समान आयुः
प्रमोषीः ।।
ॐ रयिश्चमे रायश्च मे पुष्टं च मे
पुष्टिश्च मे विभुच मे प्रभुच मे ।
पूर्णं च मे पूर्णतरंच मे कुयवंच मे
ऽक्षितं च मेऽन्नं च मे क्षुच्च मे यज्ञेन कल्पन्ताम् ।।
प्रणतानां (प्रणता या ) हि
लोकेऽस्मिन् पुत्र पुष्टि सुख प्रदां ।
भक्तेभ्यश्चापि वरदां
विद्युज्ज्वालार्क कुण्डला । (पुष्टिमावहयाम्यहम्) ।।
१५-तुष्टि (नैऋत्यकोणे
बाह्य कोष्ठे)-
आवाहयामि सन्तुष्टि
सुक्ष्मवस्त्रान्वितां शुभाम् ।
सन्तोषभावयित्रीं च रक्षन्तीमध्वरं
शुभम् ॥
ॐ बृहस्पते परीदिया रथेन रक्षोहा
मित्राँ २ अपबाधमानः ।
प्रभंजन्त्सेना: प्रमृणो
युधाजयन्नस्माकमेध्यविता रथानाम् ।।
त्वष्टा तुरीपोऽअद्भुत इन्द्राणी
(ग्नी) पुष्टि वर्द्धना ।
द्विपदाच्छंद इन्द्रिय
मुक्षागौर्नवयोदधुः ॥
आवाहयामि तां तुष्टिं सर्वलोकेषु
पूर्णताम् ।
संतोष भवनादीनां रक्षणायाध्वरे (
रक्षणीयेऽध्वरे) मम ॥
१६-आत्मकुलदेवताः
(मध्यकोष्ठे ईशान कोणे) –
आत्मनो देवतां
देवीमैश्वर्यसुखदायिनीम् ।
वंशवृद्धिकरीं नित्यामाह्वये च
कुलाम्बिकाम् ॥
प्राणाय स्वाहा,
ऽपानाय स्वाहा, व्यानायस्वाहा
चक्षुषेस्वाहा,
श्रोत्राय स्वाहा वाचे स्वाहा मनसे स्वाहा ॥
अम्बेऽ अम्बिकेऽम्बालिके नमानयति
कश्चन ।
ससस्त्य श्वकः
सुभद्रिकाङ्काम्पीलवासिनीम् ।।
त्वमात्मादिहितां (त्वमात्मा
देहिना) देवी सर्वकाम फलप्रदाम् ।
वंश रक्षा करी गोत्री (कर्त्री)
देवीमावाहयाम्ययहम् (आगच्छागच्छ मेऽध्वरे ) ॥
प्रतिष्ठा -
ॐ तदस्तु मित्रा वरुणा
तदग्नेशंयोरस्मभ्यमिदमस्तु शस्तम् ।
अशी महिगाधमुत प्रतिष्ठान्नमो दिवे
वृहतेसादनाय ॥ १ ॥
मनोजूतिर्जुषतामाज्यस्य बृहस्पति
र्यज्ञमिमंतनोत्वरिष्ट यज्ञ ঌसमिमंदधातु ।
विश्वेदेवा स ऽइहमादयंतामाँ ३
प्रतिष्ठ ॥२॥
एषव प्रतिष्ठा नामयज्ञो यत्रैतेन
यज्ञेन यन्ते
सर्वमेव प्रतिष्ठितंभवति ॥३॥
इसके बाद गंधादि सामग्री से
पूजन करें-
'ॐ गणेश सहितगौर्यादि
षोडशमातृकाभ्यो नमः ।'
फल अर्पण : उक्त मंत्र बोलते हुए ऋतुफल-नारियल आदि हाथ की
अंजलि में लेकर प्रार्थना करें-
ॐ आयुरारोग्यमैश्वर्यं ददध्वं मातरो
मम ।
निर्विघ्नं सर्वकार्येषु कुरुध्वं
सगणाधिपाः ॥
इस तरह प्रार्थना करने के पश्चात्
नारियल और फल षोडशमातृकाओं के चरणों में अर्पित करने के बाद,
नमस्कार करते हुए कहें-
गेहे वृद्धिशतानि भवंतु,
उत्तरे कर्मण्यविघ्नमस्तु ।
(अक्षत पुष्प हाथ में लेकर)-
गौरी पद्मा शची मेधा सावित्री विजया
जया ।
देवसेना स्वधा स्वाहा मातरो
लोकमातरः ।।
धृति पुष्टिस्तथा तुष्टिरात्मनः कुलदेवताः
।
गणेशेनाधिका ह्येता वृद्धौ
पूज्याश्चषौडश ॥
साधारणतः नवदुर्गा,सप्तमातरः,अन्य मातृकाओं का पूजन इस मंडल पर
करा देते हैं। या प्रधान मंडल पर कराते हैं यथा–
ब्राह्मी माहेश्वरी चैव कौमारी वैष्णवी
तथा ।
वाराही चतथेंद्राणी चामुण्डा
सप्तमातरः ।
प्रथमं शैलपुत्री च द्वितीयं
ब्रह्मचारिणी।
तृतीयं चन्द्रघंटेति कूष्माण्डेति
चतुर्थकम् ॥
पंचमं स्कंदमातेति षष्ठं
कात्यायनीति च।
सप्तमं कालरात्रिति महागौरीति
चाष्टमम् ॥
नवमं सिद्धिदात्री च नवदुर्गा: प्रकीर्तिताः
।
ॐ जयन्ती मंगला काली भद्रकाली
कपालिनी ।
दुर्गाक्षमा शिवाधात्री स्वधा
स्वाहा नमोस्तुते ॥
(अगर योगिनी क्षेत्रपाल का अन्य
मंडल नहीं बनाया हो तो इसी मंडल पर आवाहन कर देना चाहिये ।)
सर्वेषां मातृकेभ्यो मंडल दैव्यानां
गंधादिभिः संपूज्य ।
पुष्पाञ्जली मादाय एव सनारीकेल
दक्षिणा सहिताय समर्पण कुर्यात् ।
पत्रं पुष्पं फलं तोयं रत्नानि
विविधानि च ।
गृहाणार्घ्य मया दत्तं देहि मे
वांछित फलम् ॥
रूपं देहि जयं देहि भाग्यं भगवति
देहि मे ।
पुत्रान देहि धनं देहि सर्वान् कामान् प्रयच्छ मे ॥
इसके बाद निम्न मंत्र का उच्च्चारण
करते हुए अक्षत अर्पित करें :-
अनया पूजया गणेशसहित
गौर्यादिषोडशमातरः प्रीयन्ताम्, न
मम ।
विशेष۔
१۔ मातृकाओं को यज्ञोपवीत न चढ़ाये ।
२۔ नैवेद्य के साथ घृत और गुड़ का भी नैवेद्य लगाये ।
३۔ विशेष अर्ध्य न दे।
।। इति डी पी कर्मकांड भाग १२
षोडशमातृका स्थापन पूजनम् ॥
आगे जारी- डी॰पी॰कर्मकाण्ड भाग 13 चौसठ योगिनी
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