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मार्तण्ड भैरव स्तोत्रम्
श्रीकृष्ण स्तोत्र बलिकृत
बलि ने जिस सामदेवोक्त अभीष्ट
स्तोत्र द्वारा परमेश्वर श्रीकृष्ण का स्तवन किया; इसे पूर्वकाल में ब्रह्मा ने सूर्य-ग्रहण के अवसर पर प्रशस्त पुण्यतम
सिद्धाश्रम में सनत्कुमार को प्रदान किया था। गौरी ने मन्दाकिनी के तट पर इसे गौतम
को बतलाया था। दयालु शंकर ने अपने भक्त शिष्य ब्रह्मा को इसका उपदेश किया था।
विरजा के तट पर श्रीकृष्ण ने इसे शिव को प्रदान किया था। पूर्वकाल में बुद्धिमान
सनत्कुमार ने इसे महर्षि भृगु को बतलाया था। बलि ने बाण को प्रदान किया ।
यह स्तोत्र महान पुण्यदायक है। जो मनुष्य
भलीभाँति स्नान से शुद्ध हो वस्त्र, भूषण
और चंदन आदि से गुरु का वरण और पूजन करके उनके मुख से इस स्तोत्र का उपदेश ग्रहण
कर नित्य पूजा के समय भक्तिपूर्वक इसका पाठ करेगा, वह अपने
करोड़ों जन्मों के संचित पाप से मुक्त हो जायेगा। इसमें तनिक भी संशय नहीं है। यह
स्तोत्र विपत्तियों का विनाशक, समस्त सम्पत्तियों का कारण,
दुःख शोक का निवारक, भयंकर भवसागर से उद्धार
करने वाला, गर्भवास का उच्छेदक, जरा
मृत्यु का हरण करने वाला, बन्धनों और रोगों का खण्डन करने
वाला तथा भक्तों के लिए श्रृंगार स्वरूप है। जो इस स्तोत्र का पाठ करता है,
उसने मानो समस्त तीर्थों में स्नान कर लिया, सभी
यज्ञों में दीक्षा ग्रहण कर ली, व्रतों का अनुष्ठान कर लिया
और सभी तपस्याएँ पूर्ण कर लीं। उसे निश्चय ही संपूर्ण दानों का सत्य फल प्राप्त हो
जाता ह। इस स्तोत्र का एक लाख पाठ करने से मनुष्यों को स्तोत्र सिद्धि मिल जाती
है। यदि स्तोत्र सिद्ध हो जाय तो उसे सारी सिद्धियाँ सुलभ हो जाती हैं। वह इस लोक
में देवतुल्य होकर अंत में श्रीहरि के पद को प्राप्त हो जाता है।
श्रीकृष्ण स्तोत्रं बलिकृतम्
बलिरुवाच
अदित्याः प्रार्थनेनैव मातुर्देव्या
व्रतेन च ।
पुरा वामनरूपेण त्वयाऽहं वञ्चितः
प्रभो ।।
संपद्रूपा महालक्ष्मीर्दत्ता भक्ताय
भक्तितः ।
शक्राय मत्तो भक्ताय भ्रात्रे
पुण्यवते ध्रुवम् ।।
बलि ने कहा- प्रभो! पूर्वकाल में
माता अदिति देवी की प्रार्थना तथा व्रत के फलस्वरूप आपने वामन रूप धारण करके मेरी
वञ्जना की थी और सम्पत्तिरूपिणी महालक्ष्मी को मुझसे छीनकर मेरे पुण्यवान भाई
इंद्र को,
जो आपके भक्त हैं, दिया था।
अधुना मम पुत्रोऽयं बाणः शंकरकिंकरः
।
आराच्च रक्षितः सोऽपि तेनैव
भक्तबन्धुना ।।
इस समय मेरा यह पुत्र बाण,
जो शंकर जी का किंकर है; जिसकी भक्तों के
बन्धु उन शंकर जी ने अपने पास रखकर रक्षा की है।
परिपुष्टश्च पार्वत्या यथा मात्रा
सुतस्तथा ।
गृहीतवांश्च तत्कन्यां बलेन युवतीं
सतीम् ।।
समुद्यतश्च तं हन्तुं कार्तिकेनापि
वारितः ।
आगतोऽसि पुनर्हन्तुं पौत्रस्य दमने
क्षमः ।।
माता पार्वती ने जिसका उसी भाँति
पालन पोषण किया है, जैसे माता अपने
पुत्र का पालन करती है, जैसे माता अपने पुत्र का पालन करती
है; उसी बाण की सती-साध्वी युवती कन्या को (अनिरुद्ध ने)
बलपूर्वक ग्रहण कर लिया है और वे बाण को भी मारने के लिए उद्यत थे; परंतु कार्तिकेय ने उसे बचा लिया है। फिर आप भी अपने पौत्र का दमन करने
में समर्थ बाण को मारने के लिए पधारे हैं।
सर्वात्मनश्च सर्वत्र समभावः श्रुतौ
श्रुतः ।
करोषि जगतां नाथ कथमेवं व्यतिक्रमः
।।
जगदीश्वर! श्रुति में तो ऐसा सुना
गया है कि आप सर्वात्मा का सर्वत्र समभाव रहता है; फिर ऐसा व्यतिक्रम आप क्यों कर रहे हैं?
