वासुदेवोपनिषत्
वासुदेवोपनिषत् अथवा वासुदेवोपनिषद्
अथवा वासुदेव उपनिषद् साम वेद से संबंधित है ।
वासुदेवोपनिषत्
(सामवेदीय)
शान्तिपाठ
यत्सर्वहृदयागारं यत्र सर्वं
प्रतिष्ठितम् ।
वस्तुतो यन्निराधारं वासुदेवपदं भजे
॥
ॐ आप्यायन्तु ममाङ्गानि
वाक्प्राणश्चक्षुः
श्रोत्रमथो बलमिन्द्रियाणि च ॥
सर्वाणि सर्वं ब्रह्मोपनिषदं
माहं ब्रह्म निराकुर्यां मा मा
ब्रह्म निराकरोदनिराकरणम-
स्त्वनिराकरणं मेस्तु तदात्मनि
निरते य उपनिषत्सु धर्मास्ते
मयि सन्तु ते मयि सन्तु ॥
ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ॥
वासुदेवोपनिषत् अथवा वासुदेवोपनिषद् अथवा वासुदेव उपनिषद्
गोपीचन्दन का महत्त्व,
उसके धारण की विधि और फल
(ऊर्ध्वपुण्ड्रविधिजिज्ञासा)
ॐ नमस्कृत्य भगवान्नारदः सर्वेश्वरं
वासुदेवं पप्रच्छ
अधीहि भगवन्नूर्ध्वपुण्ड्रविधिं
द्रव्यमन्त्रस्थानादिसहितं मे
ब्रूहीति ।
देवर्षि नारद ने सर्वेश्वर भगवान्
वासुदेव को नमस्कार करके उनसे पूछा-भगवन् दिव्य, मन्त्र, स्थान आदि (देवता, रेखा,
रंग एव परिमाण) के साथ मुझे ऊर्ध्वपुण्ड्र की विधि बतलाइये।
(गोपीचन्दनस्वरूपम्)
तं होवाच भगवान्वासुदेवो
वैकुण्ठस्थानादुत्पन्नं
मम प्रीतिकरं
मद्भक्तैर्ब्रह्मादिभिर्धारितं विष्णुचन्दनं
ममाङ्गे प्रतिदिनमालिप्तं गोपीभिः
प्रक्षालनाद्गोपीचन्दन-
माख्यातं मदङ्गलेपनं पुण्यं
चक्रतीर्थान्तःस्थितं
चक्रसमायुक्तं पीतवर्णं मुक्तिसाधनं
भवति ।
तब देवर्षि नारद से भगवान् वासुदेव
बोले-जिसे ब्रह्मादि मेरे भक्त धारण करते हैं, वह
वैकुण्ठधाम में उत्पन्न, मुझे प्रसन्न करनेवाला विष्णुचन्दन
मैने वैकुण्ठधाम से लाकर द्वारका में प्रतिष्ठित किया है। कुङ्कुमादि सहित विष्णुचन्दन
ही चन्दन है। मेरे अङ्गों में वह चन्दन गोपियों द्वारा उपलेपित और प्रक्षालित होने
से गोपीचन्दन कहा जाता है। मेरे अङ्ग का वह पवित्र उपलेपन चक्रतीर्थ* में
स्थित है। चक्र (गोमतीचक्र) सहित तथा पीले रंग का वह मुक्ति देनेवाला है।
[चक्रतीर्थ में जहाँ गोमती-चक्रशिला हो, उस शिला से लगा पीला
चन्दन ही गोपीचन्दन है। शिला से पृथक् तथा दूसरे रंग का नहीं।]
(गोपीचन्दनोद्धारधारणयोर्विधानम्)
अथ गोपीचन्दनं नमस्कृत्वोद्धृत्य ।
पहले गोपीचन्दन को नमस्कार करके उठा
ले,
फिर इस मन्त्र से प्रार्थना करे-
गोपीचन्दन पापघ्न विष्णुदेहसमुद्भव
।
चक्राङ्कित नमस्तुभ्यं
धारणान्मुक्तिदो भव ।
हे विष्णुभगवान्के देह से समुत्पन्न
पापनाशक गोपीचन्दन । हे चक्राङ्कित आपको नमस्कार है। धारण करने से मेरे लिये
