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अगहन बृहस्पति व्रत व कथा
मार्तण्ड भैरव स्तोत्रम्
श्रीकृष्ण स्तोत्र सांदीपनि कृत
गुरु सांदीपनि और गुरुपत्नी द्वारा
किया गया यह श्रीकृष्ण स्तोत्र महान पुण्यदायक है। जो मनुष्य भक्तिपूर्वक इसका पाठ
करता है,
उसकी निःसंदेह श्रीकृष्ण में निश्चल भक्ति हो जाती है। इसके प्रभाव
से कीर्तिहीन परम यशस्वी और मूर्ख पण्डित हो जाता है। वह इस लोक में सुख भोगकर अंत
में श्रीहरि के पद को प्राप्त होता है। वहाँ उसे नित्य श्रीहरि की दासता सुलभ रहती
है, इसमें तनिक भी संशय नहीं है।
मुनिवर सांदीपनि ने हर्षपूर्वक
मधुपर्कप्राशन, गौ, वस्त्र
और चंदन द्वारा श्रीकृष्ण का आदर-सत्कार किया, मिष्टान्न
भोजन कराया, सुवासित पान का बीड़ा दिया, मधुर वार्तालाप किया और उन परमेश्वर का स्तवन करते हुए कहा।
श्रीकृष्ण स्तोत्रम् सांदीपनि कृतं
सांदीपनिरुवाच
परं ब्रह्म परं धाम परमीश परात्पर ।
स्वेच्छामयं
स्वयंज्योतिर्निलिप्तैको निरङ्कुशः ।। १ ।।
भक्तैकनाथ भक्तेष्ट
भक्तानुग्रहविग्रह ।
भक्तवाञ्छाकल्पतरो भक्तानां
प्राणवल्लभ ।। २ ।।
सांदीपनि बोले- भक्तों के
प्राणवल्लभ! तुम परब्रह्मा, परमधाम, परमेश्वर, परात्पर, स्वेच्छामय,
स्वयं ज्योति, निर्लिप्त, अद्वितीय, निरंकुश, भक्तों के
एकमात्र स्वामी, भक्तों के इष्टदेव, भक्तानुग्रहमूर्ति
और भक्तों का मनोरथ पूर्ण करने के लिए कल्पतरु हो।
मायया बालरूपोऽसि
ब्रह्मेशशेषवन्दितः ।
मायया भुवि भूपाल भुवो भारक्षयाय च
।। ३ ।।
ब्रह्मा,
शिव और शेष तुम्हारी वन्दना करते हैं। तुम पृथ्वी का भार हरण करने
के लिए इस भूतल पर मायावश बालरूप में अवतीर्ण हुए हो और माया से ही भूपाल बने हो।
योगिनो यं विदन्त्येवं
ब्रह्मज्योतिः सनातनम् ।
ध्यायन्ते भक्तनिवहा
ज्योतिरभ्यन्तरे मुदा ।। ४ ।।
द्विभुजं मुरलीहस्तं सुन्दरं
श्यामहुपकम् ।
चन्दनोक्षितसर्वाङ्गं सस्मितं
भक्तवत्सलम् ।। ५ ।।
पीताम्बरधरं देवं वनमालविभूषितम् ।
लीलापाङ्गतरङ्गैश्च
निन्दितानङ्गमूर्च्छितम् ।। ६ ।।
योगीलोग जिसे सनातन ब्रह्मज्योति
जानते हैं, भक्तगण अपने हृदय में जिस
ज्योति का हर्षपूर्वक ध्यान करते हैं, जिनके दो भुजाएँ हैं,
हाथ में मुरली सुशोभित है, सर्वांग में चंदन
का अनुलेप लगा हुआ है, जिनका सुन्दर श्याम रूप है, जो मन्द मुस्कानयुक्त, भक्तवत्सल, पीताम्बरधारी, वनमाला विभूषित और लीला-कटाक्षों से
कामदेव को उपहासास्पद एवं मूर्च्छित कर देने वाले हैं।
अलक्तभवनं तद्वत्पादपद्मं सुशोभनम्
।
कौस्तुभोद्भासिताङ्गं च
दिव्यमूर्तिं मनोहरम् ।। ७ ।।
जिनका चरणकमल अलक्तक के उत्पत्ति
स्थान की भाँति अत्यंत शोभायमान है और शरीर कौस्तुभमणि से उद्भासित हो रहा है,
जिनकी मनोहर दिव्य मूर्ति है।
ईषद्धास्यप्रसन्नं च सुवेषं
प्रस्तुतं सुरैः ।
देवदेवं जगन्नाथं त्रेलोक्यमोहनं
परम् ।। ८ ।।
कोटिकन्दर्पलीलाभं कमनीयमनीश्वरम् ।
