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अंधकासुर या अंधक पुराणों में वर्णित एक असुर है। विभिन्न पुराणों में कई
मत दिए गए हैं। अंधक बड़ा ही शक्तिशाली व शरीर से कुरूप था। भगवान शिव से युद्ध
करते हुए इन्होने शिवजी की स्तुति किया। जिससे प्रसन्न होकर शिव ने इन्हें अपने
श्रेष्ठ गणों में स्थान दिया। अंधकासुर द्वारा किया गया यह स्तुति श्रीस्कन्दमहापुराण
के अवन्तीखण्ड में अन्धककृत शिवस्तुति नाम
से दिया गया है। इसके पाठ से मनुष्य की सभी अभिलाषाएं पूर्ण होती है।
अन्धक उवाच -
कृत्स्नस्य योऽस्य जगतः सचराचरस्य
कर्ता कृतस्य च तथा
सुखदुःखहेतुः ।
संहारहेतुरपि यः पुनरन्तकाले
तं शङ्करं शरणदं शरणं व्रजामि ॥ १॥
अन्धक ने कहा-जो चराचर प्राणियों सहित
इस सम्पूर्ण जगत् को उत्पन्न करनेवाले हैं, उत्पन्न
हुए जगत् के सुख-दुःख में एकमात्र कारण हैं तथा अन्तकाल में जो पुनः इस विश्व के
संहार में भी कारण बनते हैं, उन शरणदाता भगवान श्रीशंकर की
मैं शरण लेता हूँ ॥ १॥
यं योगिनो विगतमोहतमोरजस्का
भक्त्यैकतानमनसो
विनिवृत्तकामाः ।
ध्यायन्ति निश्चलधियोऽमितदिव्यभावं
तं शङ्करं शरणदं शरणं व्रजामि ॥ २॥
जिनके हृदय से मोह,
तमोगुण और रजोगुण दूर हो गये हैं, भक्ति के
प्रभाव से जिनका चित्त भगवान के ध्यान में लीन हो रहा है, जिनकी
सम्पूर्ण कामनाएँ निवृत्त हो चुकी हैं और जिनकी बुद्धि स्थिर हो गयी है, ऐसे योगी पुरुष अपरिमेय दिव्यभाव से सम्पन्न जिन भगवान शिव का निरन्तर
ध्यान करते रहते हैं, उन शरणदाता भगवान श्रीशंकर की मैं शरण
लेता हूँ ॥ २॥
यश्चेन्दुखण्डममलं विलसन्मयूखं
बद्ध्वा सदा प्रियतमां शिरसा
बिभर्ति
यश्चार्धदेहमददाद् गिरिराजपुत्र्यै
तं शङ्करं शरणदं शरणं व्रजामि ॥ ३॥
जो सुन्दर किरणों से युक्त निर्मल
चन्द्रमा की कला को जटा-जूट में बाँधकर अपनी प्रियतमा गंगाजी को मस्तक पर धारण
करते हैं, जिन्होंने गिरिराजकुमारी उमा को अपना आधा शरीर दे दिया है, उन शरणदाता भगवान श्रीशंकर की मैं शरण लेता हूँ ॥ ३॥
योऽयं सकृद्विमलचारुविलोलतोयां
गग्ङां महोर्मिविषमां गगनात्
पतन्तीम् ।
मूर्ध्नाऽऽददे स्रजमिव
प्रतिलोलपुष्पां
तं शङ्करं शरणदं शरणं व्रजामि ॥ ४॥
आकाश से गिरती हुई गंगाजी को,
जो स्वच्छ, सुन्दर एवं चंचल जलराशि से युक्त
तथा ऊँची-ऊँची लहरों से उल्लसित होने के कारण भयंकर जान पड़ती थीं, जिन्होंने हिलते हुए फूलों से सुशोभित माला की भाँति सहसा अपने मस्तक पर
धारण कर लिया, उन शरणदाता भगवान श्रीशंकर को मैं शरण लेता
हूँ ॥ ४॥
कैलासशैलशिखरं प्रतिकम्प्यमानं
कैलासश्रृङ्गसदूशेन दशाननेन ।
यः पादपद्यपरिवादनमादधानस्तं
शङ्करं शरणदं शरणं व्रजामि ॥ ५॥
कैलास पर्वत के शिखर के समान ऊँचे
शरीरवाले दशमुख रावण के द्वारा हिलायी जाती हुई कैलासगिरि की चोटी को जिन्होंने
अपने चरणकमलों से ताल देकर स्थिर कर दिया, उन
शरणदाता भगवान श्रीशंकर की मैं शरण लेता हूँ ॥ ५॥
येनासकृद् दितिसुताः समरे निरस्ता