मुक्ति देनेवाले होइये।
इमं मे गङ्गे इति जलमादाय
विष्णोर्नुकमिति मर्दयेत् ।
अतो देवा अवन्तु न
इत्येतन्मन्त्रैर्विष्णुगायत्र्या केशवादि-
नामभिर्वा धारयेत् ।
इस प्रकार प्रार्थना करके ' इमं मे गङ्गे०'* इस
मन्त्र से जल लेकर 'विष्णोर्नुकम्०'* इस मन्त्र से (उस चन्दन को)
रगड़े। फिर 'अतो देवा अवन्तु नो०'* आदि ऋग्वेद के मन्त्रों से
तथा'विष्णुगायत्री'* से
तीन बार अभिमन्त्रित करे।
(टीप१- इमं मे गङ्गे यमुने
सरस्वति शुतुद्रि स्तोमं सचता परुष्ण्या । असिक्न्या मरुद्वृधे वितस्तयार्जीकीये
शृणुह्या सुषोमया ॥(ऋक्० १०। ७५ । ५)
इस मन्त्र के 'सिन्धुदीप ऋषि हैं, मन्त्रोक्त सब नदियाँ देवता है,
जगती छन्द है, जलदान में इसका विनियोग है।'
इन ऋषि आदि का न्यास करना चाहिये।
२- विष्णोर्नु कं वीर्याणि प्र
वोचं यः पार्थिवानि विममे रजांसि ।
यो अस्कभायदुत्तरं सधस्थं
विचक्रमाणस्त्रेधोरुगायः ॥१॥ (ऋक्०
१ । १५४ । १)
इस मन्त्र का 'विष्णोर्नु कमिति मन्त्रस्य दीर्घतमा ऋषि नारायणो देवता त्रिष्टुप् छन्द
मर्दने विनियोग '। इस प्रकार विनियोग है। इन ऋषि आदि का
न्यास करना चाहिये।
३. अतो देवा अवन्तु नो यतो
विष्णुर्विचक्रमे। पृथिव्याः सप्त धामभिः॥(ऋक्० १ । २२। १६)
तद्विष्णोः परमं पदं सदा पश्यन्ति
सूरयः। दिवीव चक्षुराततम्॥(ऋक्०
१ । २२। २०)
तद्विप्रासो विपन्यवो जागृवांसः
समिन्धते। विष्णोर्यत्परमं पदम्॥(ऋक्०
१ । २२। २१)
इन तीनों मन्त्रों को पढ़े। इनका
विनियोग वाक्य यह है- अतो देवा देव)
तदनन्तर
(ब्रह्मचार्यादीनां धारणाप्रकारः)
ब्रह्मचारी वानप्रस्थो वा
ललाटहृदयकण्ठबाहूमूलेषु
वैष्णवगायत्र्या
कृष्णादिनामभिर्वा धारयेत् । इति
त्रिवारमभिमन्त्र्य
शङ्खचक्रगदापाणे द्वारकानिलयाच्युत
।
गोविन्द पुण्डरीकाक्ष रक्ष मां
शरणागतम् । इति ध्यात्वा
'हाथों में शङ्ख, चक्र तथा गदा धारण किये, द्वारकाधाम में रहनेवाले हे
अच्युत ! हे कमललोचन गोविन्द मैं आपकी शरण में आया हूँ, मेरी
रक्षा करो।'
गृहस्थो
ललाटादिद्वादशस्थलेष्वनामिकाङ्गुल्या
वैष्णवगायत्र्या केशवादिनामभिर्वा
धारयेत् ।
ब्रह्मचारी गृहस्थो वा
ललाटहृदयकण्ठबाहूमूलेषु
वैष्णवगायत्र्या कृष्णादिनामभिर्वा
धारयेत् ।
यतिस्तर्जन्या शिरोललाटहृदयेषु
प्रणवेनैव धारयेत् ।
इस प्रकार मेरा ध्यान करके गृहस्थ
अनामिका अगुलिद्वारा ललाट आदि (ललाट, उदर,
हृदय, कण्ठ, दोनों
भुजाएँ, दोनों कुक्षि, कान, पीठ का (पेट के पीछे का ) भाग, गर्दन के पीछे तथा मस्तक-इन)
बारह स्थानों पर विष्णुगायत्री* से अथवा केशव आदि बारह नामों* से
