श्रीराधा स्तोत्र

श्रीराधा स्तोत्र

जो मनुष्य ब्रह्मा जी के द्वारा किये गये इस श्रीराधा स्तोत्र का तीनों संध्याओं के समय पाठ करता है, वह निश्चय ही राधा-माधव के चरणों की भक्ति एवं दास्य प्राप्त कर लेता है। अपने कर्मों का मूलोच्छेद करके सुदुर्जय मृत्यु को भी जीतकर समस्त लोकों को लाँघता हुआ वह उत्तम गोलोकधाम में चला जाता है।

श्रीराधा स्तोत्र ब्रह्माकृत

श्रीराधा स्तोत्रम्

।।ब्रह्मोवाच ।।

हे मातस्त्वत्पदाम्भोजं दृष्टं कृष्णप्रसादतः ।

सुदुर्लभं च सर्वेषां भारते च विशेषतः ।।

ब्रह्मा जी बोलेहे माता! भगवान श्रीकृष्ण की कृपा से मुझे तुम्हारे चरणकमलों के दर्शन का सौभाग्य प्राप्त हुआ है। ये चरण सर्वत्र और विशेषतः भारतवर्ष में सभी के लिये परम दुर्लभ हैं।

षष्टिवर्षसहस्राणि तपस्तप्तं पुरा मया ।

भास्करे पुष्करे तीर्थे कृष्णस्य परमात्मनः ।।

आजगाम वरं दातुं वरदाता हरिः स्वयम् ।।

मैंने पूर्वकाल में पुष्करतीर्थ में सूर्य के प्रकाश में बैठकर परमात्मा श्रीकृष्ण की प्रसन्नता के लिये साठ हजार वर्षों तक तपस्या की। तब वरदाता श्री हरि मुझे वर देने के लिये स्वयं पधारे।

वरं वृणीष्वेत्युक्ते च स्वाभीष्टं च वृतं मुदा ।

राधिकाचरणाम्भोजं सर्वेषामपि दुर्लभम् ।।

हे गुणातीत मे शीघ्रमधुनैव प्रदर्शय ।।

उनके वर माँगोऐसा कहने पर मैंने प्रसन्नतापूर्वक अभीष्ट वर माँगते हुए कहा- हे गुणातीत परमेश्वर! जो सबके लिये परम दुर्लभ है, उन राधिका के चरण-कमल का मुझे इसी समय शीघ्र दर्शन कराइये।

मयेत्युक्तो हरिरयमुवाच मां तपस्विनम् ।

दर्शयिष्यामि काले च वत्सेदानीं क्षमेति च ।।

नहीश्वराज्ञा विफला तेन दृष्टं पदाम्बुजम् ।।

मेरी यह बात सुनकर ये श्रीहरि मुझ तपस्वी से बोले- वत्स! इस समय क्षमा करो। उपयुक्त समय आने पर मैं तुम्हें श्रीराधा के चरणारविन्दों के दर्शन कराऊँगा। ईश्वर की आज्ञा निष्फल नहीं होती; इसीलिये मुझे तुम्हारे चरणकमलों के दर्शन प्राप्त हुए हैं।

सर्वेषां वाञ्छितं मातर्गोलोके भारतेऽधुना ।

सर्वा देव्यः प्रकृत्यंशा जन्याः प्राकृतिका ध्रुवम् ।।       

माता! तुम्हारे ये चरण गोलोक में तथा इस समय भारत में भी सबकी मनोवाञ्छा के विषय हैं। सब देवियाँ प्रकृति की अंशभूता हैं; अतः वे निश्चय ही जन्य और प्राकृतिक हैं।

त्वं कृष्णाङ्गार्धसंभूता तुल्या कृष्णेन सर्वतः ।

श्रीकृष्णस्त्वमयं राधा त्वं राधा वा हरिः स्वयम् ।।

तुम श्रीकृष्ण के आधे अंग से प्रकट हुई हो; अतः सभी दृष्टियों से श्रीकृष्ण के समान हो। तुम स्वयं श्रीकृष्ण हो और ये श्रीकृष्ण राधा हैं, अथवा तुम राधा हो और ये स्वयं श्रीकृष्ण हैं।

नहि वेदेषु मे दृष्ट इति केन निरूपितम् ।

ब्रह्माण्डाद्बहिरूर्ध्वं च गोलोकोऽस्ति यथाम्बिके ।।

इस बात का किसी ने निरूपण किया हो, ऐसा मैंने वेदों में नहीं देखा है। अम्बिके! जैसे गोलोक ब्रह्माण्ड से बाहर और ऊपर है, उसी तरह वैकुण्ठ भी है।