विद्याधरोरगगणाश्च वरैः समग्राः ।
संयोजिता मुनिवराः फलमूलभक्षा-
स्तं शङ्करं शरणदं शरणं व्रजामि ॥
६॥
जिन्होंने अनेक बार दैत्यों को
युद्ध में परास्त किया है और विद्याधर, नागगण
तथा फल-मूल का आहार करनेवाले सम्पूर्ण मुनिवरों को उत्तम वर दिये हैं, उन शरणदाता भगवान श्रीशंकर की मैं शरण लेता हूँ ॥ ६॥
दग्ध्वाध्वरं च नयने च तथा भगस्य
पूष्णस्तथा दशनपङ्किमपातयच्च ।
तस्तम्भ यः कुलिशयुक्तमहेन्द्रहस्तं
तं शङ्करं शरणदं शरणं व्रजामि ॥ ७॥
जिन्होंने दक्ष का यज्ञ भस्म करके
भग देवता की आँखें फोड़् डालीं और पूषा के सारे दाँत गिरा दिये तथा वञ्रसहित
देवराज इन्द्र के हाथ को भी स्तम्भित कर दिया-जडवत् निश्चेष्ट बना दिया, उन शरणदाता भगवान श्रीशंकर की मैं शरण लेता हूँ ॥ ७॥
एनस्कृतोऽपि विषयेष्वपि सक्तभावा
ज्ञानान्वयश्रुतगुणैरपि नैव युक्ताः
।
यं संश्रिताः सुखभुजः पुरुषा भवन्ति
तं शङ्करं शरणदं शरणं व्रजामि ॥ ८॥
जो पापकर्म में निरत और विषयासक्त
हैं,
जिनमें उत्तम ज्ञान, उत्तम कुल, उत्तम शास्त्र-ज्ञान और उत्तम गुणों का भी अभाव है-ऐसे पुरुष भी जिनकी शरण
में जाने से सुखी हो जाते हैं, उन शरणदाता भगवान श्रीशंकर की
मैं शरण लेता हूँ ॥ ८॥
अत्रिप्रसूतिरविकोटिसमानतेजाः
सन्त्रासनं विबुधदानवसत्तमानाम् ।
यः कालकूटमपिबत् समुदीर्णवेगं
तं शङ्करं शरणदं शरणं व्रजामि ॥ ९॥
जो तेज में करोड़ों चन्द्रमाओं और
सूर्यो के समान हैं, जिन्होंने बड़े-बड़े
देवताओं तथा दानवों का भी दिल दहला देनेवाले कालकूट नामक भयंकर विष का पान कर लिया
था, उन प्रचण्ड वेगशाली शरणदाता भगवान श्रीशंकर की मैं शरण
लेता हूँ ॥ ९॥
ब्रहोनद्ररुद्रमरुतां च सषण्मुखानां
योऽदाद् वरांश्च बहुशो भगवान महेशः
।
नन्दिं च मृत्युवदनात् पुनरुज्जहार
तं शङ्करं शरणदं शरणं व्रजामि ॥ १०॥
जिन भगवान महेश्वर ने कार्तिकेय सहित
ब्रह्मा,
इन्द्र, रुद्र तथा मरुद्गणों को अनेकों बार वर
दिये हैं और नन्दी का मृत्यु के मुख से उद्धार किया, उन
शरणदाता भगवान श्रीशंकर की मैं शरण लेता हूँ ॥ १०॥
आराधितः सुतपसा हिमवन्निकुञ्जे
धूप्रव्रतेन मनसाऽपि परैरगम्यः ।
सञ्जीवनी समददाद् भृगवे महात्मा
तं शङ्करं शरणदं शरणं व्रजामि ॥ ११॥
जो दूसरों के लिये मन से भी आगम्य
हैं,
महर्षि भृगु ने हिमालय पर्वत के निकुंज में होम का धुआँ पीकर कठोर
तपस्या के द्वारा जिनको आराधना की थी तथा जिन महात्मा ने भृगु को (उनकी तपस्या से प्रसन्न
होकर) संजीवनी विद्या प्रदान की, उन शरणदाता भगवान श्रीशंकर की
मैं शरण लेता हुँ ॥ ११॥
नानाविधैर्गजबिडालसमानवक्त्रै-
र्दक्षाध्वरप्रमथनैर्बलिभिर्गणौघैः ।
योऽभ्यर्च्यतेऽमरगणैश्च सलोकपालै-
स्तं शङ्करं शरणदं शरणं व्रजामि ॥
१२॥
हाथी और बिल्ली आदि की-सी
मुखाकृतिवाले तथा दक्षयज्ञ का विनाश करनेवाले नाना प्रकार के महाबली गणों द्वारा
जिनकी निरन्तर पूजा होती रहती है एवं लोकपालों सहित देवगण भी जिनकी आराधना किया करते
हैं,
