विष्णु सूक्तम्
वेदों में कई विष्णु सूक्त प्राप्त
होते हैं,
जिनमें ऋग्वेदके ७वें मण्डल का १००वाँ सूक्त भी एक है। इस अभिनव
सूक्त में भगवान् विष्णु से धन-सम्पत्ति एवं निर्मल बुद्धि आदि की याचना की गयी है
। भगवान के वामनावतार की लीला का स्पष्ट वर्णन इस विष्णु सूक्तम् में प्राप्त होता
है । इस सूक्त के ऋषि मैत्रावरुणि वसिष्ठ, छन्द त्रिष्टुप्
एवं देवता विष्णु हैं ।
विष्णु सूक्तम्
नू मर्तो॑ दयते सनि॒ष्यन्यो विष्ण॑व
उरुगा॒याय॒ दाश॑त् ।
प्र यः स॒त्राचा॒ मन॑सा॒ यजा॑त
ए॒ताव॑न्तं॒ नर्य॑मा॒विवा॑सात् ॥
अन्वय -
नु । मर्तः॑ । द॒य॒ते॒ । स॒नि॒ष्यन् । यः । विष्ण॑वे । उ॒रु॒ऽगा॒याय॑ । दाश॑त् ।
प्र । यः । स॒त्राचा॑ । मन॑सा । यजा॑ते । ए॒ताव॑न्तम् । नर्य॑म् । आ॒ऽविवा॑सात् ॥
७.१००.१
पदार्थान्वयभाषाः -(यः)
जो पुरुष (उरुगायाय) अत्यन्त भजनीय (विष्णवे) व्यापक परमात्मा की (सनिष्यन्) प्राप्ति
के लिये इच्छा (दशत्) करते हैं, (नु) शीघ्र ही
वे मनुष्य उसको (दयते) प्राप्त होते हैं और जो (सत्राचा) शुद्ध मन से (यजाते) उस
परमात्मा की उपासना करता है, वह (एतावन्तं, नर्य्यं) उक्त परमात्मा का जो सब प्राणिमात्र का हित करनेवाला है
(आविवासात्) अवश्यमेव प्राप्त होता है ॥१॥
भावार्थभाषाः -परमात्मप्राप्ति
के लिये सबसे प्रथम जिज्ञासा अर्थात् प्रबल इच्छा उत्पन्न होनी चाहिये। तदनन्तर जो
पुरुष निष्कपटभाव से परमात्मपरायण होता है, उस
पुरुष को परमात्मा का साक्षात्कार अर्थात् यथार्थ ज्ञान अवश्यमेव होता है ॥१॥
अर्थ :-
धन की इच्छा करता हुआ वही मनुष्य शीघ्र धन को पाता है,
जो सभी के कीर्तनीय भगवान् विष्णु को हव्य प्रदान करता है और जो
सामग्री से मन्त्रपूर्वक प्रकृष्ट पूजा करता है तथा इतने बड़े मनुष्यों के हितैषी
की नमस्कारादि से परिचर्या करता है ॥ १ ॥
त्वं वि॑ष्णो सुम॒तिं
वि॒श्वज॑न्या॒मप्र॑युतामेवयावो म॒तिं दा॑: ।
पर्चो॒ यथा॑ नः सुवि॒तस्य॒
भूरे॒रश्वा॑वतः पुरुश्च॒न्द्रस्य॑ रा॒यः ॥
अन्वय -
त्वम् । वि॒ष्णो॒ इति॑ । सु॒ऽम॒तिम् । वि॒श्वऽज॑न्याम् । अप्र॑ऽयुताम् ।
ए॒व॒ऽया॒वः॒ । म॒तिम् । दाः॒ । पर्चः॑ । यथा॑ । नः॒ । सु॒वि॒तस्य॑ । भूरेः॑ ।
अश्व॑ऽवतः । पु॒रु॒ऽच॒न्द्रस्य॑ । रा॒यः ॥ ७.१००.२
पदार्थान्वयभाषाः
-(एवयावः) हे सर्वकामनाप्रद (विष्णो) व्यापक परमेश्वर ! (त्वं) आप हमें
(विश्वजन्यां) सब संसार का हित करनेवाली (अप्रयुताम्) दोषरहित (सुमतिं) नीति (दाः)
दें और (पुरुश्चन्द्रस्य) सब प्रकार के ऐश्वर्यों का (रायः) साधन जो धन है और
(भूरेः,
अश्वावतः) जिसमें अनेक प्रकार की शक्तियें हैं और जो (सुवितस्य)
सुविधा से प्राप्त हो सकता है, (यथा) जिस प्रकार (पर्चः)
उसकी प्राप्ति हो, वैसी (नः) हमको आप बुद्धि दें ॥२॥
भावार्थभाषाः
-शुभ नीति और सुनीति उसका नाम है, जिससे संसार
भर का कल्याण हो। इस मन्त्र में परमात्मा ने इस नीति के उत्पन्न करने के लिये
जिज्ञासु द्वारा प्रार्थना कथन करके उपदेश किया है। वास्तव में शुभ नीति ही धर्म्म,
देश और जाति की उन्नति का सर्वोपरि साधन है ॥२॥
अर्थ :-
हे स्तोताओं के मनोरथ पूर्ण करनेवाले विष्णु ! आप हमें सर्व-जन-हितैषिणी और
दोषरहित बुद्धि प्रदान करें, जिससे अच्छी
प्रकार प्राप्त करने योग्य, प्रचुर अश्वों से युक्त, बहुतों के आह्लादक धन के साथ हमारा सम्पर्क हो ॥ २ ॥
त्रिर्दे॒वः पृ॑थि॒वीमे॒ष ए॒तां वि
च॑क्रमे श॒तर्च॑सं महि॒त्वा ।
प्र विष्णु॑रस्तु
त॒वस॒स्तवी॑यान्त्वे॒षं ह्य॑स्य॒ स्थवि॑रस्य॒ नाम॑ ॥
अन्वय -
त्रिः । दे॒वः । पृ॒थि॒वीम् । ए॒षः । ए॒ताम् । वि । च॒क्र॒मे॒ । श॒तऽअ॑र्चसम् ।
म॒हि॒ऽत्वा । प्र । विष्णुः॑ । अ॒स्तु॒ । त॒वसः॑ । तवी॑यान् । त्वे॒षम् । हि ।
अ॒स्य॒ । स्थवि॑रस्य । नाम॑ ॥ ७.१००.३
पदार्थान्वयभाषाः
-(देवः) दिव्यशक्तियुक्त उक्त परमात्मा (एतां) इस (पृथिवीं) पृथिवी को (त्रिः) तीन
प्रकार से (विचक्रमे) रचता है, (शतर्चसं) जिस
पृथिवी में सैकड़ों प्रकार की (अर्चिः) ज्वालायें हैं, (महित्वा)
जिसका बहुत विस्तार है और इस (स्थविरस्य) प्राचीन पुरुष का नाम इसीलिये (विष्णुः)
विष्णु है, क्योंकि (तवसः, तवीयान्) यह
तेरा स्वामी है, इसलिये इसका नाम विष्णु है अथवा यह
सर्वव्यापक होने से सर्वस्वामी है, इसलिये इसका नाम विष्णु
है ॥३॥
भावार्थभाषाः
-तीन प्रकार से पृथिवी को रचने के अर्थ ये हैं कि प्रकृति के सत्त्वादि गुणोंवाले
परमाणुओं को परमात्मा ने तीन प्रकार से रखा। तामस-भाववाले परमाणु,
पृथिवी पाषाणादिरूप से, राजस नक्षत्रादिरूप से
और दिव्य अर्थात् द्युलोकस्थ पदार्थों को सात्त्विक भाव से, ये
तीन प्रकार की गतियें हैं, इसी का नाम ‘त्रेधा निधदे पदं’ है, इसी भाव
को “इदं विष्णुर्विचक्रमे त्रेधा निधदे पदम्” ॥ मं. १।२२।१७॥ में वर्णन किया है। जो कई एक लोग इसके अर्थ ये करते हैं कि
विष्णु ने वामनावतार को धारण करके तीन पैर से पृथिवी को नापा, इसका उत्तर यह है कि इसी विष्णुसूक्त में “तद्
विष्णोः परमं पदं सदा पश्यन्ति सूरयः” ॥ मं. १।२२।२०॥ में इस
पद को चक्षु की निराकार ज्योति के समान निराकार माना है। अन्य युक्ति यह है कि
विष्णु का स्वरूपपद निराकार होने से एक कथन किया है, तीन
संख्या केवल प्रकृतिरूपी पद में मानी है, विष्णु के पद में
नहीं, फिर निराकार विष्णु का देह धर कर साकार पद कैसे ?