(चन्दन) धारण करे । ब्रह्मचारी अथवा वानप्रस्थ (अनामिका से ही) ललाट, कण्ठ, हृदय तथा बाहुमूल (कन्धों के पास बाहु के
कूल्हों) पर विष्णुगायत्री के द्वारा अथवा कृष्णादि पाँच नामों* से (चन्दन)
धारण करे । सन्यासी तर्जनी अंगुली से सिर, ललाट तथा हृदय पर
प्रणव के द्वारा (चन्दन)धारण करे । देवता: विष्णुर्देवो वा ऋषि: मेधातिथिः काण्वः
छन्द: गायत्री स्वर: षड्जः अभिमन्त्रणे विनियोग ।' पूर्ववत्
न्यास करे।
(विष्णुगायत्री)-
नारायणाय विद्महे वासुदेवाय धीमहि
तनो विष्णु: प्रचोदयात् ।
अथवा
ॐ श्री विष्णवे च विद्महे वासुदेवाय
धीमहि। तन्नो विष्णुः प्रचोदयात्॥
(केशव आदि बारह नाम)
ललाटे केशवं विद्यान्नारायणमयोदरे।
माधव हृदये न यस्य गोविन्द कण्ठकूपे
।।
विष्णुष्व दक्षिणे कुक्षौ तद्भूजे मधुसूदनम् ।
त्रिविक्रम कर्णदेशे वामे कुक्षौ तु
वामनम् ।।
श्रीधर तु सदा न्यस्येद् वामवाहौ नर
सदा।
पद्मनाभ पृष्ठदेशे ककुद्दामोदर स्मरेत् ।।
वासुदेव स्ममरेन्मूर्द्धिं तिलक
कारयेत् क्रमात् ।
ललाट में केशव,
उदर में नारायण, हृदय, माधव,
कण्ठकूप में गोविन्द, दाहिनी कुक्षि में
विष्णु, दाहिनी भुजा में मधुसूदन, कानों
में त्रिविक्रम, बायीं कुक्षि में वामन, वामबाहू में श्रीधर, पीठ में पद्मनाभ, ककुत् (गर्दन के
पीछे ) में दामोदर, मस्तक पर वासुदेव-इस प्रकार भगवन्नाम का
न्यास करते हुए तिलक करे।
(कृष्णादि पाँच नाम)
`कृष्ण,
सत्य, सात्वत, स्याच्छौरि शूरो जनार्दन ।
अथवा
कृष्णाय वासुदेवाय देवकीनन्दनाय च।
नन्दगोपकुमाराय गोविन्दाय नमो नम ॥
कृष्ण,
सत्य, सात्वत, शौरि एव
जनार्दन अथवा कृष्ण, वासुदेव, देवकीनन्दन, नन्दगोपकुमार और गोविन्द-इन नामों से तिलक करे।
(त्रिपुण्ड्रस्य
त्रिमूर्त्यादिरूपत्वम्)
ब्रह्मादयस्त्रयो मूर्तयस्तिस्रो
व्याहृतयस्त्रीणि छन्दांसि
त्रयोऽग्नय इति ज्योतिष्मन्तस्त्रयः
कालास्तिस्रोऽवस्थास्त्रय
आत्मानः पुण्ड्रात्रय ऊर्ध्वा अकार
उकारो मकार एते
प्रणवमयोर्ध्वपुण्ड्रास्तदात्मा
सदेतदोमिति । तानेकधा
समभवत् । ऊर्ध्वमुन्नमयत
इत्योङ्काराधिकारी ।
तस्मादूर्ध्वपुण्ड्रं धारयेत् ।
परमहंसो ललाटे
प्रणवेनैकमूर्ध्वपुण्ड्रं वा
धारयेत् ।
ब्रह्मादि (ब्रह्मा,
विष्णु, शिव), तीनों
मूर्तियाँ, तीनों (भू० भुव० स्व०) व्याहृतियाँ, तीन छन्द(गण-छन्द, मात्रा-छन्द तथा अक्षर-छन्द),
तीनों (ऋक, यजुः एवं साम) वेद, तीनों (ह्रस्व, दीर्घ, प्लुत) स्वर, तीनों (आहवनीय, गार्हपत्य, दक्षिणाग्नि)
अग्नियॉ, तीनों (चन्द्र, सूर्य,
