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श्रीराधा कृष्ण स्तुति
देवों द्वारा किये इस श्रीराधा
कृष्ण स्तुति से युगलचरण का ध्यान करने पर नित्य अभ्युदय की प्राप्ति होती है। जगदीश्वर
भगवान् श्रीकृष्ण कहते हैं कि–
अहं प्राणाश्च भक्तानां भक्ताः
प्राणा ममापि च ।
ध्यायन्ति ये च मां नित्यं तां
स्मरामि दिवानिशम् ।।
मैं भक्तों का प्राण हूँ और भक्त भी
मेरे लिए प्राणों के समान हैं। जो नित्य मेरा ध्यान करते हैं,
उनका मैं दिन-रात स्मरण करता हूँ। सोलह अरों से युक्त अत्यन्त तीखा
सुदर्शन नामक चक्र महान तेजस्वी है। सम्पूर्ण जीवधारियों में जितना भी तेज है,
वह सब उस चक्र के तेज के सोलहवें अंश के बराबर भी नहीं है। उस
अभीष्ट चक्र को भक्तों के निकट उनकी रक्षा के लिये नियुक्त करके भी मुझे प्रतीति
नहीं होती; इसलिये मैं स्वयं भी उनके पास जाता हूँ। भक्तों
का भक्तिपूर्वक दिया हुआ जो द्रव्य है, उसको मैं बड़े प्रेम
से ग्रहण करता हूँ, परंतु अभक्तों की दी हुई कोई भी वस्तु
मैं नहीं खाता। निश्चय ही उसे राजा बलि ही भोगते हैं।
स्त्रीपुत्रस्वजनांस्त्यक्त्वा
ध्यायन्ते मामहर्निशम् ।
युष्मान् विहाय तान् नित्यं
स्मराम्यहमहर्निशम् ।।
द्वेष्टारो ये च भक्तानां
ब्राह्मणानां गवामपि ।
क्रतूनां देवतानां च हिंसां
कुर्वन्ति निश्चितम् ।।
तदाऽचिरं ते नश्यन्ति यथा वह्नौ
तृणानि च ।
न कोऽपि रक्षिता तेषां मयि
हन्तर्युपस्थिते ।।
जो अपने स्त्री-पुत्र आदि स्वजनों
को त्यागकर दिन-रात मुझे ही याद करते हैं, उनका
स्मरण मैं भी तुम लोगों को त्यागकर अहर्निश किया करता हूँ। जो लोग भक्तों, ब्राह्मणों तथा गौओं से द्वेष रखते हैं, यज्ञों और
देवताओ की हिंसा करते हैं, वे शीघ्र ही उसी तरह नष्ट हो जाते
हैं, जैसे प्रज्वलित अग्नि में तिनके। जब मैं उनका घातक बनकर
उपस्थित होता हूँ, तब कोई भी उनकी रक्षा नहीं कर पाता।
श्रीराधा कृष्ण स्तुति
ब्रह्मोवाच–
तव चरणसरोजे मन्मनश्चञ्चरीको
भ्रमतु सततमीश प्रेमभक्त्या सरोजे।
भवनमरणरोगात् पाहि शान्त्यौषधेन
सुदृढसुपरिपक्वां देहि भक्तिं च
दास्यम्।।
ब्रह्माजी बोले–
परमेश्वर! मेरा चित्तरूपी चंचरीक (भ्रमर) आपके चरणारविन्दों में
निरन्तर प्रेम-भक्तिपूर्वक भ्रमण करता रहे। शान्तिरूपी औषध देकर मेरी जन्म-मरण के
रोग से रक्षा कीजिये तथा मुझे सुदृढ़ एवं अत्यन्त परिपक्व भक्ति और दास्यभाव
दीजिये।
शंकर उवाच–
भवजलधिनिमग्नश्चित्तमीनो मदीयो
भ्रमति सततमस्मिन् घोरसंसारकूपे।
विषयमतिविनिन्द्यं सृष्टिसंहाररूप–
मपनय तव भक्तिं देहि पादारविन्दे।।
भगवान शंकर ने कहा–
प्रभो! भवसागर में डूबा हुआ मेरा चित्तरूपी मत्स्य सदा ही इस घोर
संसाररूपी कूप में चक्कर लगाता रहता है। सृष्टि और संहार यही इसका अत्यन्त
निन्दनीय विषय है। आप इस विषय को दूर कीजिये और अपने चरणारविन्दों की भक्ति
कीजिये।
धर्म उवाच-
तव निजजनसार्द्धं संगमो मे सदैव
भवतु विषयबन्धच्छेदने तीक्ष्णखङ्गः।
तव चरणसरोजे स्थानदानैकहेतु–
र्जनुषि जनुषि भक्तिं देहि
पादारविन्दे।।
धर्म बोले–
मेरे ईश्वर! आपके आत्मीयजनों (भक्तों)– के साथ
मेरा सदा समागम होता रहे, जो विषयरूपी बन्धन को काटने के
लिये तीखी तलवार का काम देता है तथा आपके चरणारविन्दों में स्थान दिलाने का
एकमात्र हेतु है। आप जन्म-जन्म में मुझे अपने चरणारविन्दों की भक्ति प्रदान कीजिये।
इति श्रीराधा कृष्ण स्तुति।।
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