सबसे प्रबल प्रमाण इस विषय में यह है कि इसी प्रसङ्ग में सूक्त
९९वें के दूसरे मन्त्र में यह कथन किया है कि “न ते विष्णो
जायमानो न जातो देव महिम्नः परमन्तमाप” हे देव ! तुम्हारी
महिमा के अन्त को कोई नहीं पा सकता, क्योंकि तुमने ही
लोक-लोकान्तरों को धारण किया हुआ है, तो फिर जब वह
सर्वाधिष्ठान अर्थात् सब भुवनों का आश्रय है, तो उसके पैरों
को अन्य वस्तुएँ कैसे आश्रय दे सकती हैं ॥३॥
अर्थ :-
स दानादि गुणों से युक्त विष्णु ने (वामनावतार में) सैकड़ों किरणोंवाली पृथिवी को
अपने महान् तीनों पैरों से आक्रान्त कर दिया । वे ही वृद्ध से भी वृद्ध विष्णु
हमारे स्वामी हों । अत्यन्त स्थविर (वृद्ध) होने से ही यह विष्णुनाम या रूप दीप्त
है ॥ ३ ॥
वि च॑क्रमे पृथि॒वीमे॒ष ए॒तां
क्षेत्रा॑य॒ विष्णु॒र्मनु॑षे दश॒स्यन् ।
ध्रु॒वासो॑ अस्य की॒रयो॒ जना॑स
उरुक्षि॒तिं सु॒जनि॑मा चकार ॥
अन्वय -
वि । च॒क्र॒मे॒ । पृ॒थि॒वीम् । ए॒षः । ए॒ताम् । क्षेत्रा॑य । विष्णुः॑ । मनु॑षे ।
द॒श॒स्यन् । ध्रु॒वासः॑ । अ॒स्य॒ । की॒रयः॑ । जना॑सः । उ॒रु॒ऽक्षि॒तिम् ।
सु॒ऽजनि॑मा । च॒का॒र॒ ॥ ७.१००.४
पदार्थान्वयभाषाः
-(विष्णुः) व्यापक पमेश्वर ने (मनुषे) मनुष्य के (क्षेत्राय) अभ्युदय (दशस्यन्)
देने के लिये (पृथिवीम्,एतां) इस पृथिवी को
(विचक्रमे) रचा, जिससे (अस्य) इस परमात्मा के कीर्तन
करनेवाले (जनासः) भक्त लोग (धुवासः) दृढ़ हो गए, क्योंकि
(उरुक्षितिं) इस विस्तृत क्षेत्ररूप पृथिवी को (सुजनिमा) सुन्दर प्रादुर्भाववाले
ब्रह्माण्डपति परमात्मा ने (चकार) रचा है ॥४॥
भावार्थभाषाः -जिस
पृथिवी में (सुजनिमा) सुन्दर आविर्भाववाले प्राणिजात हैं,
उनका कर्त्ता जो परमात्मा है, उसने इस
सम्पूर्ण विश्व को रचा है। विष्णु के अर्थ यहाँ “यज्ञो वै
विष्णुः” ॥ श. प.॥ “तस्माद् यज्ञात्
सर्वहुत ऋचः सामानि जज्ञिरे” ॥ यजु० ३१.७॥ इत्यादि प्रमाणों से व्यापक परमात्मा के
हैं। यही बात विष्णुसूक्तों में सर्वत्र पायी जाती है। इस भाव को वेद ने अन्यत्र
भी वर्णन किया है कि “द्यावाभूमी जनयन्देव एकः” ॥ यजु०॥ एक परमात्मा ने सब लोक-लोकान्तरों को रचा है ॥४॥
अर्थ :-
इन देव विष्णु ने पृथिव्यादि तीनों लोकों को असुरों से लेकर स्तुति करते हुए
देवगणों को निवासार्थ देने के लिये ही तीन पदों से आच्छादित कर दिया था । इन
भगवान् विष्णु के स्तोताजन निश्चल (ऐहिक आमुष्मिक लाभसे स्थिर) होते हैं । सुन्दर
जन्मोंवाले इन भगवान् विष्णु ने अपने स्तोताओं के लिये विस्तीर्ण निवास-स्थल बनाया
था ॥ ४ ॥
प्र तत्ते॑ अ॒द्य शि॑पिविष्ट॒
नामा॒र्यः शं॑सामि व॒युना॑नि वि॒द्वान् ।
तं त्वा॑ गृणामि
त॒वस॒मत॑व्या॒न्क्षय॑न्तम॒स्य रज॑सः परा॒के ॥
अन्वय -
प्र । तत् । ते॒ । अ॒द्य । शि॒पि॒ऽवि॒ष्ट॒ । नाम॑ । अ॒र्यः । शं॒सा॒मि॒ ।
व॒युना॑नि । वि॒द्वान् । तम् । त्वा॒ । गृ॒णा॒मि॒ । त॒वस॑म् । अत॑व्यान् ।
क्षय॑न्तम् । अ॒स्य । रज॑सः । प॒रा॒के ॥ ७.१००.५
पदार्थान्वयभाषाः
-(शिपिविष्ट) हे तेजोमय परमात्मन् ! “शिपयो
रश्मयः” ॥ निरु० ५।८॥ (यत्) जिसलिये (ते) तुम्हारा (अर्यः)
अर्य यह नाम है। “ऋच्छति गच्छति सर्वत्र व्याप्नोतीत्यर्य्यः”
जो सर्वव्यापक हो, उसको अर्य कहते हैं। (तं,
त्वा) ऐसे तुमको (गृणामि) मैं ग्रहण करता हूँ, तुम (तवसं) सर्वोपरि वृद्धियुक्त हो, (अस्य) इस
(रजसः) रजोगुणयुक्त ब्रह्माण्ड के (पराके) मध्य में (अतव्यान्) निरन्तर गमन
करनेवाले लोक-लोकान्तरों में भी आप (क्षयन्तं) निवास कर रहे हैं और सब प्रकार के
(वयुनानि) ज्ञानों के (विद्वान्) आप जाननेवाले हैं, इसीलिये
मैं आपकी (प्रशंसामि, अद्य) प्रशंसा करता हूँ ॥
भावार्थभाषाः
-विष्णु,
अर्य्य, व्यापक ये तीनों एक ही पदार्थ के नाम
हैं। विष्णु को इस मन्त्र में अर्य्य कहा है और अर्य्य परमात्मा का मुख्य नाम है।
इस विषय में प्रमाण यह है कि “राष्ट्री। अर्यः। नियुत्वान्।
इनइन इति चत्वारीश्वरनामानि ॥” निघं ३।२२॥ राष्ट्री, अर्य्य, नियुत्वान्, इनइन ये
चारों ईश्वर के नाम हैं। अस्तु। जो लोग “इदं
विष्णुर्विचक्रमे” इत्यादि मन्त्रों में विष्णु शब्द के अर्थ
