विष्णुकृत गणेशस्तोत्र
जो मनुष्य एकाग्रचित्त हो भक्तिभाव
से प्रातः, मध्याह्न और सायंकाल इस
विष्णुकृत गणेशस्तोत्र का सतत पाठ करता है, विघ्नेश्वर उसके
समस्त विघ्नों का विनाश कर देते हैं, सदा उसके सब कल्याणों
की वृद्धि होती है और वह स्वयं कल्याणजनक हो जाता है। जो यात्राकाल में
भक्तिपूर्वक इसका पाठ करके यात्रा करता है, निस्संदेह उसकी
सभी अभीप्सित कामनाएँ सिद्ध हो जाती हैं। उसके द्वारा देखा गया दुःस्वप्न सुस्वप्न
में परिणत हो जाता है। उसे कभी दारुण ग्रहपीड़ा नहीं भोगनी पड़ती। उसके शत्रुओं का
विनाश और बन्धुओं का विशेष उत्कर्ष होता है। निरन्तर विघ्नों का क्षय और सदा
सम्पत्ति की वृद्धि होती रहती है। उसके घर में पुत्र-पौत्र को बढ़ाने वाली लक्ष्मी
स्थिररूप से वास करती हैं। वह इस लोक में सम्पूर्ण ऐश्वर्यों का भागी होकर अन्त
में विष्णु-पद को प्राप्त हो जाता है। तीर्थों, यज्ञों और
सम्पूर्ण महादानों से जो फल मिलता है, वह उसे श्रीगणेश की
कृपा से प्राप्त हो जाता है– यह ध्रुव सत्य है।
श्रीविष्णुकृतं गणेशस्तोत्रम्
विष्णु उवाच ।।
ईश त्वां स्तोतुमिच्छामि
ब्रह्मज्योतिः सनातनम् ।
नैव वर्णयितुं
शक्तोऽस्त्यनुरूपमनीहकम् ।। १ ।।
प्रवरं सर्वदेवानां सिद्धानां
योगिनां गुरुम् ।
सर्वस्वरूपं सर्वेशं
ज्ञानराशिस्वरूपिणम् ।। २ ।।
अव्यक्तमक्षरं नित्यं
सत्यमात्मस्वरूपिणम् ।
वायुतुल्यं च निर्लिप्तं चाक्षतं
सर्वसाक्षिणम् ।। ३ ।।
संसारार्णवपारे च मायापोते
सुदुर्लभे ।
कर्णधारस्वरूपं च भक्तानुग्रहकारकम्
।। ४ ।।
वरं वरेण्यं वरदं वरदानामपीश्वरम् ।
सिद्धं सिद्धिस्वरूपं च सिद्धिदं
सिद्धिसाधनम ।। ५ ।।
ध्यानातिरिक्तं ध्येयं च
ध्यानासाध्यं च धार्मिकम् ।
धर्मस्वरूपं धर्मज्ञं
धर्माधर्मफलप्रदम् ।।६।।
बीजं संसारवृक्षाणामंकुरं च
तदाश्रयम् ।
स्त्रीपुंनपुंसकानां च
रूपमेतदतीन्द्रियम् ।। ७ ।।
सर्वाद्यमग्रपूज्यं च सर्वपूज्यं
गुणार्णवम् ।
स्वेच्छया सगुणं ब्रह्म निर्गुणं
स्वेच्छया पुनः ।।८।।
स्वयं प्रकृतिरूपं च प्राकृतं
प्रकृतेः परम् ।
त्वां स्तोतुमक्षमोऽनन्तः
सहस्रवदनैरपि ।। ९ ।।
न क्षमः पञ्चवक्त्रश्च न
क्षमश्चतुराननः ।
सरस्वती न शक्ता च न शक्तोऽहं तव
स्तुतौ ।।
न शक्ताश्च चतुर्वेदाः के वा ते
वेदवादिनः ।।१०।।
इति श्रीब्रह्मवैवर्ते महापुराणे
तृतीये गणपतिखण्डे
श्रीविष्णुकृतं गणेशस्तोत्रं
सम्पूर्णम् ॥
श्रीविष्णुकृत गणेश स्तोत्रम् भावार्थ
श्रीविष्णु ने कहा–
ईश! मैं सनातन ब्रह्मज्योतिःस्वरूप आपका स्तवन करना चाहता हूँ,
परंतु आपके अनुरूप निरूपण करने में मैं सर्वथा असमर्थ हूँ; क्योंकि आप इच्छारहित, सम्पूर्ण देवों में श्रेष्ठ,
सिद्धों और योगियों के गुरु, सर्वस्वरूप,
सर्वेश्वर, ज्ञानराशिस्वरूप, अव्यक्त, अविनाशी, नित्य,
सत्य, आत्मस्वरूप, वायु
के समान अत्यन्त निर्लेप, क्षतरहित, सबके
साक्षी, संसार-सागर से पार होने के लिये परम दुर्लभ मायारूपी
नौका के कर्णधारस्वरूप, भक्तों पर अनुग्रह करने वाले,
श्रेष्ठ, वरणीय, वरदाता,
वरदानियों के भी ईश्वर, सिद्ध, सिद्धिस्वरूप, सिद्धिदाता, सिद्धि
के साधन, ध्यान से अतिरिक्त ध्येय, ध्यान
द्वारा असाध्य, धार्मिक, धर्मस्वरूप,
धर्म के ज्ञाता, धर्म और अधर्म का फल प्रदान
करने वाले, संसार-वृक्ष के बीज,अंकुर
और उसके आश्रय, स्त्री-पुरुष और नपुंसक के स्वरूप में
विराजमान तथा इनकी इन्द्रियों से परे, सबके आदि, अग्रपूज्य, सर्वपूज्य, गुण के
सागर, स्वेच्छा से सगुण ब्रह्म तथा स्वेच्छा से ही निर्गुण
ब्रह्म का रूप धारण करने वाले, स्वयं प्रकृतिरूप और प्रकृति
से परे प्राकृतरूप हैं। शेष अपने सहस्रों मुखों से भी आपकी स्तुति करने में असमर्थ
हैं। आपके स्तवन में न पंचमुख महेश्वर समर्थ हैं न चतुर्मुख ब्रह्मा ही; न सरस्वती की शक्ति है और न मैं ही कर सकता हूँ। न चारों वेदों की ही
शक्ति है, फिर उन वेदवादियों की क्या गणना?
इस प्रकार श्रीब्रह्मवैवर्त महापुराण तृतीय गणपतिखण्ड में श्रीविष्णुकृत गणेशस्तोत्र सम्पूर्ण हुआ ॥
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