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राधिकोपाख्यान
श्रीपार्वती बोलीं–
नाथ! मैंने आपके मुखारविन्द से पाञ्चरात्र आदि सारे उत्तमोत्तम आगम,
नीतिशास्त्र, योगियों के योगशास्त्र, सिद्धों के सिद्धिशास्त्र, नाना प्रकार के मनोहर
तन्त्रशास्त्र, परमात्मा श्रीकृष्ण के भक्तों के
भक्तिशास्त्र तथा समस्त देवियों के चरित्र का श्रवण किया। अब मैं श्रीराधा का
उत्तम आख्यान सुनना चाहती हूँ। श्रुति में कण्वशाखा के भीतर श्रीराधा की प्रशंसा
संक्षेप से की गयी है, उसे मैंने आपके मुख से सुना है;
अब व्यास द्वारा वर्णित श्रीराधा महत्ता सुनाइये। पहले आगमाख्यान के
प्रसंग में आपने मेरी इस प्रार्थना को स्वीकार किया था। ईश्वर की वाणी कभी मिथ्या
नहीं हो सकती। अतः आप श्रीराधा के प्रादुर्भाव, ध्यान,
उत्तम नाम-माहात्म्य, उत्तम पूजा-विधान,
चरित्र, स्तोत्र, उत्तम
कवच, आराधन-विधि तथा अभीष्ट पूजा-पद्धति का इस समय वर्णन
कीजिये। भक्तवत्सल! मैं आपकी भक्त हूँ, अतः मुझे ये सब बातें
अवश्य बताइये। साथ ही, इस बात पर भी प्रकाश डालिये कि आपके
आगमाख्यान से पहले ही इस प्रसंग का वर्णन क्यों नहीं किया था?
पार्वती का उपर्युक्त वचन सुनकर
भगवान पंचमुख शिव ने अपना मस्तक नीचा कर लिया। अपना सत्य भंग होने के भय से
वे मौन हो गये– चिन्ता में पड़ गये। उस समय
उन्होंने अपने इष्टदेव करुणानिधान भगवान श्रीकृष्ण का ध्यान द्वारा स्मरण
किया और उनकी आज्ञा पाकर वे अपनी अर्धांगस्वरूपा पार्वती से इस प्रकार बोले–
‘देवि! आगमाख्यान का आरम्भ करते समय मुझे परमात्मा भगवान श्रीकृष्ण
ने राधाख्यान के प्रसंग से रोक दिया था, परंतु महेश्वरि! तुम
तो मेरा आधार अंग हो; अतः स्वरूपतः मुझ से भिन्न नहीं हो।
इसलिये भगवान श्रीकृष्ण ने इस समय मुझे यह प्रसंग तुम्हें सुनाने की आज्ञा दे दी
है। सतीशिरोमणे! मेरे इष्टदेव की वल्लभा श्रीराधा का चरित्र अत्यन्त गोपनीय,
सुखद तथा श्रीकृष्ण भक्ति प्रदान करने वाला है। दुर्गे! यह सब
पूर्वापर श्रेष्ठ प्रसंग मैं जानता हूँ। मैं जिस रहस्य को जानता हूँ, उसे ब्रह्मा तथा नागराज शेष भी नहीं जानते। सनत्कुमार,
सनातन, देवता, धर्म,
देवेन्द्र, मुनीन्द्र, सिद्धेन्द्र
तथा सिद्धपुंगवों को भी उसका ज्ञान नहीं है।
सुरेश्वरि! तुम मुझसे भी बलवती हो;
क्योंकि इस प्रसंग को न सुनाने पर अपने प्राणों का परित्याग कर देने
को उद्यत हो गयी थीं। अतः मैं इस गोपनीय विषय को भी तुमसे कहता हूँ। दुर्गे! यह
परम अद्भुत रहस्य है। मैं इसका कुछ वर्णन करता हूँ, सुनो। श्रीराधा
का चरित्र अत्यन्त पुण्यदायक तथा दुर्लभ है।
