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कर्मकाण्ड

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श्रीगणेशकृत राधा स्तवन

श्रीगणेशकृत राधा स्तवन

श्रीगणेशजी ने श्रीराधा का स्तवन करते हुए स्वयं कहते हैं कि- जो मानव श्रीराधा के मंत्र, स्तोत्र अथवा कवच को ग्रहण करके परमभक्ति के साथ उसका जप करता है; वह अपने साथ-साथ अपनी सहस्रों पीढ़ियों का उद्धार कर देता है और वह निश्चय ही विष्णु-तुल्य हो जाता है।

श्रीगणेशकृत राधा स्तवन

श्रीराधा स्तवन गणेशकृतम्  

गणेश उवाच

तव पूजा जगन्मातर्लोकशिक्षाकरी शुभे ।

ब्रह्मस्वरूपा भवती कृष्णवक्षः स्थलस्थिता ।। ३ ।।

श्रीगणेश ने कहा- जगन्मातः! तुम्हारी यह पूजा लोगों को शिक्षा देने के लिए है। शुभे! तुम तो स्वयं ब्रह्मस्वरूपा और श्रीकृष्ण के वक्षः स्थल पर वास करने वाली हो।

यत्पादपद्मतुलं ध्यायन्ते ते सुदुर्लभम् ।

सुरा ब्रह्मेशशेषाद्या मुनीन्द्राः सनकादयः ।। ४ ।।

जीवन्मुक्ताश्च भक्ताश्च सिद्धेन्द्राः कपिलादयः ।

तस्य प्राणाधिदेवी त्वं प्रिया प्राणाधिका परा ।। ५ ।। 

ब्रह्मा, शिव और शेष आदि देवगण, सनकादि मुनिवर, जीवन्मुक्त भक्त और कपिल आदि सिद्धशिरोमणि, जिनके अनुपम एवं परम दुर्लभ चरणकमल का निरन्तर ध्यान करते हैं, उन श्रीकृष्ण के प्राणों की तुम अधिदेवी तथा उनके लिए प्राणों से भी बढ़कर परम प्रियतमा हो।

वामाङ्गनिर्मिता राधा दक्षिणाङ्गश्च माधवः ।

महालक्ष्मीर्जगन्माता तव वामाङ्गनिर्मिता ।। ६ ।।

श्रीकृष्ण के दक्षिणांग से माधव है और वामांग से राधा प्रादुर्भूत हुई हैं। जगज्जननी महालक्ष्मी तुम्हारे वामांग से प्रकट हुई हैं।

वसोः सर्वनिवासस्य प्रसूस्त्वं परमेश्वरी ।

वेदानां जगतामेव मूल्प्रकृतिरीश्वरी ।। ७ ।।

तुम सबके निवासभूत वसु को जन्म देने वाली, परमेश्वरी, वेदों और लोकों की ईश्वरी मूल प्रकृति हो।

सर्वाः प्राकृतिका मातः सृष्ट्यां च त्वद्विभूतयः ।

विश्वानि कार्यरूपाणि त्वं च कारणरूपिणी ।। ८ ।।

मातः! इस सृष्टि में जितनी प्राकृतिक नारियाँ हैं; वे सभी तुम्हारी विभूतियाँ हैं। सारे विश्व कार्यरूप है और तुम उनकी कारणरूपा हो।

प्रलये ब्रह्मणः पाते तन्निमेषो हरेरपि ।

आदौ राधां समुच्चार्य पश्चात्कृष्णं परात्परम् ।। ९ ।।

स एव पण्डितो योगी गोलोकं याति लीलया ।

आदौ राधां समुच्चार्य पश्चात्कृष्णं परात्परम् ।। १० ।।

प्रलयकाल में जब ब्रह्मा का तिरोभाव हो जाता है; वह श्रीहरि का एक निमेष कहलाता है। उस समय जो बुद्धिमान योगी पहले राधा, फिर परात्पर कृष्ण अर्थात राधा-कृष्ण का सम्यक उच्चारण करता है; वह अनायास ही गोलोक में चला जाता है। इससे व्यतिक्रम करने पर वह महापापी निश्चय ही ब्रह्महत्या के पाप का भागी होता है।