सूर्य्य किया करते हैं, उनको इस मन्त्र के अर्थ से शिक्षा
लेनी चाहिये, क्योंकि उक्त मन्त्र में विष्णु का अर्थ
अर्थात् व्यापक ईश्वर कथन किया है। इससे स्पष्ट है कि विष्णु शब्द के अर्थ व्यापक
ईश्वर के ही हैं, किसी अन्य जड़ वा अल्पज्ञ वस्तु के नहीं ॥५॥
अर्थ :-
हे किरणों से भरे हुए विष्णो ! हे आर्य! आज ज्ञातव्य अन्य विषयों को जानते हुए
आपके उस प्रवृद्ध विष्णु नाम की, अत्यन्त
अवृद्ध हमलोग स्तुति करेंगे; क्योंकि आप इस रजोगुणी लोक से
दूर देश में निवास करते हैं ॥ ५ ॥
किमित्ते॑ विष्णो परि॒चक्ष्यं॑
भू॒त्प्र यद्व॑व॒क्षे शि॑पिवि॒ष्टो अ॑स्मि ।
मा वर्पो॑ अ॒स्मदप॑ गूह
ए॒तद्यद॒न्यरू॑पः समि॒थे ब॒भूथ॑ ॥
अन्वय -
किम् । इत् । ते॒ । वि॒ष्णो॒ इति॑ । प॒रि॒ऽचक्ष्य॑म् । भू॒त् । प्र । यत् ।
व॒व॒क्षे । शि॒पि॒ऽवि॒ष्टः । अ॒स्मि॒ । मा । वर्पः॑ । अ॒स्मत् । अप॑ । गू॒हः॒ ।
ए॒तत् । यत् । अ॒न्यऽरू॑पः । स॒मि॒थे । ब॒भूथ॑ ॥ ७.१००.६
पदार्थान्वयभाषाः
-(विष्णो) हे व्यापक परमेश्वर ! (किं ते) क्या तुम्हारा वह रूप कथन करने योग्य है,
जिसको तुम स्वयं (शिपिविष्टः अस्मि) कि मैं तेजोमय हूँ, अपनी वेदवाणी में कथन करते हो, अर्थात् वह स्वयं
सिद्ध है, किसी के कथन की अपेक्षा नहीं रखता और (यत्) जो
(अन्यरूपः) दूसरा रूप जो (समिथे) संग्राम में (बभूथ) होता है, (एतत्, वर्पः) इस रूप को (अस्मत्) हमसे (मा) मत
(अपगूहः) छिपा ॥
भावार्थभाषाः
-परमात्मा का ‘स्वप्रकाशतेजोमयरूप’ सृष्टि की रचना और पालने से सबको प्रसिद्ध है, अर्थात्
उसकी विचित्र रचना से प्रत्येक सूक्ष्मदर्शी पुरुष जानता है कि यह विविध रचना किसी
सर्वज्ञ तेजोमय परमात्मा से बिना कदापि नहीं हो सकती।दूसरी ओर जो उसका ‘मन्युमयरूप’ है अर्थात् दुष्टों को दमन करनेवाला ओज
है, वह शीघ्र सबकी समझ में नहीं आता, इसलिये
इस मन्त्र में यह बतलाया गया है कि जिज्ञासु जन इसको भी समझने का यत्न करें।(बभूथ)
क्रिया यहाँ भूतकाल की बोधक नहीं, किन्तु वैदिक व्याकरण के
नियम से तीनों कालों का बोधन करती है, अर्थात् परमात्मा
तीनों कालों में रुद्ररूप से दुष्टों का दमन करते हैं।और उस रूप के वर्णन करने का
प्रकरण यहाँ इसलिये बतलाया है कि आगे सातवें अध्याय में उस रूप का विशेषरूप से
वर्णन करना है।कई एक लोग इन दो रूपों के ये अर्थ करते हैं कि एक विष्णु का न देखने
योग्य और न सुनने योग्य रूप है, अर्थात् ऐसा अश्लील लज्जाकर
है, जिसका भले आदमी नाम लेने से भी लज्जा करते हैं।या यों
कहो कि शेप नाम उनके मत में मनुष्य के प्रजा-उत्पादक इन्द्रिय का है। उस जैसे
मुखवाले को ‘शिपिविष्टः’ कहते हैं,
इसलिये उसके देखने का यहाँ निषेध किया है। यह अर्थ सायणाचार्य्य,
महीधरादि सबने किये हैं, जिनकी विशेष समीक्षा
करने से ग्रन्थ बढ़ता है, इसलिये इतना ही कहते हैं कि यह उनकी
अत्यन्त भूल है, क्योंकि निरु० ५।८ में शेप के अर्थ स्वयं
निरुक्तकार ने किये हैं कि ‘शेप’ नाम
प्रकाश का है। प्रकाश से आविष्ट का नाम ‘शिपिविष्ट’ है।हमें यहाँ इनके ऐसे घृणित रूप मानने का उतना शोक नहीं, जितना प्रोफेसर मैक्समूलर, विलसन, ग्रिफिथ और सर रमेशचन्द्रदत्त के ऐसे लज्जाकर अर्थों की ज्यों की त्यों
नकल कर देने का है। ये लोग यदि इस मन्त्र के भाव पर तनिक भी ध्यान देते, तो ऐसे घृणित अर्थ कदापि न करते।और जो यह कहा जाता है कि निरुक्त के
कर्त्ता ने स्वयं यहाँ लज्जाजनक अर्थ किये हैं और यह कहा है कि विष्णु की हँसी
उड़ाने के लिये दूसरा लज्जाप्रधान नाम रखा है। यह कथन उन लोगों का है, जो निरुक्तकार के आशय को न समझ कर अन्यथा टीका-टिप्पणी करते हैं, अस्तु ॥मुख्य बात यह है कि ‘शिपिविष्ट’ नाम ज्योतिःस्वरूप परमात्मा का है, क्योंकि ‘शिपि’ नाम ज्योति का स्वयं निरुक्तकार ने माना है,
यह हम अनेक स्थलों में दर्शा आये हैं ॥६॥
अर्थ :-
हे विष्णो ! यह जो ‘मैं शिपिविष्ट हूँ’-ऐसा आप कहते हैं, वह आपका शिपिविष्ट रूप को छिपाना
क्या उचित है? हमारे लिये अपना रूप मत छिपाइये। यह तो आपका
दूसरा ही रूप है, जो युद्ध के समय धारण किया था ॥ ६ ॥
वष॑ट् ते विष्णवा॒स आ कृ॑णोमि॒
