जयदुर्गास्तोत्रम्
गोपकन्याओं द्वारा किया गया ‘सर्वमंगल’ नामक स्तोत्र (जिसे जयदुर्गास्तोत्रम् भी
कहा जाता है) शीघ्र ही समस्त विघ्नों का विनाश करने वाला और मनोवांछित वस्तु को
देने वाला है। इस स्तोत्र के पाठ मात्र से मनुष्य तत्काल ही संकटमुक्त एवं निर्भय
हो जाता है।
जयदुर्गास्तोत्रम्
विनियोगः -
ॐ अस्य श्रीजयदुर्गा महामन्त्रस्य,
मार्कण्डयो मुनिः, बृहती
छन्दः,
श्रीजयदुर्गा देवता, प्रणवो बीजं, स्वाहा शक्तिः ।
श्रीदुर्गा प्रसादसिद्ध्यर्थे जपे
विनियोगः ।
हृदयादिन्यासः -
ॐ दुर्गे हृदयाय नमः । ॐ दुर्गे
शिरसि स्वाहा ।
ॐ दुर्गायै शिखायै वषट् । ॐ
भूतरक्षिणी कवचाय हुं ।
ॐ दुर्गे दुर्गे रक्षिणि
नेत्रत्रयाय वौषट ।
ॐ दुर्गे दुर्गे रक्षिणि । अस्त्राय
फट् ।
ध्यानम् -
कालाश्चाभां कटाक्षैररिकुलभयदां
मौलिबद्धेन्दुरेखां
शङ्खं चक्रं कृपाणं त्रिशिखमपि
करैरुद्वहन्तीं त्रिनेत्राम् ।
सिंहस्कन्धाधिरूढां त्रिभुवनमखिलं
तेजसा पूरयन्तीं
ध्यायेद् दुर्गा जयाख्यां त्रिदशपरिवृतां
सेवितां सिद्धिकामैः ॥
इसका भावार्थ दुर्गा सप्तशतीअध्याय 4 में देखें।
प्रथममन्त्रः -
ॐ नमो दुर्गे-दुर्गे रक्षिणी स्वाहा
।
द्वितीयमन्त्रः -
ॐ क्रों क्लीं श्रीं हीं आं स्त्री
हूं जयदुर्गे रक्ष-रक्ष स्वाहा ।
अथ जयदुर्गास्तोत्रम्
सर्वमंगलास्तोत्रम्
ब्रह्मोवाच ।।
दुर्गे शिवेऽभये माये नारायणि
सनातनि ।
जये मे मङ्गलं देहि नमस्ते
सर्वमङ्गले ।। १ ।।
ब्रह्मा बोले–
दुर्गे! शिवे! अभये! माये! नारायणि! सनातनि! जये! मुझे मंगल प्रदान
करो। सर्वमंगले! तुम्हें मेरा नमस्कार है।
दैत्यनाशार्थवचनो दकारः परिकीर्तितः
।
उकारो विघ्ननाशार्थं वाचको वेदसंमतः
।। २ ।।
दुर्गा का ‘दकार’ दैत्यनाशरूपी अर्थ का वाचक कहा गया है। ‘उकार’ विघ्ननाशरूपी अर्थ का बोधक है। उसका यह अर्थ
वेद सम्मत है।
रेफो रोगघ्नवचनो गश्च पापघ्नवाचकः ।
भयशत्रुघ्नवचनश्चाकारः परिकीर्तितः
।। ३ ।।
‘रेफ’ रोगनाशक
अर्थ को प्रकट करता है। ‘गकार’ पापनाशक
अर्थ का वाचक है। और ‘आकार’ भय तथा
शत्रुओं के नाश का प्रतिपादक कहा गया है।
स्मृत्युक्ति स्मरणाद्यस्या एते नश्यन्ति
निश्चितम् ।
अतो दुर्गा हरेः शक्तिर्हरिणा
परिकीर्तिता ।। ४ ।।
जिनके चिन्तन,
स्मरण और कीर्तन से ये दैत्य आदि निश्चय ही नष्ट हो जाते हैं;
वे भगवती दुर्गा श्रीहरि की शक्ति कही गयी हैं। यह बात किसी और ने
नहीं, साक्षात श्रीहरि ने ही कही है।
विपत्तिवाचको दुर्गश्चाकारो
नाशवाचकः ।
दुर्गं नश्यति या नित्यं सा दुर्गा
परिकीर्तिता ।। ५ ।।
‘दुर्ग’ शब्द
विपत्ति का वाचक है और ‘आकार’ नाश का।
