श्रीकृष्णस्तोत्र
धर्म, शिव और ब्रह्माजी के द्वारा किये गये इस स्तवराज को जो प्रतिदिन श्रीहरि के पूजाकाल में भक्तिपूर्वक पढ़ता है, वह उनकी अत्यन्त दुर्लभ और दृढ़ भक्ति प्राप्त कर लेता है। देवता, असुर और मुनीन्द्रों को श्रीहरि का दास्य दुर्लभ है; परंतु इस श्रीकृष्णस्तोत्र का पाठ करने वाला उसे पा लेता है। साथ ही अणिमा आदि सिद्धियों तथा सालोक्य आदि चार प्रकार की मुक्तियों को भी प्राप्त कर लेता है। इस लोक में भी वह भगवान विष्णु के समान ही विख्यात एवं पूजित होता है; इसमें संशय नहीं है। निश्चय ही उसे वाक्सिद्धि और मन्त्रसिद्धि भी सुलभ हो जाती है। वह सम्पूर्ण सौभाग्य और आरोग्य लाभ करता है। उसके यश से सारा जगत पूर्ण हो जाता है। वह इस लोक में पुत्र, विद्या, कविता, स्थिर लक्ष्मी, साध्वी सुशीला पतिव्रता पत्नी, सुस्थिर संतान तथा चिरकालस्थायिनी कीर्ति प्राप्त कर लेता है और अन्त में उसे श्रीकृष्ण के निकट स्थान प्राप्त होता है।
श्रीकृष्णस्तोत्र म्
।। ब्रह्मोवाच ।। ।।
वरं वरेण्यं वरदं वरदानां च कारणम्
।
कारणं सर्वभूतानां तेजोरूपं
नमाम्यहम् ।।
ब्रह्मा जी बोले–
जो वर, वरेण्य, वरद,
वरदायकों के कारण तथा सम्पूर्ण प्राणियों की उत्पत्ति के हेतु हैं;
उन तेजःस्वरूप परमात्मा को मैं नमस्कार करता हूँ।
मंगलं मंगलानां च मंगलं मंगलप्रदम्
।
समस्तमंगलाधारं तेजोरूपं नमाम्यहम् ।।
जो मंगलकारी,
मंगल के योग्य, मंगलरूप, मंगलदायक तथा समस्त मंगलों के आधार हैं; उन तेजोमय
परमात्मा को मैं प्रणाम करता हूँ।
स्थितं सर्वत्र निर्लिप्तमात्मरूपं
परात्परम् ।
निरीहमवितर्क्यं च तेजोरूपं
नमाम्यहम् ।।
जो सर्वत्र विद्यमान,
निर्लिप्त, आत्मस्वरूप, परात्पर,
निरीह और अवितर्क्य हैं; उन तेजःस्वरूप
परमेश्वर को नमस्कार है।
सगुणं निर्गुणं ब्रह्म ज्योतीरूपं
सनातनम् ।
साकारं च निराकारं तेजोरूपं
नमाम्यहम् ।।
जो सगुण,
निर्गुण, सनातन, ब्रह्म,
ज्योतिःस्वरूप, साकार एवं निराकार हैं;
उन तेजोरूप परमात्मा को मैं नमस्कार करता हूँ।
तमनिर्वचनीयं च व्यक्तमव्यक्तमेककम्
।
स्वेच्छामयं सर्वरूपं तेजोरूपं
नमाम्यहम् ।।
प्रभो! आप अनिर्वचनीय,
व्यक्त, अव्यक्त, अद्वितीय,
स्वेच्छामय तथा सर्वरूप हैं। आप तेजःस्वरूप परमेश्वर को मैं नमस्कार
करता हूँ।
गुणत्रयविभागाय रूपत्रयधरं परम् ।
कलया ते कृताः सर्वे किं जानन्ति
श्रुतेः परम् ।।
तीनों गुणों का विभाग करने के लिये
आप तीन रूप धारण करते हैं; परंतु हैं तीनों गुणों
से अतीत। समस्त देवता आपकी कला से प्रकट हुए हैं। आप श्रुतियों की पहुँच से भी परे
हैं; फिर आपको देवता कैसे जान सकते हैं?