तन्मे॑ जुषस्व शिपिविष्ट ह॒व्यम् ।
वर्ध॑न्तु त्वा सुष्टु॒तयो॒ गिरो॑
मे यू॒यं पा॑त स्व॒स्तिभि॒: सदा॑ नः ॥
अन्वय -
वष॑ट् । ते॒ । वि॒ष्णो॒ इति॑ । आ॒सः । आ । कृ॒णो॒मि॒ । तत् । मे॒ । जु॒ष॒स्व॒ ।
शि॒पि॒ऽवि॒ष्ट॒ । ह॒व्यम् । वर्ध॑न्तु । त्वा॒ । सु॒ऽस्तु॒तयः॑ । गिरः॑ । मे॒ ।
यू॒यम् । पा॒त॒ । स्व॒स्तिऽभिः॑ । सदा॑ । नः॒ ॥ ७.१००.७
पदार्थान्वयभाषाः
-(शिपिविष्ट) हे ज्योतिःस्वरूप परमात्मन् ! (तन्मे हव्यं) आप हमको ऐसा विश्वास दें,
जिससे हम सदैव आपके वशवर्ती बने रहें और आप हमारी भक्ति को (जुषस्व)
सेवन करें। (आस) आपके समक्ष हम (वषट्) श्रद्धा (कृणोमि) प्रकट करते हैं। (मे)
हमारी (गिरः, सुष्टुतयः) प्रार्थनारूप वाणियें (त्वा,
वर्धन्तु) आपके यज्ञ को फैलावें, (यूयं) आप
(स्वस्तिभिः) मङ्गलमय वाणियों से (पात) हमारी सदैव रक्षा करें ॥
भावार्थभाषाः
-इस छठे अध्याय के अन्त में प्रकाशरूप सर्वव्यापक परमात्मा से यह प्रार्थना की गई
है कि आप हमको अत्यन्त उन्नतिशील बनायें और सदैव हमारी रक्षा करें।जो लोग विष्णु
के अर्थ सूर्य्य वा देहधारी विष्णुदेवता के किया करते हैं,
उनको इन सूक्तों से यह ज्ञानलाभ करना चाहिये कि यहाँ तो उस विष्णु
का वर्णन है, जिसके आदि और अन्त का पार कोई कार्य्य-पदार्थ
पा ही नहीं सकता, फिर यहाँ उस सूर्य्य की क्या कथा ? जिसको “सूर्याचन्द्रमसौ धाता यथापूर्वमकल्पयत्”
॥ ऋ. मं. १०।९०।३॥ यह वेदमन्त्र स्वयं कार्य्यरूप से कथन करता है।
इतना ही नहीं, यहाँ तो यहाँ तक वर्णन किया है कि “न ते विष्णो जायमानो न जातो देव महिम्नः परमन्तमाप” ॥
ऋ. ७। सू.९९। मं.२॥ तुम्हारी महिमा को भूत, भविष्यत्,
वर्त्तमान तीनों कालों में उत्पन्न होनेवाला जन्तु तुम्हारे अन्त को
कदापि नहीं पा सकता और वह महिमा अर्थात् महत्त्व “एतावानस्य
महिमातो ज्यायांश्च पूरुषः” ॥ ऋ. मं. १०। सू ९०।३॥ इस
वेदमन्त्र में वर्णित है, फिर यहाँ किसी देहधारी का ग्रहण
कैसे ?इसी प्रकार “इदं
विष्णुर्विचक्रमे” ॥ ऋ. १।२२।१७॥ “विष्णोः
कर्म्माणि पश्यत” ॥ मन्त्र १९ ॥ “तद्
विष्णोः परमं पदं सदा पश्यन्ति सूरयः” मन्त्र २० ॥ इत्यादि
व्यापक विष्णु परमात्मा के वर्णन करनेवाले सब मन्त्रों का तात्पर्य्य साकार
ईश्वरवादियों ने अवतार वा इस भौतिक सूर्य्य के वर्णन में बतलाया है, सो ठीक नहीं, क्योंकि विष्णु के अर्थ सर्वत्रैव
व्यापक परमात्मा के हैं। प्रमाण इसमें ये हैं “विष्णुर्यज्ञः”
॥शत. ६। ५। २। ११ ॥ “तस्मात् यज्ञात् सर्वहुत
ऋचः सामानि जज्ञिरे” ॥ ऋ. मं. १०। सू. ९०। ९ ॥ “यज्ञेन यज्ञमयजन्त देवाः” ॥ ऋ. १०। ९०। १६ ॥ जब उक्त
प्रमाणों में यज्ञ और विष्णु के एक ही अर्थ हैं अर्थात् यज्ञ वह जिससे वेद उत्पन्न
हुए “एतस्य महतो भूतस्य निःश्वसितमेवैतद्यदृग्वेदो यजुर्वेदः
सामवेदोऽथर्वाङ्गिरसः” ॥ बृ० २। ४। १० ॥ यहाँ वेदों का कर्त्ता यजनरूप यज्ञ
नहीं, किन्तु “इज्यते सर्वैः पूज्यत
इति यज्ञः परमात्मा” इस अर्थ से कि जो सबका उपासनीय एकमात्र
देव हो, उसका नाम यहाँ यज्ञ है। एवं तात्पर्य यह निकला कि
यज्ञ, विष्णु, ब्रह्म, ब्रह्मणस्पति, बृहस्पति ये सब नाम एक निराकर
परमात्मा के हैं, तो फिर विष्णु से साकार का ग्रहण कैसे ?“स पर्य्यगाच्छुक्रमकायमव्रणम्” ॥ यजु. ४०। ६ ॥ “न ते विष्णो जायमानो न जातः” ॥ “को अद्धा वेद क इह प्र वोचत्” मं. १०। सू. १२९। ६ ॥ “न तस्य प्रतिमास्ति ॥ यजु० ३२। ३ ॥ “नैनमूर्ध्वं न
तिर्यञ्चम्” ॥ यजु० ३२। २ ॥ इत्यादि शतशः प्रमाण जिसको अकाय
अर्थात् निराकार वर्णन करते हैं, उस परमात्मा का यहाँ विष्णु
नाम से निरूपण किया है। विष्णु शब्द अपने स्वार्थ से अर्थात् जब इसके धातु से इसके
अर्थ इस प्रकार निकलते हैं कि “विष्लृ व्याप्तौ, विषेः किच्च” ॥ उ. ३। ३८ ॥ इस सूत्र से ‘नु’ प्रत्यय करने से विष्णु शब्द सिद्ध होत है,
“वेवेष्टि इति विष्णुः” इसी प्रकार व्यापक
परमात्मा के अर्थ ही सिद्ध होते हैं। इसी अर्थ को वेद, ब्राह्मण,
उपनिषद्, वेदान्तसूत्र एक स्वर से प्रतिपादन
करते हैं कि ईश्वर अजन्मा है अर्थात् निराकार है, अक्षर
अविनाशी है, जैसे कि “कस्मिन्नु
