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मार्तण्ड भैरव स्तोत्रम्
श्रीकृष्ण स्तोत्र भीष्मककृत
राजा भीष्मक ने विष्णु का स्मरण
करते हुए हर्षपूर्वक स्वयं श्रीकृष्ण को सामने लाकर सामवेदोक्त स्तोत्र द्वारा उन
परमेश्वर की स्तुति करने लगे।
श्रीकृष्ण स्तोत्रम् भीष्मककृतं
भीष्मक उवाच
अद्य मे सफलं जन्म जीवितं च
सुजीवितम् ।
बभूव जन्मकोटीनां कर्ममूलनिकृन्तनम्
।।
भीष्मक ने कहा- प्रभो! आज मेरा जन्म
सफल,
जीवन सुजीवन और करोड़ों जन्मों के कर्मों का मूलोच्छेद हो गया;
स्वयं विधाता जगतां प्रदाता
सर्वसंपदाम् ।
स्वप्रे यत्पादपद्मं च द्रष्टुं नैव
क्षमः प्रभो ।।
तपसां फरदाता च संस्रष्टा प्राङ्गणे
मम ।
स्वात्मारामेषु पूर्णेषु
शुभप्रश्नमनीप्सितम् ।।
क्योंकि जो लोकों के विधाता,
संपूर्ण संपत्तियों के प्रदाता और तपस्याओं के फलदाता हैं; स्वप्न में भी जिनके चरणकमल का दर्शन होना दुर्लभ है; वे सृष्टिकर्ता स्वयं ब्रह्मा मेरे आँगन में विराजमान हैं।
योगीन्द्रैरपि सिद्धेन्द्रैः
सुरेन्द्रैश्च मुनीन्द्रकैः ।
ध्यानादृष्टश्च यो देवः स शिवः
प्राङ्गणे मम ।।
योगीन्द्र,
सिद्धेंद्र, सुरेंद्र और मुनीन्द्र ध्यान में
भी जिनका दर्शन नहीं कर पाते, वे देवाधिदेव शंकर मेरे आँगन
में पधारे हैं,
कालस्य कालो
भगवान्मृत्योर्मृत्युश्च यः प्रभुः ।
मृत्युंजयश्च सर्वेशोनराणां
दृष्टिगोचरः ।।
जो काल के काल,
मृत्यु की मृत्यु, मृत्युञ्जय और सर्वेश्वर
हैं; वे भगवान विष्णु मनुष्यों के दृष्टिगोचर हुए हैं।
यस्यमूर्ध्नां सहस्रेषु मूर्ध्नि
विश्वं चराचरम् ।
नास्त्यन्तः सर्ववेदेषु सोऽयं च मम
प्राङ्गणे ।।
जिनके हजारों फणों के मध्य एक फणपर सारा
चराचर विश्व स्थित है और संपूर्ण वेदों में जिनकी महिमा का अंत नहीं है;
वे ये भगवान अनन्त मेरे आँगन में वर्तमान हैं।
सर्वकामप्रणेयो हि सर्वाग्रे यस्य
पूजनम् ।
श्रेष्ठो देवगणानां च स गणेशो
ममाङ्गणे ।।
जो संपूर्ण कामनाओं को पूर्ण करने
वाले हैं,
सर्वप्रथम जिनकी पूजा होती है और जो देवगणों में श्रेष्ठ हैं;
वे गणेश मेरे आँगन में उपस्थित हैं।
मुनीनां वैष्णवानां च प्रवनो
ज्ञानिनां गुरुः ।
सनत्कुमारो भगवान्प्रत्यक्षः
प्राङ्गणे मम ।।
जो मुनियों और वैष्णवों में
सर्वश्रेष्ठ तथा ज्ञानियों के गुरु हैं; वे
भगवान् सनत्कुमार प्रत्यक्ष रूप से मेरे आँगन में विद्यमान हैं।
ब्रह्मपुत्राश्च पौत्राश्च
प्रपौत्राश्चापि वंशजाः ।
ते सर्वे मदगृहेऽद्यैव ज्वलन्तो
ब्रह्मतेजसा ।।
ब्रह्मा के जितने पुत्र,
पौत्र, प्रपौत्र और वंशज हैं; वे सभी ब्रह्मतेज से प्रज्वलित होते हुए आज मेरे घर अतिथि हुए हैं।
अहो कल्पान्तपर्यन्तं तीर्थीभूतो
ममाऽऽश्रमः ।