जो दुर्ग अर्थात् विपत्ति का नाश करने वाली हैं; वे देवी सदा
‘दुर्गा’ कही गयी हैं।
दुर्गो दैत्येन्द्रवचनोऽप्याकारो
नाशवाचकः ।
तं ननाश पुरा तेन बुधैर्दुर्गा
प्रकीर्तिता ।। ६ ।।
‘दुर्ग’ शब्द
दैत्यराज दुर्गमासुर का वाचक है और ‘आकार’ नाश अर्थ का बोधक है। पूर्वकाल में देवी ने उस दुर्गमासुर का नाश किया था;
इसलिये विद्वानों ने उनका नाम ‘दुर्गा’
रखा।
शश्च कल्याणवचन इकारोत्कृष्टवाचकः ।
समूहवाचकश्चैव वाकारो दातृवाचकः ।। ७
।।
शिवा शब्द का ‘शकार’ कल्याण अर्थ का, ‘इकार’
उत्कृष्ट एवं समूह अर्थ का तथा ‘वाकार’
दाता अर्थ का वाचक है।
श्रेयःसङ्घोत्कृष्टदात्री शिवा तेन
प्रकीर्तिता ।
शिवराशिर्मूर्त्तिमती शिवा तेन
प्रकीर्तिता ।। ८ ।।
वे देवी कल्याण समूह तथा उत्कृष्ट
वस्तु को देने वाली हैं; इसलिये ‘शिवा’ कही गयी हैं। वे शिव अर्थात कल्याण की
मूर्तिमती राशि हैं; इसलिये भी उन्हें ‘शिवा’ कहा गया है।
शिवो हि मोक्षवचनश्चाकारो दातृवाचकः
।
स्वयं निर्वाणदात्री या सा शिवा
परिकीर्तिता ।। ९ ।।
शिव’ शब्द मोक्ष का बोधक है तथा ‘आकार’ दाता का। वे देवी स्वयं ही मोक्ष देने वाली हैं; इसलिये
‘शिवा’ कही गयी हैं।
अभयो भयनाशोक्तश्चाकारो दातृवाचकः ।
प्रददात्यभयं सद्यः साऽभया
परिकीर्तिता ।। १० ।।
‘अभय’ का
अर्थ है भयनाश और ‘आकार’ का अर्थ है
दाता। वे तत्काल अभयदान करती हैं; इसलिये ‘अभया’ कहलाती हैं।
राज्यश्रीवचनो माश्च याश्च
प्रापणवाचकः ।
तां प्रापयति या सद्यः सा माया
परिकीर्तिता ।। ११ ।।
‘मा’ का
अर्थ है राजलक्ष्मी और ‘या’ का अर्थ है
प्राप्ति कराने वाला। जो शीघ्र ही राजलक्ष्मी की प्राप्ति कराती हैं; उन्हें ‘माया’ कहा गया है।
माश्च मोक्षार्थवचनो याश्च
प्रापणवाचकः ।
तं प्रापयति या नित्यं सा माया
परिकीर्तिता ।।१२।।
‘मा’ मोक्ष
अर्थ का और ‘या’ प्राप्ति अर्थ का वाचक
है। जो सदा मोक्ष की प्राप्ति कराती हैं, उनका नाम ‘माया’ है।
नारायणार्धाङ्गभूता तेन तुल्या च
तेजसा।
सदा तस्य शरीरस्था तेन नारायणी
स्मृता ।।१३ ।।
वे देवी भगवान नारायण आधार अंग हैं।
उन्हीं के समान तेजस्विनी हैं और उनके शरीर के भीतर निवास करती हैं;
इसलिये उन्हें ‘नारायणी’ कहते हैं।
निर्गुणस्य च नित्यस्य वाचकश्च
सनातनः ।
सदा नित्या निर्गुणा या कीर्तिता सा
सनातनी ।। १४ ।।
‘सनातन’ शब्द
नित्य और निर्गुण का वाचक है। जो देवी सदा निर्गुणा और नित्या हैं; उन्हें ‘सनातनी’ कहा गया है।
जयः कल्याणवचनो याकारो दातृवाचकः ।
जयं ददाति या नित्यं सा जया
परिकीर्तिता ।। १५ ।।
‘जय’ शब्द
कल्याण का वाचक है और ‘आकार’ दाता का।
जो देवी सदा जय देती हैं, उनका नाम ‘जया’