त्वया च निहतो यो हि तस्य को
रक्षिता भुवि ।
सुदर्शनस्य तेजो हि सूर्यकोटिनिभं
परम् ।।
भला, जिसका वध आप करना चाहते हैं, उसकी इस भूतल पर कौन
रक्षा कर सकता है? सुदर्शन का तेज करोड़ों सूर्यों के समान
परमोत्कृष्ट है।
केषां सुराणामस्त्रेण तदेव च
निवारितम् ।
यथा सुदर्शनं चैवमस्त्राणां प्रवरं
वरम् ।।
भला, किन देवताओं के अस्त्र से उनका निवारण हो सकता है? जैसे
सुदर्शन अस्त्रों में सर्वश्रेष्ठ है।
तथा भवांश्च देवानां सर्वेषामीश्वरः
परः ।
यथा भवांस्तथा कृष्णो विधाता
वेधसामपि ।।
उसी प्रकार आप भी समस्त देवताओं के
परमेश्वर हैं। जैसे आप हैं; उसी तरह श्रीकृष्ण
भी ब्रह्मा के विधाता हैं।
विष्णुः सत्त्वगुणाधारः शिवः
सत्त्वाश्रयस्तथा ।
स्वयं विधाता रजसः सृष्टिकर्ता
पितामहः ।।
विष्णु सत्त्वगुण के आधार,
शिव सत्त्व के आश्रयस्थान और स्वयं सृष्टिकर्ता पितामह रजोगुण के
विधाता हैं।
कालाग्निरुद्रो
भगवान्विश्वचसंहारकारकः ।
तमसश्चाऽऽश्रयः सोऽपि रुद्राणां
प्रवरो महान् ।।
स एव शंकरांशश्चाप्यन्ये रुद्राश्च
तत्कलाः ।
भवांश्च निर्गुणस्तेषां प्रकृतेश्च
परस्तथा ।।
जो तमोगुण के आश्रय,
एकादश रुद्रों में सर्वश्रेष्ठ, विश्व के
संहारकर्ता एवं महान हैं; वे भगवान कालाग्नि रुद्र शंकर के
अंश हैं। इनके अतिरिक्त अन्य रुद्रगण शंकर जी की कलाएँ हैं। उन सबमें आप गुणरहित
तथा प्रकृति से परे हैं।
सर्वेषां परमात्मा वै प्रणा
विष्णुस्वरूपिणः ।
मानसं च स्वयं ब्रह्मा स्वयं ज्ञानात्मकः
शिवः ।।
आप सबके परमात्मा हैं। सभी
प्राणधारियों के प्राण विष्णु के स्वरूप हैं; स्वयं
ब्रह्मा मनरूप हैं और स्वयं शिव ज्ञानात्मक हैं।
प्रवरा सर्वशक्तीनां बुद्धिः
प्रकृतिरीश्वरी ।
स्वात्मनः प्रतिबिभ्बस्ते जीवः
सर्वेषु देहिषु ।।
समस्त शक्तियों में श्रेष्ठ ईश्वरी
प्रकृति बुद्धि है। समस्त देहधारियों में जो जीव है, वह आपके ही आत्मा का प्रतिबिम्ब है।
जीवः स्वकर्मणां भोगी स्वयं साक्षी
भवांस्तथा ।
सर्वे यान्ति त्वयि गते नरदेवे
यथाऽनुगाः ।।
जीव अपने कर्मों का भोक्ता है और
स्वयं आप उसके साक्षी हैं। आपके चले जाने पर सभी उसी प्रकार आपका अनुगमन करते हैं,
जैसे राजा के चलने पर उसके अनुगामी।
सद्यः पतति देहश्च
शवोऽस्पृश्यस्त्वया विना ।
बुद्धाः सन्तो न जानन्ति
वञ्चितास्तव मायया ।।
आपके निकल जाने पर शरीर तुरंत
धराशायी हो जाता है और शवरूप होकर अस्पृश्य बन जाता है;
परंतु आपकी माया से वञ्चित होने के कारण बुद्धिमान संतलोग इसे नहीं
जान पाते।
त्वां भजन्त्येव ये सन्तो मायामेतां
तरन्ति ते ।
त्रिगुणा प्रकृतिर्दुर्गा वैष्णवी च
सनातनी ।।
परा नारायणीशानी तव माया दुरत्यया ।
त्वदंशाः प्रतिविश्वेषु