येषां पादोदकैस्तीर्थ विशुद्धं
तद्गृहे मम ।।
अहो! मेरा यह वासस्थान
कल्पान्तपर्यन्त तीर्थतुल्य हो गया। जिनके चरणोदक से तीर्थ पावन हो जाते हैं,
उन्हीं चरणों के स्पर्श से आज मेरा गृह विशुद्ध हो गया है,
पृथिव्यां यानि तीर्थानि तानि
तीर्थानि सागरे ।
सागरे यानि तीर्थानि विप्रपादेषु
तानि च ।।
क्योंकि भूतल पर जितने तीर्थ हैं,
वे सभी सागर में हैं और जितने सागर में तीर्थ हैं, वे सभी ब्राह्मण के चरणों में वास करते हैं।
ब्रह्मविष्णुशिवादीनां प्रकृतेश्च
परः प्रभुः ।
ध्यानासाध्यो दुराराध्यो योगिनामपि
निश्चितम् ।।
निर्गुणश्च निराकारो
भक्तानुग्रहविग्रहः ।
स एव चक्षुषो नॄणां साक्षाद्देवश्च
मद्गृहे ।।
जो प्रभु प्रकृति से परे हैं;
ब्रह्मा, विष्णु और शिव आदि देवों के लिए
ध्यान द्वारा असाध्य हैं; योगियों के लिए भी दुराराध्य,
निर्गुण, निराकार तथा भक्तानुग्रहमूर्ति हैं;
देवैर्ब्रह्मेशशेषैश्च ध्यातं
यत्पादपङ्कजम् ।
धनेशेन गणेशेन दिनेशेनापि दुर्लभम्
।।
ब्रह्मा,
शिव और शेष आदि देवगण जिनके चरणकमल का ध्यान करते हैं; जो कुबेर, गणेश और सूर्य के लिए भी दुर्लभ हैं;
इत्युक्त्वा भीष्मकः कृष्णं समानीय
स्वयं पुरः ।
तुष्टाव सामवेदोक्तस्तोत्रेण
परमेश्वरम् ।।
वे ही भगवान साक्षात रूप से मेरे घर
पधारकर मनुष्यों के नयन-गोचर हुए हैं। यों कहकर भीष्मक स्वयं श्रीकृष्ण को सामने
लाकर सामवेदोक्त स्तोत्र द्वारा उन परमेश्वर की स्तुति करने लगे।
भीष्मककृतं श्रीकृष्ण स्तोत्रम्
भीष्मक उवाच
सर्वान्तरात्मा सर्वेषां साक्षी
निर्लिप्त एव च ।
कर्मिणां कर्मणामेव कारणानां च
कारणम् ।।
भीष्मक बोले- भगवन! आप समस्त
प्राणियों के अंतरात्मा, सबके साक्षी,
निर्लिप्त, कर्मियों के कर्मों तथा कारणों के
कारण हैं।
केचिद्वदन्ति त्वामेकं ज्योतीरूपं
सनातनम् ।
केचिच्च परमात्मानं जीवो
यत्प्रतिबिम्बकः ।।
कोई-कोई आपका एकमात्र सनातन
ज्योतिरूप बतलाते हैं। कोई, जीव जिनका
प्रतिबिम्ब है, उन परमात्मा का स्वरूप कहते हैं।
केचित्प्राकृतिकं जीवं सगृणं
भ्रान्तबुद्धयः ।
केचिन्नित्यशरीरं च बुद्धा (धा) श्च
सूक्ष्मबुद्धयः ।।
कुछ भ्रान्तबुद्धि पुरुष आपको
प्राकृतिक सगुण जीव उद्घोषित करते हैं। कुछ सूक्ष्मबुद्धि वाले ज्ञानी आपको नित्य
शरीरधारी बतलाते हैं।
ज्योतिरभ्यन्तरे नित्यं देहरूपं
सनातनम् ।
कस्मात्तेजः प्रभवति साकारमीश्वरं
विना ।।
आप ज्योति के मध्य सनातन अविनाशी
देहरूप हैं; क्योंकि साकार ईश्वर के बिना
भला यह तेज कहाँ से उत्पन्न हो सकता है?
इति श्रीब्रह्मo महाo श्रीकृष्णजन्मखo उत्तo भीष्मककृतं श्रीकृष्ण स्तोत्रम् ।। १०७ ।।
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