जगतां भवती माता परमात्मा पिता हरिः ।

पितुरेव गुरुर्माता पूज्या वन्द्या परात्परा ।। ११ ।।

तुम लोकों की माता और परमात्मा श्रीहरि पिता हैं; परंतु माता पिता से भी बढ़कर श्रेष्ठ, पूज्य, वन्दनीय और परात्पर होती है।

भजते देवमन्यं वा कृष्णं वा सर्वकारणम् ।

पुण्यक्षेत्रे महामूढो यदि निन्दति राधिकाम् ।। १२ ।।

इस पुण्यक्षेत्र भारतवर्ष में यदि कोई मन्दमति पुरुष सबके कारण स्वरूप श्रीकृष्ण अथवा किसी अन्य देवता का भजन करता है और राधिका की निन्दा करता है,  

वंशहानिर्भवेत्तस्य दुःखशोकमिहैव च ।

पच्यते निरये घोरे यावच्चन्द्रदिवाकरौ ।। १३ ।।

तो वह इस लोक में दुःख शोक का भागी होता है और उसका वंशच्छेद हो जाता है तथा परलोक में सूर्य और चंद्रमा की स्थिति पर्यन्त वह घोर नरक में पचता रहता है।

गुरुश्चज्ञानोद्गिरणाज्ज्ञानं स्यान्मन्त्रतन्त्रयोः ।

स च मन्त्रश्च तत्तन्त्रं भक्तिः स्याद्ध्रुवयोर्यतः ।। १४ ।।

ज्ञान का उद्गीकरण करने अर्थात उगलने के कारण गुरु कहा जाता है; वह ज्ञान मंत्र-तंत्र से प्राप्त होता है; वह मंत्र और वह तंत्र तुम दोनों की भक्ति है।

निषेव्य मन्त्रं देवानां जीवा जन्मनि जन्मनि ।

भक्ता भवन्ति दुर्गायाः पादपद्मे सुदुर्लभे ।। १५ ।।

जब जीव प्रत्येक जन्म में देवों के मंत्र का सेवन करता है तो उसे दुर्गा के परम दुर्लभ चरण कमल में भक्ति प्राप्त हो जाती है।

निषेव्य मन्त्रे शंभोश्च जगतां कारणस्य च ।

तदा प्राप्नोति युवयोः पादपद्मं सुदुर्लभम् ।। १६ ।।

जब वह लोकों के कारण स्वरूप शम्भु के मंत्र का आश्रय ग्रहण करता है, तब तुम दोनों (राधा-कृष्ण) के अत्यंत दुर्लभ चरणकमल को प्राप्त कर लेता है।

युक्योः पादपद्मं च दुर्लभं प्राप्य पुण्यवान् ।

क्षणार्धं षोडशांशं च नहि मुञ्चति दैवतः ।। १७ ।।

जिस पुण्यवान पुरुष को तुम दोनों के दुष्प्राप्य चरणकमल की प्राप्ति हो जाती है, वह दैववश क्षणार्थ अथवा उसके षोडशांश काल के लिए भी उसका त्याग नहीं करता।

भक्त्या च युवचोर्मन्त्रं गृहीत्वा वैष्मपादपि ।

स्तवं वा कवचं वाऽपि कर्ममूलनिकृन्तनम् ।। १८ ।।

योजयेत्परया भक्त्या पुण्यक्षेत्रे च भारते ।

पुरुषाणां सहस्रं च त्वात्मना सार्धमुद्धरेत् ।। १९ ।।

जो मानव इस पुण्यक्षेत्र भारत में किसी वैष्णव से तुम दोनों के मंत्र, स्तोत्र अथवा कर्ममूल का उच्छेद करने वाले कवच को ग्रहण करके परमभक्ति के साथ उसका जप करता है; वह अपने साथ-साथ अपनी सहस्रों पीढ़ियों का उद्धार कर देता है।

गुरुमभ्यर्च्य विधिवद्वस्त्रालंकारचन्दनैः ।

कवचं धारयेद्यो हि विष्णुतुल्यो भवेद्ध्रुवम् ।। २० ।।

जो मनुष्य विधिपूर्वक वस्त्र अलंकार और चंदन द्वारा गुरु का भलीभाँति पूजन करके तुम्हारे कवच को धारण करता है, वह निश्चय ही विष्णु-तुल्य हो जाता है।

इति: श्रीगणेशकृत राधा स्तवन ।।

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