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कर्मकाण्ड

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पार्वतीकृत विष्णु स्तवन

पार्वतीकृत विष्णु स्तवन

जो मनुष्य मन को पूर्णतया एकाग्र करके भारतवर्ष में इस पार्वतीकृत स्तोत्र को सुनता है, उसे निश्चय ही विष्णु के समान पराक्रमी उत्तम पुत्र की प्राप्ति होती है। जो वर्ष भर तक हविष्यान्न का भोजन करके भक्तिभाव से श्रीहरि की अर्चना करता है, वह उत्तम पुण्यक-व्रत के फल को पाता है, इसमें तनिक भी संशय नहीं है। यह विष्णु का स्तवन सम्पूर्ण सम्पत्तियों की वृद्धि करने वाला, सुखदायक, मोक्षप्रद, साररूप, स्वामी के सौभाग्य का वर्धक, सम्पूर्ण सौन्दर्य का बीज, यश की राशि को बढ़ाने वाला, हरि-भक्ति का दाता और तत्त्वज्ञान तथा बुद्धि की विशेषरूप से उन्नति करने वाला है।

पार्वतीकृत विष्णु स्तवन

पार्वतीकृत विष्णु स्तवन स्तोत्र

पार्वत्युवाच

कृष्ण जानासि मां भद्र नाहं त्वां ज्ञातुमीश्वरी ।

के वा जानन्ति वेदज्ञा वेदा वा वेदकारकाः ।।

पार्वती जी बोलींश्रीकृष्ण! आप तो मुझे जानते हैं; परंतु मैं आपको जानने में असमर्थ हूँ। भद्र! आपको वेदज्ञ, वेद अथवा वेदकर्ताइनमें से कौन जानते हैं? अर्थात् कोई नहीं जानते ।

त्वदंशास्त्वां न जानन्ति कथं ज्ञास्यन्ति त्वत्कलाः ।

त्वं चापि तत्त्वं जानासि किमन्ये ज्ञातुमीश्वरा ।।

भला, जब आपके अंश आपको नहीं जानते, तब आपकी कलाएँ आपको कैसे जान सकती हैं? इस तत्त्व को आप ही जानते हैं। आपके अतिरिक्त दूसरे लोग कौन इसे जानने में समर्थ हैं?

सूक्ष्मात् सूक्ष्मतमोऽव्यक्तः स्थूलात् स्थूलतमो महान् ।

विश्वस्त्वं विश्वरूपश्च विश्वबीजं सनातनः ।।

आप सूक्ष्म से भी सूक्ष्मतम, अव्यक्त, स्थूल से भी महान स्थूलतम हैं। आप सनातन, विश्व के कारण, विश्वरूप और विश्व हैं।

कार्यं त्वं कारणं त्वं च कारणानां च कारणम् ।

तेजःस्वरूपो भगवान् निराकारो निराश्रयः ।।

निर्लिप्तो निर्गुणः साक्षी स्वात्मारामः परात्परः ।

प्रकृतीशो विराड्बीजं विराड्रू।पस्त्वमेव च ।

सगुणस्त्वं प्राकृतिकः कलया सृष्टिहेतवे ।।

आप ही कार्य, कारण, कारणों के भी कारण, तेजःस्वरूप, षडैश्वर्यों से युक्त, निराकार, निराश्रय, निर्लिप्त, निर्गुण, साक्षी, स्वात्माराम, परात्पर, प्रकृति के अधीश्वर और विराट के बीज हैं। आप ही विराटरूप भी हैं। आप सगुण हैं और सृष्टि-रचना के लिये अपनी कला से प्राकृतिक रूप धारण कर लेते हैं।  

प्रकृतिस्त्वं पुमांस्त्वं च वेदान्यो न क्वचिद् भवेत् ।

जीवस्त्वं साक्षिणो भोगी स्वात्मनः प्रतिबिम्बकाः ।।

आप ही प्रकृति हैं, आप ही पुरुष हैं और आप ही वेदस्वरूप हैं। आपके अतिरिक्त अन्य कहीं कुछ भी नहीं है। आप जीव, साक्षी के भोक्ता और अपने आत्मा के प्रतिबिम्ब हैं।

कर्म त्वं कर्मबीजं त्वं कर्मणां फलदायकः ।

ध्यायन्ति योगिनस्तेजस्त्वदीयमशरीरिणम् ।

केचिच्चतुर्भुजं शान्तं लक्ष्मीकान्तं मनोहरम् ।।

आप ही कर्म और कर्मबीज हैं तथा कर्मों के फलदाता भी आप ही हैं। योगीलोग आपके निराकार तेज का ध्यान करते हैं तथा कोई-कोई आपके चतुर्भुज, शान्त, लक्ष्मीकान्त मनोहर रूप में ध्यान लगाते हैं।

वैष्णवाश्चैव साकारं कमनीयं मनोहरम् ।

शङ्खचक्रगदापद्मधरं पीताम्बरं परम् ।।

नाथ! जो वैष्णव भक्त हैं, वे आपके उस तेजस्वी, साकार, कमनीय, मनोहर, शंख-चक्र-गदा-पद्मधारी, पीताम्बर से सुशोभित, रूप का ध्यान करते हैं।  