खल्वाकाश ओतश्च प्रोतश्च। स होवाचैतद्वै तदक्षरं गार्गि ब्राह्मणा
अभिवदन्त्यस्थूलमनण्वह्रस्वम्” ॥ बृ. ३। ८। ८ ॥ “आकाशे तदोतञ्च प्रोतञ्च” ॥ बृ. ३। ८। ४ ॥ “ओमित्येतदक्षरम्” मां० १ ॥ “ओमित्येतदक्षरम्”
छा. १। १। १ ॥ “अचक्षुष्कमश्रोत्रमवाग् मनः”। बृ० ३। ८। ८ ॥ “अपाणिपादो जवनो ग्रहीता
पश्यत्यचक्षुः स शृणोत्यकर्णः” ॥ श्वे. ३। १९ ॥ “ऋचोऽक्षरे परमे व्योमन्” ॥ ऋ. २। ३। २१। ३९ ॥ “परमेवाक्षरं प्रतिपद्यते” ॥ प्र. ४। १० ॥ “अथ परा यया तदक्षरमधिगम्यते” ॥ मु. १। १। ५ ॥ “येनाक्षरं पुरुषं वेद सत्यम्” ॥ मु. १। २। १३ ॥
इत्यादि।ब्राह्मण और उपनिषद् के वाक्यों में यह वर्णन किया है कि जो इस चराचर जगत्
का आधार परमात्मा है, वह आकाश में भी ओतप्रोत है अर्थात्
आकाश उससे स्थूल है। वह एकमात्र अक्षर है और चक्षु-श्रोत्रादि ज्ञानेन्द्रिय तथा
हस्त-पादादि कर्मेन्द्रियों से रहित होकर भी सर्वज्ञाता है ॥“अक्षरमम्बरान्तधृतेः” ॥ ब्र. सू. १। ३। १० ॥ में उस
अक्षर को लोक-लोकान्तरों का आधार वर्णन किया है।इतना ही नहीं, किन्तु उसको इन्द्रियगोचर अर्थात् मन वाणी का सर्वथा अविषय माना है,
इस विषय में प्रमाण ये हैं कि “नैव वाचा न
मनसा प्राप्तुं शक्यो न चक्षुषा”। कठ. ६। १२ ॥ “यत्तदद्रेश्यमग्राह्यं”। मु० १। १। ६ ॥ “न चक्षुषा गृह्यते नाषि वाचा नान्यैर्देवैस्तपसा कर्म्मणा वा” ॥ मु० ३। १। ८ ॥ “य इत्तद्विदुस्तेऽमृतत्वमानशुः”
॥ऋ० मं. १। १६४। मं. २६ ॥ जो इस इन्द्रियगोचर को जानते हैं, वे ही अमृतपद को पाते हैं।उक्त वेद तथा उपनिषदों के भाव को ब्रह्मसूत्र
में यों वर्णन किया है कि “तदव्यक्तमाह हि” ॥ ब्र. सू. ३। २। २३ ॥ उसको इस प्रकार वेद अव्यक्त कहता है अर्थात् सूक्ष्मरूप
से वर्णन करता है ॥कई एक लोग इसमें यह शङ्का
करते हैं कि जब वह अक्षर सर्वथा इन्द्रियागोचर अर्थात् किसी भी इन्द्रिय का
विषय नहीं, तो उसका ध्यान किस प्रकार हो सकता है। उनके
प्रश्न का सार यह है कि निराकार पदार्थ ध्यान का विषय नहीं हो सकता।इसका उत्तर यह
है कि ध्यान में दो पदार्थ होते हैं, एक (ध्याता) अर्थात्
ध्यान करनेवाला और दूसरा ध्येय, जिसका ध्यान किया जाता है।
जब ध्यान करनेवाला स्वयं निराकार होकर भी ध्यान कर सकता है अर्थात् उसे ध्यान करने
के लिये किसी स्थूल पदार्थ की आवश्यकता नहीं पड़ती, तो फिर
निराकार ध्यान का विषय क्यों नहीं ?यदि यह कहा जाय कि ध्यान
में कोई न कोई आकार आना चाहिये, तब ध्यान होगा, तो उत्तर यह है कि आकार के अर्थ यहाँ विशेषरूपता के हैं अर्थात् एक प्रकार
की अद्भुत सत्ता के हैं। दृष्टान्त के लिये देखो, जब किसी
जीव को किसी भी आनन्द का अनुभव हो, चाहे वह आनन्द विद्या का
आनन्द हो वा विषयानन्द हो अथवा ब्रह्मानन्द हो, इन तीन
प्रकार के आनन्दों के ध्यान में आने के लिये किसी आकार की आवश्यकता नहीं पड़ती,
किन्तु एक विलक्षण सत्ता की आवश्यकता पड़ती है। इसी प्रकार ईश्वर के
ध्यान में भी एक प्रकार की विलक्षण सत्ता की आवश्यकता है, किसी
विशेष रूप की नहीं। इसी अभिप्राय से उपनिषदों में कहा है कि “यमेवैष वृणुते तेन लभ्यस्तस्यैष आत्मा विवृणुते तनूं स्वाम् ॥ क०। २। २३ ॥
“ज्ञानप्रसादेन विशुद्धसत्त्वस्ततस्तु तं पश्यते निष्कलं
ध्यायमानः” ॥ मु. ३।
१। ८ ॥ जिस पुरुष को परमात्मा अपने ध्यान का पात्र समझता है, उस पुरुष के ज्ञानगोचर होकर उसको प्राप्त होता है अर्थात् अपने ध्यान का
विषय हो जाता है। दूसरे प्रमाण के यह अर्थ हैं कि ज्ञान के प्रभाव से जिस पुरुष का
अन्तःकरण शुद्ध हो गया है, वह ज्ञानी पुरुष उस (निष्कल)
अर्थात् निरञ्जन पुरुष का ध्यान कर सकता है। यदि निराकार पदार्थ ध्यान का विषय न
होता, तो उपनिषदों के कर्त्ता ऋषि लोग उस पुरुष को (निष्कल)
कह कर फिर ध्यान का विषय न कहते, किन्तु उसी (निष्कल)
अर्थात् निराकार को यहाँ ध्यान का विषय माना है। इससे स्पष्ट सिद्ध है कि ईश्वर के
ध्यान के लिये साकार वस्तु की आवश्यकता नहीं।इसी अभिप्राय से जहाँ-जहाँ वेदों में
ईश्वर-योग का निरुपण है, वहाँ सर्वत्रैव निराकार परमात्मा के
