दुर्गा जी के १६ नाम
पूर्वकाल में सम्पूर्ण देवताओं के तेजःपुंज से देवी प्रकट हुई थीं। उस समय सब देवताओं ने अस्त्र-शस्त्र और आभूषण दिये थे। उन्हीं दुर्गा देवी ने दुर्गम आदि दैत्यों का वध किया और देवताओं को अभीष्ट वर के साथ स्वराज्य दिया। पहले-पहल परमात्मा श्रीकृष्ण ने सृष्टि के आदिकाल में गोलोकवर्ती वृन्दावन के रासमण्डल में देवी की पूजा की थी। दूसरी बार मधु और कैटभ से भय प्राप्त होने पर ब्रह्मा जी ने उनकी पूजा की। तीसरी बार त्रिपुरारि महादेव ने त्रुपुर से प्रेरित होकर देवी का पूजन किया था। चौथी बार पहले दुर्वासा के शाप से राज्यलक्ष्मी से भ्रष्ट हुए देवराज इन्द्र ने भक्तिभाव के साथ देवी भगवती सती की समाराधना की थी। तब से मुनीन्द्रों, सिद्धेनद्रों, देवताओं तथा श्रेष्ठ महर्षियों द्वारा सम्पूर्ण विश्व में सब ओर और सदा देवी की पूजा अलग-अलग नामों से होने लगी। आगमों के अनुसार भगवती दुर्गा जी के १६ (सोलह) नाम और सोलह नामों का अर्थ बताया गया। जिसका पाठ कल्याणदायक और अभीष्ट को देने वाला है।
दुर्गा जी के सोलह (१६) नाम
दुर्गा नारायणीशाना विष्णुमाया शिवा सती ।
नित्या सत्या भगवती शर्वाणी
सर्वमङ्गला ।।
अम्बिका वैष्णवी गौरी पार्वती च
सनातनी ।
नामानि कौथुमोक्तानि सर्वेषां
शुभदानि च ।।
अर्थं षोडशनाम्नां च
सर्वेषामीप्सितं वरम् ।।
वेद की कौथुमी शाखा में जो दुर्गा,
नारायणी, ईशाना, विष्णुमाया,
शिवा (दुर्गा), सती, नित्या,
सत्या, भगवती, सर्वाणी,
सर्वमंगला, अम्बिका, वैष्णवी,
गौरी, पार्वती और सनातनी– ये सोलह नाम बताये गये हैं, वे सबके लिये कल्याणदायक
हैं।
दुर्गा जी के सोलह (१६) नामों की व्याख्या
भगवान विष्णु ने वेद में इन सोलह
नामों का अर्थ किया है, आगमों के अनुसार उन
नामों का अर्थ इस प्रकार है–
दुर्गा
दुर्ग+आ। ‘दुर्ग’ शब्द दैत्य, महाविघ्न,
भवबन्धन, कर्म, शोक,
दुःख, नरक, यमदण्ड,
जन्म, महान भय तथा अत्यन्त रोग के अर्थ में
आता है तथा ‘आ’ शब्द ‘हन्ता’ का वाचक है। जो देवी इन दैत्य और महाविघ्न
आदि का हनन करती है, उसे ‘दुर्गा’
कहा गया है।
नारायणी
यह देवी यश,
तेज, रूप और गुणों में नारायण के समान है तथा
नारायण की ही शक्ति है। इसलिये ‘नारायणी’ कही गयी है।
ईशाना
ईशान+आ। ‘ईशान’ शब्द सम्पूर्ण सिद्धियों के अर्थ में प्रयुक्त
होता है और ‘आ’ शब्द दाता का वाचक है।
जो सम्पूर्ण सिद्धियों को देने वाली है, वह देवी ‘ईशाना’ कही गयी है।
विष्णुमाया
पूर्वकाल में सृष्टि के समय
परमात्मा विष्णु ने माया की सृष्टि की थी और अपनी उस माया द्वारा सम्पूर्ण विश्व
को मोहित किया। वह मायादेवी विष्णु की ही शक्ति है, इसलिये ‘विष्णुमाया’ कही गयी
है।
शिवा
‘शिवा’ शब्द
का पदच्छेद यों है– शिव+आ। ‘शिव’
शब्द शिव एवं कल्याण अर्थ में प्रयुक्त होता है तथा ‘आ’ शब्द प्रिय और दाता-अर्थ में। वह देवी
कल्याणस्वरूपा है, शिवदायिनी है और शिवप्रिया है, इसलिये ‘शिवा’ कही गयी है।
सती
