पूजन विधि, ज्योतिष, स्तोत्र संग्रह, व्रत कथाएँ, मुहूर्त, पुजन सामाग्री आदि

कुष्मांडा

कुष्मांडा

कुष्मांडा-तीन शब्द से क + उष्ण+ अंड मिलकर बना है। क- छोटा को, उष्ण-गर्म को और अंड- बीज जिनसे प्रकृति या सृष्टि या ब्रह्मांड का निर्माण होता है। इस प्रकार कुष्मांडा का अर्थ है कि एक ऐसा छोटा बीज जो गर्म होकर उत्पत्ति का कारण हो। जिस बीज से इस पूरे ब्रह्मांड का निर्माण हुआ हो उस बीज को कहते हैं कुष्मांडा।

कुष्मांडा

नवदुर्गा कुष्मांडा

Kushmanda

दुर्गा को मातृ शक्ति यानी स्नेह, करूणा और ममता का स्वरूप मानकर पूजा की जाती है। नवरात्रि के नौ दिन-रात्रि में दुर्गा माँ के नौ स्वरूपों का पूजन किया जाता है। नव का अर्थ नया या नव को ९ का अंक भी कहते हैं। नवरात्रि का अर्थ हुआ कि प्रत्येक दिवस माँ दुर्गा के नौ अलग-अलग स्वरूपों में नवदुर्गा का पूजन करना । नवरात्र के चौथे दिन माँ दुर्गा के चतुर्थ स्वरूप माँ कुष्मांडा की पूजा की जाती है। कूष्माण्ड कूम्हड़े को कहा जाता है, कूम्हड़ा की बली इन्हें प्रिय है, इस कारण से भी इन्हें कूष्माण्डा के नाम से जाना जाता है।

सुरासम्पूर्णकलशं रूधिराप्लुतमेव च ।

दधाना हस्तपद्माभ्यां कुष्मांडा शुभदास्तुमे ।।

जिन्होंने अपने दोनों कर कमलों में मदिरा तथा रक्त से जो मदिरा से भरा हुआ कलश ले रखा है, ऐसी मां कूष्माण्डा मुझे शुभता अर्थात् कल्याण प्रदान करें।

माँ कुष्मांडा के लिए स्वयं भगवान् श्रीकृष्ण कहते हैंतुम्हीं विश्वजननी मूलप्रकृति ईश्वरी हो, तुम्हीं सृष्टि की उत्पत्ति के समय आद्याशक्ति के रूप में विराजमान रहती हो और स्वेच्छा से त्रिगुणात्मिका बन जाती हो। यद्यपि वस्तुतः तुम स्वयं निर्गुण हो तथापि प्रयोजनवश सगुण हो जाती हो। तुम परब्रह्मस्वरूप, सत्य, नित्य एवं सनातनी हो। परम तेजस्वरूप और भक्तों पर अनुग्रह करने के हेतु शरीर धारण करती हो। तुम सर्वस्वरूपा, सर्वेश्वरी, सर्वाधार एवं परात्पर हो. तुम सर्व बीजस्वरूप, सर्वपूज्या एवं आश्रयरहित हो। तुम सर्वज्ञ, सर्वप्रकार से मंगल करनेवाली एवं सर्वमंगलों की भी मंगल हो।

कुष्मांडा की कथा

सृष्टि के निर्माण से पहले कुछ भी नहीं था। सारा ब्रह्मांड अंधेरे से भरा मात्र शून्य था। जीवन का कोई भी संकेत नहीं था लेकिन फिर दिव्य प्रकाश की एक किरण विद्यमान हुई जो ब्रह्मांड के प्रत्येक जगह फैल गई। यह प्रकाश निराकार था इसका कोई भी आकार नहीं था परंतु फिर इस किरण ने एक निश्चित आकार लेना शुरू कर दिया और अंत में एक दिव्य देवी का स्वरूप ले लिया जो माता कुष्मांडा थी। कुष्मांडा की मात्र एक मुस्कान से संपूर्ण अंधेरा दूर हो गया और ब्रह्मांड का निर्माण हुआ।  उनकी मुस्कान से पृथ्वी, ग्रह, सूर्य, तारे, आकाशगंगा सभी अस्तित्व में आए। ब्रह्मांड में जीवन के लिए ऊर्जा और प्रकाश की आवश्यकता थी । सूर्य जीवन देता है अतः देवी ने खुद को सूर्य के बीच केंद्रित किया और वह जीवन के लिए आवश्यक ऊर्जा और प्रकाश का कारण बनी।

माता कुष्मांडा की बाई आँख से श्याम वर्ण की भयंकर दिखने वाली देवी का जन्म हुआ जिसके दस शिर, दस हाथ, दस पैर, तीस आँखें थीं। उनके बाल बिखरे हुए , दांत मोतियों की तरह सफेद तथा दस जीह्वा लपलपा रही थी। उनके तन पर हाथ तथा नर-खोपडियों की माला के अलावा कोई वस्त्र ना था। वह देवी जलते हुए शव पर बैठी भयंकर तरीके से हंस रही थी। उनके दस हाथों में खड्ग, चक्र, गदा, बाण, धनुष, परिघ, शूल, भुशुंडी, मस्तक और शंख धारण कर रखी थी । वह एक प्याले में कटे हुए सिरों से रक्त एकत्रित कर रही थी तथा लाशों को खा रही थी।माँ कुष्मांडा ने उनका नाम महाकाली रखा।