अग्नि) ज्योतिष्मान्, तीनों (भूत, वर्तमान, भविष्य) काल, तीनों (जाग्रत्,
स्वप्न, सुषुप्ति) अवस्थाएँ, तीनों (क्षर, अक्षर, परमात्मा)
आत्मा, तीनों पुण्ड्र ( अकार, उकार,
मकार-प्रणव की ये तीन मात्राएँ)-ये सब प्रणवात्मक तीनों
ऊर्ध्वपुण्ड्र के स्वरूप हैं। अतः ये तीन रेखाएँ एकत्रित होकर ॐ के रूप में एक हो
जाती हैं (अर्थात् तीनों पुण्ड्र मिलकर प्रणवरूप होते हैं)। अथवा परमहंस
प्रणवद्वारा एक ही ऊर्ध्वपुण्ड्र ललाट पर धारण करे।
(वासुदेवध्यानप्रकारः)
तत्त्वप्रदीपप्रकाशं स्वात्मानं
पश्यन्योगी
मत्सायुज्यमवाप्नोति । अथ वा
न्यस्तहृदयपुण्ड्रमध्ये
वा हृदयकमलमध्ये वा ।
तस्य मध्ये वह्निशिखा अणीयोर्ध्वा
व्यवस्थिता ।
नीलतोयदमध्यस्थाद्विद्युल्लेखेव
भास्वरा ।
नीवारशूकवत्तन्वी परमात्मा
व्यवस्थित इति ।
अतः पुण्ड्रस्थं हृदयपुण्डरीकेषु
तमभ्यसेत् ।
क्रमादेवं स्वात्मानं भावयेन्मां
परं हरिम् ।
एकाग्रमनसा यो मां ध्यायते
हरिमव्ययम् ।
हृत्पङ्कजे च स्वात्मानं स मुक्तो
नात्र संशयः ।
मद्रूपमद्वयं ब्रह्म
आदिमध्यान्तवर्जितम् ।
स्वप्रभं सच्चिदानन्दं भक्त्या
जानाति चाव्ययम् ।
वहाँ (ललाट में) दीप के प्रकाश के
समान अपने आत्मा को देखता हुआ तथा मैं ब्रह्म ही हूँ'
ऐसी भावना करता हुआ योगी मेरा सायुज्य (मोक्ष) प्राप्त करता है और
दूसरे ( परमहंस के अतिरिक्त) कुटीचक, त्रिदण्डी, बहूदक आदि सन्यासी हृदय पर ऊर्ध्वपुण्ड्र के मध्य में या हृदयकमल के मध्य
में अपने आत्मतत्त्व की भावना (ध्यान) करें। उस हृदयकमल के मध्य में नीले बादल के
मध्य में प्रकाशमान विद्युल्लता की भाँति अत्यन्त सूक्ष्म अर्ध्वमुखी अग्निशिखा
स्थित है। वह नीवारके शूक (सिक्के-कोंपलमूल) की भॉति पतली, पीतवर्ण
तथा प्रकाशमय अणु के समान है। उसी अग्निशिखा के मध्य में परमात्मा स्थित हैं। पहले
हृदय के ऊपर के ऊर्ध्वपुण्ड्र में (अग्निशिखा के मध्य परमात्मा की भावना का)
अभ्यास करे । उसके पश्चात् हृदय-कमल में (उसी ध्यान का) अभ्यास करे। इस प्रकार
क्रमशः अपने आत्मरूप की मुझ परम हरिरूप से भावना करे। जो एकाग्र मन से मुझ
अद्वैतरूप (जिसके अतिरिक्त और कोई सत्ता नहीं, उस) हरि का
हृदय-कमल में अपने आत्मरूप से ध्यान करता है, वह मुक्त है,
इसमें सन्देह नहीं । अथवा जो भक्ति द्वारा मेरे अव्यय, ब्रह्म (व्यापक), आदि-मध्य एवं अन्त से रहित,
स्वंयप्रकाश, सच्चिदानन्दस्वरूप को जानता है (वह
भी मुक्त है, इसमें सन्देह नहीं)।
(वासुदेवस्य
सर्वात्मत्वम्)
एको विष्णुरनेकेषु जङ्गमस्थावरेषु च
।
अनुस्युतो वसत्यात्मा