है।
सर्व मङ्गलशब्दश्च
संपूणैश्वर्यवाचकः ।
आकारो दातृवचनस्तद्दात्री
सर्वमङ्गला ।।१६ ।।
‘सर्वमंगल’ शब्द
सम्पूर्ण ऐश्वर्य का बोधक है और ‘आकार’ का अर्थ है देने वाला। ये देवी सम्पूर्ण ऐश्वर्य को देने वाली हैं;
इसलिये ‘सर्वमंगला’ कही
गयी हैं।
नामाष्टकमिदं सारं नामार्थसहसंयुतम्
।
नारायणेन यद्दत्तं ब्रह्मणे
नाभिपङ्कजे ।। १७ ।।
ये देवी के आठ नाम सारभूत हैं और यह
स्तोत्र उन नामों के अर्थ से युक्त है। भगवान नारायण के नाभिकमल पर बैठे हुए
ब्रह्मा को इसका उपदेश दिया था।
तस्मै दत्त्वा निद्रितश्च बभूव
जगतां पतिः ।
मधुकैटभौ दुर्गां तौ ब्रह्माणं
हन्तुमुद्यतौ ।। १८ ।।
स्तोत्रेणानेन स ब्रह्मा स्तुतिं
नत्वा चकार ह ।
साक्षात्स्तुता तदा दुर्गा ब्रह्मणे
कवचं ददौ ।। १९ ।।
श्रीकृष्णकवचं दिव्यं
सर्वरक्षणनामकम् ।
दत्त्वा तस्मै महामाया साऽन्तर्धानं
चकार ह ।। २० ।।
उपदेश देकर वे जगदीश्वर योगनिद्रा
का आश्रय ले सो गये। तदनन्तर जब मधु और कैटभ नामक दैत्य ब्रह्मा जी को मारने के
लिये उद्यत हुए तब ब्रह्मा जी ने इस स्तोत्र के द्वारा दुर्गा जी का स्तवन एवं नमन
किया। उनके द्वारा स्तुति की जाने पर साक्षात दुर्गा ने उन्हें ‘सर्वरक्षण’ नामक दिव्य श्रीकृष्ण कवच का उपदेश दिया।
कवच देकर महामाया अदृश्य हो गयीं।
स्तोत्रस्यैव प्रभावेण संप्राप्य
कवचं विधिः ।
वरं च कवचं प्राप्य निर्भयं प्राप
निश्चितम् ।। २१ ।।
उस स्तोत्र के ही प्रभाव से विधाता
को दिव्य कवच की प्राप्ति हुई। उस श्रेष्ठ कवच को पाकर निश्चय ही वे निर्भय हो
गये।
ब्रह्मा ददौ महेशाय स्तोत्रं च कवचं
वरम् ।
त्रिपुरस्य च संग्रामे सरथे पतिते
हरौ ।। २२ ।।
फिर ब्रह्मा ने महेश्वर को उस समय
स्तोत्र और कवच का उपदेश दिया, जबकि
त्रिपुरासुर के साथ युद्ध करते समय रथ सहित भगवान शंकर नीचे गिर गये थे।
स्तोत्रं कुर्वन्ति निद्रां च
संरक्ष्य कवचेन वै ।
निद्रानुग्रहतः सद्यः स्तोत्रस्यैव
प्रभावतः ।। २३ ।।
तत्राजगाम भगवान्वृषरूपी जनार्दनः ।
शक्त्या च दुर्गया सार्धं शंकरस्य
जयाय च ।। २४ ।।
उस कवच के द्वारा आत्मरक्षा करके
उन्होंने निद्रा की स्तुति की। फिर योगनिद्रा के अनुग्रह और स्तोत्र के प्रभाव से
वहाँ शीघ्र ही वृषभरूपधारी भगवान जनार्दन आये। उनके साथ शक्तिस्वरूपा दुर्गा भी
थीं। वे भगवान शंकर को विजय देने के लिये आये थे।
सरथं शंकरं मूर्ध्नि कृत्वा च
निर्भयं ददौ ।
अत्यूर्ध्वं प्रापयामास जया तस्मै
जयं ददौ ।। २५ ।।
उन्होंने रथ सहित शंकर को मस्तक पर
बिठाकर अभय दान दिया और उन्हें आकाश में बहुत ऊँचाई तक पहुँचा दिया। फिर जया ने
