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कर्मकाण्ड

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श्रीकृष्ण के ११ नामों की व्याख्या

श्रीकृष्ण के ११ नामों की व्याख्या

भगवान् श्रीकृष्ण के अनंत नाम है। जिसके पठन व श्रवणमात्र से सारे पाप दूर हो जाता है और मनोवांक्षित की प्राप्ति होती है। श्रीब्रह्मवैवर्त पुराण के श्रीकृष्ण जन्म खण्ड (उत्तरार्द्ध) अध्याय १११ में परमेश्वर के ११ नाम और उनका व्याख्या किया गया है। 

श्रीकृष्ण के ११ नामों की व्याख्या

श्रीकृष्ण के ११ नाम

राम नारायणनन्त मुकुन्द मधुसूदन ।

कृष्ण केशव कंसारे हरे वैकुण्ठ वामन ।।

इत्येकादश नामानि पठेद्वा पाठयेदिति ।

जन्मकोटिसहस्राणां पातकादेव मुच्यते ।।

भगवान् श्रीकृष्ण के ११ नाम इस प्रकार है- राम, नारायण, अनन्त, मुकुन्द, मधुसूदन, कृष्ण, केशव, कंसारे, हरे, वैकुण्ठ, वामन ।

श्रीकृष्ण के ११ नामों की व्याख्या

श्रीकृष्ण के ११ नामों की व्याख्या करते हुए राधिका ने कहा- यशोदे! तुम्हारे ऐश्वर्यशाली पुत्र जो साक्षात् परमात्मा और ईश्वर हैं, उनके राम, नारायण, अनन्त, मुकुन्द, मधुसूदन, कृष्ण, केशव, कंसारे, हरे, वैकुण्ठ, वामन- इन ग्यारह नामों को जो पढ़ता अथवा कहलाता है, वह सहस्रों कोटि जन्मों के पापों से मुक्त हो जाता है।

राम नाम की व्याख्या

राशब्दो विश्ववचनो मश्चापीश्वरवाचकः ।

विश्वानामीश्वरो यो हि तेन रामः प्रकीर्तितः ।।

राशब्द विश्ववाची और ईश्वरवाचक है, इसलिए जो लोकों का ईश्वर है उसी कारण वह रामकहा जाता है।

रमते रमया सार्वं तेन रामं विदुर्बुधा ।  

रमाया रमणस्थानं रामं रामविदो विदुः ।।

वह रमा के साथ रमण करता है इसी कारण विद्वानलोग उसे रामकहते हैं। रमा का रमण स्थान होने के कारण राम-तत्त्ववेत्ता रामबतलाते हैं।

राश्चेति लक्ष्मीवचनो मश्चापीश्वरवाचकः ।

लक्ष्मीपतिं गतिं रामं प्रवदन्ति मनीषिणः ।।

रालक्ष्मीवाची और ईश्वरवाचक है; इसलिए मनीषीगण लक्ष्मीपति को रामकहते हैं।

नाम्नां सहस्रं दिव्यानां स्मरणे यत्फलं लभेत् ।

तत्फलं लभते नूनं रामोच्चारणमात्रतः ।।

सहस्रों दिव्य नामों के स्मरण से जो फल प्राप्त होता है, वह फल निश्चय ही रामशब्द के उच्चारणमात्र से मिल जाता है।

नारायण नाम की व्याख्या

सारूप्यमुक्तिवचनो सारेति च विदुर्बुधाः ।

यो देवोऽप्ययनं तस्य स च नारायणः स्मृतः ।।

नाराश्च कृतपापाश्चाप्ययनं गमनं स्मृतम् ।

यतो हि गमनं तेषां सोऽयं नारायणः स्मृतः ।।

विद्वानों का कथन है कि नारशब्द का अर्थ सारूप्य-मुक्ति है; उसका जो देवता अयनहै, उसे नारायणकहते हैं। किए हुए पाप को नारऔर गमन को अयनकहते हैं। उन पापों का जिससे गमन होता है, वही ये नारायणकहे जाते हैं।

सकृन्नारायणेत्युक्त्वा पुमान्कल्मशतत्रयम् ।

गङ्गादिसर्वतीर्थेषु स्नातो भवति निश्चितम् ।।

एक बार भी नारायणशब्द के उच्चारण से मनुष्य तीन सौ कल्पों तक गंगा आदि समस्त तीर्थों में स्नान के फल का भागी होता है।

नारं च मोक्षणं पुण्यमयनं ज्ञानमीप्सितम् ।

तयोर्ज्ञानं भवेद्यस्मात्सोऽयं नारायणः प्रभुः ।।

नारको पुण्य मोक्ष और अयनको अभीष्ट ज्ञान कहते हैं। उन दोनों का ज्ञान जिससे हो, वे ही ये प्रभु नारायणहैं।