उन शरणदाता भगवान् श्रीशंकर की मैं शरण लेता हूँ ॥ १२॥
क्रोडार्थमेव भगवान भुवनानि सप्त
नानानदीविहगपादपमण्डितानि ।
सब्रह्मकानि व्यसृजत् सुकृताहितानि
तं शङ्करं शरणदं शरणं व्रजामि ॥ १३॥
जिन भगवान ने अपनी क्रीडा के लिये
ही अनेकों नदियों, पक्षियों और वृक्षों
से सुशोभित एवं ब्रह्माजी से अधिष्ठित सातों भुवनों की रचना की है तथा जिन्होंने
सम्पूर्ण लोकों को अपने पुण्य पर ही प्रतिष्ठित किया है, उन
शरणदाता भगवान श्रीशंकर की मैं शरण लेता हूँ ॥ १३॥
यस्याखिलं जगदिदं वशवर्ति नित्यं
योऽष्टाभिरिव तनुभिर्भुवनानि भुङ्के
।
तं शङ्करं शरणदं शरणं व्रजामि १४॥
यह सम्पूर्ण विश्व सदा ही जिनकी
आज्ञा के अधीन है, जो (जल, अग्नि, यजमान, सूर्य, चन्द्रमा, आकाश, वायु और
प्रकृति-इन) आठ विग्रहों से समस्त लोकों का उपभोग करते हैं तथा जो बड़े-से-बड़े कारण-तत्त्वों
के भी महाकारण हैं, उन शरणदाता भगवान श्रीशंकर की मैं शरण
लेता हूँ ॥ १४॥
शङ्खेन्दुकुन्दधवलं वृषभप्रवीर-
मारुह्य यः
क्षितिधरेन्द्रसुतानुयातः ।
यात्यम्बरे हिमविभूतिविभूषिताङ्ग-
स्तं शङ्करं शरणदं शरणं व्रजामि ॥
१५॥
जो अपने श्रीविग्रह को हिम और भस्म से
विभूषित करके शंख, चन्द्रमा और कुन्द के
समान शश्वेतवर्ण वाले वृषभश्रेष्ठ नन्दी पर सवार होकर गिरिराजकिशोरी उमा के साथ
आकाश में विचरते हैं, उन शरणदाता भगवान श्रीशंकर की में शरण
लेता हूँ॥ १५॥
शान्तं मुनिं यमनियोगपरायणं तै-
भीमैर्यमस्य पुरुषैः प्रतिनीयमानम्
।
भक्त्या नतं स्तुतिपर प्रसभं ररक्ष
तं शङ्करं शरणदं शरणं व्रजामि ॥ १६॥
यमराज को आज्ञा के पालन में लगे
रहने पर भी जिन्हें वे भयंकर यमदूत पकड़्कर लिये जा रहे थे तथा जो भक्ति से नम्र
होकर स्तुति कर रहे थे, उन शान्त मुनि की
जिन्होंने बलपूर्वक यमदूतों से रक्षा की, उन शरणदाता भगवान
श्रीशंकर की मैं शरण लेता हूँ ॥ १६॥
यः सव्यपाणिकमलाग्रनखेन देव-
स्तत् पञ्चमं प्रसभमेव पुरः
सुराणाम् ।
ब्राह्मं शिरस्तरुणपद्मनिभं चकर्त
तं शङ्करं शरणदं शरणं व्रजामि ॥ १७॥
जिन्होंने समस्त देवताओं के सामने
ही ब्रह्माजी के उस पाँचवें मस्तक को, जो
नवीन कमल के समान शोभा पा रहा था, अपने बायें हाथ के नख से
बलपूर्वक काट डाला था, उन शरणदाता भगवान श्रीशंकर की मैं शरण
लेता हूँ॥। १७॥
यस्य प्रणम्य चरणौ वरदस्य भक्त्या
स्तुत्वा च वाग्भिरमलाभिरतन्द्रिताभिः
।
दीप्तैस्तमांसि नुदते
स्वकरैर्विवस्वां-
स्तं शङ्करं शरणदं शरणं व्रजामि ॥
१८॥
जिन वरदायक भगवान के चरणों में
भक्तिपूर्वक प्रणाम करके तथा आलस्यरहित निर्मल वाणी के द्वारा जिनकी स्तुति करके
सूर्यदेव अपनी उद्दीप्त किरणों से जगत का अन्धकार दूर करते हैं,
उन शरणदाता भगवान श्रीशंकर की मैं शरण लेता हूँ ॥ १८॥
॥ इति श्रीस्कन्दमहापुराणे
अवन्तीखण्डे अन्धककृता शिवस्तुतिः सम्पूर्णा ॥
॥ इस प्रकार श्रीस्कन्दमहापुराण मे अवन्तीखण्ड में अन्धककृत शिवस्तुति सम्पूर्ण हुई ॥
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