एक समय रासेश्वरी श्रीराधा
जी श्यामसुन्दर श्रीकृष्ण से मिलने को उत्सुक हुईं। उस समय वे रत्नमय सिंहासन पर
अमूल्य रत्नाभरणों से विभूषित होकर बैठी थीं। अग्नि शुद्ध दिव्य वस्त्र उनके
श्रीअंगों की शोभा बढ़ा रहा था। उनकी मनोहर अंगकान्ति करोड़ों पूर्ण चन्द्रमाओं को
लज्जित कर रही थी। उनकी प्रभाव तपाये हुए सुवर्ण के सदृश जान पड़ती थी। वे अपनी ही
दीप्ति से दमक रही थीं। शुद्धस्वरूपा श्रीराधा के अधर पर मन्द मुस्कान खेल रही थी।
उनकी दन्तपंक्ति बड़ी ही सुन्दर थी। उनका मुखारविन्द शरत्काल के प्रफुल्ल कमलों की
शोभा को तिरस्कृत कर रहा था। वे मालती-सुमनों की माला से मण्डित रमणीय केशपाश धारण
करती थीं। उनके गले की रत्नमयी माला ग्रीष्म-ऋतु के सूर्य के समान
दीप्तिमयी थी। कण्ठ में प्रकाशित शुभ मुक्ताहार गंगा की धवल धार के समान
शोभा पा रहा था। रसिकशेखर श्यामसुन्दर श्रीकृष्ण ने मन्द-मन्द मुस्कराती हुई अपनी
उन प्रियतमा को देखा। प्राणवल्लभा पर दृष्टि पड़ते ही विश्वकान्त श्रीकृष्ण मिलन
के लिये उत्सुक हो गये। परम मनोहर कान्तिवाले प्राणवल्लभ को देखते ही श्रीराधा
उनके सामने दौड़ी गयीं। महेश्वरि! उन्होंने अपने प्राणाराम की ओर धावन किया,
इसीलिये पुराणवेत्ता महापुरुषों ने उनका राधा यह सार्थक नाम निश्चित
किया।
राधा भजति श्रीकृष्णं स च तां च
परस्परम्।
उभयोः सर्वसाम्यं च सदा सन्तो
वदन्ति च ।।
राधा श्रीकृष्ण की आराधना करती हैं
और श्रीकृष्ण श्रीराधा की। वे दोनों परस्पर आराध्य और आराधक हैं। संतों का कथन है
कि उनमें सभी दृष्टियों से पूर्णतः समता है। महेश्वरि! मेरे ईश्वर
श्रीकृष्ण रास में प्रिया जी के धावनकर्म का स्मरण करते हैं,
इसीलिये वे उन्हें ‘राधा’ कहते हैं, ऐसा मेरा अनुमान है। दुर्गे! भक्त
पुरुष ‘रा’ शब्द के उच्चारण
मात्र से परम दुर्लभ मुक्ति को पा लेता है और ‘धा’ शब्द के उच्चारण से वह निश्चय ही श्रीहरि के चरणों में दौड़कर पहुँच जाता
है। ‘रा’ का अर्थ है ‘पाना’ और ‘धा’ का अर्थ है ‘निर्वाण’ (मोक्ष)।
भक्तजन उनसे निर्वाणमुक्ति पाता है, इसलिये उन्हें ‘राधा’ कहा गया है।
श्रीराधा के रोमकूपों से गोपियों का समुदाय प्रकट हुआ है तथा श्रीकृष्ण के
रोमकूपों से सम्पूर्ण गोपों का प्रादुर्भाव हुआ है। श्रीराधा के वामांश-भाग से महालक्ष्मी
का प्राकट्य हुआ है। वे ही शस्य की अधिष्ठात्री देवी तथा गृहलक्ष्मी के रूप में भी
आविर्भूत हुई हैं। देवी महालक्ष्मी चतुर्भुज विष्णु की पत्नी हैं और
वैकुण्ठधाम में वास करती हैं। राजा को सम्पत्ति देने वाली राजलक्ष्मी भी उन्हीं की
अंशभूता हैं। राजलक्ष्मी की अंशभूता मर्त्यलक्ष्मी हैं, जो