अमूल्यरत्ननिर्माणभूषणौघेन भूषितम्
।। ९ ।।
वरं वरण्यं वरदं वरदानामभीप्सितम् ।
चतुर्णामपि वेदानां कारणानां च
कारणम् ।। १० ।।
जो हर्षवश मन्द-मन्द मुस्करा रहे
हैं,
जिनका सुंदर वेश है, देवगण जिनकी स्तुति करते
हैं, जो देवों के देव, जगदीश्वर,
त्रिलोकी को मोहित करने वाले, सर्वश्रेष्ठ,
करोड़ो कामदेवों की सी कान्तिवाले, कमनीय,
ईश्वर रहित (स्वयं ईश्वर), अमूल्य रत्नों के
बने हुए भूषणों से विभूषित, श्रेष्ठ सर्वोत्तम, वरदाता, वरदाताओं के इष्टदेव और चारों वेदों तथा
कारणों के भी कारण हैं।
पाठार्थ मत्प्रियस्थानमागतोऽसि च
मायया ।
पाठं ते लोकशिक्षार्थं रमणं गमनं
रणम् ।
स्वात्मारामस्य च विभोः
परिपूर्णतमस्य च ।। ११ ।।
वही तुम लीलावश पढ़ने के लिए मेरे
प्रिय स्थान पर आये हो। तुम तो स्वात्मा में रमण करने वाले,
सर्वव्यापी एवं परिपूर्णतम हो; अतः तुम्हारे
विद्याध्ययन, रमण, गमन और युद्ध आदि
सभी कार्य लोक शिक्षा के लिए हैं।
श्रीकृष्ण स्तोत्रम् सांदीपनि कृतं
गुरुपत्नी कृतं श्रीकृष्ण स्तोत्रम्
तत्पश्चात गुरुपत्नी ने श्रीकृष्ण
की स्तुति कहा –
गुरुपत्न्युवाच
अद्य मे सफलं जन्म सफलं जीवनं मम ।
पातिव्रत्यं च सफलं सफलं च तपोवनम्
।। १ ।।
गुरुपत्नी बोलीं- प्रभो! आज मेरा
जन्म,
जीवन, पातिव्रत्य तथा तपोवन का वास सफल हो
गया।
मद्दक्षहस्तः सफलो दत्तं
येनान्नमीप्सितम् ।
तदाश्रमं तीर्थपरं
तीर्थपादपदाङ्कितम् ।। २ ।।
मैंने जिस हाथ से तुम्हें इच्छित
अन्न प्रदान किया है, वह मेरा दाहिना हाथ
सफल हो गया। जो आश्रम तीर्थपाद भगवान के चरण से चिह्नित है; वह
तीर्थ से भी बढ़कर है।
त्वत्पादरजसा पूता गृहाः
प्राङ्गणमुत्तमम् ।
त्वत्पादपद्मं दृष्ट्वा
चैवाऽऽवयोर्जन्मखण्डनम् ।। ३ ।।
उनकी चरणरज से गृह पावन और आँगन
उत्तम हो जाते हैं। तुम्हारा चरणकमल हम दोनों के जन्म-मरण का निवारक है।
तावद्दुःखं च शोकश्च तावद्भोगश्च
रोगकः ।
तावज्जन्मानि कर्माणि
क्षुत्पिपासादिकानि च ।। ४ ।।
यावत्त्वत्पादपद्मस्य भजनं नास्ति
दर्शनम् ।
हे कालकाल भगवन्स्रष्टुः
संहर्तुरीश्वर ।। ५ ।।
कृपां कुरु कृपानाथ मायामोहनिकृन्तन
।
इत्युक्त्वा साश्रुनेत्रा सा क्रोडे
कृत्वा हरिं पुनः ।। ६ ।।
क्योंकि दुःख,
शोक, भोग, रोग, जन्म, कर्म, भूख-प्यास आदि तभी
तक कष्टप्रद होते हैं, जब तक तुम्हारे चरण-कमल का दर्शन और
भजन नहीं होता। हे भगवान! तुम काल के भी काल, सृष्टिकर्ता
ब्रह्मा और संहारकारक शिव के भी ईश्वर तथा माया-मोह के विनाशक हो। कृपानाथ! मुझ पर
कृपा करो। इतना कहते-कहते गुरुपत्नी के नेत्रों में आँसू छलक आये।
इतिo श्रीब्रह्मवैवर्त महापुराणे श्रीकृष्णजन्मखण्डे उत्तरार्द्धे नारदनाo श्रीकृष्ण स्तोत्रम् सांदीपनि व सांदीपनि पत्नी कृतं (मुनिपत्नीस्तोत्रं) नाम द्व्यधिकशततमोऽध्यायः ।। १०२ ।।
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