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श्रीकृष्णस्तोत्रं
ब्रह्मवैवर्तपुराणे शम्भुकृतम् -नैमिषारण्य में आये हुए सौतिजी शौनक जी को ब्रह्म
वैवर्त पुराण के ब्रह्म खण्ड अध्याय-३ में श्रीकृष्ण से सृष्टि का आरम्भ की कथा सुनाते
हैं कि –
शौनक जी! श्रीकृष्ण के दक्षिणपार्श्व से भगवान नारायण का प्रादुर्भाव हुआ, तत्पश्चात् परमात्मा श्रीकृष्ण के वामपार्श्व से भगवान शिव प्रकट हुए। उनकी अंग कान्ति शुद्ध स्फटिक मणि के समान निर्मल एवं उज्ज्वल थी।
उनके पाँच मुख थे और दिशाएँ ही उनके लिये वस्त्र थीं। उन्होंने मस्तक पर तपाये हुए
सुवर्ण के समान पीले रंग की जटाओं का भार धारण कर रखा था। उनका मुख मन्द-मन्द
मुस्कान से प्रसन्न दिखायी देता था। उनके प्रत्येक मस्तक में तीन-तीन नेत्र थे।
उनके सिर पर चन्द्राकार मुकुट शोभा पाता था। परमेश्वर शिव ने हाथों में त्रिशूल,
पट्टिश और जपमाला ले रखी थी। वे सिद्ध तो हैं ही, सम्पूर्ण सिद्धों के ईश्वर भी हैं। योगियों के गुरु के भी गुरु हैं।
मृत्यु की भी मृत्यु हैं, मृत्यु के ईश्वर हैं, मृत्यु स्वरूप हैं और मृत्यु पर विजय पाने वाले मृत्युंजय हैं। वे
ज्ञानानन्दरूप, महाज्ञानी, महान
ज्ञानदाता तथा सबसे श्रेष्ठ हैं। पूर्ण चन्द्रमा की प्रभा से धुले हुए–से गौरवर्ण शिव का दर्शन सुखपूर्वक होता है। उनकी आकृति मन को मोह लेती
है। ब्रह्मतेज से जाज्वल्यमान भगवान शिव वैष्णवों के शिरोमणि हैं। प्रकट होने के
पश्चात् श्रीकृष्ण के सामने खड़े हो भगवान शिव ने भी हाथ जोड़कर उनका स्तवन किया।
उस समय उनके सम्पूर्ण अंगों में रोमांच हो आया था। नेत्रों से अश्रु झर रहे थे और
उनकी वाणी अत्यन्त गद्गद हो रही थी।
श्रीकृष्णस्तोत्रं ब्रह्मवैवर्तपुराणे शम्भुकृतम्
महादेव उवाच ।।
जयस्वरूपं जयदं जयेशं जयकारणम् ।।
प्रवरं जयदानां च वन्दे तमपराजितम्
।। २४ ।।
महादेव जी बोले–
जो जय के मूर्तिमान रूप, जय देने वाले,
जय देने में समर्थ, जय की प्राप्ति के कारण
तथा विजयदाताओं में सर्वश्रेष्ठ हैं, उन अपराजित देवता भगवान
श्रीकृष्ण की मैं वन्दना करता हूँ।
विश्वं विश्वेश्वरेशं च विश्वेशं
विश्वकारणम् ।।
विश्वाधारं च विश्वस्तं
विश्वकारणकारणम् ।। २५ ।।
सम्पूर्ण विश्व जिनका रूप है,
जो विश्व के ईश्वरों के भी ईश्वर हैं, विश्वेश्वर,
विश्वकारण, विश्वाधार, विश्व
के विश्वासभाजन तथा विश्व के कारणों के भी कारण हैं, उन
भगवान श्रीकृष्ण की मैं वन्दना करता हूँ।
विश्वरक्षाकारणं च विश्वघ्नं
विश्वजं परम् ।।
फलबीजं फलाधारं फलं च तत्फलप्रदम्
।। २६ ।।
जो जगत की रक्षा के कारण,
जगत के संहारक तथा जगत की सृष्टि करने वाले परमेश्वर हैं; फल के बीज, फल के आधार, फलरूप
और फलदाता हैं; उन भगवान श्रीकृष्ण को मैं प्रणाम करता हूँ।
तेजःस्वरूपं तेजोदं सर्वतेजस्विनां
वरम् ।।
इत्येवमुक्त्वा तं नत्वा
रत्नसिंहासने वरे ।।
नारायणं च संभाष्य स उवास तदाज्ञया
।। २७ ।।
जो तेजःस्वरूप,
तेज के दाता और सम्पूर्ण तेजस्वियों में श्रेष्ठ हैं, उन भगवान गोविन्द की मैं वन्दना करता हूँ। ऐसा कहकर महादेव जी ने भगवान
श्रीकृष्ण को मस्तक झुकाया और उनकी आज्ञा से श्रेष्ठ रत्नमय सिंहासन पर नारायण के
साथ वार्तालाप करते हुए बैठ गये।
इति शम्भुकृतं स्तोत्रं यो जनः
संयतः पठेत् ।।
सर्वसिद्धिर्भवेत्तस्य विजयं च पदे
पदे ।। २८ ।।
जो मनुष्य भगवान शिव द्वारा किये
गये इस स्तोत्र का संयतचित्त होकर पाठ करता है, उसे
सम्पूर्ण सिद्धियाँ मिल जाती हैं और पग-पग पर विजय प्राप्त होती है।
सन्ततं वर्द्धते मित्रं
धनमैश्वर्य्यमेव च ।।
शत्रुसैन्यं क्षयं याति दुःखानि
दुरितानि च ।। २९ ।।
उसके मित्र,
धन और ऐश्वर्य की सदा वृद्धि होती है तथा शत्रु समूह, दुःख और पाप नष्ट हो जाते हैं।
इति ब्रह्मवैवर्ते शम्भुकृतं श्रीकृष्णस्तोत्रम् ।।
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