भूतेष्वहमवस्थितः ।
तैलं तिलेषु काष्ठेषु वह्निः क्षीरे
घृतं यथा ।
गन्धः पुष्पेषु भूतेषु
तथात्मावस्थितो ह्यहम् ।
मैं एक ही विष्णु अनेक रूपवाले
जङ्गमों तथा स्थावर, भूतों में भी
ओतप्रोत होकर उनके आत्मरूप से निवास करता हूँ । जैसे तिलों में तेल, लकड़ी में अग्नि, दूध में घी तथा पुष्प में गन्ध (
व्याप्त है), वैसे ही भूतों में उनके आत्मरूप से मैं अवस्थित
हूँ। जगत्में जो कुछ भी दिखायी पड़ता है अथवा सुना भी जाता है, उस सबको बाहर और भीतर से भी व्याप्त करके मैं नारायण स्थित हूँ। मैं
देहादि से रहित, सूक्ष्म, चित्प्रकाश
(ज्ञानस्वरूप), निर्मल, सब में ओतप्रोत,
अद्वैत परम ब्रह्मस्वरूप हूँ।
(बासुदेवध्यानस्थानेषु
गोपीचन्दनधारणम्)
ब्रह्मरन्ध्रे भ्रुवोर्मध्ये हृदये
चिद्रविं हरिम् ।
गोपीचन्दनमालिप्य तत्र
ध्यात्वाप्नुयात्परम् ।
ऊर्ध्वदण्डोर्ध्वरेताश्च
ऊर्ध्वपुण्ड्रोर्ध्वयोगवान् ।
ऊर्ध्वं पदमवाप्नोति
यतिरूर्ध्वचतुष्कवान् ।
इत्येतन्निश्चितं ज्ञानं मद्भक्त्या
सिध्यति स्वयम् ।
नित्यमेकाग्रभक्तिः
स्याद्गोपीचन्दनधारणात् ।
ब्रह्मरन्ध में,
दोनों भौंहो के मध्य में तथा हृदय में चेतना को प्रकाशित करनेवाले
श्रीहरि का चिन्तन करे । इन स्थानों को गोपीचन्दन से उपलिप्त करके (वहाँ गोपीचन्दन
का तिलक करके) तथा ध्यान करके साधक परमतत्त्व को प्राप्त करता है। ऊर्ध्वदण्डी,
ऊर्ध्वरेता (ब्रह्मचारी), ऊर्ध्वपुण्ड्र
(धारी) तथा ऊर्ध्वयोग (उत्तम गति देनेवाले योग) को जाननेवाला-इस ऊर्ध्व-चतुष्टय से
सम्पन्न सन्यासी ऊर्ध्वपद (दिव्यधाम) को प्राप्त करता है। इस प्रकार यह निश्चित
ज्ञान है। यह मेरी भक्ति से स्वयं सिद्ध हो जाता है। नित्य गोपीचन्दन धारण करने से
एकाग्र भक्ति प्राप्त होती है ।
(गोपीचन्दनभस्मनोर्धारणविधिः)
ब्राह्माणानां तु सर्वेषां
वैदिकानामनुत्तमम् ।
गोपीचन्दनवारिभ्यामूर्ध्वपुण्ड्रं
विधीयते ।
यो गोपीचन्दनाभावे तुलसीमूलमृत्तिकाम्
।
मुमुक्षुर्धारयेन्नित्यमपरोक्षात्मसिद्धये
।
अतिरात्राग्निहोत्रभस्मनाग्नेर्भसितमिदंविष्णुस्त्रीणि
पदेति मन्त्रैर्वैष्णवगायत्र्या
प्रणवेनोद्धूलनं कुर्यात् ।
वैदिक ज्ञानसम्पन्न सर्वश्रेष्ठ सभी
ब्राह्मणों के लिये पानी के साथ घिसकर गोपीचन्दन के ऊर्ध्वपुण्ड्र (करने) का विधान
है। जो मुमुक्षु (मोक्ष की इच्छा रखनेवाला ) है, वह अपरोक्ष आत्मदर्शन की सिद्धि के लिये गोपीचन्दन के अभाव में (गोपीचन्दन
न हो, तब ) तुलसी के जड़ की मिट्टी (से) नित्य (तिलक) धारण
