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मार्तण्ड भैरव स्तोत्रम्
श्रीगिरिराज गोवर्धन कथा
गिरि अर्थात् पर्वत। पर्वतों के
राजा श्रीगिरिराज गोवर्धन पूजा कार्तिक मास के शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा को की जाती
है,
जो दिवाली के ठीक एक दिन बाद आती है। यह दिन भगवान श्रीकृष्ण की
इंद्र देव पर विजयी के रूप में प्रचलित है। कथा अनुसार कहा जाता है कि भगवान श्रीकृष्ण ने इस दिन अपनी एक उंगली से उठाकर गाँव वालों को इंद्र देव के प्रकोप से
बचाया था।
श्री गिरिराज गोवर्धन की कथा
जब भगवान कृष्ण ने गोलोक धाम की
रचना की,
और सारे गोप ग्वाले और यमुना वृंदावन सबकी रचना की तब एक दिन रास मंडल में श्री राधिका जी ने
भगवानकृष्ण जी से कहा - यदि आप मेरे प्रेम से प्रसन्न है तो मेरी एक मन की
प्रार्थना व्यक्त करना चाहती हूँ। तब श्यामसुन्दर ने कहा- मुझसे आप जो भी मांगना
चाहती है माँग लो।
श्री राधा जी ने कहा- वृंदावन में
यमुना के तट पर दिव्य निकुंज के पाश्र्वभाग में आप रास रस के योग्य कोई एकांत एवं
मनोरम स्थान प्रकट कीजिये, यही मेरा मनोरथ है।
"तब भगवान ने तथास्तु कहकर
एकांत लीला के योग्य स्थान का चिंतन करते हुए नेत्र कमलों द्वारा अपने ह्रदय की ओर
देखा। उसी समय गोपी समुदाय के देखते देखते श्रीकृष्ण के ह्रदय से अनुराग के
मूर्तिमान अंकुर की भांति एक सघन तेज प्रकट हुआ। रास भूमि में गिरकर वह पर्वत के
आकार में बढ़ गया। वह सारा का सारा पर्वत रत्नधातुमय था, सुन्दर
झरने लताये ,बड़ा ही सुन्दर।"
एक ही क्षण में वह पर्वत एक लाख
योजन विस्तृत ओर शेष की तरह सौ कोटि योजन लंबा हो गया। उसकी ऊचाई पचास करोड़ योजन
की हो गई,
पचास कोटि योजन में फैल गया, इतना विशाल होने
पर भी वह पर्वत मन से उत्सुक सा होकर बढ़ने लगा। इससे गोलोक निवासी भय से विहल
होने लगे।
तब श्री हरि उठे और बोले -अरे
प्रच्छन्न रूप से क्यों बढ़ता जा रहा है यो कहकर श्री हरि ने उसे शांत किया। उसका
बढ़ना रुक गया उस उत्तम पर्वत को देखकर राधाजी बहुत प्रसन्न हुई।
श्रीगिरिराज गोवर्धन अवतरण कथा
जब भगवान पृथ्वी पर अवतार लेने वाले
थे तब भगवान ने गौलोक को नीचे पृथ्वी पर उतरा और गोवर्धन पर्वत ने भारतवर्ष से
पश्चिमी दिशा में शाल्मली द्वीप के भीतर द्रोणाचल की पत्नी के गर्भ से जन्म ग्रहण
किया।
एक समय मुनि श्रेष्ठ पुलस्त्य जी
तीर्थ यात्रा के लिए भूतल पर भ्रमण करने लगे उन्होंने द्रोणाचल के पुत्र श्यामवर्ण
वाले पर्वत गोवर्धन को देखा उन्होंने देखा कि उस पर्वत पर बड़ी शान्ति है। जब
उन्होंने गोवर्धन कि शोभा देखी तो उन्हें लगा कि यह तो मुमुक्षुओ के लिए मोक्ष
प्रद प्रतीत हो रहा है।
मुनि उसे प्राप्त करने के लिए
द्रोणाचल के समीप गए पुलस्त्य जी ने कहा - द्रोण तुम पर्वतों के स्वामी हो मै काशी