गृहस्थों के घर-घर में वास करती हैं। वे ही शस्याधिष्ठातृदेवी तथा वे ही गृहदेवी
हैं। स्वयं श्रीराधा श्रीकृष्ण की प्रियतमा हैं तथा श्रीकृष्ण के ही वक्षःस्थल में
वास करती हैं।
प्राणाधिष्ठातृदेवी च तस्यैव
परमात्मनः ॥
वे उन परमात्मा श्रीकृष्ण के
प्राणों की अधिष्ठात्री देवी हैं।
आब्रह्मस्तम्बपर्यन्तं सर्वं
मिथ्यैव पार्वति।
भज सत्यं परं ब्रह्म राधेशं
त्रिगुणात्परम् ।।
पार्वति! ब्रह्मा से लेकर तृण अथवा
कीटपर्यन्त सम्पूर्ण जगत मिथ्या ही है। केवल त्रिगुणातीत परब्रह्म परमात्मा
श्रीराधावल्ल्भ श्रीकृष्ण ही परम सत्य हैं; अतः
तुम उन्हीं की आराधना करो। वे सबसे प्रधान, परमात्मा,
परमेश्वर, सबके आदिकरण, सर्वपूज्य,
निरीह तथा प्रकृति से परे विराजमान हैं। उनका नित्यरूप स्वेच्छामय
है। वे भक्तों पर अनुग्रह करने के लिये ही शरीर धारण करते हैं। श्रीकृष्ण से भिन्न
जो दूसरे-दूसरे देवता हैं; उनका रूप प्राकृत तत्त्वों से ही
गठित है। श्रीराधा श्रीकृष्ण को प्राणों से भी अधिक प्रिय हैं। वे परम
सौभाग्यशालिनी हैं। वे मूलप्रकृति परमेश्वरी श्रीराधा महाविष्णु की जननी
है। संत पुरुष मानिनी राधा का सदा सेवन करते हैं। उनका चरणारविन्द ब्रह्मादि
देवताओं के लिये परम दुर्लभ होने पर भी भक्तजनों के लिये सदा सुलभ है। सुदामा के
शाप से देवी श्रीराधा को गोलोक से इस भूतल पर आना पड़ा था। उस समय वे वृषभानु गोप
के घर में अवतीर्ण हुई थीं। वहाँ उनकी माता कलावती थीं।
श्रीमहादेव जी कहते हैं–
पार्वति! एक समय की बात है, श्रीकृष्ण विरजा
नामवाली सखी के यहाँ उसके पास थे। इससे श्रीराधा जी को क्षोभ हुआ। इस कारण विरजा
वहाँ नदीरूप होकर प्रवाहित हो गयी। विरजा की सखियाँ भी छोटी-छोटी नदियाँ बनीं। पृथ्वी
की बहुत-सी नदियाँ और सातों समुद्र विरजा से ही उत्पन्न हैं। राधा ने प्रणय कोप से
श्रीकृष्ण के पास जाकर उनसे कुछ कठोर शब्द कहे। सुदामा ने इसका विरोध किया। इस पर
लीलामयी श्रीराधा ने उसे असुर होने का शाप दे दिया। सुदामा ने भी लीलाक्रम से ही
श्रीराधा को मानवीरूप में प्रकट होने की बात कह दी। सुदामा माता राधा तथा पिता
श्रीहरि को प्रणाम करके जब जाने को उद्यत हुआ तब श्रीराधा पुत्र विरह से कातर हो
आँसू बहाने लगीं। श्रीकृष्ण ने उन्हें समझा-बुझाकर शान्त किया और शीघ्र उसके लौट
आने का विश्वास दिलाया। सुदामा ही तुलसी का स्वामी शंखचूड़ नामक असुर हुआ
था, जो मेरे शूल से विदीर्ण एवं शाप मुक्त हो पुनः गोलोक चला
गया। सती राधा इसी वाराहकल्प में गोकुल में अवतीर्ण हुई थीं। वे व्रज में वृषभानु