ब्रह्मविष्णुशिवात्मकाः ।।
जो संत आपका भजन करते हैं;
वे ही इस माया से तर पाते हैं। त्रिगुणा प्रकृति, दुर्गा, वैष्णवी, सनातनी परा
नारायणी और ईशानी- ये सब आपकी माया के स्वरूप हैं। इनसे पार पाना अत्यंत कठिन है।
प्रत्येक विश्व में होने वाले ब्रह्मा, विष्णु और शिव आपके
ही अंश हैं।
सर्वेषामपि विश्वेषामाश्रयो यो
महान्विराट् ।
स सेते च जले योगाद्विश्वेशो गोकुले
यथा ।।
जैसे विश्वेश्वर श्रीकृष्ण गोकुल
में वास करते हैं; उसी तरह जो समस्त
लोकों के आश्रय हैं, वे महान विराट योगबल से जल में शयन करते
हैं।
स एव वासुर्भगवांस्तस्य देवो
भवान्परः ।
वासुदेव इति ख्यातः पुराविद्भिः
प्रकीर्तितः ।।
वे ही भगवान वासु हैं,
जिनके परम देवता आप हैं; इसी से ‘वासुदेव’ नाम से विख्यात हैं- ऐसा पुरातत्त्ववेत्ता
कहते हैं।
त्वमेव कलया सूर्यस्त्वमेव कलया शशी
।
कलया च हुताशश्च कलया पवनः स्वयम्
।।
कलया वरुणश्चैव कुबेरश्च यमस्तथा ।
कलया त्वं महेन्द्रश्च कलया धर्म एव
च ।।
त्वमेव कलया शेष ईशानो नैऋंतिस्तथा ।।
आप ही अपनी कला से सूर्य,
चंद्रमा, अग्नि, पवन,
वरुण, कुबेर, यम,
महेंद्र, धर्म, शेष,
ईशान तथ निर्ऋति के रूप में विराजमान हैं।
मुनयो मनवश्चैव ग्रहाश्च फलदायकः ।
कलाकलायाश्चांशेन सर्वे
जीवाश्चराचराः ।
त्वं ब्रह्म परमं ज्योतिर्ध्यायन्ते
योगिनः सदा ।।
मुनिसमुदाय,
मनुगण, फलदायक ग्रह और समस्त चराचर जीव आपकी
कला के कलांश से उत्पन्न हुए हैं। आप ही परम ज्योतिः स्वरूप ब्रह्म हैं। योगीलोग
आपका ही ध्यान करते हैं।
तं त्चाऽऽद्रियन्ते भक्तास्ते
ध्यायन्ते य तदन्तरे ।
आपके भक्तगण अपने अंतःकरण में आपका
ही आदर करते तथा ध्यान लगाते हैं। (ध्यान का प्रकार यों है-)
नवीननीरदश्यामं पीतकौशेयवाससम् ।
ईषद्धास्यप्रसन्नास्यं भक्तेशं
भक्तवत्सलम् ।
चन्दनोक्षितसर्वाङ्गं द्विभुजं
मुरलीधरम् ।।
जिनके शरीर का वर्ण नूतन जलधर के
समान श्याम है, पीताम्बर ही जिनका परिधान है,
जिनके प्रसन्नमुख पर मंद मुस्कान की छटा छायी हुई है, जो भक्तों के स्वामी तथा भक्तवत्सल हैं, जिनका
सर्वांग चंदन से अनुलिप्त है, जिनकी दो भुजाएँ हैं, जो मुरली धारण किए हुए हैं।
मयूरपिच्छचूडं च मालतीमाल्यभूषितम्
।
अमूल्यरत्ननिर्माणकेयूरवलयाविन्तम्
।।
मणिकुण्डलयुग्मेन गण्डस्थलविराजितम्
।
रत्नसाराङ्गलीयं च
क्वणन्मञ्जीररञ्जितम् ।।
जिनकी चूड़ा में मयूरपिच्छ शोभा दे
रहा है;
जो मालती की माला, अमूल्य रत्ननिर्मित बाजूबंद
और कंकण से विभूषित हैं मणियों के बने हुए दोनों कुण्डलों से जिनका गण्डस्थल
उद्भासित हो रहा है, जो रत्नों के सारभाग से बनी हुई अँगूठी
और बजती हुई करधनी से सुसज्जित हैं।
कोटिकन्दर्पलीलाभं शरत्कमललोचनम् ।