करे । जिसका शरीर गोपीचन्दन से लिप्त रहता है, उसके शरीर की
हड्डियाँ निश्चय ही ( दधीचि की हड्डियों के समान) दिनों-दिन चक्र (वज्र के समान
सुदृढ ) होती जाती हैं।
(दिन में तो गोपीचन्दन का
ऊर्ध्वपुण्ड्र करे) और रात्रि को अग्निहोत्र की भस्म से 'अग्नेर्भस्मासिं०'
आदि से (भस्म लेकर) 'इदं विष्णु०'
आदि मन्त्र से मलकर तथा 'श्रीणि पदा०' आदि मन्त्र से, विष्णुगायत्री से तथा (यदि साधु हो तो) प्रणव से उद्धूलन करें ( सम्पूर्ण शरीर को मले)।
एवं विधिना गोपीचन्दनं च धारयेत् ।
यस्त्वधीते वा स सर्वपातकेभ्यः पूतो
भवति ।
पापबुद्धिस्तस्य न जायते । स
सर्वेषु तीर्थेषु स्नातो भवति ।
स सर्वैर्यज्ञैर्याजितो भवति । स
सर्वैर्देवैः पूज्यो भवति ।
श्रीमन्नारायणे मय्यचञ्चला भक्तिश्च
भवति ।
स सम्यग्ज्ञानं च लब्ध्वा
विष्णुसायुज्यमवाप्नोति ।
न च पुनरावर्तते न च पुनरावर्तते
इत्याह भगवान्वासुदेवः ।
यस्त्वेतद्वाधीते सोऽप्येवमेव
भवतीत्यों सत्यमित्युपनिषत् ॥
जो इस विधि से गोपीचन्दन धारण करता
है,
अथवा जो इस (उपनिषद्) का अध्ययन करता है, वह
समस्त महापातकों से पवित्र हो जाता है। उसे पाप-बुद्धि उत्पन्न नहीं होती । वह
सम्पूर्ण तीर्थों में स्नान कर चुकता है। (सब तीर्थों के स्नान का पुण्य प्राप्त
कर लेता है। ) सम्पूर्ण यज्ञों का यजन करनेवाला (उनके यजन के फल को प्राप्त) होता
है। सम्पूर्ण देवताओं से पूजनीय हो जाता है। उसकी मुझ नारायण में अचला भक्ति
वृद्धि को प्राप्त होती है। वह सम्यक् ज्ञान प्राप्त करके भगवान् विष्णु का
सायुज्य (मोक्ष) प्राप्त करता है। फिर (संसार में) लौटकर नहीं आता, नहीं आता। आकाश में व्याप्त हुए सूर्य की भॉति भगवान् विष्णु के उस परमपद को
सूक्ष्मदर्शी (ज्ञानी) सदा अपने हृदयाकाश में देखते (साक्षात् करते) हैं। भगवान्
विष्णु का वह जो परम पद है, उसे लोक व्यवहार में अनासक्त एव
साधन के लिये सदा जाग्रत् रहनेवाले विप्रगण ध्यान मे प्रकाशित करते हैं।
(ध्यान में उसका साक्षात् दर्शन
करते हैं।)
॥ सामवेदीय वासुदेवोपनिषद् शान्तिपाठ ॥
ॐ आप्यायन्तु ममाङ्गानि
वाक्प्राणश्चक्षुः श्रोत्रमथो
बलमिद्रियाणि च ॥ सर्वाणि सर्वं
ब्रह्मोपनिषदं माहं ब्रह्म
निराकुर्यां मा मा ब्रह्म
निराकरोदनिराकरणमस्त्वनिराकणं मेस्तु
तदात्मनि निरते य उपनिषत्सु
धर्मास्ते मयि सन्तु ते मयि सन्तु ॥
ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ॥
इति वासुदेवोपनिषत्समाप्ता ॥
॥ सामवेदीय वासुदेवोपनिषद् समाप्त ॥
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