वैश्य की कन्या हुईं। वे देवी अयोनिजा थीं, माता के पेट से
नहीं पैदा हुई थीं। उनकी माता कलावती ने अपने गर्भ में ‘वायु’
को धारण कर रखा था। उसने योगमाया की प्रेरणा से वायु को ही जन्म
दिया; परंतु वहाँ स्वेच्छा से श्रीराधा प्रकट हो गयीं। बारह
वर्ष बीतने पर उन्हें नूतन यौवन में प्रवेश करती देख माता-पिता ने ‘रायाण’ वैश्य के साथ उसका सम्बन्ध निश्चित कर दिया।
उस समय श्रीराधा घर में अपनी छाया को स्थापित करके स्वयं अन्तर्धान हो गयीं। उस
छाया के साथ ही उक्त रायाण का विवाह हुआ।
‘जगत्पति श्रीकृष्ण कंस के भय से
रक्षा के बहाने शैशवावस्था में ही गोकुल पहुँचा दिये गये थे। वहाँ श्रीकृष्ण की
माता जो यशोदा थीं, उनका सहोदर भाई ‘रायाण’
था। गोलोक में तो वह श्रीकृष्ण का अंशभूत गोप था, पर इस अवतार के समय भूतल पर वह श्रीकृष्ण का मामा लगता था। जगत्स्रष्टा
विधाता ने पुण्यमय वृन्दावन में श्रीकृष्ण के साथ साक्षात श्रीराधा का विधिपूर्वक विवाह
कर्म सम्पन्न कराया था। गोपगण स्वप्न में भी श्रीराधा के चरणारविन्द का दर्शन नहीं
कर पाते थे। साक्षात राधा श्रीकृष्ण के वक्षःस्थल में वास करती थीं और छाया राधा
रायाण के घर में। ब्रह्मा जी ने पूर्वकाल में श्रीराधा के चरणारविन्द का
दर्शन पाने के लिये पुष्कर में साठ हजार वर्षों तक तपस्या की थी; उसी तपस्या के फलस्वरूप इस समय उन्हें श्रीराधा-चरणों का दर्शन प्राप्त
हुआ था।
गोकुलनाथ श्रीकृष्ण कुछ काल तक
वृन्दावन में श्रीराधा के साथ आमोद-प्रमोद करते रहे। तदनन्तर सुदामा के शाप से
उनका श्रीराधा के साथ वियोग हो गया। इसी बीच में श्रीकृष्ण ने पृथ्वी का भार
उतारा। सौ वर्ष पूर्ण हो जाने पर तीर्थ यात्रा के प्रसंग से श्रीराधा ने श्रीकृष्ण
का और श्रीकृष्ण ने श्रीराधा का दर्शन प्राप्त किया। तदनन्तर तत्त्वज्ञ श्रीकृष्ण
श्रीराधा के साथ गोलोकधाम पधारे। कलावती (कीर्तिदा) और यशोदा भी श्रीराधा के साथ
ही गोलोक चली गयीं।
प्रजापति द्रोण नन्द हुए। उनकी
पत्नी धरा यशोदा हुईं। उन दोनों ने पहले की हुई तपस्या के प्रभाव से परमात्मा
भगवान श्रीकृष्ण को पुत्ररूप में प्राप्त किया था। महर्षि कश्यप वसुदेव हुए थे।
उनकी पत्नी सती साध्वी अदिति अंशतः देवकी के रूप में अवतीर्ण हुई थीं। प्रत्येक
कल्प में जब भगवान अवतार लेते हैं, देवमाता
अदिति तथा देवपिता कश्यप उनके माता-पिता का स्थान ग्रहण करते हैं। श्रीराधा की
माता कलावती (कीर्तिदा) पितरों की मानसी कन्या थी। गोलोक से वसुदाम गोप ही
वृषभानु होकर इस भूतल पर आये थे।
दुर्गे! इस प्रकार मैंने श्रीराधा
का उत्तम उपाख्यान सुनाया। यह सम्पत्ति प्रदान करने वाला,