शरत्पूर्णैन्दुनिन्दास्यं
चन्द्रकोटिसमप्रभम् ।।
जिनकी आभा करोड़ों कामदेवों का
उपहास कर रही है, जिनके नेत्र शारदीय
कमल की शोभा को परिजात कर रहे हैं, जिनकी मुख-छबि
शरत्पूर्णिमा के चंद्रमा की निन्दा कर रही हैं और प्रभा करोड़ों चंद्रमाओं के समान
समुज्ज्वल है।
वीक्षितं सस्मिताभिश्च गोपीनां
कोटिकोटिभिः ।
वयस्यैः पार्षदैर्गोपैः सेवितं
श्वेतचामरैः ।।
करोड़ो-करोड़ो गोपियाँ मुस्कराती
हुई जिनकी ओर निहार रही हैं, समवस्यक
गोप-पार्षद श्वेत चँवर डुलाकर जिनकी सेवा कर रहे हैं।
गोपबालकवेषं च राधावक्षः
स्थलस्थितम् ।
ध्यानासाध्यं दुराराध्यं
ब्रह्मेशशेषवन्दितम् ।
सिन्द्धेन्द्रैश्च मुनीन्द्रैश्च
योगीन्द्रैः प्रणतं स्तुतम् ।।
जिनका वेष गोपबाल के सदृश है;
जो राधा के वक्षः स्थल पर स्थित एवं ध्यान द्वारा असाध्य और
दुराराध्य हैं; ब्रह्मा, शिव और शेष
जिनकी वन्दना करते हैं और सिद्धेन्द्र, मुनीन्द्र तथा
योगीन्द्र प्रणत होकर जिनका स्तवन करते हैं।
वेदानिर्वचनीयं च परं स्वेच्छामयं
विभुम् ।
स्थूलस्थूलतमं रूपं
सूक्ष्मात्सूक्ष्मतमं परम् ।।
सत्यं नित्यं प्रशस्तं च प्रकृतेः
परमीश्वरम् ।
निर्लिप्तं च निरीहं च भगवन्तं
सनातनम् ।।
जो वेदों द्वारा अनिर्वचनीय,
परस्वेच्छायम और सर्वव्यापक हैं एवं जिनका स्वरूप स्थूल से स्थूलतम
और सूक्ष्म से सूक्ष्मतम है; जो सत्य, नित्य,
प्रशस्त, प्रकृति से परे, ईश्वर, निर्लिप्त और निरीह हैं।
एवं ध्यात्वा च ते पूताः
स्निग्धदूर्वाक्षता जलम् ।
पद्मापद्मार्चिते पादपद्मे च
दातुमुत्सुकाः ।।
उन सनातन भगवान का इस प्रकार ध्यान
करके वे पवित्र हो जाते हैं और पद्मा द्वारा समर्चित चरणकमलों में कोमल दूर्वांकुर,
अक्षत तथा जल निवेदित करने के लिए उत्सुक हो उठते हैं।
वेदाःस्तोतुमशक्तास्त्वामशक्ता सा
सरस्वती ।
शेषः स्तोतुमशक्तश्च स्वयंभूः
शंभुरीश्वरः ।।
गणेशश्च दिनेशश्च महेन्द्रश्चन्द्र
एव च ।
स्तोतुं नालं धनेशश्च किमन्ये
जड्बुद्धयः ।।
गुणातीतमनीहं च किं स्तौमि निर्गुणं
परम् ।
अपण्डितोऽयमसुरो न सुरः
क्षन्तुमर्हसि ।।
भगवन! वेद,
सरस्वती, शेषनाग, ब्रह्मा,
शम्भू, गणेश, सूर्य,
चंद्रमा, महेंद्र और कुबेर- ये सभी आप
परमेश्वर का स्तवन करने में समर्थ नहीं हैं; फिर अन्य
जडबुद्धि जीवों की तो गणना ही क्या है। ऐसी दशा में मैं आप गुणातीत, निरीह निर्गुण परमेश्वर की क्या स्तुति कर सकता हूँ? नाथ! यह एक मूर्ख असुर है, सुर नहीं है; अतः आप इसे क्षमा करें।
इति श्रीब्रह्मo महाo श्रीकृष्णजन्मखo उत्तo नारदनाo बाणयुद्धे बलिकृतश्रीकृष्णम्तोत्रं नामैकोनविंशत्यधिकशततमोऽध्यायः ।। ११९ ।।
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