अनन्त नाम की व्याख्या

नास्त्यन्तो यस्य वेदेषु पुराणेषु चतुर्षु च ।

शास्त्रेष्वन्येषु योगेषु तेनानन्तं विदुर्बुधाः ।।

जिसका चारों वेदों, पुराणों, शास्त्रों तथा अन्यान्य योगग्रन्थों में अंत नहीं मिलता; इसी कारण विद्वान लोग उसका नाम अनन्तबतलाते हैं।

मुकुन्द नाम की व्याख्या

मुकुमध्ययमानं च निर्वाणं मोक्षवाचकम् ।

तद्ददाति च यो देवो मुकुंदस्तेन कीर्तितः ।।

मुकुअध्यमान, निर्माण और मोक्षवाचक है; उसे जो देवता देता है, उसी कारण वह मुकुन्दकहा जाता है।

मुकुं भक्तिरसप्रेमवचनं वेदसंमतम् ।

यस्तं ददाति भक्तेभ्यो मुकंदस्तेन कीर्तितः ।।

मुकुवेदसम्मत भक्तिरसपूर्ण प्रेमयुक्त वचन को कहते हैं; उसे जो भक्तों को देता है वह मुकुन्दकहलाता है।

मधुसूदन नाम की व्याख्या

सूदनं मधुदैत्यस्य यस्मात्स मधुसूदनः ।

इति सन्तो वदन्तीशं वेदे भिन्नार्थमीप्सितम् ।।

चूँकि वे मधु दैत्य का हनन करने वाले हैं, इसलिए उनका एक नाम मधुसूदनहै। यों संतलोग वेद में विभिन्न अर्थ का प्रतिपादन करते हैं।

मधु क्लीबं च माध्वीके कृतकर्मशुभाशुभे ।

भक्तानां कर्मणां चैव सूदनं मधुसूदनः ।।

मधुनपुंसकलिंग तथा किए हुए शुभाशुभ कर्म और माध्यवीक (महुए की शराब) का वाचक है; अतः उसके तथा भक्तों के कर्मों के सूदन करने वाले को मधुसूदनकहते हैं।

परिणामाशुभं कर्मं भ्रान्तानां मधुरं मधु ।

करोति सूदनं यो हि स एव मधुसूदनः ।।

जो कर्म परिणाम में अशुभ और भ्रान्तों के लिए मधुर है उसे मधुकहते हैं, उसका जो सूदनकरता है; वही मधुसूदनहै।

कृष्ण नाम की व्याख्या

कृषिरुत्कृष्टवचनो णश्च सद्भक्तिवाचकः ।

अश्चापि दातृवचनः कृष्णं तेन विदुर्बुधाः ।।

कृषिउत्कृष्टवाची, ‘सद्भक्तिवाचक और दातृवाचक है; इसी से विद्वानलोग उन्हें कृष्णकहते हैं।

कृषिश्च परमानन्दे णश्च तद्दास्यकर्मणि ।

तयोर्दाता च यो देवस्तेन कृष्णः प्रकीर्तितः ।।

परमानन्द के अर्थ में कृषिऔर उनके दास्य कर्म में का प्रयोग होता है। उन दोनों के दाता जो देवता हैं, उन्हें कृष्णकहा जाता है।

कोटिजन्मार्जिते पापे कृषिःक्लेशे च वर्तते ।

भक्तानां णश्च निर्वाणे तेन कृष्णः प्रकीर्तितः ।।

भक्तों के कोटिजन्मार्जित पापों और क्लेशों में कृषिका तथा उनके नाश में का व्यवहार होता है; इसी कारण वे कृष्णकहे जाते हैं।

नाम्नां सहस्रं दिव्यानां त्रिरावृत्त्या चयत्फलम् ।

एकावृत्त्या तु कृष्णस्य तत्फलं लभते नरः ।।

सहस्र दिव्य नामों की तीन आवृत्ति करने से जो फल प्राप्त होता है; वह फल कृष्णनाम की एक आवृत्ति से ही मनुष्य को सुलभ हो जाता है।

कृष्णनाम्नः परं नाम न भूतं न भविष्यति ।

सर्वेभ्यश्च परं नाम कृष्णेति वैदिका विदुः ।।

वैदिकों का कथन है कि कृष्णनाम से बढ़कर दूसरा नाम न हुआ है, न होगा। कृष्णनाम से सभी नामों से परे है।