पापहारी तथा पुत्र और पौत्रों की वृद्धि करने वाला है। श्रीकृष्ण दो
रूपों में प्रकट हैं– द्विभुज और चतुर्भुज। चतुर्भुज रूप से
वे वैकुण्ठधाम में निवास करते हैं और स्वयं द्विभुज श्रीकृष्ण गोलोकधाम में।
चतुर्भुज की पत्नी महालक्ष्मी, सरस्वती,
गंगा और तुलसी हैं। ये चारों
देवियाँ चतुर्भुज नारायण देव की प्रिया हैं। श्रीकृष्ण की पत्नी श्रीराधा
हैं, जो उनके अर्धांग से प्रकट हुई हैं। वे तेज, अवस्था, रूप तथा गुण सभी दृष्टियों से उनके अनुरूप
हैं। विद्वान पुरुष को पहले ‘राधा’ नाम
का उच्चारण करके पश्चात् ‘कृष्ण’ नाम
का उच्चारण करना चाहिये। इस क्रम से उलट-फेर करने पर वह पाप का भागी होता है,
इसमें संशय नहीं है।
कार्तिक की पूर्णिमा को गोलोक के रासमण्डल
में श्रीकृष्ण ने श्रीराधा का पूजन किया और तत्सम्बन्धी महोत्सव रचाया। उत्तम
रत्नों की गुटिका में राधा-कवच रखकर गोपों सहित श्रीहरि ने उसे अपने कण्ठ
और दाहिनी बाँह में धारण किया। भक्तिभाव से उनका ध्यान करके स्तवन किया। फिर
मधुसूदन ने राधा के चबाये हुए ताम्बूल को लेकर स्वयं खाया।
राधा पूज्या च कृष्णस्य तत्पूज्यो
भगवान् प्रभुः।
परस्पराभीष्टदेवो भेदकृन्नरकं व्रजेत्
।।
राधा श्रीकृष्ण की पूजनीया हैं और
भगवान श्रीकृष्ण राधा के पूजनीय हैं। वे दोनों एक-दूसरे के इष्ट देवता हैं। उनमें
भेदभाव करने वाला पुरुष नरक में पड़ता है। श्रीकृष्ण के बाद धर्म ने,
ब्रह्मा जी ने, मैंने,
अनन्त ने, वासुकि ने तथा सूर्य और चन्द्रमा
ने श्रीराधा का पूजन किया। तत्पश्चात् देवराज इन्द्र, रुद्रगण,
मनु, मनुपुत्र, देवेन्द्रगण,
मुनीन्द्रगण तथा सम्पूर्ण विश्व के लोगों ने श्रीराधा की पूजा की।
ये सब द्वितीय आवरण के पूजक हैं। तृतीय आवरण में सातों द्वीपों के सम्राट सुयज्ञ
ने तथा उनके पुत्र-पौत्रों एवं मित्रों ने भारतवर्ष में प्रसन्नतापूर्वक श्रीराधिका
का पूजन किया। उन महाराज को दैववश किसी ब्राह्मण ने शाप दे दिया था, जिससे उनका हाथ रोगग्रस्त हो गया था। इस कारण वे मन-ही-मन बहुत दुःखी रहते
थे। उनकी राज्यलक्ष्मी छिन गयी थी; परंतु श्रीराधा के वर से
उन्होंने अपना राज्य प्राप्त कर लिया। ब्रह्मा जी के दिये हुए स्तोत्र से
परमेश्वरी श्रीराधा की स्तुति करके राजा ने उनके अभेद्य कवच को कण्ठ और बाँह में
धारण किया तथा पुष्करतीर्थ में सौ वर्षों तक ध्यानपूर्वक उनकी पूजा की। अन्त में
वे महाराज रत्नमय विमान पर सवार होकर गोलोकधाम में चले गये। पार्वति! यह सारा
प्रसंग मैंने तुम्हें कह सुनाया।
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