सर्वाधारं सर्वरूपं सर्वबीजमबीजकम्
।
सर्वांतकमनन्तं च तेजोरूपं
नमाम्यहम् ।।
आप सबके आधार,
सर्वस्वरूप, सबके आदिकारण, स्वयं कारणरहित, सबका संहार करने वाले तथा अन्तरहित
हैं। आप तेजःस्वरूप परमात्मा को नमस्कार है।
लक्ष्यं षङ्गुणरूपं च वर्णनीयं
विचक्षणैः ।
किं वर्णयामि लक्ष्यं च तेजोरूपं
नमाम्यहम् ।।
जो सगुण रूप है,
वही लक्ष्य होता है और विद्वान पुरुष उसी का वर्णन कर सकते हैं।
परंतु आपका रूप अलक्ष्य है; अतः मैं उसका वर्णन कैसे कर सकता
हूँ? आप तेजोरूप परमात्मा को मेरा प्रणाम है।
अशरीरं विग्रहवदिंद्रियं
यदतींद्रियम् ।
यदसाक्षि सर्वसाक्षि तेजोरूपं
नमाम्यहम् ।।
आप निराकार होकर भी दिव्य आकार धारण
करते हैं। इन्द्रियातीत होकर भी इन्द्रिययुक्त होते हैं। आप सबके साक्षी हैं;
परंतु आपका साक्षी कोई नहीं है। आप तेजोमय परमेश्वर को मेरा नमस्कार
है।
गमनार्हमपादं यदचक्षुः सर्वदर्शनम्
।
हस्तास्यहीनं यद्भोक्तृ तेजोरूपं
नमाम्यहम् ।।
आपके पैर नहीं हैं तो भी आप चलने की
योग्यता रखते हैं। नेत्रहीन होकर भी सबको देखते हैं। हाथ और मुख से रहित होकर भी
भोजन करते हैं। आप तेजोमय परमात्मा को मेरा नमस्कार है।
वेदे निरूपितं वस्तु सन्तः शक्ताश्च
वर्णितुम् ।
वेदेऽनिरूपितं यत्तत्तेजोरूपं
नमाम्यहम् ।।
वेद में जिस वस्तु का निरूपण है,
विद्वान पुरुष उसी का वर्णन कर सकते हैं। जिसका वेद में भी निरूपण
नहीं हो सका है, आपके उस तेजोमय स्वरूप को मैं नमस्कार करता
हूँ।
सर्वेशं यदनीशं यत्सर्वादि यदनादि
यत् ।
सर्वात्मकमनात्मं यत्तेजोरूपं
नमाम्यहम् ।।
जो सर्वेश्वर है,
किंतु जिसका ईश्वर कोई नहीं है; जो सबका आदि
है, परंतु स्वयं आदि से रहित है तथा जो सबका आत्मा है,
किंतु जिसका आत्मा दूसरा कोई नहीं है; आपके उस
तेजोमय स्वरूप को मैं नमस्कार करता हूँ।
अहं विधाता जगतो वेदानां जनकः
स्वयम् ।
पाता धर्मो हरो हर्ता स्तोतुं शक्ता
न केऽपि यत् ।।
मैं स्वयं जगत का स्रष्टा और वेदों
को प्रकट करने वाला हूँ। धर्मदेव जगत के पालक हैं तथा महादेव जी संहारकारी हैं;
तथापि हममें से कोई भी आपके उस तेजोमय स्वरूप का स्तवन करने में
समर्थ नहीं है।
सेवया तव धर्मोऽयं पालने च
निरूपितः।
तवाज्ञया च संहर्ता त्वया काले
निरूपिते ।।
आपकी सेवा के प्रभाव से वे धर्मदेव
अपने रक्षक की रक्षा करते हैं। आपकी ही आज्ञा से आपके द्वारा निश्चित किये हुए समय
पर महादेव जी जगत का संहार करते हैं।
निःशेषोत्पत्तिकर्त्ताऽहं
त्वत्पादांभोजसेवया ।
कर्मिणां फलदाता च त्वं भक्तानां च
नः प्रभुः ।।
आपके चरणारविन्दों की सेवा से ही
सामर्थ्य पाकर मैं प्राणियों के प्रारब्ध या भाग्य की लिपिका लेखक तथा धर्म करने
वालों के फल का दाता बना हुआ हूँ। प्रभो! हम तीनों आपके भक्त हैं और आप हमारे
स्वामी हैं।
ब्रह्मांडे बिंबसदृशे भूत्वा
विषयिणो वयम् ।
एवं कतिविधाः संति तेष्वनन्तेषु
सेवकाः ।।
ब्रह्माण्ड में बिम्बसदृश होकर हम
विषयी हो रहे हैं। ब्रह्माण्ड अनन्त हैं और उनमें हम–
जैसे सेवक कितने ही हैं।
यथा न संख्या रेणूनां तथा
तेषामणीयसाम् ।
सर्वेषां जनकश्चेशो यस्तं स्तोतुं च
के क्षमाः ।।
जैसे रेणु तथा उनके परमाणुओं की
गणना नहीं हो सकती, उसी प्रकार
ब्रह्माण्डों और उनमें रहने वाले ब्रह्मा आदि की गणना असम्भव है। आप सबके उत्पादक
परमेश्वर हैं। आपकी स्तुति करने में कौन समर्थ है?