देवी दुर्गा सद्बुद्धि की
अधिष्ठात्री देवी हैं, प्रत्येक युग में
विद्यमान हैं तथा पतिव्रता एवं सुशीला हैं। इसीलिये उन्हें ‘सती’
कहते हैं।
नित्या
जैसे भगवान नित्य हैं,
उसी तरह भगवती भी ‘नित्या’ हैं। प्राकृत प्रलय के समय वे अपनी माया से परमात्मा श्रीकृष्ण में
तिरोहित रहती हैं।
सत्या
ब्रह्मा से लेकर तृण अथवा
कीटपर्यन्त सम्पूर्ण जगत कृत्रिम होने के कारण मिथ्या ही है,
परंतु दुर्गा सत्यस्वरूपा हैं। जैसे भगवान सत्य हैं, उसी तरह प्रकृति देवी भी ‘सत्या’ हैं।
भगवती
सिद्ध,
ऐश्वर्य आदि के अर्थ में ‘भग’ शब्द का प्रयोग होता है, ऐसा समझना चाहिये। वह
सम्पूर्ण सिद्ध, ऐश्वर्यादिरूप भग प्रत्येक युग में जिनके
भीतर विद्यमान है, वे देवी दुर्गा ‘भगवती’
कही गयी हैं।
सर्वाणी
जो विश्व के सम्पूर्ण चराचर
प्राणियों को जन्म, मृत्यु, जरा आदि की तथा मोक्ष की भी प्राप्ति कराती हैं, वे
देवी अपने इसी गुण के कारण ‘सर्वाणी’ कही
गयी हैं।
सर्वमंगला
‘मंगल’ शब्द
मोक्ष का वाचक है और ‘आ’ शब्द दाता का।
जो सम्पूर्ण मोक्ष देती हैं, वे ही देवी ‘सर्वमंगला’ हैं। ‘मंगल’
शब्द हर्ष सम्पत्ति और कल्याण के अर्थ में प्रयुक्त होता है। जो उन
सबको देती हैं, वे ही देवी ‘सर्वमंगला’
नाम से विख्यात हैं।
अम्बिका
‘अम्बा’ शब्द
माता का वाचक है तथा वन्दन और पूजन-अर्थ में भी ‘अम्ब’
शब्द का प्रयोग होता है। वे देवी सबके द्वारा पूजित और वन्दित हैं
तथा तीनों लोकों की माता हैं, इसलिये ‘अम्बिका’
कहलाती हैं।
वैष्णवी
देवी श्रीविष्णु की भक्ता,
विष्णुरूपा तथा विष्णु की शक्ति हैं। साथ ही सृष्टिकाल में विष्णु
के द्वारा ही उनकी सृष्टि हुई है। इसलिये उनकी ‘वैष्णवी’
संज्ञा है।
गौरी
‘गौर’ शब्द
पीले रंग, निर्लिप्त एवं निर्मल परब्रह्म परमात्मा के अर्थ
में प्रयुक्त होता है। उन ‘गौर’ शब्दवाच्य
परमात्मा की वे शक्ति हैं, इसलिये वे ‘गौरी’
कही गयी हैं। भगवान शिव सबके गुरु हैं और देवी उनकी सती-साध्वी
प्रिया शक्ति हैं। इसलिये ‘गौरी’ कही
गयी हैं। श्रीकृष्ण ही सबके गुरु हैं और देवी उनकी माया हैं। इसलिये भी उनको ‘गौरी’ कहा गया है।
पार्वती
‘पर्व’ शब्द
तिथिभेद (पूर्णिमा), पर्वभेद, कल्पभेद
तथा अन्यान्य भेद अर्थ में प्रयुक्त होता है तथा ‘ती’
शब्द ख्याति के अर्थ में आता है। उन पर्व आदि में विख्यात होने से
उन देवी की ‘पार्वती’ संज्ञा है। ‘पर्वन’ शब्द महोत्सव-विशेष के अर्थ में आता है। उसकी
अधिष्ठात्री देवी होने के नाते उन्हें ‘पार्वती’ कहा गया है। वे देवी पर्वत (गिरिराज हिमालय) की पुत्री हैं। पर्वत पर
प्रकट हुई हैं तथा पर्वत की अधिष्ठात्री देवी हैं। इसलिये भी उन्हें ‘पार्वती’ कहते हैं।
सनातनी
‘सना’ का अर्थ है सर्वदा और ‘तनी’ का अर्थ है विद्यमाना। सर्वत्र और सब काल में विद्यमान होने से वे देवी ‘सनातनी’ कही गयी हैं।
दुर्गा जी के सोलह (१६) नामों की व्याख्या सम्पूर्ण ।।
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