वैकुण्ठश्चाप्यजन्यश्च त्वमजन्या तथाम्बिके ।

यथा समस्तब्रह्माण्डे श्रीकृष्णांशांशजीविनः।।

तथा शक्तिस्वरूपा त्वं तेषु सर्वेषु संस्थिता ।

पुरुषाश्च हरेरंशास्त्वदंशा निखिलाः स्त्रियः ।।

माँ! जैसे वैकुण्ठ और गोलोक अजन्य हैं; उसी प्रकार तुम भी अजन्या हो। जैसे समस्त ब्रह्माण्ड में सभी जीवधारी श्रीकृष्ण के ही अंशांश हैं; उसी प्रकार उन सबमें तुम्हीं शक्तिरूपिणी होकर विराजमान हो। समस्त पुरुष श्रीकृष्ण के अंश हैं और सारी स्त्रियाँ तुम्हारी अंशभूता हैं।

आत्मना देहरूपा त्वमस्याधारस्त्वमेव हि ।

अस्यानु प्राणैस्त्वं मातस्त्वत्प्राणैरयमीश्वरः ।।

परमात्मा श्रीकृष्ण की तुम देहरूपा हो; अतः तुम्हीं इनकी आधारभूता हो। माँ! इनके प्राणों से तुम प्राणवती हो और तुम्हारे प्राणों से ये परमेश्वर श्रीहरि प्राणवान हैं।

किमहो निर्मितः केन हेतुना शिल्पकारिणा ।

नित्योऽयं च तथा कृष्णस्त्वं च नित्या तथाऽम्बिके ।।

अहो! क्या किसी शिल्पी ने किसी हेतु से इनका निर्माण किया है? कदापि नहीं। अम्बिके! ये श्रीकृष्ण नित्य हैं और तुम भी नित्या हो।

अस्यांशा त्वं त्वदंशो वाऽप्ययं केन निरूपितः ।

अहं विधाता जगतां देवानां जनकः स्वयम् ।।

तुम इनकी अंशस्वरूपा हो या ये ही तुम्हारे अंश हैं; इसका निरूपण किसने किया है? मैं जगत्स्रष्टा ब्रह्मा स्वयं वेदों का प्राकट्य करने वाला हूँ।

तं पठित्वा गुरुमुखाद्भवन्त्येव बुधा जनाः ।

गुणानां वास्तवानां ते शतांशं वक्तुमक्षमः ।।

वेदो वा पण्डितो वाऽन्यः को वा त्वां स्तोतुमीश्वरः ।।

उस वेद को गुरु के मुख से पढ़कर लोग विद्वान हो जाते हैं; परंतु वेद अथवा पण्डित तुम्हारे गुणों या स्तोत्रों का शतांश भी वर्णन करने में असमर्थ हैं। फिर दूसरा कौन तुम्हारी स्तुति कर सकता है?

स्तवानां जनकं ज्ञानं बुद्धिर्ज्ञानाम्बिका सदा ।

त्वं बुद्धेर्जननी मातः को वा त्वां स्तोतुमीश्वरः ।।

स्तोत्रों का जनक है ज्ञान और सदा ज्ञान की जननी है बुद्धि। माँ राधे! उस बुद्धि की भी जननी तुम हो। फिर कौन तुम्हारी स्तुति करने में समर्थ होगा?

यद्वस्तु दृष्टं सर्वेषां तद्धि वक्तुं बुधः क्षमः ।

यददृष्टाश्रुते वस्तु तन्निर्वक्तुं च कः क्षमः ।।

अहं महेशोऽनंतश्च स्तोतुं त्वां कोऽपि न क्षमः।।

जिस वस्तु का सबको प्रत्यक्ष दर्शन हुआ है; उसका वर्णन करने में तो कोई भी विद्वान समर्थ हो सकता है। परंतु जो वस्तु कभी देखने और सुनने में भी नहीं आयी, उसका निर्वचन (निरूपण) कौन कर सकता है? मैं, महेश्वर और अनन्त कोई भी तुम्हारी स्तुति करने की क्षमता नहीं रखते।      

सरस्वती च वेदाश्च क्षमः कः स्तोतुमीश्वरः ।

यथागमं यथोक्तं च न मां निन्दितुमर्हसि ।।

सरस्वती और वेद भी अपने को असमर्थ पाते हैं। परमेश्वरि! फिर कौन तुम्हारी स्तुति कर सकता है? मैंने आगमों का अनुसरण करके तुम्हारे विषय में जैसा कुछ कहा है, उसके लिये तुम मेरी निन्दा न करना।

ईश्वराणामीश्वरस्य योग्यायोग्ये समा कृपा ।

जनस्य प्रतिपाल्यस्य क्षणे दोषः क्षणे गुणः ।।

जननी जनको यो वा सर्वं क्षमति स्नेहतः ।।

जो ईश्वरों के भी ईश्वर परमात्मा हैं, उनकी योग्य और अयोग्य पर भी समान कृपा होती है। जो पालन के योग्य संतान है, उसका क्षण-क्षण में गुण-दोष प्रकट होता रहता है; परंतु माता और पिता उसके सारे दोषों को स्नेहपूर्वक क्षमा करते हैं।

इति श्रीब्रह्मवैवर्ते महापुराणे श्रीकृष्णजन्मखण्डे नारायणनारदसंवादे राधाकृष्णविवाहनवसंगमप्रस्तावो श्रीराधा स्तोत्रम् नाम पञ्चदशोऽध्यायः ।। १५ ।।

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