एकैकलोमविवरे ब्रह्मांडमेकमेककम् ।
यस्यैव महतो विष्णोः षोडशांशस्तवैव
सः ।।
जिन महाविष्णु के एक-एक रोम-कूप में
एक-एक ब्रह्माण्ड है, वे भी आपके ही
सोलहवें अंश हैं।
ध्यायंते योगिनः सर्वे
तवैतद्रूपमीप्सितम् ।
त्वद्भक्तदास्यनिरताः सेवंते
चरणांबुजम् ।।
समस्त योगीजन आपके इस मनोवांछित
ज्योतिर्मय स्वरूप का ध्यान करते हैं। परंतु जो आपके भक्त हैं,
वे आपकी दासता में अनुरक्त रहकर सदा आपके चरणकमलों की सेवा करते
हैं।
किशोरं सुंदरतरं यक्षं कमनीयकम् ।
मंत्रध्यानानुरूपं च
दर्शयास्माकमीश्वर ।।
परमेश्वर! आपका जो परम सुन्दर और
कमनीय किशोर-रूप है, जो मन्त्रोक्त
ध्यान के अनुरूप है, आप उसी का हमें दर्शन कराइये।
नवीनजलदश्यामपीतांबरधरं वरम् ।
द्विभुजं मुरलीहस्तं सस्मितं
सुमनोहरम् ।।
जिसकी अंगकान्ति नूतन जलधर के समान
श्याम है,
जो पीताम्बरधारी तथा परम सुन्दर है, जिसके दो
भुजाएँ, हाथ में मुरली और मुख पर मन्द-मन्द मुस्कान है, जो अत्यन्त मनोहर है ।
मयूरपिच्छचूडं च मालतीजालमंडितम् ।
चंदनागुरुकस्तूरीकुङ्कुमद्रवचर्चितम्
।।
माथे पर मोरपंख का मुकुट धारण करता
है,
मालती के पुष्पसमूहों से जिसका श्रृंगार किया गया है, जो चन्दन, अगुरु, कस्तूरी और
केसर के अंगराग से चर्चित है,
अमूल्यरत्नसाराणां सारभूषणभूषितम् ।
अमूल्यरत्नरचितकिरीटमुकुटोज्ज्वलम्
।।
अमूल्य रत्नों के सारतत्त्व से
निर्मित आभूषणों से विभूषित है, बहुमूल्य
रत्नों के बने हुए किरीट-मुकुट जिसके मस्तक को उद्भासित कर रहे हैं,
शरत्प्रफुल्लपद्मानां
प्रभामोष्यास्यचंद्रकम् ।
पक्वबिंबसमानेन ह्यधरोष्ठेन राजितम्
।।
जिसका मुखचन्द्र शरत्काल के
प्रफुल्ल कमलों की शोभा को चुराये लेता है, जो
पके बिम्बफल के समान लाल ओठों से सुशोभित है,
पक्वदाडिमबीजाभदंतपंक्तिमनोहरम् ।
केलीकदंबमूले च स्थितं
रासरसोन्मुखम् ।।
परिपक्व अनार के बीज की भाँति
चमकीली दन्तपंक्ति जिसके मुख की मनोरमता को बढ़ाती है,
जो रास-रस के लिए उत्सुक हो केलि-कदम्ब के नीचे खड़ा है,
गोपीवक्त्रस्मिततनुं
राधावक्षःस्थलस्थितम् ।
एवं वांछितरूपं ते दृष्टुं को वा न
चोत्सुकः ।।
गोपियों के मुखों की ओर देखता है
तथा श्रीराधा के वक्षःस्थल पर विराजित है; आपके
उसी केलि-रसोत्सुक रूप को देखने की हम सबकी इच्छा है।
इत्येवमुक्त्वा विश्वसृट् प्रणनाम
पुनः पुनः ।
एवं स्तोत्रेण तुष्टाव धर्मोऽपि
शंकरः स्वयम् ।।
ननाम भूयोभूयश्च साश्रुपूर्णविलोचनः
।।
ऐसा कहकर विश्वविधाता ब्रह्मा
उन्हें बारंबार प्रणाम करने लगे। धर्म और शंकर ने भी इसी स्तोत्र से उनका स्तवन
किया तथा नेत्रों में आँसू भरकर बारंबार वन्दना की।
इति श्रीब्रह्म वैवर्ते महापुराणे श्रीकृष्णजन्मखंडे गोलोकवर्णने श्रीकृष्णस्तोत्रराजपठनं नाम पंचमोऽध्यायः ।। ५ ।।
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