साथ योग वर्णन किया गया है, साकार के साथ नहीं, जैसा कि “युञ्जन्ति ब्रध्नमरुषं चरन्तं परि तस्थुषः”
॥ ऋ० मं. १। सू० ६। १ ॥“युञ्जते मन उत युञ्जते धियो विप्रा विप्रस्य बृहतो विपश्चितः” ॥ ऋ० ५। ८१। १॥ इत्यादि मन्त्रों से जहाँ चित्त का परमात्मा में स्थिर
करना लिखा है, वहाँ किसी साकार वस्तु के आधार पर चित्त की
स्थिति नहीं की जाती, किन्तु इस स्थावर जङ्गमात्मक सम्पूर्ण
ब्रह्माण्ड का जो एमात्र आत्मा परमात्मदेव है, उसी में चित्त
की स्थिति की जाती है, इसी का नाम ईश्वरयोग है।चित्त की
स्थिरता के लिये योग कई एक प्रकार के हैं, जैसे कर्म्मयोग,
ज्ञानयोग, ध्यानयोग, ईश्वरयोग।
‘कर्म्मयोग’ उसका नाम है कि जब पुरुष
फल की अभिलाषा छोड़कर कर्म्म में लग जाता है, वह कर्म्म
आत्मसुधार का हो, अथवा देशसुधार का हो, जब उससे भिन्न योगी को अर्थात् कर्म के साथ जुड़नेवाले पुरुष को अन्य कोई
भी वस्तु उससे प्रिय अथवा कल्याणदायक प्रतीत न हो और न वह पुरुष उस कर्म्म के करने
में कोई आत्मपरिश्रम वा कष्ट समझे, किन्तु यह समझे कि यह
मेरा परम कर्त्तव्य है अथवा यों कहो कि कर्म्म से भिन्न वह अपना जीवन न समझे।
वस्तुतः बात भी यही है कि जीना नाम ही कर्म्म का है, क्योंकि
जीने के अर्थ प्राणधारण करना है और प्राण के अर्थ (चेष्टा) अर्थात् कर्म्म करना
है। इस प्रकार कर्म्मयोग के अर्थ यावदायुष अर्थात् अपने समस्त जीवनपर्य्यन्त
कर्म्म करने के हैं। इसी अभिप्राय से वेद ने आज्ञा दी है कि “कुर्वन्नेवेह कर्म्माणि जिजीविषेच्छतं
समाः” यजु० ४०। २॥ कर्म्म करता हुआ सौ वर्ष जीने की
इच्छा करे।इसी प्रकार ज्ञानयोग भी मनुष्य के लिये परम कर्तव्य है। यद्यपि ज्ञान
में कर्त्तव्य नहीं, किन्तु जानना है, तथापि
यह कर्म्म के बिना पङ्गु के समान है। जिस प्रकार पाँच ज्ञानेन्द्रियों के अविकल
अर्थात् यथायोग्य होने पर भी पङ्गु कर्म्मन्द्रियरूपी पादों से रहित पुरुष
चलने-फिरने में असमर्थ होता है एवं कर्म्मरहित पुरुष ज्ञानी होकर भी अभ्युदय और
निःश्रेयस दोनों प्रकार के फलों से वञ्चित रह जाता है, इसलिये
कर्म्मयोग ज्ञानयोग का साधन है।ज्ञानयोग और विद्यायोग यह एक ही पदार्थ के दो नाम
हैं। जो पुरुष विद्या में जुड़ जाता है अर्थात् चित्तवृत्ति को सब ओर से हटाकर
एकमात्र विद्या को ही अपना लक्ष्य समझता है, उसको ‘ज्ञानयोगी’ कहते हैं।ध्यानयोग इससे भिन्न है। वह
प्रायः ईश्वरविषय में ही व्यवहार किया जाता है अर्थात् जब पुरुष सत्कर्म्मी और
ज्ञानी बनकर ईश्वर को अपना लक्ष्य बनाता है, तो उस अवस्था का
नाम ध्यानयोग है। ध्यानयोग और ईश्वरयोग ये दोनों एकार्थवाची शब्द हैं। “ध्यानाच्च” ॥ ब्र० सू० ४। १। ८ ॥ इस सूत्र में इसका
भलीभाँति निरूपण किया गया है कि ईश्वर में ध्यान लगाने से चित्तवृत्ति स्थिर होती
है। इसी का वर्णन योग में इस प्रकार किया है “योगश्चित्तवृत्तिनिरोधः”
॥ यो० १। २ ॥ चित्तवृत्ति
के रोक लेने का नाम ‘योग’ है।प्रकृत यह
है कि ईश्वरयोग तभी हो सकता है, जब पुरुष एकमात्र
परमात्मसत्ता में चित्त को लगा देता है। उस समय उस पुरुष को अपने आत्मवत्
परमात्मसत्ता प्रतीत होती है अर्थात् सर्वव्यापक विष्णु, परमात्मा
उसे अपने आत्मा में अन्तरात्मरूप से प्रतीत होने लगता है। उस अन्तरात्मा का वर्णन
अन्तर्यामी-ब्राह्मण में स्पष्ट है, उसी अन्तर्यामी का नाम
यहाँ विष्णु व बृहस्पति है। विष्णु और बृहस्पति ये एकार्थवाची शब्द हैं अर्थात् ये
दोनों शब्द सर्वव्यापक आत्मशक्ति के निरुपक हैं, किसी
व्यक्तिविशेष के नहीं। इस ध्यानयोग को
वितर्क, विचार, आनन्द, अस्मिता रूप से चार प्रकार का कथन किया गया है।ध्यानावस्था में प्रथम नाना
प्रकार के तर्क उत्पन्न होते हैं। कोई कहता है कि निराकार में ध्यान कैसे लग सकता
है ? और कोई निराकार की सत्ता को ही स्वीकार नहीं करता
अर्थात् जिसका आकार ही नहीं, वह वस्तु ही नहीं, यह भी संशय उत्पन्न होने लगता है। इस प्रकार तर्करूप मल निर्मल
चित्तवृत्ति में समल जल के समान अति तेजोरूप पदार्थ को भी प्रतिबिम्बित नहीं होने
देता।यद्यपि “तर्काऽप्रतिष्ठानात्” ब्र.