का निवासी हूँ। तुम अपने पुत्र गोवर्धन को मुझे दे दो काशी में साक्षात् विश्वनाथ
विराजमान है मै तुम्हारे पुत्र को वहाँ स्थापित करना चाहता हूँ उसके ऊपर रहकर मै
तपस्या करूँगा।
पुलस्त्य जी की बात सुनकर द्रोणाचल
पुत्र स्नेह में रोने लगे और बोले- मै पुत्र स्नेह से आकुल हूँ फिर भी आपके श्राप
के भय से मै इसे आपको देता हूँ। फिर पुत्र से बोले बेटा तुम मुनि के साथ जाओ।
गोवर्धन ने कहा - मुने मेरा शरीर आठ
योजन लंबा, दो योजन चौड़ा है ऐसी दशा में
आप मुझे किस प्रकार ले चलोगे।
पुलस्त्य जी ने कहा - बेटा तुम मेरे
हाथ पर बैठकर चलो जब तक काशी नहीं आ जाता तब तक मै तुम्हे ढोए चलूँगा।
गोवर्धन ने कहा - मुनि मेरी एक
प्रतिज्ञा है आप जहाँ कहि भी भूमि पर मुझे एक बार रख देगे वहाँ की भूमि से मै पुनः
उत्थान नहीं करूँगा।
पुलस्त्य जी बोले - में इस
शाल्मलद्वीप से लेकर कोसल देश तक तुम्हे कहीं नहीं रखूँगा यह मेरी प्रतिज्ञा
है।
इसके बाद पर्वत अपने पिता को प्रणाम
करने मुनि की हथेली पर सवार हो गए। पुलस्त्य मुनि चलने लगे और व्रज मंडल में आ
पहुँचे गोवर्धन पर्वत को अपनी पूर्व जन्म की बातो का स्मरण था व्रज में आते ही वे
सोचने लगे की यहाँ साक्षात् श्रीकृष्ण अवतार लेगे और सारी लीलाये करेंगे। अतः मुझे
यहाँ से अन्यत्र नहीं जाना चाहिये। यह यमुना नदी व्रज भूमि गोलोक से यहाँ आये है
और वे अपना भार बढ़ाने लगे।
उस समय मुनि बहुत थक गए थे,
उन्हें पहले कही गई बात याद भी नहीं रही। उन्होंने पर्वत को उतार कर
व्रज मंडल में रख दिया। थके हुए थे सो जल में स्नान किया। फिर गोवर्धन से कहा - अब
उठो ! अधिक भार से संपन्न होने के कारण जब वह दोनों हाथो से भी नहीं उठा। तब
उन्होंने अपने तेज से और बल से उठाने का उपक्रम किया। स्नेह से भी कहते रहे पर वह एक अंगुल भी टस के
मस न हुआ।
वे बोले - शीघ्र बताओ ! तुम्हारा
क्या प्रयोजन है।
गोवर्धन पर्वत बोला - मुनि इसमें
मेरा दोष नहीं है मैंने तो आपसे पहले ही कहा था अब में यहाँ से नहीं उठूँगा। यह उत्तर सुनकर मुनि क्रोध में जलने लगे और
उन्होंने गोवर्धन को श्राप दे दिया।
पुलस्त्य जी बोले - तू बड़ा ढीठ है,
इसलिए तू प्रतिदिन तिल-तिल क्षीण होता चला जायेगा।
यह कहकर पुलस्त्य जी काशी चले गए और
उसी दिन से गोवर्धन पर्वत प्रतिदिन तिल-तिल क्षीण होते चले जा रहे है।
जैसे यह गोलोक धाम में उत्सुकता
पूर्वक बढने लगे थे उसी तरह यहाँ भी बढ़े तो वह पृथ्वी को ढक देंगे यह सोचकर मुनि
ने उन्हें प्रतिदिन क्षीण होने का श्राप दे दिया।
जब तक इस भूतल पर भागीरथी गंगा और
गोवर्धन पर्वत है, तब तक कलिकाल का
प्रभाव नहीं बढ़ेगा ।
श्रीगिरिराज गोवर्धन कथा
गोवर्धन पूजा को अन्नकूट के रूप में
क्यों मनाया जाता है?