द्विभुजं कमनीयं च किशोरं श्यामसुन्दरम् ।

शान्तं गोपाङ्गनाकान्तं रत्नभूषणभूषितम् ।।

एवं तेजस्विनं भक्ताः सेवन्ते सततं मुदा ।

ध्यायन्ति योगिनो यत् तत् कुतस्तेजस्विनं विना ।।

और आपके भक्तगण परमोत्कृष्ट, कमनीय, दो भुजावाले, सुन्दर, किशोर-अवस्था वाले, श्यामसुन्दर, शान्त, गोपीनाथ तथा रत्नाभरणों से विभूषित रूप का निरन्तर हर्षपूर्वक सेवन करते हैं। योगी लोग भी जिस रूप का ध्यान करते हैं, वह भी उस तेजस्वी रूप के अतिरिक्त और क्या है?

तत् तेजो बिभ्रतां देव देवानां तेजसा पुरा ।

आविर्भूतासुराणां च वधाय ब्रह्मणः स्तुता ।।

देव! प्राचीनकाल में जब असुरों का वध करने के लिये ब्रह्मा जी ने मेरा स्तवन किया, तब मैं आपके उस तेज को धारण करने वाले देवताओं के तेज से प्रकट हुई।

नित्या तेजःस्वरूपाहं विधृत्य विग्रहं विभो ।

स्त्रीरूपं कमनीयं च विधाय समुपस्थिता ।।

विभो! मैं अविनाशिनी तथा तेजःस्वरूपा हूँ। उस समय मैं शरीर धारण करके रमणीय रमणीरूप बनाकर वहाँ उपस्थित हुई।

मायया तव मायाहं मोहयित्वासुरान् पुरा ।

निहत्य सर्वान् शैलेन्द्रमगमं तं हिमाचलम् ।।

तत्पश्चात आपकी मायास्वरूपा मैंने उन असुरों को माया द्वारा मोहित कर लिया और फिर उन सबको मारकर मैं शैलराज हिमालय पर चली गयी।

ततोऽहं संस्तुता देवैस्तारकाक्षेण पीडितैः ।

अभवं दक्षजायायां शिवस्त्री तत्र जन्मनि ।।

त्यक्त्वा देहं दक्षयज्ञे शिवाहं शिवनिन्दया ।

अभवं शैलजायायां शैलाधीशस्य कर्मणा ।।

तदनन्तर तारकाक्ष द्वारा पीड़ित हुए देवताओं ने जब मेरी सम्यक प्रकार से स्तुति की, तब मैं उस जन्म में दक्ष-पत्नी के गर्भ से उत्पन्न होकर शिव जी की भार्या हुई और दक्ष के यज्ञ में शिव जी की निन्दा होने के कारण मैंने उस शरीर का परित्याग कर दिया। फिर मैंने ही शैलराज के कर्मों के परिणामस्वरूप हिमालय की पत्नी के गर्भ से जन्म धारण किया।

अनेकतपसा प्राप्तः शिवश्चात्रापि जन्मनि ।

पाणिं जग्राह मे योगी प्रार्थितो ब्रह्मणा विभुः ।।

इस जन्म में भी अनेक प्रकार की तपस्या के फलस्वरूप शिव जी मुझे प्राप्त हुए और ब्रह्मा जी की प्रार्थना से उन सर्वव्यापी योगी ने मेरा पाणिग्रहण किया;

श्रृंङ्गारजं च तत्तेजो नालभं देवमायया ।

स्तौमि त्वामेव तेनेश पुत्रदुःखेन दुःखिता ।।

व्रते भवद्विधं पुत्रं लब्धुमिच्छामि साम्प्रतम् ।

देवेन विहिता वेदे साङ्गे स्वस्वामिदक्षिणा ।।

श्रुत्वा सर्वं कृपासिन्धो कृपां मां कर्तुमर्हसि ।

इत्युक्त्वा पार्वती तत्र विरराम च नारद ।।

परंतु देवमायावश मुझे उनके श्रृंगारजन्य तेज की प्राप्ति नहीं हुई। परमेश्वर! इसी कारण पुत्र-दुःख से दुःखी होकर मैं आपका स्तवन कर रही हूँ और इस समय आपके सदृश पुत्र प्राप्त करना चाहती हूँ; परंतु अंगों सहित वेद में आपने ऐसा विधान बना रखा है कि इस व्रत में अपने स्वामी की दक्षिणा दी जाती है (जो बड़ा दुष्कर कार्य है)। कृपासिन्धो! यह सब सुनकर आपको मुझ पर कृपा करनी चाहिये। नारद! वहाँ ऐसा कहकर पार्वती चुप हो गयीं।

पार्वतीकृत विष्णु स्तवन सम्पूर्ण  (गणपतिखण्ड 7। 109-131) ।।

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