सू. २।१।११॥ में तर्क की प्रतिष्ठा नहीं मानी गई अर्थात् उक्त सूत्र में महर्षि
व्यास ने तर्क की निन्दा की है कि तर्क की कहीं भी स्थिति नहीं होती। आज एक बात को
एक बुद्धिमान् एक प्रकार से स्थापन करता है, कल कोई उससे
बुद्धिमान् आ जाता है, तो वह उसको और प्रकार से कहता है
अर्थात् एक से एक बुद्धिमान् संसार में पड़ा है। यदि बुद्धि पर निर्भर कर के धर्म्म
का निर्णय किया जाय, तो अति कठिन हो जायगा। इस प्रकार तर्क
की प्रतिष्ठा नहीं मानी जा सकती।तथापि ऋषि लोगों ने भी तर्क को स्वीकार किया है और
यह कहा है कि “ऋषयो मन्त्रद्रष्टारः” मन्त्रों
के अर्थों को जो लोग समाधि द्वारा अनुसन्धान करें, वे ऋषि
कहलाते हैं। जब इस प्रकार के योगी ऋषि न रहे, तो वैदिक लोगों
ने विचार किया कि अब क्या किया जाय। अब वेद के अर्थ का निश्चय कैसे किया जाय कि
अमुक अर्थ ठीक है, अमुक नहीं, तो कहते
हैं कि उनको तर्क ऋषि मिला अर्थात् जिस बात का निर्णय तर्क=युक्ति कर दे, वही बात सत्य समझनी चाहिये, अन्य नहीं। इस सिद्धान्त
के साथ “तर्काऽप्रतिष्ठानात्” इस व्यास
जी के कथन का विरोध आता है। केवल व्यासजी के कथन के साथ ही उक्त सिद्धान्त का
विरोध नहीं, किन्तु तर्क के साथ भी विरोध है कि जब प्रत्येक
निर्णय तर्क पर रक्खा जाय, तो फिर वेद प्रमाण को कौन मानेगा ?
और उस तर्क का यदि और तर्क से खण्डन हो जाय, तो
भी उसे कौन मानेगा ? इसलिये कोई व्यवस्था होनी चाहिये और वह
व्यवस्था यह है कि “वेदशास्त्राविरोधिना
यस्तर्केणानुसन्धत्ते स धर्म्म वेद नेतरः” ॥ मनु. १२।१०६॥ जो
वेद-शास्त्र के अनुकूल तर्क से धर्म्म का निर्णय करता है, वह
धर्म्म को जानता है, अन्य नहीं।अब शङ्का यह होती है कि यह
कैसे निर्णय किया जाय, कि यह तर्क वेद-शास्त्र का विरोधी है
और यह नहीं ?इसका उत्तर यह है कि इस बात का निर्णय तो स्वयं
वेदभगवान् कर देते हैं कि “को अद्धा वेद क इह प्रवोचत् कुत
आजाता कुत इयं विसृष्टिः” ॥ ऋ. मं.। १०। सू० १२९। ६ ॥कीन
ठीक-ठीक जान सकता है कि यह सृष्टि किस वस्तु से बनी और क्यों इस प्रकार विचित्र है
अर्थात् किसने इसकी विविध प्रकार से रचना की ?यह तर्क है कि
ठीक-ठीक कोई भी नहीं जान सकता कि सृष्टि किसने किस वस्तु से किस प्रकार उत्पन्न की
?इसका उत्तर स्वयं वेद ने आगे के मन्त्र में दिया है कि “योऽस्याध्यक्षः परमे व्योमन्” जो इसका स्वामी इस
महदाकाश में परिपूर्ण हो रहा है, वह स्वयं जानता है। यह
वेदानुकूल तर्क का स्वरूप है।हाँ यदि कोई इसमें यह कहे कि वह क्यों जानता है ?
और यदि जानता है तो उस जाननेवाले का सिर कितना बड़ा है ? क्योंकि इतने बड़े “ब्रह्माण्ड” के जाननेवाले के लिये सिर भी बड़ा होना चाहिये। इस प्रकार के तर्क का नाम
वेदशास्त्रविरोधी तर्क है, वा यों कहो कि ‘कुतर्क’ है।मुख्य प्रसङ्ग यह है कि “वितर्कयोग” की आज्ञा तो वेद स्वयं देता है कि पुरुष
पहले तर्क करके वस्तु का निर्णय करे, पर कुतर्क न करे।
प्रसङ्ग प्राप्त यह बात है कि ध्यान की प्रथम अवस्था का नाम ‘वितर्कयोग’ है अर्थात् उसमें नाना प्रकार का तर्क
बना रहता है। ध्यान की इस प्रथम अवस्था से आगे ध्यान का नाम ‘विचारयोग’ है, जिसमें परमात्मा
के गुणों का विचार किया जाता है कि परमात्मा इस प्रकार इस ब्रह्माण्ड में व्यापक
है। जिस प्रकार विद्युच्छक्ति स्थूल वस्तुओं में व्यापक है वा जैसे जीवात्मा की
शक्ति इस शरीररूप ब्रह्माण्ड में व्यापक है, इस प्रकार
परमात्मा सर्वत्र व्यापक है, इस विचार का नाम ‘आनन्दयोग’ है।जब पुरुष का चित्त बाह्य विषयों से
हटकर अन्तर्मुख होकर विचारयोग में सिद्धि प्राप्त कर लेता है, तो उसे एक प्रकार का आनन्द आने लगता है, इसलिये उक्त
ध्यानयोग की तीसरी अवस्था का नाम ‘आनन्दयोग’ है। इस आनन्द से आगे चतुर्थ अवस्था का नाम अस्मितायोग है अर्थात् इस
अवस्था में पुरुष परमात्मा में अपनी चित्तवृत्ति का ऐसा योग कर देता है कि जिससे
उसे परमात्मा का और अपना भेदभाव प्रतीत नहीं होता।वा यों कहो कि उस समय
परमात्मरूपी अगाध सागर में वह इस प्रकार निमग्न हो जाता है कि उसे आनन्द ही आनन्द
अनुभव होता है, आनन्द से भिन्न उस समय उसकी दृष्टि में कोई
और सत्ता नहीं रहती अर्थात् उस समय ब्रह्म के भावों को वह इस प्रकार अनुभव करता है
कि ब्रह्म से भिन्न उस समय वह किसी वस्तु को अनुभव नहीं करता। इसी अवस्था को “ब्राह्मेण जैमिनिरुपन्यासादिभ्यः”। ब्र. सू. ४-४-५
॥ इसमें यों वर्णन किया है कि उस अवस्था में परब्रह्म को प्राप्त होकर जीव
सत्य-संकल्पादि धर्म्मों को धारण करता है। जिस प्रकार ब्रह्म सत्यसंकल्प है,