माता कुष्मांडा की तीसरी आँख से लावा के रंग के समान एक भयानक देवी का जन्म हुआ। उस देवी की 18 भुजाएं थी। वह भगवा कपड़ों में थी और एक योद्धा के कवच कुंडल पहने हुए थी। देवी के हाथों में त्रिशूल, गदा, बज्र, तीर, तलवार, कमल माला, शंख, घंटी, धनुष, ढाल, जल पात्र आदि अस्त्र-शस्त्र थे। वह एक रत्न जड़ित सिंहासन पर बैठी थी और सिंह के समान दहाड़ रही थी। माँ कुष्मांडा ने उनका नाम महालक्ष्मी रखा।

माता कुष्मांडा की दाहिनी आँख की दृष्टि से दूध के रंग के समान एक दयालु देवी की उत्पत्ति हुई। उसकी 8 भुजाएं और 3 पलके थी। वह श्वेत वस्त्रों में थी। उनके माथे पर अर्धचंद्र तथा हाथों में त्रिशूल, मुसल, तीर, शंख, घंटी, धनुष्य आदि थे। उनका मुख पूर्णिमा के चंद्र के समान चमक रहा था और वह बहुमूल्य रत्नों से सुसज्जित थी। वह कमल के फूल पर विराजमान थी तथा एक शांत मुस्कान उनके मुख पर थी। माँ कुष्मांडा ने उनका नाम महासरस्वती रखा।

इसी प्रकार माँ कुष्मांडा ने शिव,विष्णु व ब्रह्मा इत्यादि सभी देवी देवताओं की सृष्टि की।

कुष्मांडा का स्वरूप

माँकुष्मांडा के शरीर की कांति और प्रभा सूर्य से भी कई हजारों गुना ज्यादा देदीप्यमान है। इनके तेज और प्रकाश से दसों दिशाएं प्रकाशित हो रही है ब्रह्मांड की सभी वस्तुओं और प्राणियों में अवस्थित तेज इनकी छाया है। माँ कुष्मांडा अष्ट भुजाधारी है। इनके सात हाथों में क्रमशः कमंडल, धनुष, बाण, कमल, पुष्प, अमृत पूर्ण कलश, चक्र तथा गदा है। आठवें हाथ में सभी सिद्धियों और निधियों को देने वाली जपमाला है। इनका वाहन सिंह है।

कुष्मांडा पूजन विधि:

नवरात्र में व्रत रखकर चतुर्थी तिथि को माता कुष्माण्डा माता का पूजन श्रद्धा भाव से करें। सर्वप्रथम आचमन, गौरी-गणेश, नवग्रह, मातृका व कलश स्थापना आदि के बाद श्वेत वस्त्र बिछाकर  और उसके ऊपर सिंह पर सवार आठ हाथ वाली माता कुष्माण्डा की प्रतिमा स्थापित करें। तत्पश्चात् षोडशोपचार विधि से पुजा करें । नैवेद्य के रूप में मक्खन, शहद और मालपुआ अर्पण करें।

कुष्मांडा पूजन से लाभ:

माँ कूष्मांडा की उपासना से भक्तों के समस्त रोग-शोक मिट जाते हैं। इनकी भक्ति से आयु, यश, बल और आरोग्य की वृद्धि होती है। सभी विघ्न नाश होकर सुख-समृद्धि प्राप्त होती है। बुद्धि का विकास होता है, मां की कृपा से निर्णय शक्ति में असाधारण विकास होता है।  लौकिक पारलौकिक उन्नति होती है। इनकी उपासना से साधक का अनाहत चक्र जागृत होता है। देवी ने स्वयं कहा है- संसार के समस्त जीवों की स्पंदन-क्रिया मेरी शक्ति से ही होती है।

नवदुर्गा - कुष्मांडा का पूजन, ध्यान, स्तोत्र, कवच आदि इस प्रकार है-

कुष्मांडा ध्यान

वन्दे वांछित कामर्थे चन्द्रार्घकृत शेखराम् ।

सिंहरूढ़ा अष्टभुजा कूष्माण्डा यशस्वनीम् ॥

मैं मनोवांछित लाभ प्राप्त करने के लिए, सभी कामों को पूर्ण करने वाली, मस्तक पर अर्ध चंद्र धारण करने वाली, सिंह पर सवार, आठ भुजाओं वाली और यश प्रदान करने वाली कूष्मांडा माता, की वंदना करता हूँ।

