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अगहन बृहस्पति व्रत व कथा
मार्तण्ड भैरव स्तोत्रम्
श्रीकृष्ण स्तुति राधाकृत
गोलोक गमन से पूर्व भगवान श्रीकृष्ण
ने कहा- अपने माता-पिता जी को अब अपने व्रज लौटने तथा परम श्रेष्ठ यशस्विनी माता यशोदे!
तुम भी उत्तम गोकुल को जाओ और वहाँ आयु के शेष कालपर्यन्त भोगों का उपभोग करो।
इतना कहकर भगवान श्रीकृष्ण माता-पिता की आज्ञा ले राधिका के स्थान को चले गये तथा
नन्द जी गोकुल को प्रस्थित हुए। वहाँ पहुँचकर श्रीकृष्ण ने मुस्कराती हुई सुंदरी
राधा को देखा।
ददर्श राधा रुचिरां मुक्ताहारां च
सस्मिताम् ।
यथा द्वादशवर्षीयां
शश्वत्सुस्थिरयौवनाम् ।।
उनकी तरुणता नित्य स्थिर रहने वाली
थी,
जिससे उनकी अवस्था द्वादश वर्ष की थी। मोतियों का हार उनकी शोभा
बढ़ा रहा था;
रत्नोच्चैरासनस्था च
गोपीत्रिशतकोटिभिः ।
आवृता वेत्रहस्ताभिः सस्मिताभिश्च
सांप्रतम् ।।
वे रत्ननिर्मित ऊँचे आसन पर
विराजमान थीं। उस समय मुस्कराती हुई असंख्य गोपियाँ हाथों में बेंत लिए उन्हें
घेरे हुए थीं।
उधर प्राणवल्लभा राधा ने भी दूर से
ही श्रीकृष्ण को आते देखा।
शिशुवेषं सुवेषं च सुन्दरेशं च
सस्मितम् ।
नवींनजलदश्यामं पींतकौशेयवाससम् ।
चन्दनोक्षितसर्वाङ्गं
रत्नभूषणभूषितम् ।।
उनका परम सौंदर्यशाली सुंदर बालक
वेष था। वे मंद-मंद मुस्करा रहे थे। उनके शरीर की कान्ति नवीन मेघ के समान श्याम
थी;
उनका सर्वांग चंदन से अनुलिप्त था; रत्नों के
आभूषण उन्हें सुशोभित कर रहे थे।
मयूरपिच्छचूडं च मालतीमाल्यशोभितम्
।
ईषद्धास्यप्रसन्नास्यं
भक्तानुप्रहविग्रहम् ।।
उनकी शिखा में मयूर-पिच्छ शोभा दे
रहा था;
वे मालती की माला से विभूषित थे; उनका
प्रसन्नमुख मन्द हास्य की छटा बिखेर रहा था; वे साक्षात
भक्तानुग्रहमूर्ति थे।
क्रीडाकमलमम्लानं धृतवन्तं मनोहरम्
।
मुरलीहस्तविन्यस्तं सुप्रशस्तं च
दर्पणम् ।।
तथा मनोहर प्रफुल्ल क्रीडा कमल लिए
हुए थे;
उनके एक हाथ में मुरली और दूसरे हाथ में सुप्रशस्त दर्पण शोभा पा
रहा था।
उन्हें देखकर राधा तुरंत ही गोपियों
के साथ उठ खड़ी हुईं और परम भक्तिपूर्वक उन परमेश्वर को सादर प्रणाम करके उनकी
स्तुति करने लगीं।
श्रीकृष्ण स्तुति: राधाकृतम्
राधिकोवाच
अद्य मे सफलं जन्मजीवितं च
सुजीवितम् ।
यद्दृष्ट्वा मुखचन्द्रं ते
सुस्निग्धं लोचनं मनः ।। १५ ।।
राधिका बोलीं- नाथ! तुम्हारे
मुखचंद्र को देखकर आज मेरा जन्म लेना सार्थक और जीवन धन्य हो गया तथा मेरे नेत्र
और मन परम प्रसन्न हो गये।
पञ्च प्राणाश्च स्निग्धाश्च
परमात्मा च सुप्रियः ।
उभयोर्हर्षबीजं च दुर्लभं
बन्धुदर्शनम् ।। १६ ।।
पाँचों प्राण स्नेहार्द्र और आत्मा
हर्षविभोर हो गया; दुर्लभ बन्धुदर्शन
दोनों (द्रष्टा और दृश्य) के हर्ष का कारण होता है।
शोकार्णवे निमग्नाऽहं प्रदग्धा
विरहानलैः ।
त्वद्दृष्ट्याऽमृतवृष्ट्या च
सुसिक्ताऽद्य सुशीतला ।। १७ ।।
विरहाग्नि से जली हुई मैं शोकसागर
में डूब रही थी। तुमने अपनी पीयूषवर्षिणी दृष्टि से मेरी ओर निहारकर मुझे भलीभाँति
अभिषिक्त कर दिया; जिससे मेरा ताप
जाता रहा।
शिवा शिवप्रदाऽहं च शिवबीजा त्वया
सह ।
शि (श) व स्वरूपा
निश्चेष्टाऽप्यदृश्या च त्वया विना ।। १८ ।।
तुम्हारे साथ रहने पर मैं शिवा,
शिवप्रदा, शिवबीजा और शिवस्वरूपा हूँ; किंतु तुमसे वियुक्त हो जाने पर मैं अदृष्ट हो जाती हूँ और मेरी सारी
चेष्टाएँ नष्ट हो जाती हैं।
त्वयि तिष्ठति देहे च देही
श्रीमाञ्छुचिः स्वयम् ।
सर्वशक्तिस्वरूपा च शिवरूपा गते
त्वयि ।। १९ ।।
तुम्हारे समीप स्थित रहने पर देह
शोभासंपन्न, पवित्र और सर्वशक्ति स्वरूप
दीखता है; परंतु तुम्हारे चले जाने पर वह स्वरूप हो जाता है।
स्त्रीपुंसो विंरहो नाथसामान्यश्च
सुदारुणः ।
यान्त्येव शक्तिभिः प्राणा
विच्छेदात्परमात्मनः ।। २० ।।
नाथ! स्त्री-पुरुष का सामान्य वियोग
भी अत्यंत दारुण होता है। यहाँ तो परमात्मा के वियोग से पाँचों प्राण शक्तियों के
सहित ही निकल जाते हैं।
इत्युक्त्वा राधिका वेवी
परमात्मानमीश्वरम् ।
स्वासने वासयासास कृत्वा पादार्चनं
मुदा ।। २१ ।।
यों कहकर देवी राधिका ने परमात्मा
श्रीकृष्ण को अपने आसन पर बैठाया और हर्षपूर्वक उनके चरणों की पूजा की।
इति श्री ब्रह्म वैवर्त महापुराण श्रीकृष्ण जन्म खण्ड (उत्तरार्द्ध): अध्याय १२६ राधाकृत श्रीकृष्ण स्तुति सम्पूर्ण।।
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