उसी प्रकार ब्रह्म के सत्यकामादि धर्म उसे साक्षात् प्रतीत होने
लगते हैं। उस ब्रह्म का आनन्द उसे आत्मानन्द के समान भान होता है।युक्ति इस में यह
है कि जिस प्रकार चित्तवृत्तिनिरोध से आत्मगत आनन्दादि गुण प्रतीत होते हैं,
इसी प्रकार अस्मितायोग से उपासक को ब्रह्मानन्द अपना ही आनन्द
प्रतीत होता है। इसी आनन्द को प्राप्त होकर उपासक को किसी अन्य वस्तु की इच्छा नहीं
रहती। इसी अवस्था का निरूपण उपनिषदों में नदी-समुद्र के दृष्टान्त से किया है कि
जिस प्रकार नदी महासागर को प्राप्त होकर इस प्रकार महत्त्व को धारण कर लेती है कि
उसमें और महासागर में कोई भेद-भाव प्रतीत नहीं
होता। वास्तव में नदी का क्षुद्र भाव और समुद्र का महान् भाव उस समय एकत्व
को धारण किये हुए प्रतीत होता है। इसी भाव को “पुरुष एवेदं
सर्वं यद्भूतं यच्च भाव्यम्। उतामृतत्वस्येशानो यदन्नेनातिरोहति ॥” यजु० ३१। २ ॥ इत्यादि मन्त्रों में वर्णन किया कि यह जो कुछ चराचर जगत् है,
यह सब ईश्वराश्रित है। इसी अवस्था का नाम अद्वैतावस्था है। इसी को
महर्षि व्यास ने “अविभागेन तु दृष्टत्वात्” ॥ ब्र. सू. ४। ४। ४ ॥ इत्यादि सूत्रों में निरूपण किया है कि उस ब्रह्म
में उपासक अविभागावस्था को प्राप्त होकर अर्थात् एकत्व योग को प्राप्त होकर स्थिर
होता है। उस अवस्था को ऋग्वेद में इस प्रकार वर्णन किया है कि−“अनीदवातं स्वधया तदेकं तस्माद्धान्यन्न परः किं चनास ॥” ऋ. १०। १२९। २ ॥ प्रलयकाल में ब्रह्म अपनी प्रकृति व जीव रूप शक्ति को
अपने भीतर लय लेता है अर्थात् उस समय उनकी कोई भिन्न सत्ता प्रतीत नहीं होती। इसी
प्रकार अस्मितायोग में उपासक की भिन्न सत्ता प्रतीत नहीं होती। अस्मितायोग,
समाधि, ब्रह्मभाव ये सब एकार्थवाचीशब्द हैं।
इसी अवस्था को “तत्त्वमसि” “अहं
ब्रह्मास्मि” इत्यादि वाक्य निरूपण करते हैं। इस अवस्था को
प्राप्त होकर योगी अपने में अपार सत्ता को अनुभव करता है। उस अपार सत्ता के सहारे
उसे अपने में किञ्चिन्मात्र भी दुर्बलता प्रतीत नहीं होती। इसी ईश्वरयोग के उच्च
शिखर पर आरूढ़ होकर श्रीकृष्णजी ने गीता में यह कहा है कि “पश्य
मे योगमैश्वरम्” मेरे ईश्वरविषयक योग को अनुभव करो। इस
अवस्था में उपासक दृढ़ता के साथ यह कह सकता है कि “मैं ईश्वर
का ध्यान करता हूँ वा मैं उसको जानता हूँ”, इसका प्रतिपादक
वेद का यह मन्त्र है “वेदाहमेतं पुरुषं महान्तमादित्यवर्णं
तमसः परस्तात्। तमेव विदित्वाऽतिमृत्युमेति नान्यः पन्था विद्यतेऽयनाय” ॥ यजु. ३१। १८ ॥जो अन्धेरे से प्रकाश के समान अविद्या से परे है, जिसकी अखण्डनीय सत्ता है और सबसे बड़ा अर्थात् ‘विष्णु’
व्यापकरूप से सब में व्यापक हो रहा है, उस
पूर्ण पुरुष को मैं जानता हूँ। यह ध्यानयोग की चौथी अवस्था है, इसको अस्मितायोग भी कहते हैं।इस विषय को वेद इस प्रकार वर्णन करता है “योगाय योक्तारम्” ॥ यजु. ३०। १४ ॥ “सह योगं भजन्तु मे” ॥ अथर्व. का. १९। ८। २ ॥ “योगे योगे तवस्तरं वाजे वाजे हवामहे” ॥ अथर्व १९।
२४। ७ ॥ “सीरा युञ्जन्ति कवयो युगा वितन्वते पृथक्” ॥ यजु. १२। ६७ ॥“युञ्जे वाचं शतपदीम्” ॥ सा. उ. ९। २। ७ ॥ कि परमात्मा
आध्यात्मिक विद्या के लिये योगी जनों को उत्पन्न करता है और जीवों की प्रार्थना
में अभ्युदयादि सुखों के साथ योगानन्दादि सुखों की प्रार्थनायें भी पाई जाती
हैं। इतना ही नहीं, किन्तु
ऋग्वेद और यजुर्वेद में तो योगविद्या का विधान भी भलीभाँति पाया जाता है, जैसे कि “सीरा युञ्जन्ति कवयः” विद्वान् लोग सुषुम्नादि नाड़ियों द्वारा योग करते हैं और योगविद्या-विषय
में ऋग्वेद के दो मन्त्र हम प्रथम प्रमाण दे आये हैं। इस प्रकार व्यापक परमात्मा
में चित्त स्थिर करने का नाम योग है और वह व्यापक परमात्मा यहाँ विष्णु नाम से
निरूपण किया गया। “यो वेवेष्टि व्याप्नोति चराचरं जगत् स
विष्णुः” जो परमात्मा इस चराचर ब्रह्माण्ड (व्याप्य) को
एकदेश में स्थिर करके अधिकरणरूप से विराजमान है, उसका नाम
यहाँ ‘विष्णु’ है।इस अन्तरात्मा को
अन्तर्यामी-ब्राह्मण में विशेषरूप से वर्णन किया गया है। उसी का नाम यहाँ विष्णु
वा बृहस्पति है। विष्णु, बृहस्पति, अन्तर्यामी
ये सब सर्वव्यापक आत्मशक्ति के नाम हैं, किसी व्यक्तिविशेष
के नहीं ॥
अर्थ :-
हे विष्णो ! मैं आपके लिये मुख से वषट्कार करता हूँ । हे शिपिविष्ट ! मेरे उस हव्य
को स्वीकार कीजिये। मेरी की हुई सुन्दर स्तुतियों से आपकी वृद्धि हो और आप सदा
हमारा स्वस्ति द्वारा पालन करें ॥ ७ ॥
विष्णु सूक्तम् सम्पूर्ण ॥
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