कृष्ण कृष्णोति हे गोपि यस्तं स्मरति नित्यशः ।

जलं भित्त्वा यथा पद्मं नरकादुद्धरेच्च सः ।।

हे गोपी! जो मनुष्य कृष्ण-कृष्णयों कहते हुए नित्य उनका स्मरण करता है; उसका उसी प्रकार नरक से उद्धार हो जाता है, जैसे कमल जल का भेदन करके ऊपर निकल आता है।

कृष्णेति मङ्गलं नाम यस्य वाचि प्रवर्तते ।

भस्मीभवन्ति सद्यस्तु महापातककोटयः ।।

कृष्णऐसा मंगल नाम जिसकी वाणी में वर्तमान रहता है, उसके करोड़ों महापातक तुरंत ही भस्म हो जाते हैं।

अश्वमेधसहस्रेभ्यः फलं कृष्णजपस्य च ।

वरं तेभ्यः पुनर्जन्म नातो भक्तपुनर्भवः ।।

कृष्णनाम-जप का फल सहस्रों अश्वमेध-यज्ञों के फल से भी श्रेष्ठ है; क्योंकि उनसे पुनर्जन्म की प्राप्ति होती है; परंतु नाम-जप से भक्त आवागमन से मुक्त हो जाता है।

सर्वेषामपि यज्ञानां लक्षाणि च व्रतानि च ।

तीर्थस्नानानि सर्वाणि तपांस्यनशनानि च ।।

वेदपाठसहस्राणि प्रादक्षिण्यं भुवः शतम् ।

कृष्णनामजपस्यास्य कलां नार्हन्ति षोडशीम् ।।

समस्त यज्ञ, लाखों व्रत तीर्थस्नान, सभी प्रकार के तप, उपवास, सहस्रों वेदपाठ, सैकड़ों बार पृथ्वी की प्रदक्षिणा- ये सभी इस कृष्णनाम’- जप की सोलहवीं कला की समानता नहीं कर सकते।

तेषां लोभा द्भवेत्स्वर्गफलं च सुचिरं नृणाम् ।

स्वर्कादवश्यं पुंसश्च जपकर्तुर्हरेः पदम् ।।

उन उपर्युक्त कर्मों के लोभ से मनुष्यों को चिरकाल के लिए स्वर्गरूप फल की प्राप्ति होती है और उस स्वर्ग से पतन होना निश्चित है; परंतु जपकर्ता पुरुष श्रीहरि के परम पद को प्राप्त कर लेता है।

केशव नाम की व्याख्या

के जले सर्वदेहेऽपि शयनं यस्य चाऽऽत्मनः ।

वदन्ति वैदिकाः सर्वे तं देवं केशवं परम् ।।

जल को कहते हैं; उस जल में तथा समस्त शरीरों में भी जो आत्मा शयन करता है; उस देव को सभी वैदिक लोक केशवकहते हैं।

कंसारे अथवा कंसारि नाम की व्याख्या

कंसश्च पातके विघ्ने रोगे शोके च दानवे ।

तेषामरिर्निहन्ता च स कंसारिः प्रकीर्तितः ।।

कंसशब्द का प्रयोग पातक, विघ्न, रोग, शोक और दानव के अर्थ में होता है, उनका जो अरिअर्थात हनन करने वाला है; वह कंसारिकहा जाता है।

हरि नाम की व्याख्या

रुद्ररूपेण संहर्ता विश्वानामपि नित्यशः ।

भक्तानां पातकानां च हरिस्तेन प्रकीर्तितः ।।

जो रुद्ररूप से नित्य विश्वों का तथा भक्तों के पातकों का संहार करते रहते हैं, इसी कारण वे हरिकहलाते हैं।

माधव नाम की व्याख्या

मा च ब्रह्मस्वरूपा या मूलप्रकृतिरीश्वरी ।

नारायणीति विख्याता विष्णुमाया सनातनी ।।

महालक्ष्मीस्वरूपा च वेदमाता सरस्वती ।

राधा वसुंधरा गङ्गा तासां स्वामी च माधवः ।।

जो ब्रह्मस्वरूपा मामूलप्रकृति, ईश्वरी, नारायणी, सनातनी विष्णुमाया, महालक्ष्मी स्वरूपा, वेदमाता सरस्वती, राधा, वसुन्धरा और गंगा नाम से विख्यात हैं, उनके स्वामी (धव) को माधवकहते हैं।

इस प्रकार श्रीब्रह्मवैवर्त पुराण के श्रीकृष्ण जन्म खण्ड (उत्तरार्द्ध) अध्याय १११ में श्रीकृष्ण के ११ नामों की व्याख्या किया गया है। 

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