शिव को विजय दी।
ब्रह्मास्त्रं च गृहीत्वा स सनिद्रं
श्रीहरिं स्मरन् ।
स्तोत्रं च कवचं प्राप्य जघान
त्रिपुरं हरः ।। २६ ।।
उस समय ब्रह्मास्त्र हाथ में ले
योगनिद्रा सहित श्रीहरि का स्मरण करते हुए भगवान शंकर ने स्तोत्र और कवच पाकर
त्रिपुरासुर का वध किया था।
स्तोत्रेणानेन तां दुर्गां कृत्वा
गोपालिका स्तुतिम् ।
लेभिरे श्रीहरिं कान्तं
स्तोत्रस्यास्य प्रभावतः ।।२७ ।।
इसी स्तोत्र से दुर्गा का स्तवन
करके गोपकुमारियों ने श्रीहरि को प्राणवल्लभ के रूप में प्राप्त कर लिया। इस
स्तोत्र का ऐसा ही प्रभाव है।
गोपकन्या कृतं स्तोत्रं सर्वमङ्गलनामकम्
।
वांछितार्थप्रदं सद्यः
सर्वविघ्नविनाशनम् ।। २८ ।।
गोपकन्याओं द्वारा किया गया ‘सर्वमंगल’ नामक स्तोत्र शीघ्र ही समस्त विघ्नों का
विनाश करने वाला और मनोवांछित वस्तु को देने वाला है।
त्रिसन्ध्यं यः पठेन्नित्यं
भक्तियुक्तश्च मानवः।
शैवो वा वैष्णवो वाऽपि शाक्तो
दुर्गात्प्रमुच्यते ।।२९ ।।
शैव, वैष्णव अथवा शाक्त कोई भी क्यों न हो, जो मानव तीनों
संध्याओं के समय प्रतिदिन भक्तिभाव से इस स्तोत्र का पाठ करता है, वह संकट से मुक्त हो जाता है।
राजद्वारे श्मशाने च दावाग्नौ
प्राणसंकटे ।
हिंस्रजन्तुभयग्रस्तो मग्नः पोते
महार्णवे ।।३० ।।
शत्रुग्रस्ते च संग्रामे कारागारे
विपद्गते ।
गुरुशापे ब्रह्मशापे बन्धुभेदे च
दुस्तरे ।।३१ ।।
स्थानभ्रष्टे धनभ्रष्टे जातिभ्रष्टे
शुचाऽन्विते ।
पतिभेदे पुत्रभेदे खलसर्पविषान्विते
।।३२ ।।
राजा, श्मशान व अग्नि से प्राणों का
संकट अथवा हिंस्रजन्तु के भय से ग्रस्त हों, संग्राम में शत्रुओं से घिर गए हो या
बंदी बन गए हो, गुरुशाप, ब्रह्मशाप या बन्धुओं से मतभेद हो, अपने स्थान,धन व जाति
से निकल दिए गए हो, पति-पत्नी में,संतान से मतभेद हो अथवा भयंकर सर्पविष लगा हो
इत्यादि।
स्तोत्रस्मरणमात्रेण सद्यो मुच्येत
निर्भयः ।
वांछितं लभते सद्यः
सर्वैश्वर्यमनुत्तमम् ।। ३३ ।।
स्तोत्र के स्मरण मात्र से मनुष्य
तत्काल ही संकटमुक्त एवं निर्भय हो जाता है। साथ ही सम्पूर्ण उत्तम ऐश्वर्य एवं
मनोवांछित वस्तु को शीघ्र प्राप्त कर लेता है।
इह लोके हरेर्भक्तिं दृढां च सततं
स्मृतिम् ।
अन्ते दास्यं च लभते पार्वत्याश्च
प्रसादतः।।३४ ।।
पार्वती की कृपा से इहलोक में
श्रीहरि की सुदृढ़ भक्ति और निरन्तर स्मृति पाता है एवं अन्त में भगवान के
दास्यसुख को उपलब्ध करता है।
इति श्रीब्रह्मवैवर्ते गोपकन्याकृतं सर्वमंगलास्तोत्रम् अथवा जयदुर्गास्तोत्रं सम्पूर्णं ।।
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