इंद्र का गर्व चूर करने के लिए श्री
गोवर्धन पूजा का आयोजन श्री कृष्ण ने गोकुलवासियों से करवाया था। यह आयोजन दीपावली
से अगले दिन शाम को होता है। इस दिन मंदिरों में अन्नकूट पूजन किया जाता है। ब्रज
के त्यौहारों में इस त्यौहार का विशेष महत्व है। इसकी शुरूआत द्वापर युग से मानी
जाती है। किंवदंती है कि उस समय लोग इंद्र देवता की पूजा करते थे। अनेकों प्रकार
के भोजन बनाकर तरह-तरह के पकवान व मिठाइयों का भोग लगाते थे।
यह आयोजन एक प्रकार का सामूहिक भोज
का आयोजन है। उस दिन अनेकों प्रकार के व्यंजन साबुत मूंग,
कढ़ी चावल, बाजरा तथा अनेकों प्रकार की
सब्जियां एक जगह मिल कर बनाई जाती थीं। इसे अन्नकूट कहा जाता था। मंदिरों में इसी
अन्नकूट को सभी नगरवासी इकट्ठा कर उसे प्रसाद के रूप में वितरित करते थे।
यह आयोजन इसलिए किया जाता था कि शरद
ऋतु के आगमन पर मेघ देवता देवराज इंद्र को पूजन कर प्रसन्न किया जाता कि वह ब्रज
में वर्षा करवाएं जिससे अन्न पैदा हो तथा ब्रजवासियों का भरण-पोषण हो सके। एक बार
भगवान श्री कृष्ण ग्वाल बालों के साथ गऊएं चराते हुए गोवर्धन पर्वत के पास पहुंचे
वह देखकर हैरान हो गए कि सैंकड़ों गोपियां छप्पन प्रकार के भोजन बनाकर बड़े उत्साह
से उत्सव मना रही थीं। भगवान श्री कृष्ण ने गोपियों से इस बारे पूछा। गोपियों ने
बतलाया कि ऐसा करने से इंद्र देवता प्रसन्न होंगे और ब्रज में वर्षा होगी जिसमें
अन्न पैदा होगा।
श्री कृष्ण ने गोपियों से कहा कि
इंद्र देवता में ऐसी क्या शक्ति है जो पानी बरसाता है। इससे ज्यादा तो शक्ति इस
गोवर्धन पर्वत में है। इसी कारण वर्षा होती है। हमें इंद्र देवता के स्थान पर इस
गोवर्धन पर्वत की पूजा करनी चाहिए।
ब्रजवासी भगवान श्री कृष्ण के बताए
अनुसार गोवर्धन की पूजा में जुट गए। सभी ब्रजवासी घर से अनेकों प्रकार के मिष्ठान
बना गोवर्धन पर्वत की तलहटी में पहुंच भगवान श्री कृष्ण द्वारा बताई विधि के
अनुसार गोवर्धन पर्वत की पूजा करने लगे।
भगवान श्री कृष्ण द्वारा किए इस
अनुष्ठान को देवराज इंद्र ने अपना अपमान समझा तथा क्रोधित होकर अहंकार में मेघों
को आदेश दिया कि वे ब्रज में मूसलाधार बारिश कर सभी कुछ तहस-नहस कर दिया।
मेघों ने देवराज इंद्र के आदेश का पालन
कर वैसा ही किया। ब्रज में मूसलाधार बारिश होने तथा सभी कुछ नष्ट होते देख ब्रज
वासी घबरा गए तथा श्री कृष्ण के पास पहुंच कर इंद्र देवता के कोप से रक्षा का
निवेदन करने लगे।
ब्रजवासियों की पुकार सुनकर भगवान
श्री कृष्ण बोले- सभी नगरवासी अपनी सभी गउओं सहित गोवर्धन पर्वत की शरण में चलो।
गोवर्धन पर्वत ही सबकी रक्षा करेंगे। सभी ब्रजवासी अपने पशु धन के साथ गोवर्धन
पर्वत की तलहटी में पहुंच गए। तभी भगवान कृष्ण ने गोवर्धन पर्वत को अपनी कनिष्ठा
उंगली पर उठाकर छाता सा तान दिया। सभी ब्रज वासी अपने पशुओं सहित उस पर्वत के नीचे
जमा हो गए। सात दिन तक मूसलाधार वर्षा होती रही। सभी ब्रजवासियों ने पर्वत की शरण
में अपना बचाव किया। भगवान श्री कृष्ण के सुदर्शन चक्र के कारण किसी भी ब्रज वासी
को कोई भी नुक्सान नहीं हुआ।
यह चमत्कार देखकर देवराज इंद्र
ब्रह्मा जी की शरण में गए तो ब्रह्मा जी ने उन्हें श्री कृष्ण की वास्तविकता बताई।
इंद्र देवता को अपनी भूल पर पश्चाताप हुआ। ब्रज गए तथा भगवान श्री कृष्ण के चरणों
में गिरकर क्षमा याचना करने लगे। सातवें दिन श्री कृष्ण ने गोवर्धन पर्वत को नीचे
रखा तथा ब्रजवासियों से कहा कि आज से इस दिन प्रत्येक ब्रजवासी गोवर्धन पर्वत की
प्रत्येक वर्ष अन्नकूट द्वारा पूजा-अर्चना कर पर्व मनाया करें। इस उत्सव को तभी से
अन्नकूट के नाम से मनाया जाने लगा।
इस प्रकार श्रीगिरिराज गोवर्धन की कथा सम्पूर्ण हुआ।
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