भास्वर भानु निभां अनाहत स्थितां चतुर्थ दुर्गा त्रिनेत्राम् ।

कमण्डलु, चाप, बाण, पदमसुधाकलश, चक्र, गदा, जपवटीधराम् ॥

कुष्मांडा माता ही सूर्य को तेज प्रदान करती हैं। वे हमारे शरीर के अनाहत चक्र में स्थित होकर इसे मजबूती प्रदान करती हैं। वे दुर्गा माता का चतुर्थ रूप हैं जिनके तीन नेत्र हैं। उन्होंने अपनी आठ भुजाओं में कमंडल, चाप, बाण, कमल पुष्प, कलश, चक्र व गदा पकड़ी हुई है।

पटाम्बर परिधानां कमनीयां मृदुहास्या नानालंकार भूषिताम् ।

मंजीर, हार, केयूर, किंकिणि रत्नकुण्डल, मण्डिताम् ॥

उन्होंने पीले रंग के वस्त्र पहने हुए हैं जिसमें वे कामना करने योग्य लग रही हैं। उनके मुख पर मंद-मंद मुस्कान है। उन्होंने कई प्रकार के आभूषणों से अपना श्रृंगार किया हुआ है। उन्होंने मंजीर, हार, केयूर, किंकिणी व रत्नों से जड़ित कुंडल से अपना श्रृंगार किया हुआ है।

प्रफुल्ल वदनांचारू चिबुकां कांत कपोलां तुंग कुचाम् ।

कोमलांगी स्मेरमुखी श्रीकंटि निम्ननाभि नितम्बनीम् ॥

मैं कूष्मांडा देवी के चरणों का ध्यान कर उनकी वंदना करता हूँ। उनके गाल बहुत ही कोमल व सुंदर है। उनका हरेक अंग कोमल, स्नेह से भरा हुआ मुख, शरीरे के मध्य में नाभि है जो उनके रूप को बहुत ही सुंदर बना रहा है।

कुष्मांडा स्तोत्र

दुर्गतिनाशिनी त्वंहि दरिद्रादि विनाशनीम् ।

जयंदा धनदा कूष्माण्डे प्रणमाम्यहम् ॥

कूष्मांडा देवी दुर्गति का नाश कर देती हैं और हमारी गरीबी को दूर कर देती हैं। हमें जय व धन प्रदान करने वाली कुष्मांडा माता को मैं प्रणाम करता हूँ। कहने का अर्थ यह हुआ कि कुष्मांडा माता की कृपा से ही हमें वैभव व धन की प्राप्ति होती है।

जगतमाता जगतकत्री जगदाधार रूपणीम् ।

चराचरेश्वरी कूष्माण्डे प्रणमाम्यहम् ॥

माता कूष्मांडा ही इस जगत की माता हैं और वे इस जगत के सभी कामों को बना देती हैं। वे ही इस जगत की आधार रूप हैं। वे ही ब्रह्म रूप में इस सृष्टि की ईश्वरी हैं। मैं कुष्मांडा माता को प्रणाम करता हूँ।

त्रैलोक्यसुन्दरी त्वंहिदुःख शोक निवारिणीम् ।

परमानन्दमयी, कूष्माण्डे प्रणमाभ्यहम् ॥

कूष्मांडा देवी इस जगत में सबसे अधिक सुंदर हैं। वे ही हमारे दुखों को दूर करती हैं और शोक हर लेती हैं। कुष्मांडा माता की ही कृपा से हमें परमानंद की प्राप्ति होती है। मैं देवी कूष्मांडा को नमस्कार करता हूँ।

कुष्मांडा कवच

हंसरै में शिर पातु कूष्माण्डे भवनाशिनीम् ।

हसलकरीं नेत्रे च, हसरौश्च ललाटकम् ॥

कौमारी पातु सर्वगात्रे, वाराही उत्तरे तथा,

पूर्वे पातु वैष्णवी इन्द्राणी दक्षिणे मम ।

दिगिव्दिक्षु सर्वत्रेव कूं बीजं सर्वदावतु ॥

कुष्मांडा की आरती

कूष्मांडा जय जग सुखदानी ।

मुझ पर दया करो महारानी ॥

पिगंला ज्वालामुखी निराली ।

शाकंबरी माँ भोली भाली ॥

लाखों नाम निराले तेरे ।

भक्त कई मतवाले तेरे ॥

भीमा पर्वत पर है डेरा ।

स्वीकारो प्रणाम ये मेरा ॥

सबकी सुनती हो जगदंबे ।

सुख पहुँचती हो माँ अंबे ॥

तेरे दर्शन का मैं प्यासा ।

पूर्ण कर दो मेरी आशा ॥

माँ के मन में ममता भारी ।

क्यों ना सुनेगी अरज हमारी ॥

तेरे दर पर किया है डेरा ।

दूर करो माँ संकट मेरा ॥

मेरे कारज पूरे कर दो ।

मेरे तुम भंडारे भर दो ॥

तेरा दास तुझे ही ध्याए ।

भक्त तेरे दर शीश झुकाए ॥

नवदुर्गा में आगे पढ़ें - स्कन्दमाता 

Post a Comment

Previous Post Next Post